ये दो चीज़ें ज़िंदगी बना देंगी, या बिगाड़ देंगी || (2020)

Acharya Prashant

31 min
307 reads
ये दो चीज़ें ज़िंदगी बना देंगी, या बिगाड़ देंगी || (2020)

प्रश्नकर्ता: पिछले तीन साल से आपको सुन रहा हूँ और अब कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लेने हैं — नौकरी चुननी है और विवाह संबंधित कुछ फैसले लेने हैं। और आप कहते हैं कि शादी और नौकरी, ये किसी की ज़िंदगी या तो बना सकते हैं या बिगाड़ सकते हैं। आपने एक वीडियो में कहा कि अगर ये दोनों ठीक से चुन लिए तो बच गए वरना गए। कृपया समझाएँ कि ऐसा क्या है शादी और नौकरी में कि ये पूरा जीवन ही निर्धारित कर सकते हैं? और मैं इन दोनों ही मोर्चों पर विजयी कैसे रहूँ?

आचार्य प्रशांत: जीवन संबंधित किसी भी प्रश्न का उत्तर जीव से ही मिलेगा। और कौन है वो जीव जो जीता है, जिसे जीवन के सब निर्णय लेने होते हैं?

वो जीव प्रकृति में एक इकाई है जिसे किसी भी तरह बने रहना है, अमर रहना है, पूर्ण अनुभव करना है अपनेआप को। जीव की स्थिति और उसके उद्देश्य को समझना होगा। जीव की स्थिति ये है कि वो तमाम तरह के खतरों से घिरा रहता है। उसकी हस्ती हमेशा अनिश्चित रहती है। कुछ पता नहीं होता कि वो कब चलेगा, कितना चलेगा, कितनी दूर तक, कितने दिनों तक बना रहेगा।

ये जो जीव है ये संसार पर पचासों तरीकों से आश्रित है और संसार जीव की इच्छा अनुसार चलता नहीं। तो बड़ी दयनीय सी स्थिति रहती है जीव की — उसे संसार में रहना है, संसार पर आश्रित होकर रहना है, हवा-पानी, शरीर की तमाम आवश्यकताएँ वो संसार से लेता है और जिस संसार पर वो इतना आश्रित है उस संसार पर उसका कुछ बस चलता नहीं।

इसी तरीके से मन के निर्वाह के लिए संगति, और प्रतिष्ठा, और मनोरंजन और तमाम तरह के इंद्रियगत सुख वो संसार से ही लेता है। जीव को शारीरिक तौर पर भोजन भी संसार से चाहिए और मानसिक तौर पर अस्तित्व भी संसार से ही चाहिए; बड़ी परनिर्भरता है जीव की।

अब समझो कि शादी और नौकरी का महत्व क्या है। नौकरी का अधिकांश लोगों के लिए सामान्यतया आशय होता है धन और प्रतिष्ठा। है न? आदर्शों को एक तरफ़ रख दो। ज़्यादातर लोग जो नौकरी की तैयारी कर रहे हों, या नौकरी कर रहे हों, उनसे पूछो, ‘आपकी नौकरी आपके लिए क्या मायने रखती है?’ वो कहेंगे, ‘इससे पैसा मिलता है और इससे समाज में एक जगह मिलती है, नाम मिलता है।’

तो देखो कि जीव के लिए फिर नौकरी क्यों अति महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि नौकरी का संबंध जीव की बहुत मूलभूत स्थिति से है। जीव तड़प रहा है संसार से किसी तरह कुछ भरोसा पाने के लिए, कुछ आश्वस्ति पाने के लिए। धन उस आश्वस्ति को पाने का एक ज़रिया होता है।

संसार पर आपका कोई बस नहीं चलता, पर अगर आपके पास धन हो तो थोड़ा सा भरोसा आ जाता है कि आप संसार पर कुछ नियंत्रण कर सकते हैं, संसार की कुछ चीज़ों को अपने बस में कर सकते हैं, कई चीज़ों पर आपकी दावेदारी हो सकती है, दुनिया को थोड़ा आप अपने हिसाब से चला सकते हैं। ऐसा भरोसा आता है धन से।

तो धन की जो हमारी माँग रहती है उसका गहरा संबंध हमारी मूल स्थिति से है, हम अपनेआप को परिभाषित ही ऐसे करते हैं जैसे हम संसार के उत्पाद हों, संसार पर निर्भर हों, इत्यादि-इत्यादि। और ये निर्भरता हमें पसंद भी नहीं आती।

