‘योग’ का संबंध मन से है

Acharya Prashant

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‘योग’ का संबंध मन से है
गुरु लोग और बड़े-बड़े पदाधिकारी भारत में और दुनिया भर से योग दिवस को अपना समर्थन दर्शाते हैं। लोग शारीरिक मुद्राओं में अपनी तस्वीरें डालते हैं — एक योगा मैट होता है, उसपर योगा करते हुए कहते हैं, "Celebrating Yoga Day!" लेकिन योग का संबंध व्यायाम और कसरत से नहीं, बल्कि मन से है। योग मन की बात है — क्योंकि मन परेशान है। और योग वास्तव में क्या है — यह जानना है, तो भगवद्गीता की ओर जाना ही पड़ेगा। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमस्ते। आज योग दिवस है, तो देश-दुनिया के जितने भी समाचार हैं, हर जगह पर योग को लेकर ही चर्चा हो रही है। तो मैं काफ़ी चीज़ें पढ़ रहा था, तो वहाँ पर एक चीज़ मुझे बार-बार पढ़ने को मिल रही थी, जहाँ पर लोग कह रहे थे कि योग जो है, वो भारत का सबसे बड़ा योगदान है पूरे विश्व के लिए — इंडियाज़ बिगेस्ट कंट्रीब्यूशन टू द वर्ल्ड इज़ योग।

अब ये पढ़ते ही मेरे मन में सबसे पहला सवाल ये आ रहा था, कि ठीक है योग दिवस है, लोग थोड़ा भावनाओं में बहकर बहुत बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं, पर मैं आपसे पूछना चाहता हूँ — क्या सच में ऐसा है?

आचार्य प्रशांत: नहीं ऐसा नहीं है। योग विश्व को भारत का ना सबसे बड़ा योगदान है, ना सबसे बड़ा निर्यात है। लेकिन साथ ही साथ ये बात पूरी तरह से गलत भी नहीं है अगर हम योग का सही अर्थ समझ लें। जब मैं कह रहा हूँ कि "जो भारत का सबसे बड़ा योगदान है विश्व को योग नहीं है," तो मैं उस योग की बात कर रहा हूँ जिसे आजकल "योग" माना जाता है। और जिसके लिए "योग दिवस" कल मनाया जाएगा।

कल योग दिवस किस योग के उत्सव में, उपलक्ष्य में मनाया जाएगा? आप पाएँगे कि लोग शारीरिक मुद्राओं में अपनी तस्वीरें डाल रहे हैं। गुरु लोग और बड़े-बड़े पदाधिकारी — राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री लोग भारत में भी दुनिया भर से योगा दिवस को अपना समर्थन दर्शा रहे हैं। किस तरह से? कि बैठ गए हैं पालथी मारकर, कोई आसन, कोई मुद्रा। तो ये जो शारीरिक क्रियाएँ, इनको योग माना गया है। और जो आप योग दिवस मनाते हो, वो वास्तव में इन शारीरिक क्रियाओं का उत्सव है।

आप शारीरिक क्रियाओं को महिमामंडित करने के लिए, गौरवान्वित करने के लिए योगा दिवस मनाते हो। ठीक है ना? बिल्कुल ज़मीनी बात है। ये बात इसी से प्रमाणित हो जाती है, कि योग दिवस पर आप यही तो करते हो कि एक व्यक्ति बैठ जाएगा, और उसके पीछे 10, 20 या 50 और बैठ जाएँगे। और वो सब के सब क्या कर रहे हैं? एक योगा मैट है, उस योगा मैट पर योगा कर रहे हैं। ठीक है, और कहा जाएगा कि "सेलिब्रेटिंग योगा डे।"

तो अगर ये "योगा" है, तो योग भारत का ना तो बड़ा योगदान है और ना बड़ा निर्यात। निर्यात व्यापार के अर्थ में नहीं, जब कहा जाता है कि इंडीयाज़ बिगेस्ट एक्सपोर्ट टू द वर्ल्ड, माने ऐसी चीज़ जो भारत से गई और विश्व के काम आई — तो योग उस अर्थ में भारत का सबसे बड़ा योगदान नहीं है। लेकिन अगर योग का असली अर्थ समझो — तो है भी।

अब बात यहाँ से थोड़ी गूढ़ होगी लेकिन साथ ही साथ मज़ेदार होगी। जहाँ समझना है वहाँ पूछ लेना मुझे रोक देना, नहीं तो मैं धाराप्रवाह बोलता जाऊँगा।

प्रश्नकर्ता: जी।

आचार्य प्रशांत: देखो, वेदों से उठते छ: दर्शन हैं। और चूँकि वो सब वेदों को मानते हैं, इसलिए उनको आस्तिक दर्शन कहते हैं। उनमें वेदांत प्रमुख है। वेदांत क्यों प्रमुख हैं? क्योंकि जो बाक़ी के पाँच दर्शन हैं, वो वेदों के प्रति बस आस्था रखते हैं। और वेदांत — वेदों का अंग ही है। तो वेदों का जो केंद्रीय दर्शन है, वो सबसे ज़्यादा स्पष्टता से, सबसे ज़्यादा निकटता से, सबसे ज़्यादा केंद्रीयता से, मार्मिकता से वो वेदांत में परिलक्षित होता है।

वेदांत जैसे वेदों का हृदय है, ठीक है। अब आपका कपड़ा हो सकता है और आपका हृदय हो सकता है — इन दोनों में आपके लिए ज़्यादा आवश्यक क्या है? और आपके ज़्यादा निकट क्या है? आपका हृदय न? तो वेदों के जो सबसे निकट है, वो वेदांत है। बाक़ी जितने भी हमारे आस्तिक दर्शन हैं, वे भी वेदों के प्रति सम्मान रखते हैं, और वेदों को स्वीकार करते हैं पर वेदांत के पीछे आते हैं।

तो योग का भी वास्तविक अर्थ क्या है — इसको आपको वेदांत के प्रकाश में ही समझना पड़ेगा।

योग का वास्तविक अर्थ है मन का आत्मा से मिलन।

ठीक है। आत्मा क्या है? मन की शुद्धतम अवस्था को आत्मा कहते हैं। और उसी शुद्धतम अवस्था को उच्चतम भी माना गया है। जो उच्चतम है, वो तुम्हारे भीतर है। तुम्हारा ही मन यदि साफ़ हो जाए तो उससे ऊँची चीज़ हो नहीं सकती। तो तुम पूछ रहे थे ना — भारत का सबसे बड़ा योगदान क्या है विश्व को? वो आत्मा है। लोगों को आत्मा मिली है। और चूँकि आत्मा भारत का सबसे बड़ा योगदान है विश्व को, इसीलिए मन का आत्मा से मिलन, जिसको योग कहते हैं और जब वो मिलन नहीं हो पाता, तो उसी को फिर वियोग कहते हैं। तो मन का आत्मा से मिलन भी बहुत बड़ी बात हो गई। इसीलिए योग भी बड़ी बात हो गया।

पर योग बड़ी बात इसलिए हो गया क्योंकि सर्वप्रथम आत्मा बड़ी चीज़ है। आत्मा बड़ी नहीं, सबसे बड़ी है, सर्वोच्च है। समझ में आ रही बात? तो भारत से विश्व को क्या मिला? बहुत कुछ मिला होगा, लेकिन जो एक केंद्रीय चीज़ मिली, उसको कहते हैं — आत्मा।

आत्मा क्यों बहुत बड़ी चीज़ है जो भारत से दुनिया को मिली है? क्योंकि बहुत विचार के बाहर की बात है, दिमाग़ में न आने वाली बात है। भारत ने, वेदांत ने कह दिया — आत्मा ही सत्य है। और सबसे ऊपर की चीज़ है, और जो सबसे ऊपर की चीज़ है, वो तुम्हारे भीतर है। उसको पाने के लिए तुम्हें कहीं भागने की ज़रूरत नहीं है। जो सबसे बड़ी ताक़त है, वो तुम्हारे मन की अपनी सफ़ाई है। मन की सुचिता का ही नाम आत्मा है।

चेतना जब इतनी निर्मल हो जाए कि वो सब गुण-दोषों के अतीत चली जाए — उसको आत्मा कहते हैं।

तो आपको इस दुनिया को बहुत महत्त्व देने की ज़रूरत ही नहीं है, क्योंकि जो ऊँची से ऊँची चीज़ हो सकती है, वो तो आपके मन के ही भीतर है। ये बात अगर भारत ने न बताई होती, तो किसी को ख़ुद ख़याल में आनी ही नहीं थी। ये बात ऐसी है कि अगर आपको कोई बताने वाला न हो, तो आप दस हज़ार साल में भी स्वयं नहीं सोच पाएँगे।

क्यों नहीं सोच पाएँगे? क्योंकि आपका ये जो पूरा तंत्र है, ये जो पूरा ऐपरेटस है, वो बाहर की ओर देखने के लिए रचित है। देखिए हर इंसान चाहता है कि वो कोई चीज़ खोजे दुनिया में। हर इंसान प्यासा ही पैदा होता है। इच्छाएँ होती हैं, तमाम तरह की कामनाएँ होती हैं, और हम उनको बाहर खोज रहे होते हैं। बाहर ही इच्छाओं, कामनाओं को खोजने की प्रक्रिया में हम बाहर एक ईश्वर का भी निर्माण कर देते हैं। हम कहते हैं कि जैसे बाहर सब बड़ी-बड़ी चीज़ें हैं, वैसे ही एक बहुत बड़ी चीज़ ईश्वर है जो हमसे बाहर है।

वेदांत कहता है — कुछ नहीं। जो सबसे बड़ा है, वो तुम्हारे भीतर है। क्योंकि बाहर खोजने वाले भी तो तुम ही हो ना? जो खोज रहा है, अगर वही बेहोश है, तो वो क्या खोजेगा? तो इसीलिए सबसे बड़ी चीज़ है 'खोजने वाले की सफ़ाई।' आप कुछ खोजने निकले हो और आप बेहोश हो आपको पता ही नहीं है कि आप कौन हो और आपको पाना क्या है, क्या खोजना है, तो आप क्या खोजोगे?

