ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं || आचार्य प्रशांत: मुझको बस इक झलक मेरे दिलदार की मिले (2018)

Acharya Prashant

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ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं || आचार्य प्रशांत: मुझको बस इक झलक मेरे दिलदार की मिले (2018)

उनको ख़ुदा मिले हैं ख़ुदा की जिन्हें तलाश

मुझको बस इक झलक, मेरे दिलदार की मिले।

ये दुनिया ये महफ़िल मेरे काम की नहीं

मेरे काम की नहीं।।

आचार्य प्रशांत :- अमर यादव ने नेतृत्व किया है, कह रहे हैं, “उनको ख़ुदा मिले हैं, ख़ुदा की जिन्हें तलाश, मुझको तो इक झलक मेरे दिलदार की मिले।”

कह रहे हैं, “क्या दिलदार ख़ुदा से बढ़कर हैं?”

हाँ, बिलकुल है।

राम बुलावा भेजिया , दिया कबीरा रोये।

जो सुख साधु संग में , सो बैकुंठ न होय।।

~ कबीर

*ख़ुदा* थोड़े ही चाहिए तुम्हें, चैन चाहिए। *ख़ुदा* चैन नहीं देता, जहाँ चैन मिल जाये वहाँ ख़ुदा है।

अगर ख़ुदा को पहले रखोगे तो तुम ख़ुदा को ढूँढोगे कैसे? क्योंकि, तुम तो बेचैन हो और बेचैन आदमी कुछ भी ठीक ठाक ख़ोज नहीं सकता। बेचैन आदमी को तो ये देखना है कि उसे उसकी जो एक माँग है, उसकी पूर्ति कहाँ मिलेगी और बेचैन आदमी की एक ही माँग है — *चैन*।

जहाँ चैन मिल जाये वहाँ ख़ुदा जानें।

यही कारण है कि जिन्हें वास्तव में मिला है, उन्होंने कई बार बड़ी विस्मयकारी बातें कहीं हैं।

मैं क्यों कर जावां काबे नु बुल्लेहशाह हैं। कह रहे हैं, काबा नहीं जाना। मुझे तो तखतहज़ारे में ही मिल जाता है।

तखतहज़ारे में कौन? शाह इनायत हैं गुरु उनके। कह रहे हैं कि जाना ही नहीं है दूर। जहाँ चैन मिले, ख़ुदा तो वहाँ है ना। मुझे मेरे गुरु के सानिध्य में चैन मिल जाता है, मैं क्यों इधर-उधर जाऊँगा? कहाँ पूजा करूँगा? पूजा भगवान की होती है।

भगवान वो जो सुकून दे दे। जब सुकून मिल ही रहा हो भगवान कहीं और क्यों तलाशूँ?

बात खत्म।

“जो सुख सा धू संग में , सो बैकुंठ न होय।

राम बुला रहे हैं और कबीर रो रहे हैं, अजीब बात है, कबीर जीवन भर राम के लिए तत्पर रहे, प्यासे रहे, फिर कहते हैं।

“राम बुलावा भेजिया , दिया कबीरा रोये।

नहीं जाना, क्यों नहीं जाना? इसलिए नहीं कि राम नहीं चाहिए, इसलिए कि राम मिल गए हैं, पर कहाँ? साधु-संग में। राम और कहाँ होते हैं? जीसस का वचन है, कहते हैं, “जहाँ पर कुछ लोग बैठकर के मेरा नाम ले रहे होंगे, जान लेना मैं वहीं पर हूँ और कहीं नहीं पाया जाता मैं। जहाँ एक सभा, मंडली बैठकर मेरा नाम ले रही हो, जहाँ मेरा नाम लिया जा रहा हो, मैं वही पर हूँ।” जब साथ बैठकर जीसस का नाम लेने से मिल ही गये तो फिर कौन कहेगा कि चर्च/गिरिजाघर जाना है? यहीं मिल रहे हैं भाई। बल्कि उठकर कहीं और जाएँगे तो, क्या पता छिन जाए? इसी कसौटी पर कसना। व्यावहारिक रहना, सिद्धान्तों में मत फस जाना।

*सत्य* की तलाश वास्तव में शांति की तलाश है।

*सत्य* और शांति को तुमने अलग-अलग किया तो सत्य सिद्धान्त मात्र बनकर रह जाएगा। सत्य , तुम्हें मिला या नहीं मिला, इसकी एक ही कसौटी है; शान्त हुए कि नहीं? चैन , सुकून आया कि नहीं? और चैन , सुकून तुमको जहाँ भी आ गया, जान लेना सत्य वहीं है। ना आगे बढ़ना, न पीछे जाना, न दाएँ, न बाएँ।

समझ रहे हो बात को?

शांति के अलावा तुमने सत्य की पहचान का अगर कोई भी और निर्धारक बनाया तो धोखा खाओगे। इसलिए तो लोग कई बार सत्य के सम्मुख होते हुए भी पहचान नहीं पाते, क्योंकि वो कई और तरीकों से सत्य को जाँचने की कोशिश करते हैं। वो कहते है फलानी चीज़ मीले तो शायद वो सत्य होगा। सत्य का मुख शायद ऐसा होता है, सत्य का माहौल शायद ऐसा होता है।

पचास अन्य पैमाने लगाते हैं, पचास अन्य तरीकों से परीक्षण करते हैं वो सारे तरीके झूठे हैं। *सत्य* तुम्हारे सामने है, इसका एक ही प्रमाण होता है तुम ठहर जाते हो, *साँसें ही थम जाती हैं, समय थम जाता है।* एक अपूर्व शांति तुम्हारे ऊपर उतर आती है और जहाँ तुम पर वो शान्ति उतर आए वहीं जान लेना सत्य है। अब और मत तलाशना। ना आगे बढ़ना, ना पीछे जाना, बिल्कुल ठिठक जाना, अवाक खड़े हो जाना, कहना यहीं है मिल गया है, ज़रा सा भी हिला तो चूक होगी। कितना सरल तरीका है जाँचने का, जहाँ तुम थम जाओ, वहीं वो है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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