एक तरफ़ तो हमने अपनी परिभाषा ही यही की है कि हम संसार से उठे हैं, संसार से ही सब पाते हैं, संसार पर ही आश्रित हैं। दूसरी ओर ऐसी परिभाषा से जो निश्चित रूपेण जो दासता निकलती है वो हमें पसंद भी नहीं है। तो फिर हम धन का रास्ता पकड़ते हैं। हम कहते हैं कि हम आए तो दुनिया से ही हैं, आश्रित भी दुनिया पर हैं, लेकिन हमारे पास पैसा है तो हम दुनिया पर पूरी तरीके से आश्रित नहीं हैं।

दुनिया हमें नचाती है, हम भी अपने पैसे के माध्यम से दुनिया को थोड़ा बहुत तो नचा ही सकते हैं। परिस्थितियों को और संयोग को मात देने का हमारा तरीका होता है धन।

धन की हमारी माँग आप समझ ही गए होंगे हमारी जीवन के प्रति दोषपूर्ण दृष्टि से उठती है। हम चूँकि खुद को नहीं जानते इसीलिए संसार से अपनी मुक्ति अर्जित करने का हम एक सस्ता तरीका खोजते हैं, जिसका नाम है पैसा।

जीव को ये पसंद नहीं आता कि वो संसार पर इतना आश्रित है। उसके पास दो विकल्प हैं, या तो वो अपनी आत्म-परिभाषा को ही सुधार ले, या वो कहे, ’नहीं, हूँ तो मैं वही जो संसार से आया और संसार पर ही निर्भर है। पर हाँ, उस निर्भरता को कम करने के लिए मैं धन इकठ्ठा कर लूँगा।’

धन माने संसार का ही एक टुकड़ा, धन माने संसार का ही एक हिस्सा जो अब आपके नियंत्रण में, स्वामित्व में आ गया है। धन माने पदार्थ ही तो और संसार माने भी पदार्थ। तो जब आपके पास पैसा होता है तो एक तरीके से आपकी जेब में संसार होता है। आप अपनी जेब में पैसा नहीं रखकर चल रहे, आप अपनी जेब में दुनिया का एक हिस्सा रखकर चल रहे हैं, दुनिया पर नियंत्रण कर लेने की थोड़ी ताकत रखकर चल रहे हैं।

और इससे आपके भीतर के डर को थोड़ी राहत मिलती है, लेकिन थोड़ी ही राहत मिलेगी। कितना भी पैसा हो जाए बहुत राहत नहीं मिलेगी, क्योंकि इतना पैसा किसी के पास नहीं हो सकता कि वो संसार का और संसार को चलाने वाली सब अनिश्चित चीज़ों का स्वामी बन जाए। जो बहुत पैसे वाला आदमी है, उसके भी नियंत्रण में कहाँ है मृत्यु, बीमारी भी कहाँ है!

बहुत पैसा हो जाए तो भी आपके नियंत्रण में आपका मन ही कहाँ है। पर कुछ नियंत्रण की भावना आ जाती है। ये भावना थोड़ा-बहुत काम आएगी, ये भावना झूठी ही है बाकी।

इसी तरीके से जीव के सामने जो मिटने का भय है — संसार से उठे हो आप, आपके ही अनुसार और संसार में जो कुछ भी है वो विनाशी है। आपके सामने ही लगातार मिट रहा है तो मिटने का जो डर है उसकी एक सस्ती, कामचलाऊ काट आदमी खोजता है संतानोत्पत्ति में। आदमी कहता है कि प्रजनन के माध्यम से मैं मृत्यु को मात दे दूँगा।

शरीर आपका संस्कारित है प्रजनन करने के लिए, ताकि आपकी मौत के बाद भी आप किसी तरह बचे रहें, आपकी जैविक सामग्री समय में आगे बढ़ती रहे। भले ही आपका शरीर नहीं रहा लेकिन आपके शरीर का ही एक अंश ज़िंदा है आपकी संतान के रूप में। और मन की जो माँग होती है कि कोई साथी रहे जो मानसिक रूप से पूर्णता का अहसास करा दे; ये दोनों माँगे मिलकर के फिर विवाह की, या जिसको हम जीवनसाथी कहते हैं उसकी खोज में परिणित हो जाती है।

तो नौकरी भी हमें इसलिए चाहिए क्योंकि हम जो जीव हैं वो दुनिया से डरा हुआ है, दुनिया उसके लिए खतरे जैसी है, दुनिया उसको मिटाने पर तुली हुई है और विवाह और संतान उत्पत्ति भी हमें इसीलिए करने हैं क्योंकि दुनिया में सब तरफ़ मौत नाचती है, जो संसार का उत्पाद है, उसको शीघ्र ही मिट्टी में मिल जाना है।

