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ये किसने किया भारतीय महिलाओं के साथ? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। पिछले डेढ़ साल से आपको सुन रहा हूँ, काफ़ी स्पष्टता आयी है और बहुत क्लियरिटी मिली है, उसके लिए आपका और आपकी संस्था का दिल से आभार।

आचार्य जी, मेरे घर की औरतों से संबंधित ये सवाल है। मेरी नानी का सन् दो हज़ार सत्रह में ऑपरेशन से गर्भाशय निकाला गया। दो हज़ार बीस में उनकी मौत हो गई। डॉक्टर ने बोल दिया था कि ऑपरेशन के समय ऑफ (मृत्यु) हो सकती हैं, नहीं तो एक साल ज़िंदा रहेंगी। लेकिन नानी, सुपर नानी थीं, तो दो हज़ार बीस तक निकाल ले गईं वो। मौसी का पिछले अक्टूबर महीने में घुटने का ऑपरेशन हुआ और माँ का नौ साल पहले स्पाइन का ऑपरेशन हुआ है।

मैंने जब से आपको सुनना शुरू किया है, तो देख रहा हूँ, मुझे समझ आ रहा है कि औरतों की ज़िंदगी जो होती है, मिडिल क्लास हाउसवाइफ (मध्यमवर्गीय गृहणी) की, वो एक मीडीओकर (औसत) होती है।

पिछले साल की बात है, मेरे घर के नज़दीक एक महादेव का मंदिर है, एक डेढ़ किलोमीटर दूर। वहाँ तक मैं पैदल जाता था, तो मंदिर की तरफ़ जाने वाला रास्ता बाज़ार से होकर गुज़रता था। बाज़ार में बहुत सारी महिलाएँ अपनी छोटी बच्चियों के साथ शॉपिंग (खरीदारी) करने आती थीं। कोई ज्वेलरी (गहने) खरीद रही हैं, कोई कॉस्मेटिक्स (सौंदर्य प्रसाधन) खरीद रही हैं। मैंने कहा, 'ये तो रोज़ का है, इनको शॉपिंग पसंद है, करती होंगी।'

फिर इसी साल मैंने रनिंग शुरू की। घर के नज़दीक एक फिज़िकल एजुकेशन (व्यायाम शिक्षा) का कॉलेज है, जहाँ चार सौ मीटर का एक ट्रैक (पथ) है, तो मैं वहाँ जाकर दौड़ता था। वहाँ मैंने कुछ अद्भुत ही देखा, वहाँ कुछ अलग ही था नज़ारा। वहाँ बास्केटबॉल और फुटबॉल खेलने वाले, दौड़ लगाने वाले, क्रिकेट खेलने वाले, सारे-के-सारे पुरुष, दो या तीन लड़कियाँ सिर्फ़। मैंने जाकर पूछा, 'तुम गोला-फेंक कर रही हो और दौड़ लगा रही हो, इसका औचित्य क्या है? क्यों कर रही हो ये?' वो बोली, 'इस साल महाराष्ट्र में पुलिस भर्ती है, तो उसकी तैयारी में लगे हैं।'

कभी वो दिखती थी, कभी नहीं दिखती थी। अब ऐसा नहीं है कि मैं उनको देखने जाता था। मैं बस बता रहा हूँ कि खेल के मैदान में शाम के समय औरतों की जो उपस्थिति है, वो बहुत कम है। और उनकी उपस्थिति बाज़ार में ज़्यादा है—यही कॉस्मेटिक, श्रृंगार, सजावट की चीज़ें—और इसको मैं अपने घर की औरतों से रिलेट (संबद्ध) कर पा रहा हूँ। उनको बाहरी दुनिया का कुछ पता नहीं, आत्मज्ञान उनमें है नहीं, आत्मजिज्ञासा उन्होंने कभी करी नहीं, अंधविश्वासी बहुत हैं।

कभी मैं घर में झाड़ू लगाता हूँ तो झाड़ू को दीवार से टिकाकर रखता हूँ, तो मम्मी बोलती हैं, 'नहीं, लिटाकर रख।' मैंने पूछा, 'क्या है यह? तुम यह सब अंधविश्वास क्यों मानती हो?'

उन्होंने कभी स्पोर्ट्स भी नहीं खेला, तो तीनों-के-तीनों ने भुगता भी है, फिजिकल चैलेंजेस। मेनोपॉज (रजोनिवृत्ति) के बाद, चालीस-पैतालीस के बाद फिर समस्या हो जाती है। देखता हूँ तो तकलीफ़ होती है कि हम कहाँ पीछे रह गए। तो मेरा सवाल है कि बेटियों की कंडिशनिंग हमने ऐसी क्यों करी?

आचार्य प्रशांत: आप थोड़ा जानकार हो गए हो, आपने थोड़ा पढ़-लिख लिया है, तो आप कंडिशनिंग शब्द का इस्तेमाल कर रहे हो। कंडिशनिंग शब्द जो है, वो एक उलाहना की तरह होता है, वो नकारात्मक शब्द है। और यह बात आदमी जब एक तल पर पहुँच जाता है न, तो ही समझ पाता है कि मन की जो सामग्री है, मन जिसको कीमत देता है, जिसको सच भी मान लेता है, वो सारी सामग्री सिर्फ़ कंडिशनिंग है। तो पढ़ने-सुनने-देखने के कारण आपका मन एक तल पर पहुँच गया है, तो आप कह पा रहे हो कि हमारी भारतीय महिलाएँ कंडीशन्ड (संस्कारित) हैं।

आप किसी आम आदमी से पूछोगे, तो वो महिलाओं की जो मानसिक स्थिति है, उसके लिए कंडीशन्ड शब्द का इस्तेमाल नहीं करता। और यहीं पर सारा खेल बर्बाद हो रहा है। वो यह नहीं कहेंगे कि हमारी महिलाएँ कंडीशन्ड (संस्कारित) हैं, वो कहेंगे हमारी महिलाएँ कल्चर्ड (सुसंस्कृत) हैं। यह तो हमारी संस्कृति है न।