तो वेदांत कहता है सबसे बड़ी चीज़ है 'खोजने वाले की सफ़ाई।' और जब वो सफ़ाई हो गई मन आत्मा हो गया, माने मन आत्मस्थ हो गया। उसी को ब्राह्मी स्थिति भी कहते हैं, उसी को ब्रह्मलीनता भी कहते हैं। तो उसके बाद आपको बाहर की बहुत परवाह करने की ज़रूरत नहीं है। न तो दुनियादारी की, दुनिया के नियमों की, दुनिया के डर की और न ही बाहर आपने तमाम जो कल्पित तरीक़े के, गौड या गॉड्स या डेमी-गॉड्स, देवी-देवता बैठा दिए हैं। इनकी किसी की परवाह करने की ज़रूरत नहीं है।

इसीलिए आत्मा के प्रकाश में “आस्तिकता" शब्द का एक विशेष अर्थ हो जाता है। अंग्रेज़ी में थीइज़्म या बिलीव का जो अर्थ होता है, वो "आस्तिक" से बहुत भिन्न है। आस्तिक का अर्थ होता है वो जो वेदों में आस्था रखता हो वो नहीं जो किसी प्रकार के गॉड में आस्था रखता हो, ना..ना..ना। हम जानते नहीं हैं तो हम कह देते हैं, जो भगवान को मानता है, वो आस्तिक है बिल्कुल गलत बात है, नहीं। आस्तिक का ये अर्थ है ही नहीं। आस्तिक का अर्थ होता है, जो वेद को मानता है। और हमने कहा, वेदों का हृदय क्या है? वेदांत। तो जो वेदांत को समझ गया, सिर्फ़ वो आस्तिक है। बाक़ी सब नास्तिक हैं।

आप बैठकर के, जिसको आप योग कहते हो उसकी एक के बाद एक मुद्रा साधे रहिए — टाँग उठाइए, हाथ ऐसे करिए, नाक ऐसे करिए। उससे आप ये तो छोड़ दीजिए कि योगारूढ़ हो जाएँगे, उससे आप आस्तिक तक नहीं हो पाएँगे।

और ये सब जो आप करते हैं, जिसको आप योग बोलते हैं हाथ खींचना, टाँग खींचना या साँस खींचना; इसके निश्चित रूप से फायदे हैं, मैं उससे बिल्कुल इनकार नहीं कर रहा, निश्चित रूप से फायदे हैं। फायदे सब शरीरिक हैं। तो एक शरीरिक गतिविधि के तौर पर व्यायाम के तौर पर, एक्सरसाइज़ के तौर पर बहुत अच्छी चीज़ है वो। लेकिन उसका कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं है, उसका कोई आध्यात्मिक पक्ष ही नहीं है। समझ में आ रही है बात?

जो उसका आध्यात्मिक पक्ष हो सकता है वो और पीछे छूट जाता है, जब आप योग को यही समझ लेते हो कि हाथ- पाँव खींचना, इत्यादि। आत्मा अध्यात्म के केंद्र में है। और योग भी बहुत ऊँची और बहुत सुंदर बात हो जाता है जब योग की परिभाषा आत्मा के संदर्भ में दी जाती है, सिर्फ़ तब।

योग को अगर आप परिभाषित करेंगे शरीर के संदर्भ में, तो योग बहुत क्षुद्र चीज़ हो जाएगा। बहुत छोटा कर दिया आपने योग को, क्योंकि योग को आपने क्या बना दिया? कि शरीर स्वस्थ है, ये है वो है। बहुत छोटा कर दिया योग को, ये क्या है? और उसी योग की परिभाषा जब आप आत्मा के संदर्भ में देंगे; मन को साफ़ करना है, मन को आत्मा तक ले के जाना है। आत्मा भी छोड़िए मन को सफ़ाई तक ले कर जाना है, मन को मन की दासता से, गुलामी से मुक्त कराना है। जब ये आपने योग की परिभाषा कर दी, तब योग बहुत बड़ी बात हो जाती है। तब योग आत्मा जितनी ऊँचा हो जाती है। पर आत्मा के अभाव में योग का कोई अर्थ नहीं।

अगर आपका योग ऐसा है जिसमें आत्मा के लिए कोई स्थान ही नहीं, तो व्यर्थ है ये सब योग दिवस जो आप मना रहे हो आज। एकदम व्यर्थ है।

अगर आपके योग में आत्मा के लिए न कोई स्थान, न सम्मान तो बिल्कुल व्यर्थ योग दिवस है। लेकिन उसी योग की अगर आप सही परिभाषा कर लो कि योग माने मन। इस मन को ग़ौर से देखना है,और इसके सब बंधनों को काटना है तो फिर वो बहुत ऊँचा हो जाती है।

योग को ऊँचाई मिलती है आत्मा से। योग को ऊँचाई मिलती है आत्मा से, क्यों? क्योंकि आत्मा ही तो सबसे ऊँची है। तो बाक़ी किसी को भी ऊँचाई मिलेगी तो आत्मा से ही मिलेगी। जो सबसे ऊँचा है, उसी के सान्निध्य, संपर्क में आकर तो तुम भी ऊँचे होओगे ना। तो कौन सी चीज़ कितनी ऊँची है ज़िन्दगी में भी, वो अगर नापना हो तो एक ही मानदंड है वो चीज़ आत्मा के संदर्भ में कहाँ बैठती है? कोई व्यक्ति आत्मा की तरफ़ ले जाता है तो वो व्यक्ति बहुत ऊँचा है।

तुम पैसा ख़र्च करना चाहते हो वो पैसा ख़र्च करके अगर तुम आत्मा के निकट आ सकते हो, तो ये ऊँचा ख़र्च हो गया, बढ़िया ख़र्च हो गया, उच्च श्रेणी का ख़र्च हो गया ये। तुम कहीं कोई यात्रा कर रहे हो या तुम कुछ पढ़ने जा रहे हो, तुम जो कुछ भी करने जा रहे हो, तुम किसी से बातचीत करने जा रहे हो वो सब कुछ करके अगर तुम आत्मा के निकट आते हो तो तुम्हारे कर्म में उच्चता है। किसी भी चीज़ की उच्चता चाहे वो कोई संबंध हो, चाहे कोई कर्म हो, विचार हो, भाव हो, निर्णय हो उसकी उच्चता प्रमाणित ही सिर्फ़ एक बात से होती है, “ये जो कुछ भी है इससे क्या मैं आत्मा की तरफ़ बढ़ रहा हूँ?"

तो योग बहुत अच्छा है अगर आपको आत्मा की तरफ़ बढ़ा रहा है। योग बहुत भ्रष्ट है, अगर वो आपको और ज़्यादा शरीरिक बनाए दे रहा है।

और आप योग कर रहे हो और योग करने के कारण आप और दिन भर अपने शरीर के ही विषय में सोच रहे हो, अपने शरीर को लेकर के आप में और ज़्यादा तदात्म आ गया है, देह भाव बढ़ गया है तो क्या है, कौन सा योग है ये? योग शब्द सुनते ही अगर आपके दिमाग़ में देह नाचने लग जाती है तो ये तो अनर्थ हो गया आपके साथ।

प्रश्नकर्ता: पर एक सवाल मेरे मन में उठ रहा है, जिस तरह आपने अभी योग को परिभाषित किया आत्मा से संबंध बनाकर। तो हर साल कुछ ट्वीटस् चलते हैं जो योग दिवस पर साझा किए जाते हैं। उनमें एक फ्रेज़ यूज़ होता है कि "योग इज़ द यूनियन ऑफ़ माइंड, बॉडी एंड सोल।"

आचार्य प्रशांत: "सोल" जैसी कोई चीज़ भारतीय दर्शन में नहीं होती है। एक तो बड़ी समस्या ये है हिंदुस्तान के साथ कि हमने अपने श्रेष्ठतम ग्रंथ पढ़े ही नहीं हैं। ये “सोल” क्या होता है? ‘मन' होता है, जो कि प्रकृति के तीन गुणों से आच्छादित है और 'आत्मा' है। ये "सोल" क्या होता है?

या तो ये कह दो कि माइंड ही “सोल” है, तब तो ठीक है। किसी ने मुझसे पूछा,जब हम ऋषिकेश में थे, तो किसी विदेशी ने पूछा था कि “व्हाट इज़ सोल?” मैंने कहा था कि "अ कॉन्सेप्ट इन द माइंड।" उसने पूछा, “व्हाट इज़ स्पिरिट?” मैंने कहा, "अनदर कॉन्सेप्ट इन द माइंड।”

तो ये सोल, स्पिरिट वग़ैरह मन के विचार हैं, मन के सिद्धांत हैं। इनकी अपनी कोई कीमत नहीं है, इनका अपना कोई यथार्थ नहीं है। मन है, बस मन। जो कुछ भी तुम सोच सकते हो वो मन है। और इसीलिए आत्मा को कहा गया है "अचिंत्य।" तुम उसको सोच नहीं सकते, तुम उसका चिंतन नहीं कर सकते। तो बस दो हैं मन और आत्मा। जो कुछ भी चिंतन के दायरे में आ जाता है वो मन है। जो अचिंत्य है वो आत्मा है। आत्मा का चिंतन हो ही नहीं सकता। तो इसी आत्मा के बारे में बहुत बोलना नहीं चाहिए।

तो कुल मिलाजुला कर के वेदांत कहता है कि तुम बेटा, मन की बात करो। और देखो तुम्हारे मन में कितनी गंदगी, कितनी गड़बड़ है सिर्फ़ उसकी बात करो। माया की बात करो, किस तरीक़े से तुम फंसे हुए हो।

प्रश्नकर्ता: पर जैसे मैंने देखा है आम आदमी के मन में इस वक़्त, जैसे आपने "आत्मा" शब्द का इस्तेमाल किया, तो लोगों के लिए आत्मा का मतलब होता है कुछ भूत-प्रेत जैसी चीज़ कि "इसके अंदर इसकी आत्मा आ गई और ऐसा हो गया।"

आचार्य प्रशांत: ये सब बाहरी प्रभाव हैं। आप अगर वाकई भारतीय दर्शन को देखोगे, तो उसमें तो भूत-प्रेत जैसा भी कुछ नहीं होता। ये सब भी जो बाहरी संस्कृतियाँ और बाहरी विचारधाराएँ थी, जब वो भारत पर चढ़ बैठी, तो भारतीयों के दिमाग़ में भी ये सब बातें आ गईं भूत-प्रेत, सोल और जिन, चुड़ैल और ये सारी जो बातें होती हैं। ये सब यहाँ पर आ गई हैं।

देखिए वेदांत में आपको इन सब बातों का कोई उल्लेख नहीं मिलेगा। ठीक है, पुराणों में इस तरह की बातों का काफ़ी उल्लेख आपको मिलता है; पुराण बहुत बाद में रचे गए। बहुत-बहुत बाद में रचे गए। पुराणों में और वेदों में हज़ार वर्ष से भी ज़्यादा का अंतराल है।

आत्मा का अर्थ भूत कैसे हो गया; बड़े ये रहस्य की बात है। आत्मा का अर्थ है आपकी सच्चाई जो आप हैं। आत्मा वो जो अचल है। आत्मा वो जो कहीं आ जा नहीं सकती। आत्मा वो जिसके बारे में उपनिषद् कहते हैं आँख उसको देख नहीं सकती, कान उसको सुन नहीं सकते, वाणी उसका वर्णन नहीं कर सकती, मन उसको सोच नहीं सकता, पाँव उसकी ओर गति नहीं कर पाते, हाथ उसको पकड़ नहीं पाते, उसको आत्मा कहते हैं।

