क्या क्लाइमेट चेंज का समाधान अध्यात्म है?

Acharya Prashant

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क्या क्लाइमेट चेंज का समाधान अध्यात्म है?
क्लाइमेट चेंज की समस्या इंसान की आबादी और इंसान के उपभोग के कारण है। और इन दोनों समस्याओं के केंद्र में आदमी की पाश्विक वृत्ति है। उस वृत्ति को न सरकारें हटा सकती हैं, न वैज्ञानिक हटा सकते हैं, उस वृत्ति को सिर्फ़ अध्यात्म हटा सकता है। इसलिए जब तक आध्यात्मिक तल पर इस समस्या को संबोधित नहीं किया जाएगा, तब तक संपूर्ण पृथ्वी और मानव जाति के बचने की कोई संभावना नहीं है। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: क्लाइमेट चेंज की बात तो मैं दस साल से कर रहा हूँ लगातार। ऐसा नहीं है कि अचानक अभी ये मुद्दा हमारे सामने आ गया है। आमतौर पर मीडिया इत्यादि में तुम जो पढ़ते हो — ग्लोबल वार्मिंग, वैश्विक तापन के बारे में, उसमें वैज्ञानिक तथ्य होते हैं, संख्याएँ होती हैं, ग्राफ होते हैं। कोई बताता है कि समुद्र का जल स्तर कितने मिलीमीटर या सेंटीमीटर बढ़ चुका है, बढ़ जाएगा। कोई बताता है कि तापमान कितना बढ़ चुका है और आगे बढ़ जाएगा। तो इस तरह की ख़बरें पढ़ते होंगे या फिर क्लाइमेट चेंज के इर्द-गिर्द जो राजनीति होती है उसकी ख़बरें पढ़ते होंगे।

2009 में कोपेनहेगन में ओबामा ने क्या किया? 2015 में फ्राँस में क्या हुआ? क्लाइमेट पर जो संधि हुई है, उसको कितने देशों की सरकारों ने अभी तक भी रेक्टिफिकेशन मान्यता नहीं दी, इस तरह की ख़बरें पढ़ लेते हो। लेकिन ये जो देख रहे हो अपने आसपास होते हुए, वो कोई हमसे बाहर की घटना नहीं है। बात भले ही ये की जा रही हो कि आर्कटिक की बर्फ़ पिघल रही है, समुद्रों का स्तर बढ़ रहा है, इत्यादि-इत्यादि। पर जो हो रहा है वो सबसे पहले आदमी के अन्दर की घटना है जो बाहर पृथ्वी पर, ज़मीन पर दिखाई दे रही है, परिलक्षित हो रही है, एक्सप्रेस हो रही है। समझ रहे हैं? ग्लोबल-वार्मिंग को आदमी के मन की स्थिति के आईने में देखना बहुत ज़रूरी है। मैं कहा करता हूँ — कि बाहर जो ये तापमान बढ़ रहा है, ये भीतर के बुखार से संबंधित है।

आदमी ज्वर में है, बुखार में है आंतरिक तरीक़े से — आदमी के भीतर का बुखार ही पृथ्वी का बुखार बन गया है।

क्या है? कैसे है? समझो थोड़ा, आँकड़ों से आगे जाकर के, राजनीति से आगे जाकर के, वैज्ञानिक तथ्यों से भी थोड़ा आगे जाकर के समझो कि — ग्लोबल वार्मिंग चीज़ क्या है और इसका इंसान से क्या नाता है? ग्रीनहाउस इफेक्ट तो समझते ही हो — कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, पानी की भाप और जो क्लोरो-फ्लोरो कार्बन्स होते हैं। उसके अलावा ओज़ोन, ये सब ग्रीनहाउस गैसें कहलाती हैं। ये क्या करती हैं? जो पृथ्वी से रेडिएशन बाहर जाने को होता है उसको पकड़ लेती हैं। उसको ये पकड़ लेती हैं, तो वो पृथ्वी के वातावरण से बाहर नहीं जा पाता, जब बाहर नहीं जा पाता तो पृथ्वी का वातावरण गर्म हो जाएगा।

पृथ्वी की ऊर्जा का स्रोत क्या है? — सूर्य। थोड़ी-बहुत ऊर्जा पृथ्वी के भीतर की गर्मी से आती है। जब कोई ज्वालामुखी इत्यादि फटता है, नहीं तो अधिकांशत: पृथ्वी की जितनी ऊर्जा है वो कहाँ से आती है? — सूरज से आती है। अब सूरज से जो प्रकाश आता है वो पृथ्वी की सतह से टकराकर वापस लौटता है। जो किरण सूरज से आ रही होती है वो ज़्यादा गर्म होती है, ज़्यादा ऊँचे तापमान की होती है बजाय उसके जो वापस जा रही होती है। तो ग्रीनहाउस इफेक्ट ये होता है कि, जो वापस लौटता रेडिएशन है इसको कुछ गैसों के मॉलिक्यूल पकड़ लेते हैं, वापस नहीं जाने देते। तो वो भी गर्म होते हैं और जो पूरा वातावरण ही है, एटमॉस्फीयर है, उसको गर्म कर डालते हैं।

इस गर्मी से होता क्या है? अब जब तापमान बढ़ेगा पृथ्वी का तो उससे कई तरह की बीमारियाँ पृथ्वी पर फैलती हैं। तापमान बढ़ेगा तो पृथ्वी के वायुमंडल में जो ऊर्जा है वो बढ़ गई न? जितना ज़्यादा तापमान, उतनी ज़्यादा ऊर्जा। अब वो ऊर्जा कई तरीक़े से अभिव्यक्त होगी — ज़्यादा बारिश होगी, ज़्यादा तूफ़ान आएँगे, गर्मी पड़ेगी, बर्फ़ खूब पिघलेगी, नदियों में बाढ़ ज़्यादा आएगी, कुछ नदियाँ सूख जाएँगी, रेगिस्तान फैल जाएँगे।

जानवर जिन जगहों पर रहते थे उन जगहों का तापमान असंतुलित हो जाएगा, तो जानवरों को जगह छोड़कर जानी पड़ेगी, जानवरों की हज़ारों प्रजातियाँ इस प्रक्रिया में नष्ट हो जाएँगी। जितने भी तटीय क्षेत्र हैं उन पर सबसे ज़्यादा प्रभाव पड़ेगा। जितने भी कम ऊँचाई के क्षेत्र हैं जैसे द्वीप इत्यादि, उन पर बहुत प्रभाव पड़ेगा। जो द्वीपीय देश ही हैं उनमें से कई तो विलुप्त ही हो जाएँगे। कई देश हैं जो छोटे-छोटे द्वीपों के ही हैं वो द्वीप ही पूरा डूब जाना है, तो बचेगा नहीं। और ये सब जो होगा इसके फीडबैक इफेक्ट होते हैं।

