आचार्य प्रशांत: अगर एक बच्चा पैदा होता है तो वो औसतन अपने जीवनकाल में प्रतिवर्ष अट्ठावन टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करेगा। आज की जो स्थिति है, आज के जो ट्रेंड (प्रचलन) हैं उसके हिसाब से। उसकी तुलना में अगर आप कार्बन डायऑक्साइड कम करने के दूसरे तरीक़े लगाते हैं, तो उन तरीक़ों से एक टन कम हो सकती है। कार्बन डाईऑक्साइड दो टन कम हो सकती है, आधा टन कम हो सकती है।
तो जिन्होंने इस पूरे गणित को समझाया, वो कह रहे हैं कि अगर तुम्हें ग्लोबल वार्मिंग रोकनी है तो जो एक सबसे कारगर तरीक़ा है, वो ये है कि एक बच्चा कम पैदा करो, एक बच्चा अगर तुमने कम पैदा किया तो अट्ठावन प्वाइंट तुम्हारे हैं। उसकी जगह अगर तुम दूसरे तरीक़े आज़मा रहे हो, दूसरे तरीक़े क्या होते हैं? पेड़ लगा देंगे। अब पेड़ लगाने से ये समझो कि एक पेड़ चालीस साल में एक टन कार्बन डायऑक्साइड सोखता है। चालीस साल में एक टन और अगर आपने बच्चा पैदा कर दिया तो एक साल में अट्ठावन टन, अब पेड़ लगाने से क्या क्षतिपूर्ति हो गयी? पेड़ लगाने से कोई प्रायश्चित हो गया?
इसी तरीक़े से बात की जाती है कि ये बिजली के जो बल्ब हैं, ये कम पावर वाले लगाओ। उससे कुछ नहीं होगा, उससे आप ज़रा-सा बचा पाओगे। जो असली दानव है, वो है आबादी। कौनसी आबादी? ऐसी आबादी जो उपभोग करने पर उतारू है।
समझ में आ रही है?
वैज्ञानिक तथ्यों के नीचे इस पूरी समस्या का मानवीय पक्ष है। ये समस्या मानवकृत है, एंथ्रोपोजेनिक है न? हमने बनायी है। हमने कैसे बनायी है, वो समझना ज़रूरी है। हमने बनायी है कंज़म्प्शन कर-करके और बच्चे पैदा कर-करके, उपभोग के माध्यम से और सन्तान उत्पत्ति के माध्यम से।
और चूँकि उपभोग करने वाली सन्तान ही होगी, तो इसलिए इस समस्या को रोकने का जो सबसे कारगर तरीक़ा है, वो है सन्तानों पर नियन्त्रण लगाना। जब सन्तान ही नहीं होगी तो भोगेगा कौन? और हर पीढ़ी पिछली पीढ़ी से ज़्यादा ही उपभोग कर रही है। तो यहाँ तो हम बात कर रहे हैं कम करने की, अगली जो आएगी वो और ज़्यादा करेगी। क्यों? क्योंकि आर्थिक सम्पन्नता बढ़ रही है, लोगों के पास पैसे आ रहे हैं। जब पैसे आ रहे हैं तो जो आदमी सब्जी खाता था, वो माँस खा रहा है। जहाँ माँस खानी शुरू की, तहाँ समझ लो कि आप कार्बन डायऑक्साइड बढ़ाने वालों की कतार में शामिल हो गयें।
ये बात ज़्यादातर लोगों को पता नहीं है। लेकिन उपभोग के माध्यमों में, कंज़्यूम की जाने वाली चीज़ों में, जो चीज़ हमारे लिए, पृथ्वी के लिए, वातावरण के लिए, ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज़्यादा घातक है, वो है माँस का सेवन। माँस का सेवन समझ रहे हैं न? सबसे ज़्यादा घातक क्यों है? क्यों है? क्यों होता है?
श्रोता: वो कटते हैं।
आचार्य: वो कटते ही नहीं है, वो जीते किस पर हैं? घास पर और घास का मैदान कहाँ से आएगा? जंगल काटकर । इस समय दुनिया में सब पशु कम-से-कम आबादी पर पहुँच चुके हैं। जानते हो कौनसे पशु हैं जिनकी आबादी ज़बरदस्त बढ़ा दी है इंसान ने? वो पशु जिनको इंसान खाता है — मुर्गा, बकरा, भेड़, गाय, सुअर। और ये जितने हैं ये सब क्या करते हैं? चरते हैं। इन्हें दाना चाहिए और इनके शरीर से बहुत ज़्यादा मीथेन और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जित होती है।
तो माँस खाने की जो पूरी प्रक्रिया है, वो ज़बरदस्त रूप से कार्बन इंटेंसिव (गहन) प्रक्रिया है। और पश्चिमी जगत जितना प्रति व्यक्ति मीट, माँस डॉक्टरों द्वारा कहा गया है कि उच्चतम सीमा है उससे पाँच गुना खा रहा है। डॉक्टर ने कहा है कि खाना तो खाओ, इससे ज़्यादा खाओगे तो मरोगे। पश्चिम का औसत आदमी उससे पाँच गुना ज़्यादा माँस खा रहा है। और खा-खाकर हमने पृथ्वी को बुखार चढ़ा दिया है, माँस खा-खाकर। माँस खाने वाले समझ ही नहीं रहे हैं कि वो पूरी मानवता के प्रति कितना ज़बरदस्त अपराध कर रहे हैं।