तो आदमी के भीतर जो कायम रहने की, जो बचे रहने की बड़ी-से-बड़ी ऊर्जा है, उसका संबंध है नौकरी से और विवाह से। इसलिए मैं कहता हूँ इन मसलों पर बड़ी सावधानी रखनी चाहिए।

जिसे 'जिजीविषा' कहते हैं न, कोई मरना नहीं चाहता, कोई खत्म नहीं होना चाहता, वो जो खत्म न होने की हमारी चाहत है वो प्रकट होती है नौकरी की खोज में और विपरित लिंगी साथी की खोज में। नौकरी न हो तो तत्काल शारीरिक रूप से मर जाने का खतरा होता है, होता है न? पैसा नहीं होता है तो खाओगे क्या? नौकरी न हो तो मानसिक मृत्यु का भी खतरा होता है। समाज से प्रतिष्ठा नहीं मिली और हम तो समाज पर बड़े निर्भर होकर जीते हैं, समाज से ही हमें मान्यता नहीं मिली तो हमें लगता है कि हम जैसे मर ही गए, अहम् की मृत्यु हो गई। तो मृत्यु को मात देने के लिए नौकरी ज़रूरी है। इसी तरीके से मृत्यु को मात देने के लिए जीव को लगता है कि जीवन में कोई स्त्री या पुरुष ज़रूरी है।

जिसको हम 'कामवासना' कहते हैं उसका भी वास्तव में संबंध जीव की डाँवाडोल स्थिति से ही है। हम सोचते हैं 'कामवासना' अपनेआप में कोई बहुत बड़ी ताकत है। नहीं, कामवासना कोई मूल ताकत नहीं है। कामवासना के पीछे भी मृत्यु का भय मात्र है। तो जो सबसे बड़ी ताकत है वो भय है। वो जो मृत्यु का‌ भय है, वो जो हमारी आत्म-परिभाषा की ही पैदाइश है उसी से कामवासना भी उपजती है।

जीव वो जिसने अपनी पहचान, अपनी परिभाषा ही गलत की। जीव वो जो अपने बारे में ही गलतफहमी में है। जो अपनेआप को क्या मानता है? कि मैं एक मरणधर्मा शरीर हूँ, जो दो प्राणियों के शारीरिक मिलन का परिणाम है। जीव कहता है, ‘मैं कहाँ से आया? मेरे माता और पिता का शारीरिक संसर्ग हुआ, उससे मैं आया।’

यहीं पर गलती हो जाती है, क्योंकि जैसे ही आपने अपनेआप को शरीर माना, वैसे ही आपने अपनेआप को डर के हवाले कर दिया। अब आप लगातार डरे हुए रहेंगे। डर ही आपका जीवन बन जाएगा, आप साँस ही डरी हुई लेंगे। जब आप डरे हुए रहेंगे लगातार तो फिर ये दोनों चीज़ आपको चाहिए, क्या? पैसा और काम। 'काम' से मेरा मतलब है सेक्स।

देखा है न, लोग इन्हीं दोनों चीज़ों के पीछे भागते हैं सबसे ज़्यादा। उसकी यही वजह है। उसको ये नहीं कह देना चाहिए कि अरे, ये तो भोगवादी या पदार्थवादी हो रहे हैं। वो वास्तव में बस अज्ञानी हो रहे हैं। वो स्वयं को नहीं जानते, वो स्वयं को शरीर समझते हैं। और जो स्वयं को शरीर समझेगा उसके भीतर से भय की बड़ी प्रबल ऊर्जा उठेगी, ज़बरदस्त ऊर्जा, क्योंकि शरीर खत्म होने वाला है, बड़ा डर उठेगा।

वही डर बार-बार हमारे छोटे-छोटे कर्मों में, विचारों में, सबमें दिखाई देता है। इसीलिए आदमी थरथरा जाता है जब उसे पता चले कि उसे रुपए-पैसे का नुकसान हो रहा है या उसकी नौकरी छिनने वाली है और आदमी बिलकुल लालच में आ जाता है अगर उसको पता चले उसकी कामवासना की पूर्ति होने वाली है।

