यूँ ही फिसल न जाए ज़िंदगी || आचार्य प्रशांत

Acharya Prashant

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यूँ ही फिसल न जाए ज़िंदगी || आचार्य प्रशांत

आचार्य प्रशांत: जितनी ज़िन्दगी जी चुके हैं, ये देखा है कैसे पलक झपकते बीती है? ग़ौर किया? अभी तो जवान थे आप, बस कुछ ही दिन पहले। अभी स्कूल में थे, कॉलेज में थे और अभी बच्चे थे आप, यूँही दौड़-भाग रहे थे मैदान पर, गलियों में, अभी-अभी। है न? और अचानक आप पाते हैं कि आप तीस के हैं, चालीस के हैं, पचास के हैं, साठ के हैं। ये जो समय बीता है, ये कैसे बीता है? ये ऐसे बीता है, चुटकी बजाते। ऐसी ही बीता है न? तो जो शेष है समय, वो भी कैसे बीतेगा? कैसे बीतेगा?

देखिए अभी पैदा हुए थे आप, बहुत पीछे की बात नहीं है वो। और अगर पैदा होने का क्षण बहुत पीछे की बात नहीं है, तो चिता पर लेटने का क्षण भी बहुत आगे की बात नहीं है, या है? देखिए अभी आप पैदा हुए थे, देखिए अभी अर्थी उठ रही है, देखिए अभी चिता को अग्नि दी जा रही है। बहुत आगे की बात है? सीमित है न समय? एकदम सीमित है।

तो क्या करना है? भूल मत करो। राख और मिट्टी को, खून और पानी को, हड्डी-माँस को आत्मा का दर्ज़ा मत दो। आत्मा अमर होगी, नहीं मिटती होगी, काया कितने दिन की मेहमान है? कल, बस कल, तुम नहीं रहोगे। इसी को अध्यात्म कहते हैं।

अध्यात्म क्या है? स्वयं को जानना ही अध्यात्म है, आत्मा को जानना नहीं। मन को, काया को, इस नश्वर अस्तित्व को ही जानना अध्यात्म है। जो इसको जान गया वो जानने वाले में स्थापित हो जाता है। आत्मा जानी नहीं जाती, आत्मस्थ हुआ जाता है। ये दो बहुत अलग-अलग बात हैं। आत्मज्ञ होना असम्भव है, आत्मस्थ होना सम्भव है। अध्यात्म पूरा यही है — जानना कि कल नहीं रहोगे।

छोटी-छोटी चालें, चालाकियाँ, छोटे लाभ, छोटी हानियाँ ये सब बड़े उलझाऊ होते हैं। इनमें उलझ जाओ, समय कैसे बीतेगा तुम्हें पता नहीं चलेगा। दिन, महीने, साल, दशक कहाँ फिसल गये, समझ ही नहीं पाओगे। एक सौ का नोट भी होता है तो थोड़ा तो ख़याल करते हो न कि ख़र्च कहाँ कर रहा हूँ? करते हो कि नहीं? ज़िन्दगी की क़ीमत सौ के नोट से भी कम है क्या कि उसका ख़याल ही नहीं करते कहाँ ख़र्च कर रहे हो? क्या किया आज तीन घंटे? क्यों किया? क्यों ख़र्च कर रहे हो अपना समय वहाँ जहाँ कर रहे हो? कोई कारण तो बताओ! जहाँ अपना समय रोज़ लगा रहे हो वहाँ क्यों लगा रहे हो? भाई तुम्हारे पास बस इतना सा ही समय है और उसे तुम रोज़ कहीं पर व्यय कर रहे हो, क्यों? क्यों?

बरसाती कीड़े का सा है आदमी का जीवन, ऐसे बीत जाता है। और हम इसी भ्रम में हैं कि अभी समय बहुत है हमारे पास। जब समय लगता है कि बहुत है, क़रीब-क़रीब यही भाव रहता है कि हम तो अभी चलेंगे। अहम् अपनेआप को आत्मा ही मानता है न, अहम् अपनेआप को सत्य ही मानता है, सत्य माने आत्मा। जब अपनेआप को आत्मा मानता है तो अपनेआप को अमर भी मानता है। तो भाव हमें यही रहता है कि हम अभी चलेंगे, अमर जैसे ही हैं। और जहाँ ये भाव आया कि हम अभी चलेंगे तहाँ तुम समय का सम्मान करना छोड़ देते हो। जहाँ ये भाव आया कि हम तो अभी चलेंगे, हम ही आत्मा हैं, हम ही अमर हैं, तहाँ तुम समय व्यर्थ करना शुरू कर देते हो।

याद रहे अगर कि एक ही पूँजी है और वो हाथों से फिसलती जा रही है तो कैसे वो सबकुछ कर पाओगे जो करते हो रोज़? दम नहीं घुटेगा? घिन नहीं आएगी अपने मिनट, अपने घंटे मूर्खताओं में बर्बाद करते हुए?