आपकी पूरी हस्ती से बाहर की कोई बात, आपकी पूरी मुक्ति का नाम है, आत्मा। जहाँ आप में "आप" जैसा कुछ न बचे आपसे पूरे बाहर की कोई बात उसको आत्मा कहते हैं। जैसे पूरी हस्ती ही एक कारागार जैसी हो, आप एक जेल में हैं तो मुक्ति कहाँ है? जेल से बाहर। उसको आत्मा कहते हैं। आपका अस्तित्व जेल की दीवारें हैं। आपका जो कुछ भी है, वो कहाँ है? उन दीवारों के भीतर है। तो मुक्ति कहाँ है? बाहर है पूरी। तो मुक्ति में क्या कुछ भी वैसा होगा जो उन चार दीवारों के भीतर है? जब आप मुक्त हो जाओगे तो क्या कुछ भी ऐसा बचेगा, जो इन चार दीवारों के भीतर है? तो आत्मा वो जिसमें वैसा कुछ भी ना हो जैसा आप में है। उसको आत्मा कहते हैं।

प्रश्नकर्ता: और ये बड़ा प्रचलित चलता है — मेरी "अंतरात्मा।"

आचार्य प्रशांत: "अंतरात्मा" भी कुछ नहीं होता। जैसे "सोल्स, स्पिरिट, रूह " कुछ नहीं होता वैसे ही "अंतरात्मा" भी कुछ नहीं होता। मन है। तुम मन को हज़ार तरीक़े के नाम दे लो, मन तो मायावी है। मन के बहुतक रंग हैं, छिन-छिन बदले सोय।

तो मन को ही तो तुम एक नया नाम देना शुरू कर देते हो “मेरी अंतरात्मा," "ये मेरा हृदय," "मेरे जिगर की आवाज़" जो भी बोलो; ये सब ख़ुद को धोखा देने वाली बातें हैं। सिर्फ़ मन है। भावनाएँ मन है, विचार मन है, सिद्धांत मन है, ऊह-पोह मन है, किंकर्तव्यविमूढ़ता मन है, आशांति मन है। अनिर्णय मन है, निर्णय वो भी मन है। कुछ चढ़ रहा है मन है, कुछ गिर रहा है मन है। कुछ याद आ गया मन है, कुछ भूल गया वो भी मन है। कुछ यहाँ है मन है, कुछ वहाँ है मन है। पीछे मन है, आगे मन है। मन के अतिरिक्त कहीं कुछ और नहीं है। तो तुम जितनी भी बातें बोलोगे ये होता है, वो होता है, अंतरात्मा होती है, और पचास तरह की आत्माएँ बना लो वो सब मन है।

प्रश्नकर्ता: आपने अभी जिस तरह मन को वर्णित किया, वो देखने में एक बंदर की छवि दे रहा था और आपने जिस तरह आत्मा को वर्णित किया, वो आपने कुछ ऐसा बताया जिसकी बात नहीं की जा सकती, जो अचल है और बिल्कुल अलग है। और फिर जब मैं योग की बात करता हूँ, तो आपने कहा कि "मन का आत्मा में लय हो जाना, ये योग है।"

तो अब ठीक है। योग दिवस का जो भी प्रारूप आज लोग बना रहे हैं, वो अपनी एक तरफ़ है। पर ये जो वास्तविक योग है अगर लोग उसको समझ पाएँ, तो और सरल भाषा में या और ऐसी चीज़ जो याद रख सकें वो क्या होगी?

आचार्य प्रशांत: देखो उदित, वास्तविक योग के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा "प्रचलित योग” है। अगर आपने ये हाथ–पाँव वाली कसरत को ही योग मान लिया, तो असली योग की ओर आप जाओगे ही क्यों? आपको तो ये लग जाएगा कि "मैं कर तो रहा हूँ योग — योगा।” और आप सुबह-सुबह बाँध रहे हो, जाकर के ये खींच रहे हो, वो खींच रहे हो। कुछ कर दिया आपने और उससे लाभ भी हो जाता है वजन कम हो जाते हैं, कुछ शरीरिक बिमारियाँ हैं वो दूर हो जाती हैं। थोड़ी देर के लिए ये भी लगने लगता है कि मन शांत हो गया, उसके लाभ तो होते ही हैं।

आपने उसी चीज़ को अगर असली योग मान लिया, तो फिर आप वास्तव में असली है, उसकी ओर जाओगे ही क्यों? तो जो खरा योग है, असली योग है, उसके रास्ते में बाधा बन जाते हैं ये योग दिवस जैसे आयोजन। क्योंकि कल करोड़ों लोगों के मन में, ये धारणा और गहरे बैठा दी जाएगी कि इस शारीरिक व्यायाम को ही तो योग कहते हैं। तो असली योग का क्या हुआ? वो और पीछे छूट गया, अब उस पर और कोई नहीं ध्यान देगा। तो कहने को तो ये योग दिवस है, लेकिन वास्तव में इस जैसे दिवसों के माध्यम से योग को क्षति ही होती है।

प्रश्नकर्ता: पर मैं एक चीज़ और समझना चाहता हूँ कि, योग की जो परिभाषा आपने बताई और योग की जो परिभाषा कल दुनिया, एक तरह से उत्सव की तरह मनाने वाली है, ये पूरी जो यात्रा है, ये पॉइंट ए से पॉइंट बी तक की, ये कैसे हुई? ये ऐसा क्यों हुआ?

आचार्य प्रशांत: क्योंकि शरीर वाले काम करना हमेशा ज़्यादा आसान और आकर्षक होता है। मैं तुमको कहूँ मन साफ़ करना है, मैं तुमको कहूँ शरीर साफ़ करना है; बोलो क्या करना चाहोगे?

प्रश्नकर्ता: शरीर।

आचार्य प्रशांत: शरीर साफ़ करना चाहोगे। पहली बात आसान है, दूसरी बात प्रमाणित हो सकती है, तीसरी बात लाभ भी तो मिलते हैं। शरीर साफ़ हो गया तो कितने लोग तुम्हारी ओर आकर्षित होंगे, विशेषकर जवान हो तुम। योगा कर कर के आपने टोंड बॉडी बना ली। लोगों का विवाह होने जा रहा होता है तो वे तुरंत जाकर योगा क्लासेस जॉइन करते हैं, विशेषकर लड़कियाँ।

और ये मैं नहीं कह रहा, आप जाकर योगा इंस्ट्रक्टर से पूछ लीजिए, कितने फायदे ऐसे योगा के, जिसको करने के बाद शरीर और आकर्षक हो जाएगा, और दूसरों को एक यौन स्तर पर, एक सेक्शुअल डायमेंशन में आकर्षित करने में सुविधा होने लग जाएगी। अब देखते नहीं लोगों की तस्वीरें छपते? वो कहते हैं, द सेक्सी योगिनी और उसने अपनी टाँग बिल्कुल ऐसे आकाश की ओर कर रखी होगी।

टाँग आकाश की ओर करने को योग नहीं कहते। मन को आकाश तक ले जाना होता है।

तो इस तरह से हम सब कुछ भ्रष्ट कर डालते हैं। योग, जिसका अर्थ मन को साफ़ करना है, मन को हल्का करना है उसका हमने अर्थ बना दिया, शरीर को हल्का करना। और मैं फिर कह रहा हूँ, शरीर को हल्का करने को लेकर के मुझे किसी तरह की आपत्ति बिल्कुल नहीं है। मैं तो चाहता हूँ लोगों के शरीर हल्के हों, मेरा भी हल्का हो, तुम्हारा भी। सबका शरीर हल्का हो बहुत अच्छी बात है। लेकिन भाई, योग शरीर को हल्का करने का नाम नहीं होता। तुमने कितनी ऊँची चीज़ को कितना छोटा बना डाला। और छोटा नहीं बना दिया, तुमने असली चीज़ के विरोध में खड़ी कर दी ये छोटी चीज़। अब हर आदमी शरीर पकड़ कर बैठ जाएगा, और असली चीज़ को भूल जाएगा।

प्रश्नकर्ता: एक चीज़ मैंने और देखी है कि इस योग का महिमामंडन करने के लिए लोग क्या बोलते हैं कि ये हज़ारों साल पुरानी चीज़ है, और उसको सीधे महर्षि पतंजलि से जोड़ते हैं। तो ये जितने भी योग की मुद्राएँ आजकल चलती हैं क्या ये सच में उनका पतंजलि जी से कोई संबंध है?

आचार्य प्रशांत: पढ़ लो भाई, योगसूत्र इतना भी गोपनीय ग्रंथ नहीं है कि तुम्हें अनुपलब्ध हो। गूगल कर लो “पतंजलि योग सूत्र,” और मुझे बता दो कि उसमें ये सब कहाँ है? और ये बात तुमको तो पता है। तुम पहले भी बात कर चुके हो। जानते हो ये सब कहाँ से आ रहा है। ये जो हठयोग का पूरा कार्यक्रम है, ये तो बहुत-बहुत हालिया है मुश्किल से 500–600 साल पुराना है। इसको पतंजलि से कहाँ जोड़ कर बैठा दिया तुमने। महर्षि पतंजलि जो कह गए हैं, वो तो लोगों ने पढ़ा ही नहीं है, तो लोगों को लगता यही सब योग है।

अभी मैं कह दूँ कि यम नियम ही बता दो! पालन करना दूर की बात है। मैं कहूँगा अचौर्य, हिंसा, अस्तेय इनका पालन करना है, उतने में धराशायी हो जाएँगे, लोग ना। कहो नाम ही बता दो यम नियम के, लोगों को नाम नहीं पता और अपने आपको योगी बताते हैं। ये जो योगी घूम रहे हैं इतने, इनसे कह दो कि अष्टांग योग के 8 में से 4–5 अंग बता दो नहीं पता होंगे इनको।

बस एक चीज़ पता होती है कि फिट दिख रहे हैं, फिट। तो ये जो फिटनेस कल्ट है न, बड़ी ये दुख की बात है कि इसने योग को भी लील लिया। आप देखते हो किसी का वजन बढ़ा हुआ है, तो आपको तुरंत सलाह करते हो “एक काम करो, या तो जिम जॉइन कर लो, या एरोबिक्स या योगा। आप देख रहे हो, आपने अभी योगा का नाम किन दो चीज़ों के साथ जोड़ दिया? जिम और एरोबिक्स। जो कल्ट ऑफ़ फिज़िकल फिटनेस है, इसने योग को एकदम भक्ष लिया, खा लिया। योग का अर्थ ही यही बन गया कि जैसे एरोबिक्स करते हो, वैसे योग कर लो। क्या मिलेगा? देखो पेट अंदर चला जाएगा और ज़्यादा बढ़िया, और जो फायदे होंगे तो होंगे, सेक्सी भी तो दिखोगे।

प्रश्नकर्ता: मैंने इसी विषय में थोड़ा और पढ़ने की कोशिश करी, समझने की कोशिश करी, तो मुझे पता चला कि जो पतंजलि जी का योग सूत्र है, उससे भी पहले योग के बारे में भगवद्गीता में पढ़ने को मिलता है।

