योग का क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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योग का क्या अर्थ है? || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्नकर्ता: योग का अर्थ क्या है?

आचार्य प्रशांत: योग का अर्थ इतना ही है कि जो दो हिस्से मैंने कर रखे होते हैं–अच्छा और बुरा, ये दोनों एक हो गए, इनका योग हो गया क्योंकि योग होने के लिए और कोई दो होते नहीं हैं। योग तो तभी होगा न जब दो हिस्से होंगे। ये दोनों मिलकर एक हो गए, मिलकर एक कैसे हो गए?

कि इन दोनों का जो एक मूलतत्व है, वो उजागर हो गया। मूलतत्व दोनों का एक है ये बात समझ में आ गई, यही योग है।

योग के लिए कुछ पाना नहीं है, जिस ‘एक’ पर आप बैठे थे उसके साथ-साथ ‘दूसरे’ को भी देख लेना है। योग का अर्थ समझिए, योग का अर्थ है–आप पुण्य पर बैठे हो, तो आप योगी नहीं हो सकते, क्यों? क्योंकि पाप वहाँ दूर बैठा है और वो आपकी दुनिया से निष्कासित है।

आप योगी नहीं हो सकते, योगी होने का अर्थ है–मैं पुण्य पर बैठा हूँ और एक काबिलियत है मुझमें कि मैं पाप पर भी चला जाऊँ, बिलकुल करीब चला जाऊँ उसके, बिलकुल, बिलकुल करीब। इतना करीब कि पापी कहला ही जाऊँ और वहाँ जा करके साफ़-साफ़ मैं ये देख लूँ कि पाप का तत्व भी वही है जो पुण्य का तत्व है–ये योग है। रंग अलग-अलग हैं दोनों के, पर तत्व एक है। यही योग है, अब दोनों एक हैं, समझ में आ रही है बात?

तो हम में से जो लोग किसी भी द्वैत के एक सिरे पर बैठे हों उनको दूसरे सिरे के करीब जाना पड़ेगा अगर उन्हें योग में प्रतिष्ठापित होना है। जिन चीज़ों को आज तक आपने महत्वपूर्ण बोला है, ये द्वैत का एक सिरा है, कि ये महत्वपूर्ण है। और द्वैत का दूसरा सिरा क्या होता है?

ये ‘महत्वहीन’ है। जिन बातों को आप ने आज तक महत्वपूर्ण बोला है उनको आपको जागरुक होकर ‘महत्वहीन’ कहना पड़ेगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि कुछ महत्वपूर्ण होता है और कुछ महत्वहीन होता है।

ना कुछ महत्वपूर्ण होता है और ना कुछ महत्वहीन होता है, जो होता है, बस होता है।

लेकिन चूँकि आप कुछ बातों को बहुत महत्व देते आए हो इसीलिए अब आपके लिए आवश्यक हो जाएगा कि आप उनको जान-बूझ कर महत्व देना छोड़ो या उनके विपरीतों को महत्व देना शुरु करो। तो, मैं ये कहता हूँ कि चमक-धमक को, रूपए-पैसे के प्रदर्शन को, भोग को, बड़ा महत्व दिया है न तो अब जाकर के किसी शॉपिंग मॉल के सामने खड़े हो जाओ, और ये सीखो, कि ध्यान से देखूँगा सब, ध्यान से देखूँगा सब और फिर ज़ोर से कहूँगा अपने-आप से कि ‘ये सब झूठ है’ क्योंकि आज तक तुमने उसी शॉपिंग मॉल में, उस सुनहार की दुकान को देख करके, उस फ़ूड कोर्ट को देख करके, उस कपड़े की दुकान को देख करके अपने-आप से यही कहा है कि ‘ये सब कुछ असली है और महत्वपूर्ण है’। तो अब बहुत ज़रूरी है कि तुम वहाँ पर जाओ और खड़े होओ और ज़ोर से अपने-आप को ही घोषणा करो कि ‘ये सब कुछ झूठा है और नकली है’।

पद को, प्रतिष्ठा को और ताक़त को तुमने बहुत महत्व दिया है आज तक, तो अब बहुत ज़रूरी है कि सड़क से जब वो लाल बत्ती वाला काफ़िला गुज़र रहा हो तो उसको देखो और बजाए इसके कि हैरान हो जाओ कि, ‘अरे! एक आदमी के पीछे बीस गाड़ियाँ और सौ गुंडे’। वहाँ खड़े हो जाओ, ध्यान से देखो और कहो–‘झूठ है ये सब’, यही योग है, कि एक सिरे पर बैठे थे और उसको ही सच मान लिया था, उसी से अपनी पहचान बना ली थी, उसी से जुड़ गए थे, पर अब हम जा रहे हैं दूसरे पर भी।