माँस खाना कोई आपका व्यक्तिगत मसला नहीं है। भई, सिगरेट पीना क्या आपका व्यक्तिगत मसला है? आप एक कमरे में होते हो, आप सिगरेट का धुआँ छोड़ना शुरू कर देते हो, तो आपको तत्काल क्या कहा जाता है? ‘साहब यहाँ और लोग भी हैं, आप जो कर रहे हो उसका असर दूसरों पर पड़ रहा है।‘
इसी तरह माँस खाना भी अब किसी का व्यक्तिगत मामला नहीं है। कोई कहे कि भाई, मेरी थाली पर कुछ भी रखा है, आपको क्या आपत्ति है। आपकी थाली पर रखा हुआ है, उससे मेरे ग्रह की बर्बादी हो रही है। तो ये आपकी कोई व्यक्तिगत बात नहीं है कि आप जो कुछ भी खा रहे हो। और माँस में भी जो माँस सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है कार्बन डायऑक्साइड बढ़ाने के लिए, वो है भैंस और गाय का माँस। क्योंकि ये जानवर बड़े होते हैं, कोई धार्मिक इत्यादि कारण नहीं, सीधा-सीधा वैज्ञानिक कारण।
फिर आती है वो चीज़ जिसको हम बहुत मूल्य देते हैं, जिसको हम कहते हैं — 'गुड लाइफ़।' हर चीज़ उपभोग के लिए उपलब्ध होनी चाहिए। फर्नीचर, टेलिविज़न, पचास तरह के कपड़े, पचास तरह के उपकरण और इसी को हम मानते हैं तरक़्क़ी। एक-एक चीज़ जिसको हम तरक़्क़ी से सम्बन्धित मानते हैं, वो वास्तव में कार्बन का उत्सर्जन करके ही बनती है। यही वजह है कि जिन मुल्कों में सबसे ज़्यादा तथाकथित तरक़्क़ी है, उन्हीं मुल्कों में सबसे ज़्यादा कार्बन का उत्सर्जन हो रहा है। और आगे की मज़ेदार बात ये कि उन्हीं मुल्कों में सबसे ज़्यादा क्लाइमेट डेनायल (जलवायु का नकार) है।
आज भी अगर कोई मुल्क है, कोई देश है, जहाँ क्लाइमेट चेंज को नकारने की कोशिश की जाती है, कहा जाता है, 'नहीं,नहीं, ऐसा तो हो ही नहीं रहा है।’ अमेरिका के राष्ट्रपति तक अभी मानने को तैयार नहीं है कि क्लाइमेट चेंज जैसी कोई चीज़ है। और वहाँ बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ हैं, शेल, एक्सन, मोबिल, अमेरिकी कम्पनियाँ भी हैं, यूरोपियन कम्पनियाँ भी हैं जो उतारू हैं ये सिद्ध करने पर अभी भी क्लाइमेट चेंज उतनी बड़ी समस्या है नहीं जितनी बड़ी लग रही है।
अभी कुछ दशकों पहले तक तो वो कह रही थी कि नहीं साहब, तापमान बढ़ ही नहीं रहा है। फिर जब पुख़्ता प्रमाण आ गये कि तापमान तो बढ़ ही रहा है, तो उन्होंने कहा, ‘तापमान बढ़ रहा है लेकिन कार्बन डाईआक्साइड के कारण नहीं बढ़ रहा है।‘ अब जब ये भी निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है कि तापमान बढ़ रहा है। और कार्बन डायऑक्साइड से ही बढ़ रहा है, तो वो कह रही हैं, ‘नहीं, बढ़ तो रहा है लेकिन इससे उतने भी घातक परिणाम नहीं होंगे, जितने घातक परिणाम बताए जा रहे हैं।’ जहाँ जितना ज़्यादा उपभोग है, वहाँ उतनी कार्बन डाईऑक्साइड और उतना ज़्यादा झूठ है, उतना ही ज़्यादा झूठ भी है।
प्रति व्यक्ति माँस का जितना उपभोग अमेरिका में है, दुनिया के किसी और बड़े मुल्क में नहीं है। इस मामले में तो वास्तव में यूरोप और अमेरिका की भी तुलना नहीं की जा सकती। अमेरिका और यूरोप दोनों में औसत तापमान क़रीब-क़रीब एक-सा रहता है, लेकिन यूरोप की अपेक्षा अमेरिका में चार-पाँच गुना ज़्यादा एयर कंडीशनर बिकते हैं। क्योंकि जो पूरा समाज ही है अमेरिका का वो उपभोग की पूजा करता है। यूरोप की अपेक्षा औसत अमेरिकी कहीं ज़्यादा माँस खाता है, कहीं ज़्यादा ऊर्जा का व्यय करता है; एनर्जी कंज़म्प्शन एक अमरीकी घर में कहीं ज़्यादा होता है यूरोप से। और अगर भारत से या चीन से तुलना करें, तो फिर तो कोई बात ही नहीं।
दुर्भाग्य ये है कि विकासशील विश्व के लिए भी अमेरिकी उपभोक्तावाद एक आदर्श बनता जा रहा है। हम भी चाहते हैं कि हम भी उतना ही उपभोग करें, जितना कि अमेरिका वाले करते हैं। इसी को हम बोलते हैं, 'गुड लाइफ़'। इसी को हम बोलते हैं विकास, तरक़्क़ी, खुशियाँ।
पूरा लेख यहाँ पढ़ें: https://acharyaprashant.org/en/articles/climate-change-kaa-samaadhaan-na-sarkaaron-na-saamaajik-aandolanon-ke-paas-1_f05511c