ये दोनों एक ही ऊर्जा के दो रूप हैं। वो ऊर्जा समझ रहे हैं न कहाँ से आ रही है? वो ऊर्जा है भय की ऊर्जा, वो ऊर्जा है हमारी गलत दृष्टि की ऊर्जा। वो ऊर्जा वैसी ही है जैसी आपमें प्रकट हो जाती है जब आपके पीछे कोई हिंसक पशु लग जाता है। और हिंसक पशु तो फिर भी एक तथ्य होता है कि आपके पीछे भेड़िया लग गया है तो आपमें ऊर्जा उठी और आप भाग गए।

हमारी ऊर्जा जानते हो कैसी है? हमारी ऊर्जा ऐसी है जैसे किसी आदमी को लग रहा हो उसके पीछे भूत पड़ गया हो। लग रहा है भूत पड़ गया है, आदमी बहुत तेज़ी से भाग रहा है, बहुत तेजी से भाग रहा है। भेड़िया तो फिर भी एक अर्थ में असली था, भूत तो पूरा ही नकली है। लेकिन उस नकली भूत के डर से भी ऊर्जा तो बड़ी ज़बरदस्त पैदा हुई है, सिर पर पाँव रखकर भाग रहा है आदमी।

यही जो आदमी की भाग-दौड़ है नकली भूत के डर से, यही प्रकट होती है आदमी की चाहत में कि बढ़िया नौकरी और बढ़िया पैसा मिल जाए और बढ़िया स्त्री या पुरुष मिल जाएँ। एक भूत है जो हमें दौड़ा रहा है।

कहानी को और रंगीला बना सकते हो, उसमें और तुम विस्तार भर सकते हो। तुम कह सकते हो, ये जो आदमी है जो नकली भूत के भय से भाग रहा है अब ये चाहेगा कि इसके साथ समाज की कुछ ताकत जुड़ जाएँ, अब ये चाहेगा कि इसको कुछ बंदूक वगैरह मिल जाए, कुछ हथियार मिल जाए, कुछ ऐसा पदार्थ मिल जाए जिससे ये भूत से लड़ सके।

क्या मिल जाए? पदार्थ। और 'पदार्थ' किससे मिलेगा? धन से।

तो ये जो नकली भूत से भागता हुआ आदमी है ये बेतरतीब खोजेगा नौकरी। कहेगा, ‘मिल जाए! मिल जाए!’ अब ये बात सुनने में थोड़ी अजीब लग रही होगी कि भूत से कोई भाग रहा होगा वो नौकरी खोज रहा है। लेकिन जो भी आदमी भूत से भाग रहा है वो सहारा खोजेगा कि नहीं? सहारा खोजेगा न? तो उसी सहारे का नाम नौकरी है।

हम सब एक नकली भूत से भागते हुए लोग हैं तो हम तरह-तरह के सहारे खोजते हैं। या तो सहारे खोज लो, या ज़रा थम जाओ और मुड़कर पीछे देख लो भूत पीछे है भी या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि भूत अपने ही भीतर बैठा है?

जो नकली भूत के डर से लगातार भागता रहे और दुनिया में आश्रय या सहारा खोजता रहे उसको बोलते हैं 'संसारी।’

अब संसारी भी दो किस्म के होते हैं। असफल संसारी वो होता है जो नकली भूत के डर से भाग रहा था और संसार में कोई ठिकाना नहीं खोज पाया। सफल संसारी कौनसा होता है? सफल संसारी वो होता है जो नकली भूत के डर से भाग रहा था और उसने संसार में कोई ठिकाना खोज लिया। तो सोच लो कि संसारिक सफलता कैसी होती है। तुम संसारिक रूप से अगर सफल हो भी गए तो उतने ही मूर्ख हो, जितना कि असफल संसारी।

आध्यात्मिक आदमी कैसा होता है? जो कहता है, ‘भाग किससे रहा हूँ? जिससे भाग रहा हूँ, वो है भी क्या? जिस डर से लड़ने के लिए पैसा चाहिए वो डर असली है क्या? जो भी चीज़ें, जो पैसा खरीद सकता है वो चीज़ें किसके काम की हैं? कौन है जो उनसे लाभ उठाएगा?’

आध्यात्मिक मन ऐसे विचार करता है। वो कहता है, ‘कमा लेंगे पैसा। ऐसा नहीं है कि पैसा हम कमा नहीं सकते, लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि कोई काम किया जा सकता है वो करने योग्य नहीं हो गया न?’

कर तो आप ये भी सकते हो कि एक खंभा खड़ा हुआ है जाकर इसमें सिर दे मारो, तो करने लगोगे क्या?

