योजना, अकेलापन और बुद्धत्व || आचार्य प्रशांत (2017)

Acharya Prashant

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योजना, अकेलापन और बुद्धत्व || आचार्य प्रशांत (2017)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, जब अचानक मन के सामने कुछ आता है तो वह प्रतिक्रिया व्यक्त करता है — जो अच्छी भी हो सकती है व बुरी भी हो सकती है। किसी चीज़ की पुनरावृत्ति होने पर मन योजना बनाने लगता है कि — "कैसे होगा?"  

आचार्य प्रशांत: मन का तो उल्लू कटेगा न क्योंकि किसी चीज़ की कभी पुनरावृत्ति होती नहीं। आप ही वह नहीं हो जो पिछली घटना के समय थे। आप वह क्यों नहीं हो? क्योंकि पिछली घटना वाले को उससे पिछली घटना का अनुभव नहीं था। इस घटना वाले को इससे पिछली वाली घटना का अनुभव नहीं है। आप ही वह नहीं हो, तो दोहराव का क्या सवाल है? पर मन अपनेआप को यह दिलासा देना चाहता है कि — “भाई, अब जो होने जा रहा है न, मुझे उसका पूर्वानुभव है। नई चीज़ नहीं है, पुरानी है; डर मत। अज्ञात में प्रवेश नहीं हो रहा है, ज्ञात है, ज्ञात है।” तो फिर कहता है, "दोहराव ही है, भाई।"

यह वही है क्या? कैसा पता वही है? न ये वही है, न आप वही हो, न माहौल वही है। पल में ब्रह्मांड बदल गया, आप कह रहे हो, "दोहराव है।"  

प्र: इसमें मन को डर भी लगता है कि लक्ष्य (प्रश्नकर्ता एक खिलाड़ी हैं) हाँसिल हो भी पाएगा या नहीं।

आचार्य: तो सीधे रहो न। डरे हुए हो, उसके कारण सारे खेल चल रहे हैं। पहला राउंड तो वह (प्रतिद्वन्द्वी) वैसे ही जीत गया। सुन ज़ू की किताब है — “आर्ट ऑफ वार”। उसमें वह जो लड़ने के तरीक़े बताता है, उसमें से यह एक है कि - सबसे बढ़िया जीत वह है जो बिना लड़े हाँसिल हो जाए। प्रतिपक्षी को ऐसा आक्रांत कर दो, उसके ज़हन पर ऐसे छा जाओ कि वह मैदान में आने से पहले ही ख़त्म हो जाए, दस्त लग जाएँ उसको। मैदान पर तो बाद में उतरा, हार वह पहले ही गया।

पढ़िएगा, अच्छी है।

पर उसका भी बड़ा दुरुपयोग हुआ है। ये जितने महत्वाकांक्षी लोग हैं, सब उसको इस्तेमाल करते हैं दुनिया में फ़तह हाँसिल करने के लिए। आज से क़रीब बारह साल पहले मैं अपने छात्रों को वह किताब पढ़ाता भी था, फिर छोड़ दिया। किताब अच्छी है। जब लाओ त्सू आ जाते हैं, तब सुन ज़ू छूट जाता है।

प्र: आचार्य जी, अकेलापन महसूस होता है। ऐसा क्यों लगता है कि उसकी कमी कोई आकर के पूरी कर देगा? मन ऐसा क्यों कहता है कि किसी से बात कर लो तो अकेलापन मिट जाएगा?

आचार्य: यह दोनों एक ही बात हैं; कोई किसी का कारण नहीं है। तुम्हें बहुत सारे लोग दिखाई देते हैं, इसलिए तुम में उम्मीद जगती है कि कोई आकर पूरा कर देगा। तुम्हें विकल्प, सम्भावनाएँ दिखाई देती हैं कि कोई आएगा और कमी पूरी कर सकता है, इसीलिए अकेलापन लगता है। और यह कहना भी ठीक है कि अकेलापन लगता है, इसीलिए तो दूसरे की याद आती है। दोनों एक बात हैं; इनमें से कोई किसी का कारण नहीं है।

यह पूछो कि — "ये दोनों ही बातें क्यों हैं?"; यह मत पूछो कि — "इनमें से एक बात है तो दूसरी बात क्यों है?" वह व्यर्थ का सवाल है। पूछो कि — "यह दोनों ही बातें क्यों हैं?"