और फीडबैक इफेक्ट क्या है? अभी हमने कहा कि ग्रीनहाउस गैस वातावरण में जितनी होगी उतना ज़्यादा वातावरण का तापमान बढ़ेगा। और ग्रीनहाउस गैस में से एक होती है वॉटर-वेपर, पानी की भाप। और गर्म हवा ज़्यादा वॉटर-वेपर को अपनेआप में समा सकती है। हवा का तापमान जितना ज़्यादा होगा, वॉटर वेपर को कैरी करने की उसकी क्षमता उतनी बढ़ जाती है।

तो वॉटर-वेपर, गर्म हवा में ज़्यादा होगी तो ग्रीनहाउस इफेक्ट भी ज़्यादा होगा। ग्रीनहाउस इफेक्ट ज़्यादा होगा तो हवा और गर्म होगी, हवा और गर्म होगी तो उसमें भाप और ज़्यादा होगी। भाप और ज़्यादा होगी तो ग्रीनहाउस इफेक्ट? — और ज़्यादा होगा। तो अब ये फीडबैक साइकिल कहलाते हैं, जिसको आप रोक नहीं सकते। एक बार वो शुरू हो गया तो वो कोई नहीं जानता कहाँ जाकर रुकेगा।

इसी तरीक़े से हम जानते हैं कि सफ़ेद रंग पर रोशनी पड़ती है, तो रिफ्लेक्ट हो जाती है, और किसी रंग पर पड़ती है तो सोख ली जाती है। जब सोख ली जाएगी रोशनी तो वो सतह गर्म हो जाएगी। पृथ्वी की सतह का बहुत बड़ा हिस्सा बर्फ़ से ढका हुआ है। जब तापमान बढ़ेगा तो बर्फ़ पिघलेगी, जब बर्फ़ पिघलेगी तो उसके नीचे की जो मिट्टी है, वो अनावृत हो जाएगी न, दिखाई देने लगेगी? पहले मिट्टी के ऊपर बर्फ़ की सफ़ेद चादर पड़ी हुई थी, तो बर्फ़ पर जब सूरज की रोशनी पड़ती थी तो बर्फ़ उसको सोखती नहीं थी। अब अगर तापमान बढ़ा तो बर्फ़ पिघल गई, नीचे से क्या प्रदर्शित होने लग गई? — मिट्टी, और वो मिट्टी क्या करेगी? — सोखेगी। तो मिट्टी गर्म होगी; जब मिट्टी गर्म होगी तो तापमान और बढ़ेगा, तापमान और बढ़ेगा तो बर्फ़ और पिघलेगी, बर्फ़ और पिघलेगी तो मिट्टी और ज़्यादा उघेड़ दी जाएगी। मिट्टी और ज़्यादा उघेड़ दी जाएगी और होगा ये भी एक फीडबैक साइकिल।

तो अभी समस्या सबसे बड़ी ये आ रही है कि लग रहा है कि फीडबैक साइकिल भी सक्रिय हो चुके हैं। कई और भी फीडबैक साइकिल हैं। फीडबैक साइकिल अगर सक्रिय हो चुके हैं, तो अब आप कुछ भी कर लें, इस तापन को रोका नहीं जा सकता। और इसका नतीजा ये भी हो सकता है कि आदमी की प्रजाति ही विलुप्त हो जाए, वो भी अगले कुछ दशकों में ही। हम सदियों की बात नहीं कर रहे कि दो-चार सौ साल।

हो सकता है कि दो-चार दशक या पाँच-सात दशक में ही आदमी सफाचट हो जाए पृथ्वी से। इतना निकट है अंत, संभावित अंत।

पार्ट्स पर मिलियन में नापते हैं कार्बन डाइऑक्साइड को। औद्योगिक क्रान्ति से पहले 270-280 पीपीएम कार्बन डाइऑक्साइड होती थी। अभी बताइएगा कितनी होगी? (श्रोता उत्तर देते हैं) नहीं-नहीं, उतनी हो गई तो फिर तो ख़त्म, अभी 450।

1990 में क्योटो प्रोटोकॉल (1997 में क्योटो प्रोटोकॉल को अपनाया गया था) के आसपास के वर्षों की बात कर रहा हूँ, से लेकर अभी तक ही क़रीब-क़रीब 50% इज़ाफ़ा हो गया है कार्बन डाइऑक्साइड और बाक़ी ग्रीनहाउस गैसों के स्तर में। और ये तब है जब सन 1990 में सब देश मिले ही इसलिए थे क्योंकि स्पष्ट हो चुका था कि कार्बन डाइऑक्साइड और बाक़ी ग्रीनहाउस गैसें बहुत बड़ा ख़तरा हैं। उसके बाद भी 1990 से लेकर अभी तक क़रीब-क़रीब 50% की वृद्धि हो गई है इन गैसों के स्तर में, इतना बढ़ गई हैं। और वृद्धि हो ही नहीं गई है, प्रतिवर्ष वृद्धि अभी हो ही रही है।

हम कितनी बड़ी समस्या के सामने खड़े हैं, उसको जानने के लिए बस इतना समझ लीजिए — कि अगर हमको स्थिति को नियन्त्रण में लाना है, तो हर आदमी अधिक-से-अधिक साल में 2 टन कार्बन डाइऑक्साइड इक्विवेलेंट का उत्सर्जन कर सकता है।

भाई, कार्बन डाइऑक्साइड आदमी से ही तो पैदा हो रही है न? दुनिया में कार्बन डाई-ऑक्साइड जहाँ से भी उत्सर्जित हो रही है अंतत: आदमी के लिए ही है वो जगह। भई, फैक्टरी से भी निकाल रही है तो उस फैक्टरी के उत्पाद का उपभोक्ता कौन है? — आदमी। तो हम ये थोड़े ही कहेंगे कि फैक्टरी ने वातावरण को गंदा कर दिया! उस फैक्टरी के माल का जो लोग उपभोग करेंगे, उन्होंने गंदा किया न? फैक्टरी में चेतना या जान तो है नहीं, फैक्टरी की अपनी तो कोई मंशा है नहीं। तो दुनिया से जितनी भी कार्बन डाइइऑक्साइड उत्सर्जित होती है, वो सब किनके लिए हो रही है? इंसानों के लिए हो रही है।