आचार्य प्रशांत: देखो इसलिए मिलता है क्योंकि योग वास्तव में आत्मा से जुड़ी हुई बात है। और आत्मा का बहुत स्पष्ट निरूपण कहाँ पर है? वेदांत में है। भगवद्गीता क्या है? वेदांत की प्रस्थानत्रयी का एक बड़ा, मोटा, मजबूत स्तंभ। तो योग वास्तव में क्या है, ये जानना है तो भगवद्गीता की ओर ही जाना पड़ेगा।

पतंजलि योग-सूत्र पढ़ने से भी पहले आप भगवद्गीता पढ़िए, अगर आपको योग क्या है ये जानना है और भगवद्गीता में बहुत स्पष्ट श्लोक हैं जो बताते हैं कि योगी कौन? योग कहते किसको हैं? तो आपको योग को जानना है तो पहले थोड़ा आत्मा के प्रति रुचि दिखाइए, आत्मा के प्रति आप रुचि तब दिखाएँगे, जब पहले ये समझ में आए कि मन अभी…मन भी, जीवन भी हज़ार तरह के बंधनों में चल रहा है। इतने बंधन हैं, उनसे मुक्ति चाहिए, उसी मुक्ति का नाम आत्मा है। अब आपके लिए योग शब्द महत्त्वपूर्ण हो जाएगा, फिर आप जाएँगे भगवद्गीता की ओर। भगवद्गीता बहुत साफ़-साफ़ बताती है, योग क्या है।

प्रश्नकर्ता: पर इसमें मैं एक चीज़ और पूछना चाहूँगा। जैसे आपने अभी कहा था, कि किसी व्यक्ति का वजन बढ़ता हुआ दिखता है, तो उसको सलाह ये दी जाती है कि जिम कर लो, एरोबिक्स कर लो। तो एक्चुअली जो लोगों के मन में सवाल उठता, जिज्ञासा उठती है, “योग क्या होता है?” वो उठती इन्हीं सब कारणों की वजह से है कि किसी का एग्जांपल टेस्ट करवाया और डायबिटीज़ निकल के आई। किसी का वजन बढ़ रहा है, किसी को हार्ट की कोई प्रॉब्लम है इस वजह से लोग योग की तरफ़ आते हैं। लोग शायद कभी भी ये सोचकर, कि हमें जीवन में मुक्ति चाहिए इस वजह से योग की तरफ़ नहीं आते।

आचार्य प्रशांत: और यही वजह है कि योग को इतनी प्रसिद्धि मिली है। क्योंकि हम सब कौन हैं? हम देहाभिमानी लोग हैं, बॉडी आइडेंटिफाइड पीपल, जिनके लिए ज़िंदगी में बॉडी ही सब कुछ है। तो इसीलिए चारों तरफ़ भारत में, भारत से बाहर भी योग..योग..योग, योग नहीं, योगा…योगा…योगा। और उसके भी न जाने कितने ज़्यादा विकृत रूप हॉट योगा, कोल्ड योगा।

अभी मैं कहीँ पढ़ रहा था उसमें ‘सॉस योगा’ वो केचप मल करके, धूप में बैठकर के योगा करते हैं। और ये काम पश्चिम में खूब हो रहा है, क्योंकि सबसे ज़्यादा बॉडी आइडेंटिफिकेशन कहाँ है? पश्चिम में है। अभी आप ही बता रहे थे ना, कि दुनिया में जिस योगा इंस्ट्रक्टर के सबसे ज़्यादा फॉलोवर हैं वो भारतीय है ही नहीं, वो कोई विदेशी है। उसके करोड़ों में शायद यूट्यूब पर भी फॉलोवर हैं, करोड़ों में। क्यों? क्योंकि, विदेश के पास आत्मा जैसा कोई सिद्धांत भी नहीं था आत्मा की समझ की नहीं बात कर रहा, आत्मा के सिद्धांत की बात कर रहा हूँ। वहाँ तो अंडरस्टैंडिंग छोड़ो कॉन्सेप्ट भी नहीं है, तो वो पूरे तरीक़े बॉडी आइडेंटिफाइड लोग हैं। इसलिए उनको योगा बहुत पसंद आया।

इसीलिए भारत में भी ये जो तथाकथित योगा गुरु हैं ये दुनिया भर में खूब फैले। और ये कराते क्या हैं? बस यही कसरत। मुझे समझ में नहीं आता, कि ये फिर बैठकर प्रवचन क्यों देते हैं? किसी... ये जो सब कुछ तुम्हें कसरत वग़ैरह कराते हैं इनसे बैठकर कहना कि "गुरुजी थोड़ा सा ज्ञान दीजिए," ये लगभग ऐसी बात है कि मैं अपने जिम इंस्ट्रक्टर को बोलूँ कि "थोड़ा ज्ञान दीजिए।"

तुम अपने जिम इंस्ट्रक्टर को बोलो, "गुरुदेव महाराज, ओ महागुरु, वहाँ ऊँची कुर्सी पर बैठ जाइए और ज्ञान दीजिए।" तो तुम कहोगे क्या फ़िज़ूल बात है, जिम इंस्ट्रक्टर से ज्ञान लिया जाता है?

तो ये लोग जो तुमको बता रहे हैं, “अब ऐसे झुक जाओ," "वैसे कर लो," "यह कर लो," " अब यह कर लो" इनसे तुम ज्ञान लेने क्यों चले जाते हो। लेकिन इनको प्रसिद्धि खूब मिलेगी, ये सब चीज़ प्रचलित बहुत होगी। और इसमें पैसे का खूब खेल चलेगा, क्योंकि हर बंदा मरा जा रहा है एक अच्छे शरीर के लिए। और उस बात में कोई बुराई भी नहीं है शरीर अच्छा होना चाहिए। लेकिन शरीर अपनी जगह, और मन अपनी जगह है।

जब मन रोता है, तो फिर शरीर नहीं काम आता। इसको आप बोलते हो ना कि "ज़िंदगी ऐसी चल रही है," "वैसी चल रही है" तो ज़िंदगी के सब सुखों-दुखों का अनुभव शरीर नहीं कर रहा था, मन कर रहा होता है।

आपकी जो भी समस्याएँ हैं, ग़ौर से देखिएगा कि ज़्यादा मन से संबंधित हैं या शरीर से। किसी ने आज तक कहा है? “तन चंगा तो कठौती में गंगा।” "मन चंगा तो कठौती में गंगा," क्योंकि दुख भी तन में नहीं, मन में होता है। मन रोता है आपका। इसलिए आप कितने भी दुखी हों, आप सो जाते हैं, तो दुख चला जाता है ना? क्योंकि दुख मन में था मन सो गया, दुख चला गया, उतनी देर के लिए।

तो योग का अपहरण हो गया है। योग जो है, किडनैप कर लिया गया है। जैसे कोहिनूर गया भारत से, वैसे ही योग को भी पश्चिम ने हर लिया। और भारत में कभी भी ऐसों की कमी नहीं रही है जयचंद जैसों की, जिन्होंने विदेशियों को मदद दी हो भारत को जीतने में। आज के जयचंद कौन हैं? जिन्होंने योग का अपहरण करवा दिया। ये सब तो योगा गुरु घूम रहे हैं, ये आज के जयचंद हैं। कुछ अपवाद होंगे, कुछ अच्छे होंगे उनका सम्मान करता हूँ। लेकिन अधिकांश तो वही हैं, जिन्होंने…एक आँख है जो योग को पूरे तरीक़े से शारीरिक दृष्टि से देखना चाहती है।

और आप एक भारतीय योग गुरु हो आपका क्या धर्म है? आपका धर्म होना चाहिए, उसको समझाना कि ऐसे नहीं, योग को ऐसे नहीं देखना, योग का असली अर्थ समझो। आओ पहले आत्मा की बात करेंगे, शरीर की बात भी करेंगे। शारीरिक अभ्यास भी कर लेंगे, पर वो बहुत बाद में आएगा। पहले आत्मा की बात करेंगे, ये आपका धर्म होना चाहिए ना।

मान लो तुम कोई विदेशी हो तुम आते हो मेरे पास, और तुम कहते हो, “ओह! आय ऐम मेस्मराइज़्ड बाय योगा।” तो मुझे टीच करिए,” क्यों टीच करिए योगा? “मतलब मेरे को बहुत अट्रैक्टिव लगता है। जब मैं देखता हूँ, "द काइंड ऑफ फ्लेक्सिबिलिटी दैट पीपल हैव, आय’व ऑल्सो हर्ड दैट योगा हेल्प्स इन्क्रीज़ द ऐवरेज लाइफ एक्सपेक्टेंसी बाय फाइव ईयर्स। आय’व ऑल्सो हर्ड दैट इट हेल्प्स विद हाइपरटेंशन, पीटीएसडी, एंड मेनी अदर कंडिशन्स।” ये सब जो है, इससे ठीक हो जाता है।”

और आप ये सब आए हो बताने मेरे पास। और आप कह रहे हो कि ये सब मुझे आकर्षित करता है इसलिए मुझे योग सिखाओ। तो मेरा धर्म क्या है? मेरा धर्म है कि मैं आपको बताऊँ ना, कि बेटा इसको योग नहीं कहते, योग कुछ और बात है। उसकी जगह मेरी नज़र जा रही है आपके डॉलर पर। मैं कह रहा हूँ कौन इसको बताए योग का असली मतलब? ये जो चाहता है, उसको वही दे दो और इसके डॉलर निकलवा लो, और डॉलर यही नहीं निकलवा लो। बाहर जाकर डॉलर बटोरो।

पिछले सौ सालों में भारत से बहुत सारे योग गुरु बाहर गए हैं उन्होंने खूब कमाया है। वास्तव में, जितने भी गुरु बाहर गए हैं, उनमें बड़ी तादाद इन्हीं युवा गुरुओं की है। चूँकि कुछ नहीं बस कसरत सिखाते हैं, लेकिन अपने आपको गुरु कहते हैं। और फिर गुरु बन भी गए।

कोई पूछे कि ज्ञान तो वेदांत में है, उसी को ज्ञान-कांड कहा जाता है वेदों का। वेदांत से तुम्हें कोई मतलब नहीं, तो तुम्हारे पास ज्ञान आया कहाँ से? हो तो तुम योगा इंस्ट्रक्टर, वेदांत तुम ख़ुद कहते हो तुमने कभी पढ़ा नहीं। और भारतीय दर्शन साफ़ कहता है कि वेदों का ज्ञान-खंड है, वेदांत। वो तुमने पढ़ा नहीं, तो तुम फिर ज्ञान की बातें लोगों से कर क्यों रहे हो?