तो बस, यही है उत्तर।

आपके पास—पहली बात—सच्ची धार्मिकता नहीं है। दूसरी बात, आपके पास संस्कृति के नाम पर अपसंस्कृति है—विशेषकर महिलाओं के संदर्भ में। और पहली बात और दूसरी बात का घनिष्ठ संबंध है, क्योंकि संस्कृति सत्संस्कृति तभी होती है, अच्छी संस्कृति, सच्ची संस्कृति तभी होती है, जब उस संस्कृति का आधार धर्म हो।

हमारी संस्कृति का आधार धर्म नहीं है, हमारी संस्कृति का आधार परंपरा है। हमने परंपरा को, माने अतीत में जो कुछ चल रहा था, हमने उसको ही संस्कृति बना लिया है, और हमारी महिलाएँ उसी संस्कृति को जी रही हैं। और इसीलिए हमारी महिलाएँ जी कम रही हैं, मर ज़्यादा रही हैं। वो जी भी रही होती हैं, तो वैसे ही जैसे अभी आपने वर्णित किया कि बीमार हैं, शारीरिक रूप से अस्वस्थ हैं, मानसिक रूप से अज्ञानी हैं, अंधविश्वासों से भरी हुई हैं, डरी हुई हैं। वो उनकी हालत है।

लेकिन एक बात आप देखिएगा, आप जिन महिलाओं की बात कर रहे हैं वो सामाजिक रूप से सम्मान खूब पाएँगी। सामाजिक रूप से उन्हें सम्मानित किया जाएगा यह कहकर कि देखो कितनी अच्छी महिला है, घर में ही रहती है, बाहर का कुछ जानती नहीं, पति की सेवा करती है, बच्चों का पोषण करती है। यही तो कहा जाएगा न?

(तभी माइक डगमगाने लगा)

(आचार्य जी ने चुटकी लेते हुए कहा, 'इसको संभालो भाई, महिलाओं जैसा हो रहा है। अपने पैरों पर यह भी नहीं खड़ा हो पा रहा और इस बात को बड़ा सम्मान मिलेगा।')

जो महिला आश्रित है पुरुष पर, वो सम्मान की पात्र होती है। इसको हम कहते हैं, 'यही तो हमारी महान भारतीय संस्कृति है।' आप एक आम आदमी से पूछिए, वो ज़्यादा सम्मान गृहणी को ही देता है, बजाय काम-काजी महिला के। यह बात है कि नहीं है? मैं मेट्रोज़ की बात नहीं कर रहा। मैं जनसंख्या के उस दो-चार प्रतिशत तबके की बात नहीं कर रहा हूँ, जो पढ़-लिख गया है, जो थोड़ा जागृत हो गया है या कि जो आध्यात्मिक रूप से सशक्त है।

देखिए, दो ही वर्ग होते हैं, जो हमारी अपसंस्कृति के पार जा पाते हैं। या तो वो जो खूब पढ़-लिख गए या फिर वो, जो आध्यात्मिक हो गए। जो पढ़-लिख जाते हैं, वो अपनी अलग तरीके की संस्कृति बना लेते हैं। और जो आध्यात्मिक हो जाता है, वो जान जाता है कि जिसको आप संस्कृति कहते हैं, वो आधारहीन है, वो अध्यात्महीन है, इसलिए वो पालन करने योग्य नहीं है।

जिसको आप अपनी महान, गौरवशाली भारतीय संस्कृति कहते हैं, उसका सबसे बड़ा और भारी ख़ामियाजा हमारी महिलाओं ने ही तो भुगता है। हम बोला भी तो करते हैं कि संस्कृति को बचाने का और बनाए रखने का दारोमदार महिलाओं पर होता है। महिलाओं के कंधों पर बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। यही तो संस्कृति की वाहिका हैं।

और क्या है तुम्हारी संस्कृति? वही जो तुम देख रहे हो। जिसका कभी आपने अभी वर्णन करा है — घर में पड़ी रहो, न पढ़ो, न लिखो, न दुनिया देखो, पति की सेवा करो। यही तो हमारी आदर्श भारतीय नारी है न? पति की सेवा करो, पति के माँ-बाप की भी सेवा करो, बच्चों की सेवा करो।

आप तो झटका ही खा जाएँगे, आपको कोई महिला मिल जाए, जिसको आप बहुत दिनों से जानते रहे हों, आदर्श भारतीय गृहणी के रूप में और आपको एक दिन वो मिल जाए टी-शर्ट और शॉर्ट्स पहनकर और हाथ में बैडमिंटन या टेनिस का रैकेट लेकर दौड़ती हुई जा रही हों कि मैं तो खेलने जा रही हूँ। आपका दिल टूट जाएगा! आप कहेंगे, 'अरे! आज भारतीय संस्कृति बिलकुल ही बर्बाद हो गई। कितना बुरा समय आ गया है। घर की देखभाल करने की जगह, बच्चें पालने की जगह, पति के पाँव मिंजने की जगह, सास के बाल धोने की जगह, यह रैकेट उठाकर सड़क पर कूदने निकल पड़ी?'

