इन्द्रियों का अपने-अपने विषय में आसक्ति और द्वेष का होना निश्चित है। उनके वश में नहीं आना चाहिए क्योंकि राग और द्वेष दोनों मुक्ति के बाधक शत्रु हैं। 3.34
कबीर साहब का दोहा है – चले थे हरि भजन को, ओटन लगे कपास।
आपके साथ कभी ऐसा हुआ है कि बहुत जरूरी काम कर रहे थे और नींद खींच ले गयी?
सोचा था आज कुछ नया सीखेंगे और तभी भूख लग गयी?
आज किताब से प्रेम करेंगे और मन सोशल मीडिया में कर गया?
शरीर के अपने निचले इरादे होते हैं और चेतना के अपने। कामुकता, नींद, खाना, आलस, शरीर को चाहिए ही चाहिए है। जब आपके ऊपर यह हावी हों तो पूछीए कर्म जरूरी है या शरीर का साथ।
कौन से कर्म की बात हो रही है – निष्काम कर्म। उस कर्म के मार्ग में अगर इंद्रियाँ बाधक बन रही हैं तो वह शत्रु समान हैं।
कृष्ण का रहे हैं –‘ये अपना काम करेंगी, बस तुम इनके वश में मत आ जाना। इन्हें करने दो इनका काम, तुम करो अपना काम। अपना काम याद रखो!’
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