“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” — उठो, जागो, और श्रेष्ठ जनों के पास जाकर बोध ग्रहण करो। ~ कठोपनिषद्
श्रेष्ठ जनों ने तो अपना सान्निध्य हमें देने में कोई चूक नहीं की, पर क्या हम सच्चे अर्थों में उनके निकट कभी जा पाए? जिन युगपुरुषों ने अपना जीवन हमें आज़ाद करने में बिताया, क्या हम सच में उनके संघर्ष की गहराई से परिचित हैं?
जिनके उत्थान के लिए वे आजीवन लड़े, अक्सर उन्हीं से उन्हें सबसे अधिक विरोध झेलना पड़ा।
प्रस्तुत पुस्तक में आचार्य प्रशांत इन महापुरुषों के जीवन के उस संघर्ष से हम सबको परिचित करा रहे हैं, जो आम जनमानस तक आज तक नहीं पहुँच पाया है। आज भले ही हमने उन्हें महापुरुष कहकर सम्मानित किया है लेकिन जीवित रहते हुए उन्होंने केवल बाहरी ताकतों से ही नहीं, बल्कि सालों से हमारे अपने समाज द्वारा आत्मसात की गई रूढ़ियों, अंधविश्वास और ग़ुलामी की वृत्ति से लड़ाई की ताकि हम बंधनमुक्त और गरिमापूर्ण जीवन की ओर अग्रसर हो सकें।
जिनके लिए उनका पूरा संघर्ष था, उनसे विरोध के बावजूद वे अपने चुनाव से डिगे नहीं और हमारी स्वतंत्रता के लिए न केवल अपने जीवन को न्योछावर कर दिया बल्कि हमें सच्चे अर्थपूर्ण जीवन के मायने भी बता दिए। यदि आप भी जीवन को केवल जीना नहीं, उसे अर्थपूर्ण बनाना चाहते हैं, तो यह पुस्तक आपके लिए है।
Index
CH1
स्वामी विवेकानंद का दर्दनाक संघर्ष, अपनों के ही विरुद्ध
CH2
स्वामी विवेकानंद माँसाहार क्यों करते थे? महापुरुषों से भी गलतियाँ होती हैं?
CH3
गुरु गोविंद सिंह: साधना, साहस, संघर्ष की प्रज्ज्वलित मशाल
CH4
मोहनदास करमचंद गाँधी: महात्मा, राष्ट्रपिता या शातिर राजनेता?