इसी तरीके की भाषा का इस्तेमाल होगा। 'कि अब यें इस उमर में सड़क पर कूदेंगी?' ऐसे ही ताना मारा जाएगा। यही तो तुम्हारी भारतीय संस्कृति है। और कितने अफ़सोस की बात है कि इस संस्कृति का समर्थन भी सबसे ज़्यादा औरतें ही करती हैं। क्योंकि यह संस्कृति उन्हें घर की चार दीवारों की सुविधा दे देती है। आप यह नहीं देख रहे हो कि जिसे आप भारतीय संस्कृति बोल रहे हो, वो वास्तव में पिछले पाँच सौ, सात सौ साल की गुलामी, गरीबी और अशिक्षा का परिणाम है।

आपका पिछले पाँच-सात सौ साल पहले का अतीत क्या है? गुलामी, गरीबी, अशिक्षा। तो यह बात एकदम साफ़ नहीं है कि जो यह पाँच सौ साल से संस्कृति निकली है, वो भी गड़बड़ ही संस्कृति होगी? भाई, आज आप उस संस्कृति का पालन तो कर नहीं रहे, जो आज से दो हज़ार साल पहले थी।

दो हज़ार साल पहले आज से भारत में बहुत खुली हुई संस्कृति थी। तब महिलाओं का अलग स्थान था और महिलाओं के ज़बरदस्त अधिकार थे और महिलाएँ बहुत उन्मुक्त, मुक्त जीवन जीती थीं। लेकिन आप उस संस्कृति की तो बात ही नहीं करते। वह संस्कृति तो बहुत पीछे छूट गई। आप आज जब कहते हो, 'हमारी महान गौरवशाली भारतीय संस्कृति', तो आप किस संस्कृति की बात कर रहे हो? यही पिछले दो-चार सौ सालों की।

भारत में दो सौ, चार सौ सालों में क्या रहा है? मैं तीन चीज़ें कहा करता हूँ — गरीबी, गुलामी और अशिक्षा। ठीक बोल रहा हूँ बिलकुल? साथ में कुपोषण भी जोड़ दो, लेकिन पहले ही कुपोषण गरीबी में शामिल है—गरीबी, गुलामी, अशिक्षा।

तो आपकी आज की जो संस्कृति है, जिसका आप गुणगान करते फिरते हो, उसके आधार में धर्म या अध्यात्म नहीं है; आपकी संस्कृति के आधार में गरीबी, गुलामी और अशिक्षा है। और यह कितने ज़्यादा अफ़सोस की बात है; त्रासद बात है कि आप ऐसी ही संस्कृति को बचाए रखना चाहते हो। ऐसी संस्कृति जो उठ ही गुलामी से रही है, आप अपनी गुलामी को बचाए रखना चाहते हो?

आप अंग्रेज़ों के गुलाम थे। उससे पहले आप अन्य बाहरी आक्रांताओं के गुलाम थे। वहाँ से आ रही है आपकी आज की संस्कृति। और आप कहते हो, 'यही तो है हमारी अपनी गौरवशाली संस्कृति।' यह आपकी अपनी कैसे हो गई भाई? यह तो आपके ऊपर आक्रांताओं और अंग्रेज़ों ने लादी है, गरीबी ने लादी है, आपके अज्ञान ने लादी है। ये आपकी अपनी कहाँ से हो गई?

आपकी अपनी संस्कृति तो वो हो जो आपके अपने अध्यात्म से उठती हो; पर अपने आध्यात्मिक ग्रंथ तो आपने कभी पढ़े ही नहीं, तो आपको अपनी संस्कृति का कुछ पता नहीं। आप एक विचित्र-सी, गरीबी की, पंचमेली खिचड़ी संस्कृति को कह रहे हो अपनी संस्कृति। आपकी संस्कृति क्या है आज? यही कि कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा। यह है आपकी संस्कृति।

आपको पता भी नहीं है कि आप जिसको अपनी संस्कृति कहते हो, उसमें से कितने तत्व तो अंग्रेज़ों ने दे दिए हैं। विक्टोरियन मॉरलिटी हैं वो, बस! कितने तत्व उसमें मुगलों ने दे दिए हैं। पर आप बोलते हो, यह हमारी महान भारतीय और हिंदू संस्कृति है।

आप जिसे अपनी संस्कृति बोलते हो, मुझे बताओ, उस संस्कृति को आपके अपने ग्रंथ वैलिडेट (मान्य) करते हैं क्या? उस संस्कृति का प्रमाण आपको अपने ग्रंथों में मिलता है कहीं? और आपके मूर्धन्य ग्रंथ हैं वेद, और आपका केंद्रीय दर्शन है वेदांत। मुझे बताइए, वेद और वेदांत में वो संस्कृति कहाँ है, जिसका आज आप पालन कर रहे हो? क्यों इसको अपनी संस्कृति बोलते हो? क्यों अपनी ही महिलाओं पर इतना अत्याचार करते हो? और अत्याचार ऐसे ही नहीं होता कि उनको डंडा लेकर मारा जाए। तुम उन्हें जीवन की तमाम संभावनाओं से वंचित कर दो, यह कोई छोटा अत्याचार है?

बोलो।

शिक्षा का स्तर आज भी महिलाओं में कम है। और नई लड़कियाँ तो फिर भी थोड़ा सौभाग्य रखती हैं कि उनको अच्छा पढ़ने को मिल जाता है, दुनिया देख लेती हैं। थोड़ा-सा ही जैसे पीछे जाओ, माँओ की उम्र में पहुँच जाओ, तो वहाँ स्थिति बिलकुल अलग है। फिर चूँकि आपकी संस्कृति इस बात को कोई महत्व, कोई सम्मान देती ही नहीं है कि लड़कियाँ भी जीवन के तमाम क्षेत्र में आगे बढ़ सकती हैं, खेल-कूद सकती हैं।

अभी तो मैंने बात करी थी कि वो टेनिस खेलने जा रही हैं, इसी पर लोगों की भृकुटियाँ तन जाएँगी। अगर वो कहीं स्विमिंग करने जा रही हों, माताजी, तब तो वो सीधे-सीधे— मुझे लगता है—बदचलन ही कहला जाएँगी। 'देखो, ज़रा बनवारी की अम्मा को अब बिकिनी पहनकर पानी में कूदेंगी।' ऐसे ही कहेंगे। ऐसे ही कहेंगे न?