तो आँकड़ा ये सामने आया है कि अगर इसको रोकना है तो अधिक-से-अधिक 2 टन प्रतिवर्ष कार्बन डाइऑक्साइड इक्विवेलेंट का उत्सर्जन एक आदमी कर सकता है। ये लक्ष्य वर्ष 2050 के लिए रखा गया है, और इस लक्ष्य को रखकर के माना गया है कि अगर 2050 तक इतना कम कर लिया, तो भी वातावरण में 2 डिग्री की तो औसत वृद्धि हो ही जाएगी, क़रीब-क़रीब 1 डिग्री की अभी हो चुकी है। जो आम औसत तापमान है, उससे हम क़रीब 0.85 डिग्री सेंटिग्रेड आगे आ चुके हैं, 1 डिग्री ही मान लीजिए। और 2 डिग्री का लक्ष्य रखा गया कि 2 डिग्री पर रोक दो भाई!

2 डिग्री पर रोकने पर भी वैज्ञानिक कह रहे हैं कि अगर आपने 2 डिग्री पर भी रोक दिया, तो भी प्रलय है। और 2 डिग्री से आगे चला गया तो पूछो ही मत, वो तो अकल्पनीय है कि क्या होगा। 2 डिग्री पर रोकने पर सुरक्षित हैं आप, ऐसा नहीं है। और 2 डिग्री पर रोकने के लिए भी आपको हर आदमी द्वारा उत्सर्जित की जा रही कार्बन डाइऑक्साइड कितने पर रोकनी पड़ेगी? — प्रतिवर्ष 2 टन पर रोकनी पड़ेगी। अभी कितनी है? कोई अनुमान लगाना चाहेगा?

श्रोता: 10 टन।

आचार्य प्रशांत: अरे! इतनी भी नहीं है बेटा। इतनी है, भारत की नहीं है विश्व का औसत नहीं है, 10 टन। अमेरिका की है 16 टन। अमेरिका की, ऑस्ट्रेलिया की 16 टन प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष है। और होनी कितनी चाहिए? — 2 टन। और ये जो 16 टन है ये 16 नहीं है, ये हर साल बढ़ रही है, 16 से 16.5 — 17, लाना है 2 पर और वो हर साल बढ़ती जा रही है। भारत की 2 टन से कम है। भारतीय भी उसे बढ़ाने पर उतारू हैं। विश्व की तीन-चार टन के औसत पर है; विश्व की तीन-चार टन प्रति व्यक्ति के औसत पर है। भारत की अभी 2 टन से कम है। तो इस स्थिति पर हम खड़े हुए हैं, ये आँकड़े थे।

अब इसका जो आध्यात्मिक पक्ष है, इसका जो पक्ष आदमी के मन से संबंधित है, अब मैं उस पर आऊँगा। उस पर आने के लिए ये भूमिका बतानी ज़रूरी थी। ये स्पष्ट हो गया है कि स्थिति कितनी भयावह है? अगर हम 2 टन प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष कार्बन डाइऑक्साइड पर भी आ जाते हैं, तो भी कितना तापमान बढ़ जाएगा? — 2 डिग्री। और 2 डिग्री भी बढ़ गया तो क़यामत है। अगर हम 2 टन पर आ गए तो भी 2 डिग्री बढ़ेगा और 2 डिग्री का बढ़ना भी प्रलय जैसी बात है। और अभी जो हमारी हालत है, उस पर हम किसी भी तरीक़े से 2 डिग्री पर रुकने नहीं वाले हैं।

मैं कह रहा हूँ कि वैज्ञानिक हलकों में आशंका व्यक्त की जा रही है कि फीडबैक इफेक्ट सक्रिय हो चुके हैं। हो सकता है 2050 तक ही तापमान 4, 4.5 या 5 डिग्री भी बढ़ चुका हो औसतन, उतना अगर बढ़ गया तो आग लगेगी। और हम ये बहुत दूर की बात नहीं कर रहे हैं। हम अपने जीवन काल की बात कर रहे हैं। हम देखेंगे ये सब, अपनी आँखों से होता हुआ, अपने साथ होता हुआ देखेंगे।

तो अभी तक हमने तथ्य के तल पर एक-दो बातें समझी। पहली बात कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन इत्यादि गैसें जितनी हैं वातावरण में, ये वातावरण के तापमान को बढ़ाती हैं। वातावरण के तापमान के बढ़ने के कारण धरती पर तरह-तरह के अनिष्ट होते हैं। और हमने ये भी देखा कि जितना ग्रीनहाउस गैसों का कंसंट्रेशन बढ़ गया है अब वायुमंडल में, उसको वापस लाने के आदमी के प्रयास सफल होते दिखाई नहीं दे रहे हैं। क्योंकि आदमी ने तो 1190 से सभाएँ और कॉन्फरेंस और कन्वेंशन शुरू कर दी थीं, और अभी तक भी करता जा रहा है। नतीजा क्या है? कार्बन का स्तर तो लगातार बढ़ ही रहा है।

तो एक बात तो स्पष्ट हो गई है कि, ये काम सरकारों के बस का शायद है नहीं। सरकारों के बस का क्यों नहीं है, वो भी हम समझेंगे। ये काम सरकारों के बस का नहीं है, ये काम वैज्ञानिकों के बस का भी नहीं है क्योंकि जो तथ्य और आँकड़े मैं आपको बता रहा हूँ ये सार्वजनिक हैं, सबको पता हैं। लेकिन फिर भी आदमी वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन, एमिशन करे ही जा रहा है।

ये जो आँकड़े मैं आपको दे रहा हूँ ये आए दिन अखबारों में छपते हैं, क्या फ़र्क़ पड़ रहा है? सरकारें मिलती हैं, बैठती हैं, पेरिस-अकॉर्ड की बात करती रहती हैं, क्या फ़र्क़ पड़ रहा है? सामाजिक कार्यकर्ता रैलियाँ निकालते रहते हैं, ग्रेटा थनबर्ग की बात करी और भी बहुत नाम हैं। एक और युवती है जिसने कैंपेन चला दिया है 'नो फ्यूचर, नो चिल्ड्रन।' टीनेजर्स उसमें शपथ लेते हैं, कहते हैं कि अगर दुनिया का यही हाल रहा तो हम बच्चे ही नहीं पैदा करेंगे, क्योंकि इस दुनिया में बच्चे लाने से लाभ क्या? तो ये कई अभियान चल रहे हैं, पर उनमें से कोई भी अभियान सफल होता दिखाई नहीं दे रहा है।