तुम अधिक से अधिक लोगों को यह बताओ कि "हाथ उपर कैसे करना है," "टाँग कैसे खींचनी है," यह सब बता दो। मैं क्षमा चाहता हूँ, मैं असम्मान नहीं दर्शा रहा हूँ योग के प्रति। बस मुझमें एक रोष है उनके लिए, जिन्होंने योग के अर्थ को भी विकृत कर दिया है। मैं योग के प्रति सम्मान के कारण ही यह सब कह रहा हूँ।

प्रश्नकर्ता: आपकी बात को सुनकर मुझे अब एक चीज़, स्टेटमेंट बड़ी याद आ रही है कि लोग आजकल ये कहने लगे हैं कि देखिए, योग का किसी धर्म वग़ैरह से कोई संबंध नहीं है। और योग तो एक ऐसी चीज़ है, जो ईसाई भी कर सकता है, और यह भी कर सकता, वो भी कर सकता है।

आचार्य प्रशांत: कर तो कोई कुछ भी सकता है, मैं भी जाकर गिरजाघर में खड़ा हो सकता हूँ, लेकिन उससे मैं ईसाई थोड़ी हो जाऊँगा। कर तो कोई कुछ भी सकता है। यह कौन सी बात है कि जो हठयोग की मुद्राएँ हैं, वह कोई भी कर सकता है, इसलिए योग का संबंध किसी भी धर्म से नहीं है।

वेदों के छ: आस्तिक दर्शनों में से एक है योग, हम दोहरा के कह रहे हैं। तो योग का सीधा-सीधा संबंध वेदों से है।

वेदों की संतति है योग। वेदों से ही सीधे-सीधे प्रवाहित हो रहा है योग। तो ज़बरदस्ती योग को सेक्युलराइज़ करने की कोशिश मत करो। तुम तो ऐसे कह रहे हो, तुम नहीं, मतलब जो भी लोग कहते हैं, वो तो ऐसे कह रहे हैं जैसे कि योग अच्छी चीज़ है लेकिन वेद तो गंदी घटिया चीज़ है। तो योग को स्वीकार करने के लिए उसका वेदों से जो रिश्ता है, उसको काटना ज़रूरी है।

प्रश्नकर्ता: कोई चीज़ उठाई ज़मीन से उसकी धूल झाड़ दी।

आचार्य प्रशांत: भाई, वो धूल नहीं है। योग के केंद्र में वेद बैठे हुए हैं, तुम योग से वेदों को हटा कैसे दोगे? और वेद भी जब मैं कहूँ तो मेरा आशय हमेशा वेदांत होगा। कर्मकांड से कोई लेना-देना नहीं हमको। कर्मकांड से तो योग को भी लेना-देना नहीं है।

भगवद्गीता का पूरा ज़ोर ही है निष्काम कर्म पर। और कर्मकांड होता है हमेशा सकाम कर्मकांड। वहाँ है, निष्काम कर्म और कर्मकांड का मतलब होता सकाम कर्म, तो जब मैं वेद कहूँ तो मेरा आशय है निष्काम कर्म, माने जो वेदांत का दर्शन है।

प्रश्नकर्ता: पर कहीं ना कहीं ये पूरी चाल थी, ये तो सफल हो ही गई है ना। क्योंकि उन्होंने जैसे योग को योगा बनाया है, तो इसको इंटरनैशनल बना दिया है। तो जैसे मैं आपको जिनके बारे में बता रहा था कि दुनिया के जो सबसे बड़ी योगा इंस्ट्रक्टर हैं, वो इंडियन नहीं हैं, वो एक फॉरेनर हैं, और उनके ज़्यादा फॉलोवर्स हैं। वो दुनिया को बता रहे हैं, योग क्या है।

अब जो योग उन्होंने समझाया है, उसका तो ना वेदों से कोई मतलब है, ना उसका भगवद्गीता से कोई मतलब है। वो प्योरली फिज़िकल एक्सरसाइज़ है। तो एक तरह से ये ऐक्चुअली योग को अपहरण करके ले गए हैं और अब वही चीज़ प्रचलन में आ रही है।

आचार्य प्रशांत: नहीं आप जो मुझे फिज़िकल एक्सरसाइज़ बता रहे हो बताओ, अच्छी बात है। उसको योग का नाम मत दो बस।

प्रश्नकर्ता: उसका और सही नाम क्या होगा फिर?

आचार्य प्रशांत: एक्सरसाइज़, कुछ भी और नाम दे दो। इतने सारे तो चलते हम्बा, टुम्बा, बुबुम्बा, कुछ भी नाम दे दो, जुम्बा। ये सब चलते हैं न नाम? तो वैसे कोई अजुम्बा।

कोई अजूबी सी चीज़ तुमने निकाली है, और हो सकता है उसके कुछ फायदे होते भी हों, क्यों नहीं होते होंगे। आप जिम जाइए, वहाँ पर जो आपका इंस्ट्रक्टर होता है। वो इतना ही कह देता है आप सौ बार उछलो, उसके फायदे होते हैं। तो वो योग थोड़ी हो गया, योग नहीं हो गया, लेकिन फायदेमंद फिर भी है। तो कौन कह रहा है कि आप अपना काम बंद कर दीजिए? उससे अगर लोगों को फायदा हो रहा है, तो आप करते रहिए। बस उसको योग का नाम मत दीजिए, क्योंकि वो योग नहीं है।

प्रश्नकर्ता: पर एक चीज़, अब मैं इसको ज़रा बिल्कुल अलग तरह से देखना चाहता हूँ। एक तो बात हुई कि जो लोग अपने शरीरिक फायदे के लिए योग की तरफ़ जाते हैं। एक दूसरा भी होता है जो लोग ऐक्चुअली, कुछ तथाकथित आध्यात्मिक फायदों के लिए योग की तरफ़ आना चाहते हैं।

तो उसमें मैंने देखा है, कि लोगों के मन में जो एक छवि बनी हुई है, कुछ ऐसी बनी हुई है कि जो व्यक्ति आध्यात्मिक होगा उसके चेहरे पर एक तेज़ होगा, और उसका शरीर एक जो है, योगी का शरीर अगर आपके मन में कोई छवि बनाए, तो कभी भी वैसे नहीं बनेगी की तोंद निकली हुई है। हमेशा यही रहेगी कि सुडौल शरीर होगा, या फिर चेहरा गोरा होगा, और होगा व्यक्ति 60 का, पर देखने में 30 लगता होगा। तो आध्यात्मिक छवि भी जो बनाई गई है, वो कुछ बनाई ऐसी ही गई है, जो योग से बहुत मेल खाती है।

आचार्य प्रशांत: देखो सुडौल शरीर बहुत अच्छी बात है, कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन दुनिया में एक से एक अपराधी पड़े हुए हैं, और मूर्ख भरे हुए हैं। एक से एक घिनौना काम करने वाले भरे हुए हैं जिनके बहुत सुडौल-सुडौल शरीर हैं। मैं नहीं कह रहा हूँ, सब अपराधियों के सुडौल शरीर होते हैं। लेकिन अगर तुम किसी जेल में जाओगे, तो 10 में से 8 अपराधियों को पाओगे, उनके बड़े सुडौल शरीर हैं।

जेलों की इतनी ऊँची दीवारें क्यों रखनी पड़ती हैं? मोटा आदमी तो कूद के भागेगा नहीं वहाँ से। वहाँ बड़े सुडोल शरीर वाले बैठे हैं, वही सब हत्या और बलात्कार और चोरी और भ्रष्टाचार करके आए हैं। तो इसलिए जेल में बंद हैं। उन्ही के लिए इतना पहरा बैठाना पड़ता है। वो बड़े सुडौल शरीर वाले हैं। सुडौल शरीर अपनी जगह, अच्छी बात है। कौन कह रहा है कि भद्दा शरीर हो? कौन कह रहा है कि रोगी शरीर हो? अच्छी बात है सुडौल शरीर, लेकिन सुडौल शरीर रखने भर से क्या होगा?

सुडौल शरीर रख कर के तो दुनिया भर के तुम उल्टे-सीधे कांड कर सकते हो। लेकिन अगर मन सुडौल है, तो फिर जीवन धन्य हो गया। मन पहले, तन बाद में। तन पहले आ गया, तो अब जीवन नर्क हो गया।

प्रश्नकर्ता: अभी उस पूरी चर्चा से एक शब्द जो थोड़ा बाहर है चर्चा से कि प्राणायाम किसे बोलते हैं? सांस किस तरह लेनी है और उसको पूरा। उसको लोग थोड़ा-बहुत इसोटेरिक् मानते हैं कि एज़ इफ उसमें कुछ स्पिरिचुअल फायदा हो सकता है। तो ऐसा कुछ है कि प्राणायम….?

आचार्य प्रशांत: कुछ नहीं है।

प्रश्नकर्ता: सांस अंदर बाहर करना किसी पर्टिकुलर तरह से करने से…।

आचार्य प्रशांत: देखो मन को जब तुम किसी भी गतिविधि पर केंद्रित करोगे, तो उससे एक तरह की एकाग्रता तो आ ही जाती है। तो प्राणायाम के लाभ निश्चित रूप से हैं। पर उन लाभों में कोई आध्यात्मिक लाभ शामिल नहीं है। उससे ऐसा कुछ नहीं होगा कि आपकी चेतना का ऊर्ध्वगमन हो जाएगा, या आप अपने गुण-दोषों को बेहतर परखने लगेंगे ऐसा कुछ नहीं होने वाला। लेकिन फिर भी प्राणायाम अच्छी क्रिया है। लोगों को करनी चाहिए।

प्रश्नकर्ता: तो अब मैं इसको और बेहतर समझना चाहूँगा कि हमने बात करी शुरुआत में, जो योगा है तथाकथित उससे लोगों को शारीरिक लाभ होता है और वो ठीक है। उससे जितना भी लाभ होता है। उसी तरह से प्राणायाम है उससे लोगों को हो सकता है कुछ मन को शांत करने में लाभ मिलता हो।

आचार्य प्रशांत: तात्कालिक रूप से।

प्रश्नकर्ता: तात्कालिक रूप से। फिर अब ये आध्यात्मिक लाभ क्या है?

आचार्य प्रशांत: आध्यात्मिक लाभ होता है जानना कि मैं कौन हूँ, और मेरे भीतर क्या-क्या बैठा हुआ है। अध्यात्म का मतलब ही बस होता है जितना तुम आज तक अपने आप को जानते हो, उससे अधिक जानना अपने आपको। अध, अध माने वही जहाँ से आ रहा है अधिक।

आत्म माने मैं। जितना तुमने आज तक अपने आपको जाना, उससे अधिक जानो वो है अध्य, आत्म। जो तुम अपने आप को आज तक जानते आए हो, उससे ज़्यादा जानने को ‘अध्यात्म’ कहते हैं। ‘अध्यात्म’ शब्द के ही केंद्र में आत्मा बैठा हुआ है। आत्मा नहीं, तो कोई अध्यात्म नहीं। और आत्मा की ओर वो जो अधिक वेग से, अधिक प्रेम से गति करनी है वो गति नहीं, तो कोई अध्यात्म नहीं।

आत्मा भी चाहिए और ऐसा मन चाहिए जो कह रहा हो, "और अधिक, और अधिक, और अधिक, और अधिक जानना है, और अधिक निकट जाना है।" तो यह "अधि" यह मन का सूचक है। और आत्मा तो आत्मा की सूचक है ही। ऐसा मन, जो और अधिकता के साथ आत्मा को पाना चाहता है आध्यात्मिक मन होता है।

प्रश्नकर्ता: पर मैं इसको अगर थोड़ा ऐसा देखता हूँ, जैसे अपनी जर्नी को भी देखता हूँ तो यूज़ुअली कोई भी व्यक्ति इस इंटेंशन के साथ अध्यात्म की ओर नहीं जाता।

फॉर एग्ज़ाम्पल: मैं स्वामी विवेकानंद की तरफ़ थोड़ा अट्रैक्ट हुआ था शुरुआत में। तो मुझे कुछ कहानियाँ सुनने को मिलीं कि वो लाइब्रेरी जाते थे, चार किताबें लेते थे और एक बार में सारी पढ़ लेते थे, शाम को वापस कर देते थे। तो मेरे लिए वो एक तरह से, मै उसको इक्वेट करता था कि एक स्पिरिचुअल व्यक्ति जो होता है, उसका कॉनसेंट्रेशन बहुत हाई हो जाता है और अब वो इस तरह पढ़ाई कर सकता है। उसकी मेमोरी बहुत शार्प हो जाती है।

आचार्य प्रशांत: हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। आपको अध्यात्म की ओर इसलिए नहीं जाना चाहिए कि आपकी मेमोरी शार्प हो जाएगी। ये ऐसी सी बात है, कि आप टैंक का इस्तेमाल मच्छर मारने के लिए कर रहे हो। समझ में आ रही है?