और आपने कहा, 'एक जगह है जहाँ पर महिलाएँ खूब पायी जाती हैं।' कहाँ? बाज़ार। वो भी उन्हें आपकी संस्कृति ने ही सिखाया है कि महिलाएँ पुरुष के भोग की वस्तु है, पहली बात। दूसरा, उन्हें घर चलाना है, तो घर चलाने का जो सामान है, वो खरीदने पहुँच जाती हैं। दूसरा, अपने साज-श्रृंगार की चीज़ें, वो खरीदने पहुँच जाती हैं। यह जितने भी सौंदर्य प्रसाधन होते हैं, कॉस्मेटिक्स , यह निन्यानवे प्रतिशत महिलाएँ ही तो खरीद रही हैं।

सोचो तो! क्रिकेट बैट हो, चाहे बैडमिंटन रैकेट हो, वो निन्यानवे प्रतिशत पुरुष खरीद रहे हैं। और शरीर चमकाने की, मुँह चमकाने की चीज़ें जितनी हैं, वो निन्यानवे प्रतिशत महिलाएँ खरीद रही हैं। यह है हमारी संस्कृति। और कोई इस संस्कृति के विरुद्ध बोल दे तो हम उसका गला पकड़ने को तैयार हो जाते हैं।

और अब तो महिलाएँ फिर भी बच गईं। नहीं तो यही संस्कृति अभी कुछ ही दशकों पहले तक महिलाओं से कहती थी — 'बाल विवाह करो।' 'विधवा हो गई हो, तो बाल मुंडवा लो।' 'सफ़ेद साड़ी पहनकर रहो।' 'विधवा विवाह जैसी तो कोई चीज़ हो ही नहीं सकती।' 'लड़की ज़्यादा पढ़-लिख कर क्या करेगी?'

कितनी ही महिलाएँ गाँवों-कस्बों में मर गईं। और आज भी ऐसा होता होगा कि वो डॉक्टर के पास नहीं जा सकतीं, क्योंकि उनके ऊपर यह शर्त है कि लेडी डॉक्टर को ही दिखाना। यौन समस्याएँ ही नहीं, वो साधारण भी अपना चेकअप (जाँच) मेल डॉक्टर (पुरुष चिकित्सक) से नहीं करा सकती हैं, घर वाले फब्तियाँ कसेंगे। और यह सबकुछ आप कर रहे हो भारतीयता के नाम पर।

यह सब आपकी संस्कृति में ही तो चलते थे न — सती प्रथा, दहेज़ प्रथा, बाल विवाह? अगर संस्कृति को ही बचाए रखना है, तो फिर इन सबको भी बचाए रखो; इनको क्यों नहीं बचाते?

अध्यात्म कहता है, जीवन का एक ही लक्ष्य है — बोध, मुक्ति। और दोनों एक ही चीज़ के दो नाम हैं। जीवन का लक्ष्य है मुक्ति। स्त्री हो या पुरुष, दोनों के जीवन का एक ही लक्ष्य है — मुक्ति तक पहुँचना। तो संस्कृति, सही संस्कृति, सत्संस्कृति वो होगी जो महिला और पुरुष दोनों को मुक्ति की ओर भेजेगी।

अगर हमारी संस्कृति अध्यात्म पर आधारित हो, तो उसमें महिला और पुरुष दोनों के लिए अपने बंधनों को काटने के पर्याप्त अवसर होंगे। अवसर ही नहीं होंगे, उन्हें प्रेरित किया जाएगा कि ऐसे जियो कि बंधन काटने हैं। उन्हें इस तरह से संस्कारित किया जाएगा कि वो अपने बंधन काटें।

और संस्कारों का फिर यही अर्थ होगा—घर में, विद्यालय में जो संस्कार सिखाए जाएँगे, उनका उद्देश्य यही होगा कि बच्चा या बच्ची अपने भीतर के और बाहर के बंधनों को, अपनी सीमाओं को पहचाने, उनसे लड़े, उनको जीते। यह संस्कृति होगी, जो अध्यात्म पर आधारित होगी।

पर हमारी संस्कृति अध्यात्म पर आधारित नहीं है। हमारी संस्कृति कहाँ से आ रही है? गुलामी, गरीबी, अशिक्षा। और यह है कि नहीं बड़े-से-बड़े खेद की बात कि भारत के पास, सनातनियों के पास विश्व का उच्चतम दर्शन है, लेकिन हमने उस उच्चतम दर्शन को एक तरफ़ रख दिया है।

हमने कहा, 'इस दर्शन पर हम नहीं अपनी संस्कृति खड़ी करेंगे।' हम अपनी संस्कृति किस पर खड़ी करेंगे? अपनी परंपरा पर। और परंपरा कहाँ से आ रही है? गुलामी, गरीबी, अशिक्षा। यह हमारी संस्कृति के स्तंभ हैं। और चूँकि यह चीज़ पीछे से चली आ रही है, तो हम कहते हैं, 'हमारी महान परंपरा है, हमारे पुरखों ने ऐसा करा, हम कैसे छोड़ सकते हैं।'

इतना ही नहीं है, हमने परंपरा को संस्कृति बना लिया और संस्कृति को धर्म। हम ऐसे ज़बरदस्त लोग हैं। परंपरा को हम मानते हैं कि परंपरा का ही नाम संस्कृति है और संस्कृति को हम मानते हैं कि संस्कृति का ही नाम धर्म है। वाह! वाह!