क्यों नहीं सफल होता दिखाई दे रहा है? अब यहाँ से मेरी बात शुरू होती है। क्योंकि ये बात आदमी के मन की है, आदमी के मूल पहचान की है, ये समस्या वास्तव में आध्यात्मिक है। और जब तक आध्यात्मिक तल पर इस समस्या को संबोधित नहीं किया जाएगा, मानव जाति के बचने की कोई संभावना नहीं है। वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड पहुँच कहाँ से रही है और क्यों रही है? 26% जो कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में पहुँच रही है, उसका संबंध आदमी के खानपान से है, सीधे-सीधे मांसाहार से है। 26% कार्बन डाइऑक्साइड के लिए मांसाहार ज़िम्मेदार है। और बाक़ी चीज़ों के लिए फ्रेट एंड ट्रांसपोर्टेशन।

आप जिन भी चीज़ों का उपयोग करते हैं, वो आपके पास ट्रक से लाई जाती हैं, पानी के जहाज़ से लाई जाती हैं, हवाई जहाज़ से लाई जाती हैं, उस सबमें क्या होता है? फॉसिल फ्यूल जलाया जाता है न। फॉसिल फ्यूल समझते हैं न क्या होता है? गैस, पेट्रोल, डीज़ल, ये सब फॉसिल फ्यूल कहलाते हैं। जिसमें हाइड्रो-कार्बन होते हैं और वो जलते हैं तो कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है।

तो खानपान, यात्रा, कंस्ट्रक्शन — पन्द्रह प्रतिशत कार्बन उत्सर्जन का ज़िम्मा है कंस्ट्रक्शन एक्टिविटीज़, बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन। वो बिल्डिंग ज़रूरी नहीं है आपका घर हो; वो आपका दफ़्तर भी हो सकती है, वो कोई होटल भी हो सकता है, जहाँ कहीं भी कंस्ट्रक्शन हो रहा है। उसके अलावा भाँति-भाँति के जो उत्पाद हम पहनते हैं, ओढ़ते हैं, उपयोग में लाते हैं उससे कार्बन उत्सर्जित होता है। मैं ये नहीं कह रहा ये सब हमारे घरों में हो रहा है। हवाई जहाज़ चल रहा है, हवाई जहाज़ जो धुआँ छोड़ रहा है, वो तो वायुमंडल की ऊपरी तहों में छोड़ रहा है। आपके घर से वो कार्बन डाइऑक्साइड नहीं निकाल रही है, पर वो जो धुआँ हवाई जहाज़ छोड़ रहा है, किसकी ख़ातिर छोड़ रहा है? वो आपकी ख़ातिर छोड़ रहा है न, आपको यात्रा करनी है। तो उसका ज़िम्मा भी फिर किसका है? हमारा ही है न? इसलिए वायुमंडल से कार्बन डाइऑक्साइड को हटाना इतना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि उसका सीधा संबंध आदमी के भोग से है।

तो जानने वालों ने दो बातें कही हैं। वो कह रहे हैं, या तो भोग कम कर दो, या भोगने वालों की संख्या कम कर दो और कोई तरीक़ा नहीं है।

या तो प्रति व्यक्ति जितना कंज़म्प्शन हो रहा है उपभोग हो रहा है या तो वो कम करो, और इतना कम करो कि अमेरिका में 16 टन उत्सर्जन है, उसको 2 टन के स्तर पर ले आ दो। या तो भोग कम कर दो, या फिर भोगने वालों की संख्या कम कर दो; और कोई तरीक़ा नहीं है। और हमसे दोनों ही काम नहीं हो रहे हैं।

क्योंकि हमारे लिए तो सुखी जीवन का मतलब ही यही होता है कि हम भोग रहे हैं और हमारा एक कुनबा है, एक परिवार है, वो भी भोग रहा है। भोगने से काम नहीं चलता न, हम सिर्फ़ वस्तुओं को, पदार्थों को नहीं भोगते, स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के शरीर को भी तो भोगते हैं। और उससे पैदा होते हैं बच्चे, और वो जो बच्चा है वो आगे चलकर और भोगेगा।

अब आपको एक हैरतअंगेज़ आँकड़ा बताता हूँ, अगर एक बच्चा पैदा होता है तो वो औसतन अपने जीवनकाल में 58 टन कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करेगा। आज की जो स्थिति है, आज के जो ट्रेंड हैं उसके हिसाब से। उसकी तुलना में अगर आप कार्बन डाइऑक्साइड कम करने के दूसरे तरीक़े लगाते हैं, तो उन तरीक़ों से 1 टन कम हो सकती है कार्बन डाइऑक्साइड, 2 टन कम हो सकती है, 1/2 टन कम हो सकती है।

तो जिन्होंने इस पूरे गणित को समझाया, वो कह रहे हैं कि अगर तुम्हें ग्लोबल वार्मिंग रोकनी है तो जो एक सबसे कारगर तरीक़ा है, वो ये है कि एक बच्चा कम पैदा करो, एक बच्चा अगर तुमने कम पैदा किया तो 58 प्वाइंट तुम्हारे हैं। उसकी जगह अगर तुम दूसरे तरीक़े आज़मा रहे हो, दूसरे तरीक़े क्या होते हैं? — पेड़ लगा देंगे। अब पेड़ लगाने से ये समझो कि एक पेड़ 40 साल में 1 टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखता है। 40 साल में 1 टन और अगर आपने बच्चा पैदा कर दिया तो 58 टन, अब पेड़ लगाने से क्या क्षतिपूर्ति हो गई? पेड़ लगाने से कोई प्रायश्चित हो गया? इसी तरीक़े से बात की जाती है कि ये बिजली के जो बल्ब हैं, ये कम पावर वाले लगाओ। उससे कुछ नहीं होगा, उससे आप ज़रा-सा बचा पाओगे।

जो असली दानव है, वो है आबादी। कौन-सी आबादी? ऐसी आबादी जो उपभोग करने पर उतारू है।

समझ में आ रही है?