टैंक का इस्तेमाल मच्छर मारने के लिए नहीं करते। तो स्मृति को बेहतर बनाने के लिए अध्यात्म का प्रयोग नहीं किया जाता। हो सकता है स्मृति बेहतर हो, हो सकता है नहीं भी हो।

संतों ने यहाँ तक कहा है कि जब से राम के साथ लौ लगी है, तब से कुछ भी याद रहना बंद हो गया, उल्टा भी होता है। स्मृति की एकाग्रता तो छोड़ दो, स्मृति का लोप होना शुरू हो जाता है।

किसी ने पूछा था, "सुमिरन, सुरति, ये सब क्या है?" संतों ने कहा है ना, “सुमिरन, सुरति लगाय के” तो मैंने कहा विस्मरण को ही सुमिरन कहते हैं। बोले, “विस्मरण? सुमिरन माने तो सुमिरन होता है।” विस्मरण, जो कुछ तुम्हें याद है वही तो तुम्हारा बोझ है, उसको भुलाने का नाम ही तो अध्यात्म है। ये जो मूर्खतापूर्ण बातें तुम मन में अपने बाँधकर के घूम रहे हो ये सब स्मृतियाँ जो सब तुम्हारी ज़िंदगी का बोझ बनी हुई हैं इन्हीं को छोड़ने का, इन्हीं को पीछे रख देने का नाम तो अध्यात्म है।

तो ऐसा नहीं है कि स्मृति आपकी बहुत अच्छी हो जाए इसमें कोई आध्यात्मिक पक्ष है, ना। स्मृति अच्छी हो जाए, अच्छी बात है, जो ढंग की बात है, वो याद रखो फालतू बात क्यों याद रखनी है? और जो बात याद रखने लायक नहीं है, उसको तत्काल भुलाना भी तो ज़रूरी है ना ये विवेक।

ये विवेक है — अध्यात्म। ये थोड़े है कि कोई भी कूड़ा-कचरा किताब उठा ली, उसके 400 पन्ने पढ़ डाले, और उसके 400 पन्ने एकदम याद कर लिए, पागल हो जाओगे! काहे को याद कर लिए? भूलो, तुरंत भूलो, डिलीट करो।

प्रश्नकर्ता: ये मैं थोड़ा समझना चाहता हूँ अभी कि जो प्राणायाम और योग हैं, उनके प्रोपर भौतिक फायदे हैं जो लोगों को साफ़-साफ़ दिख जाते हैं। और जो ये अध्यात्म जिसकी आपने बात की, आध्यात्मिक लाभ की, उसका क्या भौतिक फायदा है?

आचार्य प्रशांत: उसका भौतिक फायदा, उसके लिए जो सब भूतों का दृष्टा है। भौतिक फायदे से हमारा क्या मतलब है? शरीर का फायदा। फिर पूछ रहा हूँ, दुख का अनुभव शरीर करता है? सुख का अनुभव शरीर करता है? योग की ओर भी क्या शरीर गया था? योग की ओर भी मन गया था न। मन ने शरीर को आदेश दिया था टाँगो से कहा था “चलो, चलो योगा सेंटर की ओर।”

मन है जो परेशान है, और मन चूँकि अपनी परेशानी को ठीक से पहचान नहीं पा रहा है तो सोचता है कि मेरी परेशानी तन के कारण है। उसकी परेशानी तन के कारण है ही नहीं, या उसकी परेशानी अधिक से अधिक 5–10% शरीर के कारण है। उसकी जो पूरी परेशानी है वह अपने अज्ञान के कारण है।

मन को ज्ञान चाहिए, मन को कसरत नहीं चाहिए।

मैं चौथी-पाँचवीं बार बोल रहा हूँ मुझे कसरत से कोई आपत्ति नहीं है, कसरत मैं भी करता हूँ। लेकिन तुम कसरत को अगर जीवन में बहुत ऊँचा स्थान दे दोगे तो फिर तो हो चुका तुम्हारा योग।

प्रश्नकर्ता: तो इसका मतलब जो लोग जीवन में आनंद और शांति की बात करते हैं, और चाहते हैं कि उसकी तरफ़ कैसे बढ़ें उनके लिए योग और प्राणायाम जो है वह एक आख़िरी समाधान नहीं है।

आचार्य प्रशांत: आख़िरी तो बिल्कुल भी नहीं है, एकदम ही नहीं है। लेकिन ठीक है अच्छी बात है। कृष्णमूर्ति भी जीवन भर कुछ यौगिक क्रियाएँ करते थे, प्राणायम वग़ैरह। अच्छी बात है, उससे उनको 91 साल जीने में मदद मिली। पर 91 साल जीना भी तभी अच्छा है न, जब 91 साल में तुम्हारे पास में करने लायक कुछ हो। उसके लिए मन के पास इतनी सफ़ाई और इतनी दृष्टि होनी चाहिए, पता हो कि ज़िंदगी में करना क्या है? नहीं तो 91 साल जी के क्या करोगे? शरीर तुमने बहुत अच्छा कर लिया और जिए ही जा रहे हो, जिए ही जा रहे हो काहे के लिए?

प्रश्नकर्ता: अब मेरे पास गीता के कुछ श्लोक हैं। मैं चाहता हूँ कि मैं आपसे, जो भी असली अर्थ हैं जो मैं भी शायद हम सब लोग समझ सकें उन पर थोड़ा प्रकाश डालिएगा।

गीता के दूसरे अध्याय में मैंने देखा कि 45वाँ श्लोक है, 48वाँ श्लोक है, 49वाँ श्लोक है, 50वाँ श्लोक है।

मैं कुछ पढ़ता हूँ: 45वाँ श्लोक कहता है कि “वेद तीनों गुणों के कार्य का वरण करने वाले हैं। हे अर्जुन, तू तीनों गुणों से रहित हो जा…

आचार्य प्रशांत: निस्त्रैगुण्य हो जा।

प्रश्नकर्ता: हाँ। “निर्द्वंद् हो जा निरंतर नित्य वस्तु परमात्मा में स्थित हो जा। योग की चाहना भी मत रख और परमात्मा परायण हो जा।”

आगे वो कहते हैं कि “हे धनंजय, तू आसक्ति का त्याग करके, सिद्धि-असिद्धि में सम हो कर, योग में स्थित होकर ही कर्म कर। क्योंकि "समत्व ही योग कहा जाता है।”

आचार्य प्रशांत: जो उन्होंने पहली ही बात कही, उसी से स्पष्ट हो जाएगा, कि योग क्या है? श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि वेदों का जो मीमांसा वाला भाग है पूरा (पूर्व मीमांसा), जिसमें अधिकतर कर्मकांड की बातें हैं। कह रहे हैं देखो, उसमें जितनी भी बातें हो रही हैं, वो सभी प्रकृति के अंतर्गत ही आती हैं जो त्रिगुणात्मक हैं सारी बातें।

तो अर्जुन को समझा रहे हैं कि उन सब बातों के परे जाने को ही योग कहा जाता है। प्रकृति के तीनों गुणों से आगे की जो बात है, उसे योग कहते हैं। तो उसको कह रहे हैं, बड़ा सुंदर शब्द है ये, मुझे प्यारा है ये शब्द। कहते हैं "तुम उन्हें निस्त्रैगुण्य हो जाओ," माने तुम प्रकृति के अतीत चले जाओ, प्रकृति के परे चले जाओ। इसको योग कहते हैं। अब शरीर तो प्राकृतिक है पूरा। तुम शरीर पर ही अटक के रह गए तो तुम इन तीन गुणों से आगे कब बढ़ पाए।

और श्रीकृष्ण साफ़-साफ़ बता रहे हैं कि योग का अर्थ क्या है और इतनी बार उन्होंने इतने श्लोकों में साफ़-साफ़ योग का अर्थ बताया है। बड़े हैरत की बात है, जो अपने आप को योगी बोलते हैं उन्होंने भी इसको कभी पढ़ा नहीं।

प्रश्नकर्ता: अभी मुझे बड़ा अजीब लगता है कि, एक तरफ़ मैं देखता हूँ कि गीता पर बहुत ज़ोर चलता है वेस्ट में, खूब बात करते हैं गीता की और योग की भी खूब बात करते हैं पर कहाँ ये दोनों एक साथ मिल जाते हैं।

आचार्य प्रशांत: वो जो यूनिटी है न, समरस हो जाना एकत्व वो पश्चिम में पाया ही नहीं जाता। इसलिए तो मैं कह रहा हूँ भारत का सबसे बड़ा योगदान विश्व को आत्मा है। आत्मा वो बिंदु है जहाँ सब कुछ आ कर के एक हो जाता है, शून्य हो जाता है।

पश्चिम में तो बल्कि इस बात को सम्मान दिया जाता है कि यदि विचार खंड-खंड हों, कई धाराएँ हों। कहते हैं कई धाराएँ हैं, ऐसी बात है, वैसी बात है, स्कूल ऑफ थॉट है। यहाँ पर ये आइडियोलॉजी ऐसा वैसा। भारत ने ये जो अतुलनीय, अमुल्य योगदान दिया है, वो ये है बताने का कि इन सब विविधताओं में तुम्हें दुख ही मिलेगा। विविधताओं के पार जो एक है बस वही मुक्ति है, वही आनंद है। और वहीं पहुँचने को ही योग कहा जाता है। वहाँ तुम तभी पहुँच सकते हो, जब मन का अवलोकन करना सीखो। यदि तुम मन की जगह तन में ही उलझे रह गए, तो वहाँ कभी नहीं पहुँच पाओगे। तन में उलझ जाना भी माया की एक चाल है, जो तुम्हें योग से दूर ले जाती है, असली योग से।