पन्द्रह साल हटा दो किशोरावस्था तक के। आख़िरी के भी दस साल हटा दो। कितने हटे? पच्चीस। और मान लो कि तुम्हारी उम्र, जितना तुम जियोगे, वो है कुल पचहत्तर। बहुत दिया, बहुत सारे लोग इतना चलेंगे नहीं। पर दिये! कितने दिये? पचहत्तर। पचहत्तर में से अभी ही कितने उड़ गये? पच्चीस। अब एक तिहाई उसमें से सोने के हटा दो। कितने उड़ गये? कुल पचास। ठीक? पचहत्तर में से हटा रहे हैं। पन्द्रह हटाये किशोरावस्था तक के, दस हटाये बुढ़ापे के, पच्चीस हटाये सोने के तो अब कुल कितने हट चुके हैं? पचास।

उसमें से दस क़रीब और हटा दो नित्य क्रियाओं के। ये जो सुबह उठते हो, फिर खाना खाने में समय लग रहा है, नाश्ते में समय लग रहा है, मुँह धो रहे हो, स्नान-शौच कर रहे हो। जी रहे हो तो कुछ कमाना भी पड़ेगा, उसमें भी कुछ तो न्यूनतम समय लगाओगे ही। ये वो समय है जो तुम्हारी मर्ज़ी से नहीं जा रहा, तुमसे छीना जा रहा है। सड़क पर समय लग रहा है, खड़े हुए हैं ट्रैफिक लाइट के सामने। वो कोई समय का सदुपयोग है? तो ऐसे भी क़रीब हटा दो दस-पन्द्रह साल। तो पचास में जोड़ दो पन्द्रह तो कितने हटे? पैंसठ। तो आदमी को कुल समय कितना मिलता है कुछ सृजनात्मक, सकारात्मक कर लेने के लिए कि जीवन सफल हो पाये, मंज़िल तक पहुँच पाये? कितना मिलता है?

श्रोतागण: दस साल।

आचार्य: दस साल मिलता है। वो भी तब जब पचहत्तर दिये हैं। पचहत्तर अगर दिये हों तो उसमें से दस साल मिलते हैं कुछ करने के लिए और दस साल तो तुम कब के गँवा आये! छोड़ो न! दस साल तो धुएँ में उड़ा दिये। हमें बिलकुल होश नहीं आता! बिलकुल होश नहीं आता!

देने वाले ने कुल दस साल दिये हैं होश के और ऊर्जा के कि कुछ कर सकते हो तो कर लो। होश किस चीज़ ने ढँक लिया? कभी कामवासना ने, कभी ईर्ष्या ने, कभी पैसे ने। और ऊर्जा कहाँ चली गयी? इन्हीं चीज़ों में। कभी दुकान चलाने में, कभी घरेलू पच-पच में, कभी औरतों के पीछे भागने में, कभी आदमी के पीछे भागने में। इतने लफड़े-पचड़े हैं, दस साल तो उसके लिए बहुत कम है न। हमने जो पैंसठ साल गिने थे उसमें लफड़ों के लिए साल गिने थे क्या अभी तक?

पचहत्तर में से अभी साल हमने कितने हटाये थे? पच्चीस सोने के, पन्द्रह बचपने के, दस बुढ़ापे के और पन्द्रह नित्य क्रियाओं के। उसमें अभी हमने प्रपंचों के साल तो हटाये ही नहीं थे, या हटाये थे? दो-दो, चार-चार घंटे 'डार्लिंग-डार्लिंग', वो तो अभी गिना ही नहीं था, कि गिना था? गिना था? और सप्ताहान्त आया है, तो वीकेंड पर दोस्तों के साथ चार-चार, छः-छः घंटे की शराब की महफ़िल और बकवास, गॉसिप् , वो तो अभी हमने गिना ही नहीं, कि गिना?

वो सब किसमें से जा रहा है? वो जो कुल दस साल बचे हैं। और वो सब करने के लिए दस साल तो बहुत कम है। उसमें तो हम पहले ही शायद दस से ज़्यादा साल निकाल चुके हैं। तो अब बचा क्या है हाथ में? झोली खाली! सोना कम कर नहीं सकते, बचपन में जो पन्द्रह गँवा दिये वो लौट कर ला नहीं पाओगे, नित्य क्रियाओं में समय लगेगा ही लगेगा, बुढ़ापे पर कोई बस नहीं। और जो कुल दस साल का शेष समय मिला था वो तो कब का उड़ा दिया धुएँ में। अब कमा किसके लिए रहे हो भाई! जीने का फ़ायदा क्या है, ये तो बता दो!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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