'अच्छी महिला तो वह है जो घर में सबको खिलाकर के फिर खुद खाती है।' नतीज़ा? पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में कुपोषण कहीं ज़्यादा पाया जाता है। लेकिन वो कहलाएगी आदर्श हिंदू महिला, क्योंकि वो सबको खिलाकर तब खुद खाती है। सबका पेट पूरा भर देती है। और घर के पुरुष, और हो सकता है घर के लड़के-बच्चे भी, एकदम मस्त मुटियल हों और महिला कुपोषण का शिकार, एनीमिक। दुनिया के किसी भी देश से ज़्यादा भारतीय महिलाएँ एनीमिक हैं, क्योंकि वो संस्कृति का पालन कर रही है न।

और मुझसे कहा जाता है, 'आप संस्कृति का समर्थन नहीं करतें, ग़लत बात है!' मैं कहता हूँ, 'मैं दो में से एक का ही समर्थन कर सकता हूँ; या तो अध्यात्म का समर्थन कर लूँ या संस्कृति का। और तुम्हारी जो संस्कृति है, वो अध्यात्म से मेल खाती नहीं। जिस दिन संस्कृति अध्यात्म से मेल खाने लगेगी, मैं भी खड़ा हो जाऊँगा संस्कृति का समर्थन करने के लिए।' और हमारी संस्कृति के कुछ तत्व अभी भी ऐसे हैं जो आध्यात्मिक हैं, मैं उनका पूरा समर्थन करता हूँ।

संस्कृति माने क्या होता है? जीने का तरीक़ा। आप क्या खा रहे हो, क्या पी रहे हो, क्या मान रहे हो, क्या धारणाएँ रख रहे हो, क्या आपकी वेशभूषा है, क्या आपकी भाषा है, सम्बन्धों में किस प्रकार आप एक-दूसरे को संबोधित करते हो — यह सब संस्कृति के अंतर्गत आता है। यही संस्कृति है। माने आपकी ज़िंदगी के तौर-तरीकों का नाम संस्कृति होता है। उसमें आपकी पूजा पद्धति भी शामिल हो जाती है, आप किन तरीकों से पूजा करते हो।

बहुत महत्वपूर्ण चीज़ है न संस्कृति! संस्कृति माने ज़िंदगी। और अगर संस्कृति इतनी महत्वपूर्ण है, तो संस्कृति का आधार—फिर पूछ रहा हूँ—गुलामी, गरीबी और अशिक्षा को बनाओगे या अपने उच्चतम अध्यात्म को बनाओगे? बोलो।

अध्यात्म से हमें कोई लेना-देना नहीं। यह जितने घूम रहे हैं संस्कृतिवादी, जो बार-बार बोलते हैं, भारतीय संस्कृति, भारतीय संस्कृति, इनसे अध्यात्म की दो बात पूछ लो, इन्हें कुछ पता नहीं। हाँ, संस्कृति के नाम पर इनसे दंगे करवा लो, ये कर देंगे। संस्कृति पर नारे लगवा लो, लगा देंगे। अध्यात्म पूछ लो, कुछ नहीं जानते।

हमारी संस्कृति उत्थान माँग रही है। और संस्कृति के उत्थान की माँग सबसे ज़्यादा महिलाओं को करनी चाहिए। महिलाएँ सबसे आगे होनी चाहिए विरोध करने में कि यह पुरानी, सड़ी-गली संस्कृति अब नहीं चलेगी बाबा! हमें एक नई, सुधरी हुई, आध्यात्मिक संस्कृति चाहिए। हमें वेदांत आधारित संस्कृति चाहिए, हमें उच्चतर मूल्यों पर आधारित संस्कृति चाहिए। यह पुरानी, पिछड़ी हुई बातें, जिनका संबंध अशिक्षा से है, अज्ञान से है, मन की संकीर्णता से है, गरीबी से है, मानसिक दिवालियापन और राजनैतिक गुलामी से है, हमें यह संस्कृति नहीं चाहिए।

यह जो संस्कृतिवादी हैं, इनको तो पता भी नहीं है कि इनकी संस्कृति के बहुत सारे तत्व वहीं से आ रहे हैं, जिनसे ये नफ़रत करते हैं। संस्कृतिवादियों को, हिंदू संस्कृतिवादियों को आमतौर पर अन्य धर्मों से बड़ी चिढ़ होती है। बड़ी चिढ़ होती है कि दूसरे धर्म के लोग हैं, चिढ़ते हैं। 'हम संस्कृतिवादी लोग हैं, दूसरे धर्म के लोग हैं, वो गंदे हैं।' तुम्हें पता भी है तुम जिस संस्कृति का पालन कर रहे हो, उसमें बहुत सारे तत्व तो उन्हीं धर्मों से आ रहे हैं, जिनसे तुम चिढ़ते हो?

क्योंकि उन धर्मों के लोगों ने तुम पर राज करा है खूब, तो उनकी संस्कृति तुम्हारी संस्कृति बन गई है और उस संस्कृति को अब तुम कहते हो, 'यह मेरी है।' और कोई उसको बदलना चाहे, तो उससे लड़ते हो कि नहीं, हमारी संस्कृति बदल मत देना। उदाहरण के लिए आज भी कम-से-कम उत्तर भारत के गाँव-कस्बों, छोटे शहरों में घूँघट का चलन है। तुम्हें पता भी है कि यह घूँघट हिन्दुस्तान में कहाँ से आ गया?

तुम्हें लग रहा है कि यह घूँघट वैदिक काल के ऋषियों की देन है। यह घूँघट कहाँ से आ गया? यह इस्लाम से आया है। और इस्लाम से ही यह संस्कृतिवादी चिढ़ते हैं; लेकिन इस्लाम ने ही तुमको घूँघट दे दिया है और उस घूँघट को तुम पकड़े बैठे हो। तुम्हारी घर की महिला घूँघट न करे, तुम चढ़ बैठोगे उस पर, मार दोगे उसको।

अभी आज ही तो हुआ है, पता चला है कि एक माँ-बाप ने, दिल्ली के ही थे, उन्होंने अपनी लड़की की हत्या कर दी। ऑनर किलिंग का मामला है। और उसको सूटकेस में बंद-वंद करके कहीं पर डाल आए थे। यह बात वैदिक संस्कृति की है क्या कि तुम्हारी लड़की कहीं बाहर जाकर किसी से मिल रही हो—हो सकता है, वो लड़का बिलकुल ग़लत हो, जिससे मिल रही है, बिलकुल हो सकता है। हो सकता है, वो अपनी मर्ज़ी से जैसी ज़िंदगी बिताना चाहती हो, वो बिलकुल ग़लत है, बिलकुल हो सकता है ऐसा—लेकिन क्या यह बात हमारे वैदिक ऋषियों ने सिखाई है कि तुम्हारी लड़की अगर बाहर जाएगी, कुछ उल्टा-पुल्टा कर रही है, तो उसको गोली मार दो? यह संस्कृति कहाँ से आयी भारत में? यह संस्कृति भी इस्लामिक आक्रमणकारियों के साथ आयी और हमने उसको अपनी संस्कृति बना लिया है।

तो मैं कह रहा हूँ, गुलामी पर आधारित है हमारी यह संस्कृति। और तुर्रा यह है कि हम कहते हैं, 'यह हिंदू संस्कृति है।' हिंदू संस्कृति कहाँ से हो गई भाई? कहाँ से हो गई हिंदू संस्कृति, कैसे?