प्रश्नकर्ता: 48वाँ श्लोक है, इसमें वो कहते हैं, "हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर, सिद्धि और असिद्धि में सम रहते हुए योग में स्थित होकर कर्म कर, क्योंकि समत्व को ही योग कहा जाता है।"

आचार्य प्रशांत: "समत्व ही योग है।” ये सब कुछ तुम्हारे लिए एक जैसा हो जाए। जब सब कुछ एक जैसा दिखने लगे जब तुम्हारे लिए कोई विविधता नहीं रह गई कि यह कम है, यह ज़्यादा है। जो ज़्यादा लगेगा, फिर उसकी ओर भागोगे। भागना तुम्हें किधर को है? वास्तव में तुम्हें किधर को भागना चाहिए? आत्मा की तरफ़। लेकिन अगर तुम्हें विविधता दिखाई देने लग गई, तो यहाँ जो चीज़ तुम्हें ऊँची, आकर्षक, मूल्यवान दिखे तुम उसकी ओर भाग लोगे, लो फंस गए, गड़बड़ हो गई।

तो योग में इसलिए समता का बड़ा महत्त्व है। ममता मिटी, उठी उर समता। हृदय में समता उठनी चाहिए। समता का अर्थ ये नहीं है कि सब कुछ बराबर है। समता का अर्थ ये है कि किसी ऐसी ऊँची चीज़ से प्रेम लग गया है, जिसके आगे अब ये सब कुछ एक-सा दिख रहा है। कैसा एक-सा दिख रहा है? नगण्य, उपेक्ष, नेग्लिजिबल, वर्थ इग्नोरिंग।

कुछ ऐसा मिल गया है कि उसके आगे ये हो या वो हो सब बराबर हो गया है। ठंडा खाना मिल रहा है या गरम खाना सुध किसको है? हमें प्यार हो गया है, ये समता कहलाता है। योग के केंद्र में समता बैठी है तो योग के केंद्र में आत्मा से प्रेम बैठा है। जहाँ प्रेम नहीं है वहाँ योग कैसे हो सकता है?

अध्यात्म — अधिक क्या? प्रेम। अधिक से अधिक प्रेम हो आत्मा के लिए। आत्मा माने अपनी ही उच्चतम अवस्था। अपनी ही उच्चतम हालत से बहुत प्रेम है बहुत ललक है वहाँ पहुँचने की, इसको अध्यात्म कहते हैं।

प्रश्नकर्ता: मैं एक श्लोक और पढ़ना चाहूँगा इसमें से, “जिस काल में शास्त्रीय मतभेदों से विचलित हुई तेरी बुद्धि, निश्चल हो जाएगी और परमात्मा…।

आचार्य प्रशांत: नहीं वहाँ शास्त्रीय नहीं है। वहाँ पर श्रुति शब्द होगा, देखना।

प्रश्नकर्ता: हाँ श्रुति।

आचार्य प्रशांत: उसका आमतौर पर जब ये करते हैं, अनुवाद तो छुपा देते हैं बात को। कौन सा श्लोक है?

प्रश्नकर्ता: ये 53वाँ श्लोक है।

आचार्य प्रशांत: सांख्ययोग 53वाँ श्लोक, वहाँ भी अर्जुन को यही कह रहे हैं कि जितने भी सकाम श्लोक हैं वेदों के, श्रुति के उनको सुन कर के तुम विक्षिप्त हो गए हो।

प्रश्नकर्ता: आप जब सकाम बोल रहे हो, सकाम का मतलब?

आचार्य प्रशांत: सकाम का मतलब होता है कि मैं किसी देवता को कुछ आहुति दूँगा, यज्ञ वग़ैरह करूँगा, तो उससे मुझे कुछ लाभ हो जाएगा। पूरा जो कर्मकांड है, वो सकाम होता है। सकाम मतलब जिससे कामना की पूर्ति होती हो कि ऐसा करो तो ऐसा मिल जाएगा। तुम जाकर किसी मंदिर में फलानी चीज़ चढ़ा दो, तो उससे तुम्हें धन धान्य की प्राप्ति हो जाएगी। यह सब सकाम कर्म है। और श्रीकृष्ण का जो पूरा दर्शन है वो है निष्कामता का।

तो वही यहाँ पर समझा रहे हैं कि यह तुमने सब वेदो में कर्मकांड पढ़ लिया है न अर्जुन, इसी से तुम्हारी बुद्धि ख़राब हो गई है, विक्षिप्त हो गए हो तुम। और इन सब से हट कर के जब तुम निष्कामता में आ जाओगे तब तुम योगी कहलाओगे। निष्कामता का क्या मतलब? निष्कामता का मतलब होता है, हमें मतलब ही नहीं बहुत दुनियादारी से। जिस एक चीज़ से मतलब है, उसको हमने पकड़ लिया है, “हीरा पायो, गाँठ गठी आयो।” हीरा मिल गया है, गाँठ में बाँध लिया है, बाक़ी चीज़ें हमारे लिए बहुत पीछे की हो गई हैं। ये निष्कामता होती है।

निष्कामता के केंद्र में प्रेम बैठा हुआ है, हम सोचते हैं निष्कामता के अर्थ मे त्याग है। त्याग तो अपने आप हो जाता है, अगर होना होता है। प्रेम साधना पड़ता है। तो यह सब जो तुम दुनिया भर के प्रपंच करते रहते हो, ये छोटी चीज़ को पा लूँ, इस से लड़ लूँ, ये झपट लूँ, फलानी चीज़ को किसी तरीक़े से घर ले आ लूँ, फलानी इच्छा की पूर्ति कर लूँ। “जब तुम्हें इन सबसे आगे की एक प्रबल इच्छा पकड़ लेगी, अर्जुन। किसकी इच्छा? मेरी, ‘मामेकं शरणं व्रज।’ जब तुम इतने गहरे प्रेम में पड़ जाओगे कि एक के सिवा किसी और से संतुष्ट नहीं हो तब तुम योगी हो जाओगे। यही योग है।"

प्रश्नकर्ता: अब मुझे समझ में आ रहा है कि श्रीकृष्ण को बार-बार गीता में योगी राज क्यों…

आचार्य प्रशांत: योगी राज इसलिए है क्योंकि वही समस्त योग का लक्ष्य है। श्रीकृष्ण व्यक्ति नहीं, श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व नहीं। श्रीकृष्ण माने, श्रीकृष्ण का मर्म। वही मर्म ब्रह्म और आत्मा कहलाता है, वेदांत में। और इसीलिए गीता का वेदांत में इतना प्रमुख स्थान है।

क्योंकि आत्मा और ब्रह्म जो वेदांत के प्रतिपाद्य विषय हैं, वो श्रीकृष्ण के रूप में गीता में साकार हो आए हैं। तो गीता में जब आप श्रीकृष्ण शब्द पढ़ें, तो उसको आपको आत्मा और ब्रह्म ही पढ़ना होगा। बस यह है कि आत्मा बोलती नहीं, श्रीकृष्ण बोल रहे है। इसीलिए गीता फिर ज़्यादा सशक्त होकर के उभरी है। उपनिषदों से कई ज़्यादा रसीली है गीता। रस और माधुर्य। गीता में ज़्यादा है उपनिषदों की अपेक्षा। क्योंकि उपनिषद् आत्मा को सिद्धांत के रूप में बताते हैं। और गीता में आत्मा सजीव, साकार हो कर के, सगुण हो कर के सामने खड़ी हो जाती है। तो इसीलिए बात एकदम नई हो जाती है, अनूठी हो जाती है।

प्रश्नकर्ता: योग क्या है और क्या नहीं है? इसके ऊपर पूरी चर्चा हुई। ये तो मतलब मेरे लिए काफ़ी नई थी, कुछ चीज़ों में। अब मुझे ये दिख रहा है कि कल जब मैं ट्विटर पर लोगों के योगा दिवस के ट्विट्स पढूँगा तो मुझे कहीं न कहीं अंदर ही अंदर हँसी आ रही होगी, कि चल क्या रहा है ये?

आचार्य प्रशांत: हँसी तो आती है, लेकिन साथ ही साथ बड़ा दुख भी होता है। कबीर साहब का है न वो, हँसूं और रोना साथ आता है। कौन सा है? "डर लागे और हँसी आवे।" हँसी और रोना साथ ही साथ आती है। लेेकिन साथ ही बड़ा दुख भी होता है कि योग जैसी ऊँची चीज़ को तुमने क्या बना दिया। और ये बनाने में मैं क्षमा नहीं कर सकता, जो काम इन कमर्शियल योगा गुरूओं ने किया है। जो काम अब तमाम तरह के राजनेता भी कर रहे हैं, योग को बिल्कुल विकृत ही कर डाला, एकदम विकृत कर डाला। मैंने पिछले योग दिवस पर भी पूछा था, मैंने कहा था, धुरंदरों, महानुभावों, इतना बता दो कि अगर योग का इतना संबंध इस व्यायाम से है, कसरत से है, और शारिरिक स्वास्थ और बल से है तो वहाँ जितने लोग खड़े हुए थे हज़ारों कुरुक्षेत्र में, उनमें सबसे मजबूत तो अर्जुन ही रहे होंगे। अर्जुन को योग की क्या ज़रूरत है?

अर्जुन तो पहले ही सबसे ज़्यादा मजबूत है। हो सकता है शारिरिक दृष्टि से वो श्रीकृष्ण से भी ज़्यादा मज़बूत हों। अर्जुन तो बहुत मज़बूत है। तो अर्जुन को 18 तरह के योग क्यों बताए श्रीकृष्ण ने? अब शारिरिक स्वास्थ के लिए तो नहीं बताए होंगे न। शारिरिक स्वास्थ्य तो अर्जुन का पहले ही बहुत अच्छा है। फिर भी उनको 18 प्रकार के योग बताने पड़ रहे हैं, श्रीकृष्ण को। किस लिए?

