अष्टावक्र गीता वेदान्त का कालजयी ग्रंथ है, जिसमें मुमुक्षु राजा जनक और युवा ऋषि अष्टावक्र के बीच हुए गहन संवाद का वर्णन है। राजा जनक, जिन्हें बाहरी सुख-सुविधाओं से संपन्न होने के बावजूद एक अपूर्णता सताती है, ज्ञान और मुक्ति की मंशा से ऋषि अष्टावक्र के पास जाते हैं। ग्रंथ की शुरुआत ही ज्ञान और मुक्ति की चाह के साथ होती है।
इस भाग में बात सातवें अध्याय तक पहुँच गई है, और गहरी हो गई है। ऋषि अष्टावक्र राजा जनक को उनके बंधन पहचानने के लिए स्पष्टता दे रहे हैं। आज इस ग्रंथ की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है, क्योंकि मानवजाति के पास अनेक संसाधन और सूचना का भंडार उपलब्ध है। मनुष्य की गहरी इच्छा मुक्ति की ही है, इसलिए यह जानना अधिक आवश्यक हो जाता है कि क्या मुक्तिदायी है और क्या नया बंधन।
प्रस्तुत पुस्तक आचार्य प्रशांत द्वारा प्रकरण 7 से 9 पर दिए गए विस्तृत और सरल व्याख्यानों का संकलन है। प्रकरण 7 में राजा जनक घोषणा करते हैं कि वे मन और जगत के इस खेल से पूरी तरह अप्रभावित हैं, और ऋषि अष्टावक्र एक सच्चे गुरु की तरह उन्हें बंधन और उसकी निशानियों से अवगत कराते हुए सतर्क करते हैं।
अष्टावक्र गीता पर आचार्य प्रशांत की यह सरल, स्पष्ट और सटीक व्याख्या एक सेतु के समान है, जिसके माध्यम से आप इस गहन चर्चा को आसानी से समझ सकते हैं।