वैज्ञानिक तथ्यों के नीचे इस पूरी समस्या का मानवीय पक्ष है। ये समस्या मानवकृत है, एन्थ्रोपोजेनिक है न? हमने बनाई है। हमने कैसे बनाई है वो समझना ज़रूरी है। हमने बनाई है कंज़म्प्शन कर-करके और बच्चे पैदा कर-करके, उपभोग के माध्यम से और संतान उत्पत्ति के माध्यम से।

और चूँकि उपभोग करने वाली संतान ही होगी, तो इसलिए इस समस्या को रोकने का जो सबसे कारगर तरीक़ा है, वो है संतानों पर नियन्त्रण लगाना। जब संतान ही नहीं होगी तो भोगेगा कौन? और हर पीढ़ी पिछली पीढ़ी से ज़्यादा ही उपभोग कर रही है। तो यहाँ तो हम बात कर रहे हैं कम करने की, अगली जो आएगी वो और ज़्यादा करेगी। क्यों? क्योंकि आर्थिक संपन्नता बढ़ रही है, लोगों के पास पैसे आ रहे हैं। जब पैसे आ रहे हैं तो जो आदमी सब्जी खाता था, वो मांस खा रहा है। जहाँ मांस खाना शुरू किया, तहाँ समझ लो कि आप कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ाने वालों की कतार में शामिल हो गए।

ये बात ज़्यादातर लोगों को पता नहीं है। लेकिन उपभोग के माध्यमों में, कंज़्यूम की जाने वाली चीज़ों में जो चीज़ हमारे लिए, पृथ्वी के लिए, वातावरण के लिए, ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज़्यादा घातक है — वो है मांस का सेवन। मांस का सेवन समझ रहे हैं न? सबसे ज़्यादा घातक क्यों है? क्यों है? क्यों होता है?

श्रोता: वो कटते हैं।

आचार्य प्रशांत: वो कटते ही नहीं है, वो जीते किस पर हैं? घास पर और घास का मैदान कहाँ से आएगा? जंगल काटकर। इस समय दुनिया में सब पशु कम-से-कम आबादी पर पहुँच चुके हैं। जानते हो कौन से पशु हैं जिनकी आबादी ज़बरदस्त बढ़ा दी है इंसान ने? वो पशु जिनको इंसान खाता है — मुर्गा, बकरा, भेड़, गाय, सुअर। और ये जितने हैं ये सब क्या करते हैं? चरते हैं। इन्हें दाना चाहिए और इनके शरीर से बहुत ज़्यादा मीथेन और कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित होती है।

तो मांस खाने की जो पूरी प्रक्रिया है, वो ज़बरदस्त रूप से कार्बन इंटेंसिव प्रक्रिया है। और पश्चिमी जगत जितना प्रति व्यक्ति मीट, मांस — डॉक्टरों द्वारा कहा गया है कि उच्चतम सीमा है उससे 5 गुना खा रहा है। डॉक्टरों ने कहा है कि खाना तो खाओ, इससे ज़्यादा खाओगे तो मरोगे। पश्चिम का औसत आदमी उससे 5 गुना ज़्यादा मांस खा रहा है, और खा-खाकर हमने पृथ्वी को बुखार चढ़ा दिया है, मांस खा-खाकर। मांस खाने वाले समझ ही नहीं रहे हैं कि वो पूरी मानवता के प्रति कितना ज़बरदस्त अपराध कर रहे हैं। मांस खाना कोई आपका व्यक्तिगत मसला नहीं है। भई, सिगरेट पीना क्या आपका व्यक्तिगत मसला है? आप एक कमरे में होते हो, आप सिगरेट का धुआँ छोड़ना शुरू कर देते हो, तो आपको तत्काल क्या कहा जाता है? ‘साहब यहाँ और लोग भी हैं, आप जो कर रहे हो उसका असर दूसरों पर पड़ रहा है।‘

इसी तरह मांस खाना भी अब किसी का व्यक्तिगत मामला नहीं है। कोई कहे कि भाई, मेरी थाली पर कुछ भी रखा है, आपको क्या आपत्ति है। आपकी थाली पर रखा हुआ है, उससे मेरे ग्रह की बर्बादी हो रही है। तो ये आपकी कोई व्यक्तिगत बात नहीं है कि आप जो कुछ भी खा रहे हो। और मांस में भी जो मांस सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ाने के लिए, वो है भैंस और गाय का मांस। क्योंकि ये जानवर बड़े होते हैं, कोई धार्मिक इत्यादि कारण नहीं, सीधा-सीधा वैज्ञानिक कारण।

फिर आती है वो चीज़ जिसको हम बहुत मूल्य देते हैं, जिसको हम कहते हैं — 'गुड लाइफ।' हर चीज़ उपभोग के लिए उपलब्ध होनी चाहिए। फर्नीचर, टेलीविज़न, पचास तरह के कपड़े, पचास तरह के उपकरण और इसी को हम मानते हैं तरक़्क़ी। एक-एक चीज़ जिसको हम तरक़्क़ी से संबंधित मानते हैं, वो वास्तव में कार्बन का उत्सर्जन करके ही बनती है। यही वजह है कि जिन मुल्कों में सबसे ज़्यादा तथाकथित तरक़्क़ी है, उन्हीं मुल्कों में सबसे ज़्यादा कार्बन का उत्सर्जन हो रहा है। और आगे की मज़ेदार बात ये कि उन्हीं मुल्कों में सबसे ज़्यादा क्लाइमेट डिनायल है।

आज भी अगर कोई मुल्क है, कोई देश है, जहाँ क्लाइमेट चेंज को नकारने की कोशिश की जाती है, कहा जाता है, 'नहीं,नहीं, ऐसा तो हो ही नहीं रहा है।’ अमेरिका के राष्ट्रपति तक अभी मानने को तैयार नहीं है कि क्लाइमेट चेंज जैसी कोई चीज़ है। और वहाँ बड़ी-बड़ी कंपनियाँ हैं, शेल, एक्सॉनमोबिल, (Shell, ExxonMobil) अमेरिकी कंपनियाँ भी हैं, यूरोपियन कंपनियाँ भी हैं जो उतारू हैं ये सिद्ध करने पर अभी भी क्लाइमेट चेंज उतनी बड़ी समस्या है नहीं जितनी बड़ी लग रही है।