इसका अर्थ यह नहीं है कि एक सिरे से उठ कर दूसरे सिरे पर बैठ जाना है, ग़लत मत समझ लेना। नहीं कहा जा रहा है कि पहले चिल्लाते थे ‘महत्वपूर्ण-महत्वपूर्ण’ और अब चिल्लाओ ‘महत्वहीन-महत्वहीन’। नहीं कहा जा रहा है कि पहले तुम वो सारे काम करते थे जो पुण्य कहलाते हैं और अब तुम वो सारे काम करने लगो जो पाप कहलाते हैं। ये नहीं कहा जा रहा है। कहा ये जा रहा है कि जब तक तुम पाप के करीब नहीं जाओगे, तुम जानोगे कैसे कि पाप का तत्व वही है जो पुण्य का है। तो तुम्हारा योग कभी सधेगा नहीं अगर तुम पाप से दूर ही दूर रहे। इसलिए जो लोग बड़ा स्वछतापूर्ण जीवन बिताते हैं वो बड़े अधूरे-अधूरे से रह जाते हैं। लगता तो ऐसा ही है कि जीवन इनका बड़ा साफ़ रहा, कभी इन्होंने कोई बुरा काम नहीं करा पर उनका जीवन फिर खिल भी नहीं पाता क्योंकि जो बुराई के करीब ही नहीं गया, जिसको बुरा कहा जाता है, उसके करीब ही नहीं गया तो उसको जानेगा कैसे? और भूलना नहीं कि जिसको तुम बुरा कहते हो उसका कर्ता भी वही परमात्मा है। तुम अगर बुराई को ठुकरा रहे हो, तो तुम उस परमात्मा को ठुकरा रहे हो।

योगी की आँख को पाप में भी, हत्या में भी, चोरी और डकैती में भी, निकृष्ट-से-निकृष्ट कर्म में भी वही तत्व दिखाई देता है जो उसे किसी मंदिर में दिखाई देता है।

तब आप योगी हुए, योग का अर्थ ही यही है कि मेरी आँख को अब दो दिखते ही नहीं, एक ही नज़र आता है। अब ये बड़ी असुविधा की स्थिति है कि बड़ी मुश्किल से तो हमने संयम साधा है, बड़ी मुश्किल से तो हमने अच्छा वाला आचरण साधा है और अब ये हमसे कह रहे हैं कि जो अच्छा वाला साध लिया है वही तुम्हारा बंधन है। तो तुम अब बुरे हो जाओ। बुरे हो नहीं जाओ, उसके बहुत करीब जाओ, उसे देखना पड़ेगा। जैसे अच्छे नहीं हो जाओ वैसे ही बुरे भी हो नहीं जाओ।

प्र: सर, करीब जाने से क्या तात्पर्य है आपका?

आचार्य: कैसे जानोगे कि क्रोध क्या है अगर उसके करीब नहीं गए? जिन बातों को पाप की संज्ञा दे दी है, उनको समझोगे कैसे अगर उनमें कभी उतरे ही नहीं?

प्र: सर, एक बार सब कुछ कोशिश कर सकते हैं?

आचार्य: तुम बचोगे सब कुछ कोशिश करने के लिए?

कह तो ऐसे रहे हो जैसे तुम परम-पुरुष हो। अभी इन्होंने (प्रश्नकर्ता की ओर इशारा करते हुए) जो कहा उसमें कितनी मान्यताएँ छुपी बैठी हैं इसको समझना, ये समझ रहे हैं कि ये जो यहाँ बैठे हुए हैं ये ‘ए’ हैं, ये सोच रहे हैं कि ‘ए’ एक कर्म करेगा फिर दूसरा कर्म करेगा फिर तीसरा करेगा और ‘ए’ सब कुछ करेगा, जो इन्होंने कहा कि ‘सब कुछ कोशिश करें’, ‘ए’ सब कुछ करेगा लेकिन फिर भी ‘ए’ ही रहेगा।

अरे! तुम पहला ही कर्म करोगे तो तुम ‘ए+’ या ‘ए-’ हो जाने वाले हो! वो ‘ए’ बचेगा कहाँ सब कुछ कोशिश करने के लिए! और सब कुछ कर-कर के भी ‘ए’ ही बचा रह रहा है तो ‘ए’ कुछ कर ही नहीं रहा। ‘ए’ फिर एक ही काम कर रहा है कि वो अपने-आप को बचा रहा है।

जीवन की जो मूल मान्यताएँ हैं उनको देखो न, तुम मानते हो कि मैं वही रहूँगा, तुम अभी दो घण्टे पहले जो थे वो तुम अब नहीं हो, तुम एक गहरे कर्म में उतरोगे जो तुमने आज तक नहीं किया उसके बाद तुम वही रह जाओगे जो तुम पहले थे?

मैं कह रहा हूँ जीवन से तुमने जिन बातों को निष्कासित कर रखा है ज़रा उनके करीब जाओ और उनके करीब जाने के बाद तुम बचोगे क्या?

तुम्हारा पूरा व्यक्तित्व हिल जाएगा, तुम्हारी पूरी हस्ती घुल सी जानी है। ये सवाल भी कि सब कुछ कोशिश करें, ये ‘ए’ पूछ रहा है, ‘ए+’ थोड़ा ज़्यादा समझदार होगा, वो ये पूछेगा ही नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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