प्र: अकेलापन क्यों है?

आचार्य: हाँ, अकेलापन क्यों है? "दूसरे की तलाश ही क्यों है? यह क्यों?" यह पूछो। वह ज़रूरी है।

पैदा हुए हो इसलिए। बच्चे की हालत समझते हो जब वह पैदा होता है? नन्हा-सा है और चारों तरफ क्या है उसके? अति विशाल संसार — वस्तुओं से, व्यक्तियों से, आवाजों से, प्रकाश से, दृश्यों से भरा हुआ। तो यह तो जन्म लेते ही सज़ा मिलनी है। क्या? अकेलापन, अधूरापन।

प्र: लेकिन वह समझ तो पाता नहीं है।

आचार्य: नहीं, बेकार ही रोता है! बिना समझे ही रोता है! खुश होगा तो रोएगा? (सामने बैठे एक श्रोता की ओर इंगित करते हुए) यह ख़ुश होता था जब तो रोना शुरू कर देता था? कुछ तो उसे दु:ख लगता है तभी तो वह रोता है। कितना भी बड़ा बच्चा हो — एक घंटे का,  एक महीने का, एक साल का — यदि रो रहा है तो क्या पक्की बात है? दु:ख है। दु:ख है तभी तो रोता है। पैदा होते ही रोता है। जब वह शांत होता है तो वह उसके चेहरे पर दिख जाता है न। माँ कहती है — "वह शांत पड़ा हुआ है।" जब वह ख़ुश होता है तब भी दिख जाता है न, दाँत अभी नहीं हैं लेकिन मुस्कुरा देता है। बहुत छोटा बच्चा होता है, वह भी मुस्कुराना जानता है। अगर शांत हैं तो आप मानने को तैयार हो जाएँगे कि अभी यह सुखी है। तो जब रो रहा है तो मानने को क्यों नहीं तैयार हो कि अभी दुःखी है? रो रहा है, तो कुछ दु:ख होगा; तभी रोया है न। पैदा होते ही चिंघाड़ मारता है - "यह क्या हो गया?"

आप उसकी वेदना समझिए।

अचानक क्या-क्या उसके ऊपर बरस पड़ा — आवाज़ें, प्रकाश (गर्भ में अंधेरा था), लोग। "यह क्या हो गया?" आप अपनी ओर से लाड़ करते हैं, उसके लिए वह दहाड़ होता है। उसका कलेजा दहल जाता है कि - "यह हो क्या रहा है मेरे साथ।" ऐसे ही जैसे एकदम मौन हो, और अचानक से कर्कश आवाज़ आने लगे। और उसे अभी कोई पूर्व अनुभव भी नहीं है शोर का, उसके लिए तो एक झटका है, बहुत बड़ा झटका। आदमी उस झटके से जीवन भर नहीं उबर पाता।

जीवन भर हम पैदा होने की यंत्रणा से ही उबर नहीं पाते —"हो क्या गया? पैदा कैसे हो गए? कहाँ आ गए और क्यों आ गए?" कोई है जिसको संसार ज़रा भी अजनबी न लगता हो?

कल वहाँ छुपे हुए थे, नदी के पास, ज़रा दो-चार भूत की आवाज़ें निकाल दी, यह पच्चीस-तीस वर्ष का नवयुवक पलट कर भागा। जबकि इसको पता है कि इसी के ही आसपास अपने ही पंद्रह लोग मौजूद हैं। कोई है जिसे संसार अजनबी न लगता हो? क्या उसको वहाँ पर ज्ञात का ख़ौफ़ था? किस का ख़ौफ़ था? अज्ञात का — वही बच्चे वाली हालत — "मैं आ कहाँ गया? यहाँ बहुत कुछ है जो निपट अनजाना है।" वही डर अभी तक नहीं गया, किसी से नहीं गया।

आप दुनिया को कितना भी जान लो, यह संभावना हमेशा है कि दुनिया में से ऐसा कुछ उछलकर सामने आ जाएगा जिसके लिए आप तैयार बिलकुल नहीं थे। यही तो है जन्म लेने का दु:ख।