तुम गौर से देखना कि देश के जो हिस्से जितना ज़्यादा विदेशी आक्रमणों की चपेट में आए, वहाँ महिलाओं की उतनी ज़्यादा दुर्दशा है। गौर से देखना! तब समझ में आएगा कि हमारी संस्कृति पर सबसे ज़्यादा प्रभाव किसका है। जिसको आप अपनी संस्कृति कहते हो, उस पर सबसे ज़्यादा प्रभाव विदेशी आक्रमणकारियों का है।

सेक्स रेशियो एट बर्थ (जन्म के समय लिंगानुपात) समझते हो? कि जन्म के समय—अगर हम प्रकृति को अपना काम करने दें—यदि हज़ार लड़के पैदा हो रहे हैं, तो लगभग हज़ार ही लड़कियाँ पैदा होंगी। ठीक है? या थोड़ा-बहुत, हज़ार लड़कों पर हो सकता है कि दो-चार कम लड़कियाँ पैदा हों। फिर यह होता है कि लड़कियाँ ज़्यादा मज़बूत होती हैं।

लड़के पैदा होने के बाद ज़्यादा मरते हैं, लड़कियाँ कम मरती हैं। धीरे-धीरे आगे चलकर ऐसा हो जाता है—अगर प्रकृति को उसका काम करने दें बिना हस्तक्षेप के तो—धीरे-धीरे ऐसा हो जाता है कि समाज में हज़ार पुरुषों पर लगभग एक हज़ार पचास महिलाएँ होनी चाहिए। लेकिन जन्म के समय, तो लगभग हज़ार पर हज़ार ही होना चाहिए।

पंजाब, चंडीगढ़, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, बताओ इन सबमें साझी बात क्या है? ये सब आक्रमण की चपेट में आए। जब पश्चिमी दिशा से आक्रमण होता था, चाहे अफगानियों का, मंगोलों का, तुर्कों का, अरबों का, तो सबसे पहले तो ये ही सामने आते थे न? पंजाब, सिंध, राजस्थान; पंजाब का हिस्सा हरियाणा होता था तब। और पश्चिमी उत्तरप्रदेश भी। वो सब दिल्ली तक भी आते थे।

यही वो जगहें हैं, जहाँ पर आज भी, अगर करोड़ों नहीं, तो लाखों बच्चियाँ जन्म लेने से पहले या जन्म लेने के वक्त मार दी जाती हैं। यह है आपकी संस्कृति। और आप कहते हो, 'हमारी महान गौरवशाली भारतीय हिंदू संस्कृति।'

और यह मत बोलिएगा कि नहीं-नहीं-नहीं, हमारे यहाँ तो स्त्री को देवी मानकर पूजा गया। काहे भाई, देवियों से घर का ही काम कराओगे क्या? अगर स्त्री को वाक़ई देवी मानकर पूजते हो, तो देवियाँ तो आसमान में उड़ती हैं; अपने घर की देवी को भी आसमान में उड़ने की छूट क्यों नहीं देते?

तो यह सब बोलना मत, कि एक संस्कृत का श्लोक लाकर बता दिया कि 'यह मत बोलिए कि हमारी संस्कृति महिलाओं का अपमान करती है। हमारी संस्कृति तो कहती है, जहाँ महिलाओं का सम्मान होता है, वहाँ देवताओं का वास होता है।' अच्छा? तो फिर तो निश्चित रूप से भारतीय घरों में देवताओं का वास नहीं होता होगा। यहाँ कौन-सा महिलाओं का सम्मान हो रहा है?

जितना डोमेस्टिक वायलेंस (घरेलू हिंसा) भारत में है, उतना कहीं और है? यहाँ फिर घर में कौन-से देवता बस रहे होंगे? लेकिन जैसे ही बताओ कि तुम्हारी संस्कृति महिलाओं का शोषण करती है, वो तुरंत यही बात खड़ी कर देंगे, 'अरे! आपने वो फ़लानी ऋचा नहीं पढ़ी है कि जहाँ नारी का सम्मान है, वहाँ देवताओं का वास है?' ऋचा से क्या सिद्ध हो जाता है? मैं तो ज़मीनी हक़ीक़त की बात कर रहा हूँ। घरों में देखो क्या चल रहा है।

पंचानवे प्रतिशत शादियों में अभी भी दहेज़ लिया जाता है और भरपूर लिया जाता है। यह है संस्कृति आपकी। और आप कह रहे हो, 'संस्कृति, संस्कृति। बचाओ! संस्कृति।'

क्या तुम गणना कर सकते हो उन लड़कियों की जो पिछले बीस साल में जन्म लेते वक्त ही मार दी गईं? करोड़ों में आएगा। क्या ये दुनिया की सबसे बड़ी हिंसा नहीं है? हिटलर ने भी कितने यहूदी मार दिए थे? कुछ लाख। साठ लाख का आँकडा है न शायद? कितना है? मेरे ख़्याल से साठ लाख का ही आँकड़ा है। इतने ही यहूदी मारे थे अधिक-से-अधिक।

आपने लड़कियाँ कितनी मार दीं? और यह बात हिंदुओं में ही है। बताओ, हिंदुओं ने कितनी हिंदू लड़कियाँ मार दी? और फिर आप बात करते हो कि हिंदू धर्म खतरे में है। सबसे बड़ी जेनोसाइड (जरसंहार) तो खुद हिंदू कर रहे हैं, अपनी महिलाओं के खिलाफ़। हिंदू धर्म और किसी बाहर वाले से खतरे में होगा क्या?

