युद्ध का अर्थ क्या? || (2018)

Acharya Prashant

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युद्ध का अर्थ क्या? || (2018)

प्रश्नकर्ता: ये युद्ध क्या होता है? मतलब युद्ध क्यों होता है? इसमें सही कौन होता है? क्या जैसे पुराने योद्धा होते थे, तो इनको कहा जा सकता था कि इनके अंदर अहंकार होता था? ये किसलिए लड़ते थे?

आचार्य प्रशांत: ‘लड़ाई’ की परिभाषा समझो। तुम उधर को जा रहे हो जिधर तुम्हें जाना ही है, और उस रास्ते में कोई बाधा खड़ी है। उस बाधा को पार करने की प्रक्रिया को ‘युद्ध’ कहते हैं।

समझ में आई बात?

तुम्हें ऊपर चढ़ना है, सड़क तक जाना है, अब बीच में पहाड़ है, तो चढ़ाई को ‘युद्ध’ बोलेंगे – ये युद्ध की वास्तविक परिभाषा है। लेकिन युद्ध की परिभाषा वास्तविक हो, इसके लिए तुम्हें अपनी वास्तविक मंज़िल तो पता होनी चाहिए न, कि – “मैं कहाँ को जाने के लिए युद्ध कर रहा हूँ? मैं किधर को जाना चाहता हूँ, और रास्ते में बाधा पा रहा हूँ?”

अगर सही जगह जाना चाहते हो, और रास्ते में बाधा है, और फ़िर तुम युद्ध कर रहे हो, तो धर्मयुद्ध है। और अगर ग़लत जगह जाना चहते हो, और रास्ते में जो बाधा है उससे लड़े जा रहे हो, तो क्षद्मयुद्ध है।

धर्मयुद्ध तो होना ही चाहिए। लेकिन धर्मयुद्ध सिर्फ़ वही कर सकता है जिसे अपना भी पता है और अपनी नियति का भी, अपनी मंज़िल का भी। जब हमें अपना नहीं पता होता है, तो हम किसी भी मूर्खतापूर्ण जगह पहुँचने के लिए दुनिया से उलझ जाते हैं। वो बेकार का युद्ध है। वो अपनी भी ऊर्जा, और दूसरों की भी ऊर्जा और समय का क्षय है।

एक बार जान लो कि कहाँ पहुँचना ज़रूरी है, फिर उसके रास्ते में जो भी रुकावट आए उससे हार ना मानना – ये धर्मयुद्ध है।

तुम्हें पता है कि सुबह-सुबह खेल के मैदान पहुँचना ज़रूरी है, और तुम्हारा शरीर साथ नहीं दे रहा, और नींद है। अब वक़्त आ गया है धर्मयुद्ध का। हाँ इसमें धर्मयुद्ध है, क्योंकि कुछ है जो तुम्हें सत्कार्य से रोक रहा है। जो भी कुछ तुम्हें सही करने से रोके, उसके ख़िलाफ़ पूरे ही जूझ जाओ, यही धर्मयुद्ध है। और जो भी कोई तुम्हें सच की ओर ले जाता है, उसके सामने बिलकुल शरणागत हो जाओ, उसके सामने बिलकुल निमित्त हो जाओ, ये प्रेम है।

समर्पण और धर्मयुद्ध इसीलिए एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।

समर्पण का अर्थ है कि – “जब सही दिशा की ओर जा रहा होऊँगा तो हाथ-पाँव नहीं चलाऊँगा, क्योंकि सही की ओर तो जा ही रह हूँ न।” तब हाथ-पाँव चलाना विरोध की बात हो जाएगी। समर्पण का अर्थ है- “सत्य के सामने सदा झुका हुआ रहूँगा।” और धर्म युद्ध का अर्थ है- “जो सत्य का विरोध करेगा मैं उसका विरोध करूँगा।” इसीलिए जो समर्पित नहीं हो सकता वो धर्मयुद्ध भी नहीं कर सकता, और जो धर्मयोद्धा है वो निश्चित रूप से बहुत धार्मिक, बहुत समर्पित, बहुत आध्यात्मिक आदमी होगा।

जहाँ अहंकार है, वहाँ ना समर्पण हो सकता है, ना धर्मयुद्ध।

अहंकारी ना झुक सकता है और ना तलवार उठा पाता है, वो एक मध्यमवर्गीय ‘पिता’ और ‘पति’ होता है। ना उससे पूरी तरह झुका जाता है, और ना ही कभी उसमें इतनी आग उठती है कि वो शस्त्र उठा ले। वो एक अधकचरा, त्रिशंकु जीवन बिताता है। उसके लिए ना मंदिर है, ना रणक्षेत्र। ना तो वो जाकर देवता के सामने नतमस्तक हो पाएगा, और ना ही वो धर्मक्षेत्र में जाकर जान लड़ा पाएगा, वो दोनों में से कोई काम नहीं कर पाएगा। वो एक अधकचरा, गुनगुना, बीच का, मध्यमवर्गीय जीवन जिएगा।

और तुम देखना इन दोनों कामों को हमेशा एक साथ ही पाओगे। जो सिर झुकाना जानता है, उसकी तलवार में बहुत धार होती है, उससे बच के रहना। और जिसकी तलवार में धार है, भीतर-भीतर उसने सिर झुका रखा है। और जिसको तुम पाओ कि उसका सच्चाई के सामने सिर नहीं झुकता, उसको जान लेना कि इसको फूँक मारेंगे और ये उड़ जाएगा। इसमें कोई दम नहीं है, ये लड़ नहीं पाएगा। इसीलिए शिष्यों ने, या भक्तों ने जब लड़ाईयाँ लड़ी हैं, तो उनको हराना बहुत मुश्किल हो गया है।

इस्लाम के शुरू के दिन याद करो, चाहे सिक्खों के शुरू के दिन याद करो। उनकी तलवार में बड़ी धार थी, क्योंकि इनका सिर उनके गुरु के सामने, उनके पैग़म्बर के सामने झुका हुआ था।

जिसका सिर एक बार गुरु के सामने झुक गया, अब वो दुनिया के बस में नहीं आने का।

वो दुनिया का राजा हो जाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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