आप पूरी तरह कभी जान नहीं सकते।

और मन ऐसा है जिसको जब तक परिपूर्ण बोध न हो जाए, उसे चैन नहीं आने का। वह परिपूर्ण बोध हाँसिल कैसे करना चाहता है? इंद्रियों से। ऐसा हो नहीं पाता, क्योंकि तुम बहुत छोटे हो और ब्रह्मांड बहुत बड़ा। तुम्हें अनंत जन्म मिल जाएँ तो भी तुम चप्पे-चप्पे को, कोने-कोने को जान नहीं पाओगे। नहीं जान पाओगे तो क्या बना रहेगा? डर बना रहेगा — "अरे, पता नहीं क्या सामने आ जाए।"

अब मैं सियार की आवाज़ निकाल रहा हूँ — वह भी बड़ी घटिया आवाज़ निकाल रहा हूँ, उस सियार की कोई मुर्दा सियार भी वैसी आवाज़ न निकाले — और यह उस आवाज़ से दहल गया, भाग लिया पीछे को। मज़ेदार बात बताऊँ, उसकी जगह मैं होता तो शायद मैं भी लड़खड़ाता, क्योंकि जीव तो सब हैं, देह तो सबके साथ है।

कोई नहीं होगा जिसके लिए कोई ऐसी स्थिति न हो जिसमें उसका दिल धड़क न जाए।

यह पैदा होने का दंड है।

प्र: बुद्ध जब अंगुलिमाल के पास चले जाते हैं बिना डर के और बिना मृत्यु के भय के, तो वह क्या था?

आचार्य: सिद्धार्थ तब भी डरा था, बुद्ध नहीं डरे थे।

बुद्ध की ख़ासियत ही यही है कि सिद्धार्थ उनके सामने अब अदब से पेश आता है, तमीज़ से पेश आता है। सिद्धार्थ अब उनका अनुगामी हुआ, चेला हुआ। पीछे खड़ा है, और पीछे अपना डरता रहे। क्या करना है, पीछे वाले को पूछता कौन है? पीछे वाली की हैसियत क्या है? पीछे वाला है ही नहीं। और डर भी, जो पीछे खड़ा है, उसका ज़रा कम हो जाता है, क्योंकि आगे जो खड़ा है वह तो डर ही नहीं रहा है — वह तो बुद्ध है।

यह बहुत गूढ़ प्रश्न है कि - अंगुलिमाल के सामने बुद्ध का दिल धड़का था कि नहीं धड़का था? यह बिलकुल वैसा ही प्रश्न है जब पूछते हो कि - कुत्ते में बुद्ध स्वभाव होता है कि नहीं? होता है और नहीं भी होता — मूक। वैसे ही पूछोगे कि — अंगुलिमाल के सामने बुद्ध डरे थे कि नहीं डरे थे? — तो बड़ा मुश्किल है जवाब देना — मूक। वह निर्भर इसपर करता है कि तुम बुद्ध को क्या समझ रहे हो। वह निर्भर इसपर करता है कि प्रश्न पूछने वाला कौन है।

कृष्ण रत होते थे गोपियों के साथ। क्या 'कृष्ण' रत हो जाते थे? आत्मा तो अरत रहती है। या कृष्ण रत होते ही नहीं थे? बड़ा गूढ़ प्रश्न है। न 'हाँ' कह सकते हैं, न 'ना' कह सकते हैं; 'हाँ-ना' के आयाम से ऊपर का उत्तर है इसका। प्रश्न तुमने इस आयाम का पूछा है, उत्तर उस आयाम में है।

कृष्ण आलिंगनबद्ध हैं किसी गोपी के साथ, यह दैहिक मिलन है कि नहीं है? बड़ा मुश्किल है कह पाना, क्योंकि देह-से-देह तो मिल रही है, और देह का जो पूरा रसायन-शास्त्र है, वह भी अपनी गति कर रहा है। पर फिर भी क्या कृष्ण मिल गए किसी से? आत्मा तो असंग होती है; वह तो किसी से मिल ही नहीं सकती।

क्या कृष्ण मिले किसी से? बड़ा मुश्किल है कहना। मिले भी और नहीं भी!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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