अभी कुछ दशकों पहले तक तो वो कह रही थी कि नहीं साहब, तापमान बढ़ ही नहीं रहा है। फिर जब पुख्ता प्रमाण आ गए कि तापमान तो बढ़ ही रहा है, तो उन्होंने कहा, ‘तापमान बढ़ रहा है लेकिन कार्बन डाइआक्साइड के कारण नहीं बढ़ रहा है।‘ अब जब ये भी निर्विवाद रूप से सिद्ध हो चुका है कि तापमान बढ़ रहा है। और कार्बन डाइऑक्साइड से ही बढ़ रहा है, तो वो कह रही हैं, ‘नहीं, बढ़ तो रहा है लेकिन इससे उतने भी घातक परिणाम नहीं होंगे, जितने घातक परिणाम बताए जा रहे हैं।’ जहाँ जितना ज़्यादा उपभोग है, वहाँ उतनी कार्बन डाइऑक्साइड और उतना ज़्यादा झूठ है, उतना ही ज़्यादा झूठ भी है।

प्रति व्यक्ति मांस का जितना उपभोग अमेरिका में है, दुनिया के किसी और बड़े मुल्क में नहीं है। इस मामले में तो वास्तव में यूरोप और अमेरिका की भी तुलना नहीं की जा सकती। अमेरिका और यूरोप दोनों में औसत तापमान क़रीब-क़रीब एक-सा रहता है, लेकिन यूरोप की अपेक्षा अमेरिका में चार-पाँच गुना ज़्यादा एयर कंडीशनर बिकते हैं। क्योंकि जो पूरा समाज ही है अमेरिका का वो उपभोग की पूजा करता है। यूरोप की अपेक्षा औसत अमेरिकी कई ज़्यादा मांस खाता है, कई ज़्यादा ऊर्जा का व्यय करता है; एनर्जी कंज़म्प्शन एक अमरीकी घर में कई ज़्यादा होता है यूरोप से। और अगर भारत से या चीन से तुलना करें, तो फिर तो कोई बात ही नहीं।

दुर्भाग्य ये है कि विकासशील विश्व के लिए भी अमेरिकी उपभोक्तावाद एक आदर्श बनता जा रहा है। हम भी चाहते हैं कि हम भी उतना ही उपभोग करें, जितना कि अमेरिका वाले करते हैं। इसी को हम बोलते हैं, 'गुड लाइफ'। इसी को हम बोलते हैं विकास, तरक़्क़ी, खुशियाँ। हमारी खुशियाँ खा गईं पृथ्वी को। जितना हम भोग रहे हैं उतना हमें खिला पाने के लिए पृथ्वी के पास है नहीं, तो हम पृथ्वी को ही खा गए। और हम कम पड़ रहे थे तो हमने अपनी तादाद बढ़ा ली, ताकि हम बहुत सारे हो जाएँ पृथ्वी को खाने के लिए। हम आठ अरब हो गए। और अभी भी हमारी खुशियों का पैमाना वही है, ‘घर में बच्चा हुआ कि नहीं हुआ?’ हम समझ ही नहीं रहे हैं कि हर बच्चा जो पैदा हो रहा है, वो हज़ारों पेड़ों और हज़ारों पशुओं की लाश पर पैदा हो रहा है।

आज के समय में अहिंसा ये नहीं है कि मांस नहीं खाई, आज के समय में हिंसा ये है कि समझो कि अगर तुम बच्चा पैदा कर रहे हो, तो तुम हज़ारों जानवरों का कत्ल करके बच्चा पैदा कर रहे हो। और तुम कहते हो, 'नहीं साहब, हम तो मुर्गा नहीं खाते।'

हर बच्चा जो पैदा हो रहा है, उसके पीछे — जले हुए पेड़ और कटे हुए पशु हैं। और पशु ऐसे नहीं काटेंगे कि पशु को खाएगा, जब पेड़ ही नहीं हैं तो पशु कहाँ जाएँगे? आप कहेंगे, ‘साहब हम पेड़ तो काटेंगे नहीं।' अच्छा, पेड़ नहीं काटोगे कोई बात नहीं, क्या खाओगे? ‘नहीं, हम तो बस रोटी-चावल खा लेंगे।’ रोटी-चावल पैदा कहाँ होगा बेटा? खेत में। खेत कहाँ से आएगा? चाँद पर खेती करोगे? खेती कहाँ होगी? जंगल काटकर तो खेती होगी। तुम्हें बात समझ में ही नहीं आ रही है?

तो पहली बात तो हमारी खुशियाँ कहती हैं कि भरा-पूरा घर रहे, खुशियों से गुलज़ार रहे, किलकारियाँ गूँजती रहे। और उसके बाद जितने लोग हों घर में, वो सब छककर के कंज़म्प्शन करें — छककर के। खुशी का पैमाना यही है कि कितने किलोवाट हर आदमी चूस रहा है — ऊर्जा। ऐसे ही नापा जाता है, तरक़्क़ी ऐसे ही नापी जाती है। कहते हैं, ‘भारत में प्रति व्यक्ति इतनी ही बिजली की खपत है जबकि अमेरिका में प्रति व्यक्ति बिजली की खपत इतनी ज़्यादा है तो देखो, भारत कितना पिछड़ा हुआ है।’ ये बिजली की खपत खा गई न। बिजली कहाँ से आती है? कोयला जलाकर आती है। आज भी विश्व में अधिकांश बिजली कोयला जलाकर आती है। और कोयला जलेगा तो क्या निकलेगा? — कार्बन।

और आदमी जितनी भी चीज़ों को भोगना चाहता है, उन चीज़ों के निर्माण में क्या लगती है? — ऊर्जा; ऊर्जा माने बिजली। आदमी की सबसे बड़ी ज़रूरत इस समय क्या है? — ऊर्जा, और ऊर्जा तो आएगी ही न फॉसिल फ्यूल जलाकर के, और कहाँ से लाओगे? लोग कहते हैं, 'नहीं साहब, कार पुरानी हो गई है, नई ले आएँगे।’ ठीक है? लेकिन पुरानी कार तीन थी जो ज़्यादा पेट्रोल पीती थी, नई कार कम पेट्रोल पीती है लेकिन नई कार तीस है। अब बताओ, पहले की अपेक्षा कार्बन कम उत्सर्जित होगा या ज़्यादा? क्योंकि पहले की कार धुआँ भले ज़्यादा छोड़ती थी, पर कार थी ही कुल तीन मोहल्ले में। आज मोहल्ले में कितनी कार हैं? तीस। अब बताओ, धुआँ कम हुआ या बढ़ा? हम समझ ही नहीं पा रहे कि समस्या की भयावहता कितनी गहरी है।