एक हिंदू लड़की को कोई किसी दूसरे धर्म वाला मार दे, तो आप चिल्लाना शुरू कर देते हो, 'अरे! अरे! अरे! हिंदू लड़की खतरे में है।' और ये जो हिंदू लड़की रोज़ लाखों में मर रही है, अपने ही घरवालों के हाथों, उसको जन्म ही नहीं लेने दे रहे, भ्रूणहत्या कर रहे हैं, उसका हिसाब कौन करेगा?

और यह सबकुछ आपकी संस्कृति में इसीलिए है क्योंकि आपकी संस्कृति—फिर कह रहा हूँ—आपकी अपनी नहीं है, वो गुलामी, गरीबी, अशिक्षा की है। जिन्होंने आप पर पश्चिमी दिशा से आक्रमण करा, वो बर्बर कबिलाई लोग थे। उनकी संस्कृति ऐसी थी कि जिनको जीतते थे, उनकी महिलाएँ उठा ले जाते थे और उनका बलात्कार भी कर लेते थे या उनका दासी की तरह इस्तेमाल करते थे। यह बहुत सारे मुस्लिम आक्रांताओं ने करा था।

वो अपने सैनिकों को प्रेरित ही इसी तरह करते थे, कि जान लगाकर लड़ो और अगर तुम जीत जाओगे, तो दुश्मन का सारा माल तुम्हारा होगा। माल में रुपया-पैसा, सोना-चांदी तो हैं ही हैं, जानवर तो हैं ही हैं, माल में दुश्मन की स्त्रियाँ भी शामिल हैं। तो अगर तुम जीत गए, तो जितनी यह सुंदर-सुंदर महिलाएँ हैं न, दिल्ली की, पंजाब की, यह सब तुमको मिलेंगी, तो जीतो। और वो जान लगाकर लड़ते थे।

तो महिलाओं को अपमान से देखने की संस्कृति भारत की नहीं थी। भारत पर आक्रमण करने वालों की थी। जो महिलाओं को माल की तरह और जानवर की तरह देखते थे। लेकिन हमने उन्हीं की संस्कृति अपना ली। हमने भी महिलाओं को एक नीची दृष्टि से देखना शुरू कर दिया। बताइए, आप इसको अपनी संस्कृति कहना चाहेंगे? तो क्यों इस संस्कृति की रक्षा में लगे हुए हो?

भारतीय संस्कृति कैसी थी, यह जाकर के देखो न अपने पुराने ग्रंथों में? वहाँ तुमको ऐसी-ऐसी महिलाएँ मिलेंगी कि अगर वो आज हो जाएँ, तो आप उनको जीने न दो। आप कहो, 'यह गंदी औरत है।' द्रौपदी आज हो जाए, पाँच पतियों के साथ, आप जीने दोगे उसको? जल्दी बोलो।

मैं नहीं कह रहा हूँ कि द्रौपदी अकेले ही भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती हैं। पर यदि द्रौपदी जैसी महिला हो पाईं, तो इससे क्या पता चलता है? भारतीय समाज तब कैसा था और संस्कृति कैसी थी? बहुत सम्मान था महिला के लिए; पाँच पति भी हैं, तो कोई बड़ी बात नहीं हो गई, बात सम्मानीय है, कुछ बिगड़ नहीं गया।

इसका अर्थ बिलकुल भी यह नहीं है कि भारतीय संस्कृति यह है कि हर महिला के पाँच पति हों। लेकिन जो बात कही जा रही है, उसको समझिए।

आप पुराने नाटकों में भी देखिए या पुराने साहित्य में देखिए, तो वहाँ पर आपको वैदिक काल के महिलाओं की वेशभूषा कैसी पता चलती है? उन्होंने घूँघट कर रखा है, बहुत ज़्यादा कपड़े पहनती थी?

बहुत कम कपड़े पहनती थी। और भारत की दृष्टि बड़ी उदार थी। भारत को कोई फ़र्क नहीं पड़ता था। कहते थे, 'ठीक है, अच्छी बात है। गर्म देश है भाई, उमस बहुत होती है। उसको इसी में ठीक है कि उसको कम कपड़े पहनने हैं, तो हमें क्या करना? पुरुष भी कम कपड़े पहनता है, स्त्री भी कम कपड़े पहनती है। ठीक है।' यह रही है आपकी संस्कृति। और आप इससे बहुत दूर आ चुके हो।

कितने ही उदाहरण मिलते हैं जहाँ नारी गृहप्रमुख रही है। जहाँ नारी के कहने पर बात चली है और उसकी बात को टाला नहीं जा सकता। और उसी पुरानी संस्कृति के कुछ तत्व, बहुत थोड़े-बहुत अवशेष के रूप में बचे रह गए; इसीलिए यह हो पाया कि दुनिया की पहली महिला राष्ट्राध्यक्ष भारत ने दी। मात्र दक्षिण एशिया की बात नहीं है। भारत के बाद श्रीलंका में भी, बांग्लादेश, पाकिस्तान हर जगह हुईं। पर सबसे पहले भारत में।

यूरोप से भी पहले भारत में। अमेरिका में तो आजतक हो ही नहीं पाईं। अमेरिका, जिसको आप कहते हो सबसे उन्नत और सबसे लिबरल और उदार, वहाँ आज तक कोई महिला राष्ट्राध्यक्ष नहीं हो पाईं। भारत में इंदिरा गांधी बहुत जल्दी बन गईं प्रधानमंत्री। मार्गरेट थैचर भी ब्रिटेन में इंदिरा गांधी के बाद आई हैं। इंदिरा गांधी भारत में प्रधानमंत्री बन पाईं, उसकी वज़ह यही है, भारत की स्मृति में अभी थोड़ी-बहुत किरण शेष है। थोड़ा-सा हमको याद है कि हाँ, महिला सम्मान की पात्र होती है। महिला उच्चतम स्थान की पात्र होती है।

लेकिन बस थोड़ी-बहुत ही शेष है। अधिकांशतः तो हम सब भुला चुके हैं। अधिकांशतः तो हमारे लिए महिला बस पाँव की जूती है, भोग का साधन है। भोगो उसको, भोगाे!