दिखाई नहीं दे रहा, कि सीधे-सीधे योग मन की बात है। अर्जुन का मन काँपा जा रहा है। उसको ठीक करने के लिए योग है। तुम क्या बना रहे हो योग को। लेकिन अब मन की सफ़ाई का फोटो शूट हो नहीं सकता न? क्या करें हमारे बेचारे पॉलिटीशियन? ट्वीट कैसे करेंगे कि आज मैंने अपना मन साफ़ करा? क्या बताएँगे कि आज मैंने गीता का पाठ करा? आज मैं योगीराज श्रीकृष्ण के निकट बैठा? क्या बताएँगे? ये सब बातें बताने की नहीं होती, तो फिर दिखाते हैं कि देखो आज मैं भी योगा मैट ले कर लगा हुआ हूँ।

प्रश्नकर्ता: हुआ पूरा ये है कि योग के प्रपंच में जितनी गीता नहीं बिकती, उससे ज़्यादा योगा मैट बिक रहे हैं दुनिया में।

आचार्य प्रशांत: और एक से एक अन्दर से बिल्कुल खाली लोग योग के प्रैक्टिशनर और इंस्ट्रक्टर दोनों बने हुए हैं एकदम खाली लोग। जिनके भीतर ना करूणा है, ना आत्मज्ञान है, ना किसी तरह की कोई समझ है। यहाँ (बुद्धि) से पूरी तरह से खाली। और वो कहते हैं कि, “साहब हम तो दस साल से योग कर रहे हैं कोई अपने आपको योग गुरू, कोई योगी, कोई योगारूढ, कोई कुछ बोल रहा है। और बहुत गर्व भी है लोगों को, कोई बोलेगा मैं 10 साल से सीख रहा हूँ, मैं 15 साल से कर रहा हूँ, मैं इतने लोगों को करा रहा हूँ। यहाँ (बुद्धि) से बिल्कुल खाली। खाली ही नहीं ये मन ऐसा जो आत्मा से घृणा करता है, आत्मा से अरुची और द्वेश रखता है। ऐसा मन रखने वाले लोग भी अपने आपको योग से संबंधित बता रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: क्योंकि जब दिमाग़ हर चीज़ को देह की तरह देख रहा हो...।

आचार्य प्रशांत: देह की तरह देख रहा हो, देह तो उनकी बहुत अच्छी है। उसी देह के दम पर वो अपने आप को योगी सिद्ध करे रहते हैं।

लेकिन उदित इसमें एक चीज़ और है। अच्छी देह माने क्या? यदि जीवन का लक्ष्य है मुक्ति, चेतना को ऊँचे से ऊँचे ले जाना। तो अच्छी देह की परिभाषा भी तो उसी परिप्रेक्ष्य में करनी होगी ना? हमने कहा था कोई भी चीज़, कितनी सही है कितनी गलत, कितनी ऊँची है कितनी नीची है इसका निर्णय आत्मा को ही केंद्र में रख कर किया जा सकता है। तो अच्छी देह माने क्या? एक ऐसी देह, जिसको बनाने के लिए आप चार घंटे लगाते हो, या दो घंटे भी लगाते हो। दो घंटे लगाने के बाद आप दिन भर यही सोचते रहते हो कि, अब इस पर मैं किस तरह के कपड़े पहन लूँ कि और ज़्यादा आकर्षक लगूँ, इत्यादि इत्यादि। ये अच्छी देह है? ये देह तो नर्क है आपका।

अगर आपका चित आपकी देह से ही भर गया है, आप हर समय देह के बारे में ही सोच रहे हो, देह हो सकता है आपकी बहुत स्वस्थ हो, लेकिन ये देह भी आपके मन का नर्क है। तो अच्छी देह माने क्या? देह तो एक संसाधन है, जिसका आपको इस्तेमाल करना है किसी ऊँची जगह पहुँचने के लिए। अच्छी देह वो है, जो प्रस्तुत हो इस्तेमाल होने के लिए।

देखिए दो तरह की गाडियाँ होती हैं, जो बिल्कुल बेकार होती हैं। आपको अपनी मंज़िल तक जाना है, मंज़िल तक जाने के लिए गाड़ी चाहिए, ठीक है? आप मन है, ड्राइवर। मंज़िल मुक्ति है। और गाड़ी क्या है? शरीर। ठीक है? मन को तन में बैठ करके अपनी मंज़िल तक पहुँचना है। अब दो तरह की गाडियाँ हैं जो बिल्कुल बेकार होती हैं। एक तो खटारा गाड़ी, जो हर समय सर्विस सेंटर में पड़ी रहती हो। माने ऐसा शरीर जो अस्पताल में पड़ा रहता है, वो तो है ही बेकार। और आप ऐसी गाड़ी का क्या करोगे? जिसको ख़रीदने के लिए आपको अपनी 10 साल, 20 साल की जमा पूँजी लगानी पड़ रही हो। और आप मंज़िल को भूल करके बस गाड़ी का ही ध्यान रख रहे हो कि कैसे ख़रीद दूँ? कैसे इसकी किस्त भर दूँ?

प्रश्नकर्ता: उस पर स्क्रैच नहीं लग जाए।

आचार्य प्रशांत: अब ऐसी गाड़ी दिखेगी तो बहुत अच्छी, बहुत सुन्दर। वैसे जैसे बहुत लोगों का स्वस्थ शरीर बहुत सुन्दर दिखता है, लेकिन तुमने उस स्वस्थ शरीर की बहुत बड़ी कीमत अदा करी है। जो काम दस लाख की गाड़ी में हो सकता था, तुम्हें मंज़िल तक पहुँचना था, ठीक? वो काम तुमने दो करोड की गाड़ी में करा। अब ये गाड़ी बहुत आकर्षक दिखेगी दूसरों को लेकिन इस गाड़ी को ख़रीदने में तुमने अपनी ज़िंदगी तबाह कर ली कि नहीं कर ली?

वैसे ही शरीर है। तो बहुत बुरा शरीर भी बुरा है। और ऐसा शरीर भी बहुत बुरा है, जिसको स्वस्थ और सुन्दर और आकर्षक दिखाने के लिए तुम दिन के चार घंटे छ: घंटे लगाते हो। तुम्हारी पूरी चेतना ही देह केंद्रित हो गई हो। ऐसा शरीर भी बहुत बुरा है।

प्रश्नकर्ता: यहाँ पर मैं इसी एक्जांपल को थोड़ा आगे बढ़ाऊँ, तो मुझे दिख रहा है कि लोगों को कहीं न कहीं से ये इंपूट मिल गया है कि गाड़ी होनी चाहिए और महंगी होनी चाहिए। मंज़िल की तो कोई बात..

आचार्य प्रशांत: तो फिर ऐसे योगा चलता है। ठीक वही आदमी जो कहता है कि गाड़ी बहुत बड़ी होनी चाहिए, किस मंज़िल पर जाना है ये पता नहीं। ये बिल्कुल वही आदमी है, जो ज़बरदस्त रूप से योगा करेगा। एकदम अपना छाती वाति फुला लेगा और मजबूत हो जाएगा। फिर अपना इंस्टाग्राम में फोटो डालेगा, कि देखो मैं तो योगी हूँ। ये दोनों एक ही आदमी है।

शरीर गाड़ी है। तो तुम्हें पता होना चाहिए, वो कहाँ लेकर जाना है। अगर नहीं जानते कि उस गाड़ी का करना क्या है, तो क्यों उस पर इतना पैसा लगा रहे हो। इतना समय, इतनी ऊर्जा।

प्रश्नकर्ता: अगर मैं इसी एक्जांपल को और खीचूँ तो, बेसिकली बात यह है, कि वो जो अध्यात्म की हम बात कर रहे थे वो जो मंज़िल है वो चुनना, वो अध्यात्म सिखाता है। और बीच में हो सकता है थोड़ी बहुत गाड़ी को सर्विसिंग की ज़रूरत पड़े तो वहाँ अपना...

आचार्य प्रशांत: वहाँ हठ योग की उपयोगिता है बिल्कुल है। हठ योग की बिल्कुल उपयोगिता है। देखो हठ योग को लेकर के सम्मान है मुझमें, बिल्कुल है। ठीक है? आप ये सब जब हठ योगिक मुद्राएँ करते हो, आसन करते हो, आप भले उसको व्यायाम बोल लो, लेकिन लाभ तो उसका होता ही है। बात ये है कि छोटा लाभ कहीं बड़ा नुकसान तो नहीं कर रहा, मैं लोगों का ध्यान इस ओर खींचना चाहता हूँ।

प्रश्नकर्ता: कि कहीं सर्विसिंग में इतना समय लगा दिया कि मंज़िल...

आचार्य प्रशांत: मंज़िल ही भूल गए। तुम गाड़ी की सर्विसिंग करा रहे हो, मंज़िल को भूल गए। और इतना ही नहीं, सर्विसिंग करा के तुम खुश बहुत हो रहे हो कि मंज़िल मिल गई। जैसे सर्विसिंग ही मंज़िल हो।

अब लोग कहते हैं कि मैं योग करूँगा तो मैं जो कुछ भी करना चाहता हूँ, मैं बेहतर कर पाऊँगा ना। ये कितनी मूर्खतापूर्ण नहीं, भयानक बात है। आप योग के, जब आप लोग आते हैं, तो फायदे गिनाते हैं, बेनिफिट्स गिनाते हैं। "अगर आप योग करते हो, तो फिर आप जो कुछ भी करते हो, वो बेहतर, ज़्यादा स्फुर्ति से कर पाओगे।

प्रश्नकर्ता: गीता का श्लोक याद आ रहा है। “योगः कर्मसु कौशलम्।”

आचार्य प्रशांत: उस श्लोक को भी बिल्कुल विकृत करके रख दिया है। “योगः कर्मसु कौशलम्।” वो उस श्लोक के अंतिम तीन शब्द है, आगे क्या बोला है, वो कभी बताया नहीं जाता। योग इसलिए नहीं है कि आप जो कुछ भी करते हो उसको बेहतर करने लगो। और अगर आप कसाई हो तो, योग इसलिए है कि आप और ज़्यादा निपुणता से, कुशलता से जानवरों को काटना शुरू कर दो। अगर कर्म में कुशलता को ही योग कहते हैं, तो एक कसाई का तो यही कर्म है, कि वो काट रहा है। तो वो और कुशलता से काटेगा तो योगी कहलाएगा क्या?

योग इसलिए नहीं होता है कि आप जो भी काम धंधा कर रहे हो, आप उसमें और निपुण और दक्ष हो जाओगे। योग इसलिए होता है कि आप जान पाओ कि करने लायक क्या है? जब योग आएगा आपके जीवन में, असली योग, तो आप वो सारे काम कर ही नहीं पाओगे जो आज करते हो। आपको नौकरी बदलनी पड़ जाएगी। आपको व्यापार अपना बदलना पड़ जाएगा। आपको अपना पूरा जीवन बदलना पड़ जाएगा। आपको इंसान ही एक नया बनना पड़ेगा। असली योग खतरनाक है।

लोग नकली योग के साथ सुविधा से बैठे हुए हैं। नकली योग में ये सब हो जाता है, कि आप हो सकता है बहुत एक भ्रष्ट कहीं पर कर्मचारी हो घूस के बिना आपका काम ही नहीं चलता। तो आप कहो देखो, अगर मैं योगा करता हूँ, तो मैं और ज़्यादा तबीयत के साथ घूस खा पाऊँगा। मैं काला बाजारी करता हूँ, मैं कुछ भी करता हूँ, मैं कोई घटिया काम करता हूँ जीवन में। और वो घटिया काम करने में मुझे क्या हो जाता था? टेंशन। अब योगा हुआ तो मेरा टेंशन दूर हो जाता है, तो मैं उस घटिया काम को अब और ज़्यादा तेजी के साथ कर पाता हूँ। क्या ये है योग का उद्देश्य?

आपके मन को पूरी तरह बदल देने के लिए है, योग। इसलिए नहीं है कि आप अपने पुराने रास्तों पर ही और तेजी से चल सको।

योग इसलिए है कि आपका रास्ता ही बदल जाए, रास्ते पर चलने वाला ही बदल जाए। रास्ता तो बदलेगा ही बदलेगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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