तो हम क्लाइमेट चेंज की जब बात आती है, तो नन्हें-नन्हें उपाय सामने ले आते हैं और ये नन्हें उपाय सामने लाकर के हम समस्या का मज़ाक बना देते हैं। कोई कहता है, ‘देखिए, हमारी न डीज़ल कार थी, उसको बेचकर हम हाइब्रिड कार ले आए हैं, इलेक्ट्रिक कार ले आए हैं’, ये हमारा योगदान है इस समस्या के समाधान के प्रति। ये बेवकूफ़ी की बात कर रहे हो। इलेक्ट्रिक कार किससे चलेगी? इलेक्ट्रिसिटी कहाँ से आएगी? — कोयला जलाकर।

तुम्हारी इलेक्ट्रिक कार से क्या हो जाएगा भाई, फिर इलेक्ट्रिक कार बनी किस चीज़ से है? स्टील से, स्टील कहाँ से आया है? — कोयले से आया है। किसको बेवकूफ़ बना रहे हो? कि हम देखिए, नई इलेक्ट्रिक कार ले आए हैं इससे काम बन जाएगा। या फिर स्कूलों में चलता है, 'पेड़ लगाओ, पेड़ लगाओ' इससे ग्लोबल वार्मिंग रुकेगी। अरे भाई, पेड़ों से नहीं रुक जानी है। अब वो सीमा हम कब के पीछे छोड़ आए कि वृक्षारोपण से हम ग्लोबल वार्मिंग रोक लेंगे। पेड़ बेचारे को तो बड़ा होने में ही दस साल लग जाएँगे। और हमने कहा कि एक पेड़ चालीस साल अगर जिएगा, तो एक टन कार्बन डाइऑक्साइड सोख पाएगा बेचारा, अगर चालीस साल जी पाया तो! चालीस साल जिएगा भी कैसे? हमें तो खेत बनाने हैं, कंक्रीट जंगल बनाने हैं। एक बच्चा 58 टन कार्बन डाइऑक्साइड, एक पेड़ चालीस साल में 1 टन। अब बताओ कितने पेड़ लगाओगे, कितने पेड़ लगाओगे?

और लोग इस तरह की बात करते हैं, — ‘रीसायकल करो, थ्री स्टार एसी की जगह फाइव स्टार एसी ख़रीद लो,’ ये सब कार्बन को कम करेंगे थोड़ा सा, इसमें कोई संदेह नहीं है पर ज़्यादा बड़ी दिक्कत ये है कि ये सब छोटी-छोटी चीज़ें करके हमें लगेगा, हमने प्रायश्चित कर लिया। हमें लगेगा हमारे कर्तव्य की इतिश्री हो गई। हम कहेंगे, ‘देखो न, हम ज़िम्मेदार नागरिक हैं, हम प्लास्टिक का कम इस्तेमाल करते हैं, हमने चार पेड़ लगा दिए हैं, हम थ्री स्टार की जगह फाइव स्टार एसी का इस्तेमाल करते हैं, हमने फिलामेंट बल्ब की जगह — कौन से कहलाते हैं ये? (श्रोताओं से पूछते हुए) एलईडी बल्ब लगा दिए हैं, इलेक्ट्रिक कार यूज़ कर रहे हैं, और घर में हम एक साइकिल ले आए हैं। तो छोटी-छोटी दूरियों के लिए हम साइकिल का इस्तेमाल करते हैं, हम धुआँ नहीं उड़ाते। तो अब हम ज़िम्मेदार नागरिक हो गए हैं। देखो, हमने अपना काम कर दिया ग्लोबल वार्मिंग रोकने के लिए।'

ये जो आप काम कर रहे हैं, ये ऊँट के मुँह में जीरे बराबर है। जो असली काम चाहिए वो है कि मन के उपभोक्तावादी संस्कार को ही रोका जाए। और उससे भी ज़्यादा जो काम चाहिए, वो ये है कि आदमी की ये धारणा तोड़ी जाए कि घर में संतान का होना बहुत ज़रूरी है। जब तक संतान पैदा करने की आदमी की धारणा नहीं तोड़ी जाएगी, पहली बात। और दूसरी बात, जब तक आदमी के मन से ये धारणा नहीं निकाली जाएगी कि जीवन की सफलता, वस्तुओं के संग्रह और वस्तुओं के उपभोग में है; तब तक समझ लीजिए कि इस पृथ्वी के बचने की कोई संभावना नहीं है। तो कुल मिला-जुलाकर मैं देख रहा हूँ कि पूरी बात आध्यात्मिक है।

दो ही तलों पर इसका समाधान मुझे दिखाई दे रहा है, पहला जो सबसे महत्त्वपूर्ण तल है — आदमी के मन से ये धारणा निकालो कि बच्चा पैदा करना बहुत बड़ी, बहुत कीमती, बहुत सम्माननीय, बहुत ज़रूरी, बहुत केंद्रीय बात है। और दूसरी बात, आदमी के मन से धारणा निकालो कि जो जितना उपभोग कर रहा है, जो जितना कंज़्यूम कर रहा है, वो उतना सुखी है। सुख और उपभोग का हमने जो रिश्ता बना लिया है, उसको तोड़ो। और ये दोनों ही काम सरकारें नहीं कर पाएँगी, इसलिए सरकारी तल पर विफलता मिल रही है।

सरकार क्या कर लेगी? जनतंत्र है भाई, सरकार तो वही करेगी जो लोग चाहेंगे। सरकार लोगों को बच्चा पैदा करने से थोड़े ही रोक सकती है। इसीलिए उस तल पर सफलता मिलना मुश्किल है। इसीलिए वैज्ञानिक भी कुछ नहीं कर पा रहे। इसीलिए सामाजिक कार्यकर्ता भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि जो समस्या है, वो आदमी की वृत्ति के तल पर है, उसका समाधान सिर्फ़ अध्यात्म कर सकता है। ये हमारी बड़ी पुरानी पाश्विक वृत्ति है कि भोगो और कुनबा बढ़ाओ, भोगो और कुनबा बढ़ाओ।

आप कोई भी जानवर देख लीजिए, आप उसे दो ही काम करता पाएँगे — या तो खा रहा होगा, या मादा का पीछा कर रहा होगा। खाएगा, मादा का पीछा करेगा। सड़क का कुत्ता हो, चाहे जंगल का खरगोश — दो ही काम करता है न — खाता है, संभोग करता है। और तो कुछ वो करता नहीं, बीच-बीच में सो जाता है, आराम कर लेता है। ताकि थोड़ी ऊर्जा इकट्ठा कर ले, खाना ढूँढने के लिए।

जंगल में पशु जब तक ये काम कर रहा था कि बच्चे पैदा करो, कंज़म्प्शन करो; तब तक कोई बात नहीं थी क्योंकि पशु की इच्छाएँ सीमित होती हैं, और पशु का सामर्थ्य भी सीमित होता है। वही काम जब आदमी ने करना शुरू कर दिया अपनी बुद्धि का, अपने बल का सहारा लेकर के, तो विनाश की ये स्थिति हमारे सामने आ गई है।

आप समझ रहे हो?