आप देखते नहीं हो, जो मीडिया है, जिसको हम सब कंज्यूम (भोग) करते हैं, उस मीडिया में भी महिला को कैसे दिखाया जाता है। वो मीडिया में क्या कर रही है? भोग की वस्तु ही तो बनी बैठी है। और यह भारतीय मूल्य नहीं है कि महिला को भोग की वस्तु समझो। भारतीय मूल्य जो भी हैं, उन सबको भारतीय तभी माना जाना चाहिए, जब वो वेदांत से उद्भूत होते हों।

और भारतीय मूल्य यह है कि जीवन भोग के लिए नहीं, मुक्ति के लिए है। तो महिला को भोगकर के पुरुष को क्या मुक्ति मिल जानी है। और भोग की वस्तु बनकर महिला को कौन-सी मुक्ति मिल जानी है। महिला और पुरुष, दोनों, बस शरीर से अलग हैं, भीतर चेतना तो एक ही है न। वो चेतना जो दोनों में ही एक समान कराहती है और एक समान माँग करती है मुक्ति, मुक्ति, मुक्ति। यह भारतीय दर्शन है। इस दर्शन पर आधारित होना चाहिए हमारे संस्कारों को, हमारी संस्कृति को।

एक बात और समझिएगा, पुरुषों का भी कल्याण संभव नहीं है, अगर महिला बंधक बनी हुई है तो। महिला और पुरुष आपस में इतने जुड़े हुए हैं कि आप यह नहीं कर पाओगे कि महिला को दमित रखो और पुरुष आज़ाद हो जाएँ। न! महिला अगर गुलाम है, तो पुरुष भी गुलाम ही रहेगा। पुरुष को अगर अपनी भी मुक्ति चाहिए, तो उसे महिला के मुक्ति के रास्ते खोलने होंगे।

समझ में आ रही है कुछ बात?

सबसे पहले, तो अपने दिमाग से, वो जो आदर्श भारतीय स्त्री है, उसकी छवि एकदम निकालो। एकदम निकालो! अगर अपनेआप को भारतीय कहते हो और फिर हिंदू कहते हो, तो सनातन ग्रंथ तुम्हारे वेद हैं और सनातन दर्शन वेदांत है। आदर्श भारतीय स्त्री या आदर्श भारतीय पुरुष या आदर्श सनातनी व्यक्तित्व ही कैसा होना चाहिए, अगर यह जानना है, तो वेदांत से पूछो; परंपरा से नहीं पूछो।

परंपरा नहीं बड़ी हो गई वेदांत से। गीताजी की सुनो; दादाजी की नहीं। एक तरफ़ गीताजी हैं, जो वेदांत का प्रतिनिधित्व करती हैं और दूसरे तरफ़ दादाजी हैं, जो परंपरा का प्रतिनिधि हैं, दोनों में किसकी सुनोगे? गीताजी की या दादाजी की? वेदांत की या परंपरा की?

श्रोता: वेदांत की।

आचार्य: हाँ, तो दादाजी को एक तरफ़ रखो, गीताजी की सुननी शुरू करो।

प्र२: नमस्कार सर, इसी से रिलेटेड कल आपने बोला था कि यह आई सब्जेक्ट (अहम् के विषय में) कहीं पढ़ाया नहीं जाता। और अभी, कॉलेज में एज़ ए लाइब्रेरी असिस्टेंट मैं काम कर रहा था, तो जो बच्चियाँ हैं, उनसे भी मेरी दोस्ती हुई, उनके साथ भी एक रिलेशन बना। और जो बॉयज स्टूडेंट्स थे, उनसे भी बातचीत हुई। वो भी मेरे दोस्त बने।

मेरी लाइफ़ में यह जो आई सब्जेक्ट है, यह तब आया जब मैंने अष्टावक्र गीता को पढ़ा। तो अब इन बच्चों को या फिर मेरे जो जूनियर्स (कनिष्ठ) हैं या जो मेरे दोस्त हैं, या जो मेरे घरवालें हैं, जैसे मौसी हैं, दीदी हैं, उन तक इस आई सब्जेक्ट को कैसे लेकर जाऊँ?

आचार्य: समय लगेगा, प्रयत्न लगेगा और सबसे ज़्यादा प्रेम लगेगा। आसान नहीं है। लेकिन किस्से के तरीके से, कोई कहानी बता कर, थोड़ी उसमें रोचकता पैदा करके, आपको उनको लाना पड़ेगा। अष्टावक्र गीता तो देखिए वेदांत में भी लगभग उच्चतम बात है। अगर वेदांत के भी अलग-अलग तल हैं, तो अष्टावक्र गीता तो बहुत आगे की बात हो गई।

और प्राकृतिक रूप से ही स्त्री में मोह, ममता थोड़े ज़्यादा होते हैं। और अष्टावक्र गीता तो पूरे तरीके से इनको काटती है। तो बहुत आसान नहीं होगा अष्टावक्र गीता से ही शुरूआत करना। उसकी जगह अगर आप साधारण बोध कथाओं से शुरूआत करें—वैसी बोध कथाएँ उपनिषदों में भी हैं, अन्यत्र भी हैं—तो ज़्यादा शायद सफलता मिलेगी।

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