ये जो ग्रीन टेक्नोलॉजी इत्यादि की बात है ये बिल्कुल बहाना है, इससे कुछ नहीं होगा। जो होगा बहुत थोड़ा होगा, करना हमको इतना है (बहुत) फुट भर, और ये ग्रीन टेक्नोलॉजी इत्यादि से जो होगा — वो होगा — मिलीमीटर और सेंटीमीटर भर। जो असली समाधान है, वो दूसरा है और उसकी बहुत कम लोग बात कर रहे हैं। सारी समस्या इंसान की आबादी और इंसान का उपभोग है। और इन दोनों समस्याओं के केंद्र में आदमी की पाश्विक वृत्ति है। उस वृत्ति को कौन हटाएगा? सरकारें हटा देंगी? वैज्ञानिक हटा देंगे? नहीं। उस वृत्ति को न सरकारें हटा सकती हैं, न वैज्ञानिक हटा सकते हैं, उस वृत्ति को सिर्फ़ अध्यात्म हटा सकता है।

जब तक आदमी को समझाया नहीं जाएगा कि तुम्हारी जो वृत्तिगत अपूर्णता है उसका समाधान तुम न तो बच्चे पैदा करके कर पाओगे, और न कंज़म्प्शन करके कर पाओगे, उसका समाधान कुछ और है तब तक आदमी गलत जगह ही शांति ढूँढता रहेगा न? भई, जब आप अपनी अपूर्ण वृत्ति को शांत करना चाहते हो, तभी तो आप कंज़म्प्शन की ओर भागते हो न? और कंज़म्प्शन से शांति मिलती भी नहीं।

अब ये बात सरकारें थोड़ी आपको समझा पाएँगी। ये बात सरकारें नहीं समझा सकती, और न ही ये बात सामाजिक, नैतिकता के तल पर आपको समझाई जा सकती है। ये बात तो अध्यात्म और आध्यात्मिक ग्रंथ ही आपको समझा पाएँगे न — कि आपको ज़िन्दगी में जो चाहिए, वो न तो कुनबा बढ़ाकर मिलने वाला है, न आदमी-औरत इकठ्ठा करके मिलने वाला है। और न ही और ज़्यादा कपड़े, और ज़्यादा गाड़ियाँ, और ज़्यादा रुपया-पैसा इकट्ठा करके मिलने वाला है। वो कहीं और मिलेगा। और जिस दिन आदमी को वो चीज़, सही चीज़ मिलने लग गई, जिसके लिए उसकी अपूर्ण वृत्ति वास्तव में तड़प रही है, उस दिन वो उपभोग की दिशा में भागेगा ही क्यों? बात समझ रहे हैं?

तो कुल मिला-जुलाकर हुआ ये है कि हमें वो नहीं मिल रहा, हमें जिसकी तलाश है। क्यों? क्योंकि हमारा जीवन आध्यात्मिकता से रहित है, स्कूलों में नाम भी नहीं लिया जाता आध्यात्मिक ग्रंथों का। भई, हम धर्मनिरपेक्ष लोग हैं न? संतों-ऋषियों की बात ही नहीं की जाती। बात की भी जाती है तो बस ऐतिहासिक संदर्भों में कि फलाने वर्ष में पैदा हुए थे, फलाने वर्ष में मर गए इत्यादि-इत्यादि।

बच्चों का वास्तविक अध्यात्म से परिचय ही नहीं कराया जाता। और एक बार वो जीवन में आ गया, समाज में उतर आया, उसके बाद तो तमाम तरीक़े के सामाजिक दबाव और मीडिया और इधर-उधर की बातें और भीतर से वृत्ति का उफान, वो कभी समझ ही नहीं पाता कि वो जी किस लिए रहा है। वो कभी समझ ही नहीं पाता कि भीतर की बेचैनी और तड़प वास्तव में है किसलिए। तो वो भीतर की बेचैनी का क्या इलाज ढूँढता है? — उपभोग, कंज़म्प्शन। उसी कंज़म्प्शन से क्या पैदा हो जाती है?

श्रोता: कार्बन डाइऑक्साइड।

आचार्य प्रशांत: कार्बन डाइऑक्साइड बाद में पैदा होती है, पहले बच्चे पैदा होते हैं। कंज़म्प्शन से ही तो बच्चे पैदा होते हैं। स्त्री का शरीर लिया और भोग डाला उसको, लो आ गई औलाद। जैसे आप सॉफ्ट ड्रिंक का उपभोग करते हो, जैसे आप जूते का उपभोग करते हो, जैसे आप कपड़ों का उपभोग करते हो, जैसे आप कार का उपभोग करते हो, वैसे ही आप किसी के जिस्म का भी उपभोग कर लेते हो; लो आ गई औलाद। वो उपभोग आदमी कर ही रहा है इसलिए क्योंकि उसको अध्यात्म से भी परिचित कराया नहीं गया। उसको अगर सही जगह शांति मिल गई होती, तो गलत जगह शांति क्यों ढूँढने जाता भाई?

अब आप करते रहो इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंसेस, उनसे आदमी के भीतर की आशांति और अपूर्णता तो दूर नहीं होने वाली न। जिस दिन तक आदमी भीतर से अधूरा है और बेचैन है, उस दिन तक वो अपनी बेचैनी का यही झूठा इलाज निकालेगा। क्या? — पकड़ो और भोगो, पकड़ो और भोगो। और उसी भोगने के फलस्वरुप कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड ये सब बढ़ते रहेंगे। और बहुत दिनों तक उनके बढ़ते रहने की नौबत नहीं आने वाली, उससे पहले ही मानवता पूरी साफ़ हो जाएगी। चले थे भोगने, चले थे पृथ्वी को खाने; पृथ्वी खा गई सबको।

तो बात की शुरुआत में मैंने कहा था कि आदमी का बुखार पृथ्वी को लग गया है। और मैं कह रहा हूँ, पृथ्वी को जो बुखार आ गया है तो आदमी बचेगा क्या? पृथ्वी को जो बुखार आ गया आदमी बचेगा क्या? “खेल खतम, पैसा हज़म।” भोग लो!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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