पैसा कमाया जा सकता है। जो ही हाड़तोड़ कोशिश करेगा, बाकी सब चीज़ों को एक तरफ़ रखकर, पैसा तो कमा लेगा बड़ी बात नहीं है। कोई कम कमाएगा, कोई ज़्यादा कमाएगा। पर जिसने भी अब निश्चय कर लिया कि ज़िंदगी का अब एक ही लक्ष्य है 'पैसा', उसे मिल जाएगा पैसा।

लेकिन ऐसा लक्ष्य रखने योग्य भी है क्या? भूत है भी असली क्या? ‘पैसा मिलेगा मैं चीज़ें खरीदूँगा, उन चीज़ों से किसकी संतुष्टि होगी? मेरी होगी क्या? होती हो तो खरीद लेते हैं।’ पैसा होगा तो लोगों से इज़्ज़त मिलेगी, कौन है भीतर जिसे इज़्ज़त चाहिए? इज़्ज़त पाकर भी उसका क्या भला हो जाएगा? ये सवाल पूछे जाने ज़रूरी हैं।

वैसे ही कामवासना। कि बहुत डर लग रहा है कि भूत अब बस खा ही लेगा, खा ही लेगा तो भीतर से एक युक्ति उठती है — इससे पहले कि भूत तुमको गप कर जाए, अपना एक अंश संसार में छोड़ जाओ। तुमको तो खाने वाला ही है बस भूत, आ रहा है, आ रहा है, उसके तो कदमों की आहट निकट होती जा रही है, किसी भी क्षण उसका हाथ तुम्हारे गर्दन पर होगा। इससे पहले कि वो तुम्हें समुचा निगल जाए, अपना एक हिस्सा ही संसार में छोड़ जाओ।

ये जो चाहत है न अपना हिस्सा संसार में छोड़ जाने की, ये भी भूत के डर से ही आ रही है। अब कहो ये करना है कि अपने बहुत सारे हिस्से संसार में छोड़ जाओ, या ये देखना है कि मैं कौन। ये संसार कौन? और यहाँ हिस्से वगैरह छोड़ने से कोई लाभ होता भी है क्या?

हम अंधविश्वासी नहीं होते हैं; मनुष्य स्वयं एक अंधविश्वास है। मनुष्य आप अपना अंधविश्वास है। हम मानते हैं न कि हम हैं, ये पहला अंधविश्वास है। 'मैं हूँ' — इससे बड़ा अंधविश्वास क्या होगा? और जिस रूप में हम कहते हैं कि हम हैं, हमें हमेशा अपने पीछे एक भूत दिखाई भी पड़ता है। फिर उस भूत से बचने के हम पचास तरीके खोज लेते हैं, वो सब तरीके व्यर्थ हैं, फ़िजूल हैं, क्योंकि उन तरीकों का इस्तेमाल करके जिसको बचाने की कोशिश की जा रही है वो है ही नहीं। तुम पैसे से जिसको बचाना चाह रहे हो वो है ही नहीं।

तुम्हें लग रहा है कोई खतरे में है तुम उसे पैसे से बचा लोगे। तुम जिसको खतरे में समझ रहे हो वो खतरे में क्या होगा, जब वो है ही नहीं? जब वो है ही नहीं तो उसे खतरा कैसा?

उसी तरीके से तुम सोच रहे हो, ‘मैं मिट जाऊँगा पर मेरे पीछे मेरा वजूद रहेगा, मेरा लाल रहेगा।’ अरे, तुम जिसके मिटने की बात कर रहे हो वो मिटेगा कैसे जब वो है ही नहीं? तुम ही नहीं हो तो तुम्हारे औलाद का क्या मतलब भाई?

हाँ, तुम अपने पीछे औलादों की एक श्रृंखला छोड़ जाते हो ताकि वो भी काल्पनिक भूतों के आगे-आगे दौड़ें, जैसे तुम ज़िंदगी भर दौड़ते रहे और दौड़-दौड़कर यही किया कि किसी तरीके से मेरी जीते जी सुरक्षा हो जाए धन के द्वारा और मृत्यु पर्यंत सुरक्षा हो जाए औलाद के द्वारा, यही काम तुम्हारी औलादें करेंगी।

तो ये तो पहली चीज़ थी कि क्यों मैं इतना कहता हूँ कि जिसने ये दोनों परीक्षाएँ पार कर लीं वो जीवन में उत्तीर्ण हो गया — शादी और नौकरी‌। दूसरी वजह है — समय और संगति की।

आम आदमी अपने दिन का पूरा समय किन दो जगहों पर बिताता है? या तो घर में, या दफ़्तर में। जैसी तुम्हारी संगति होती है वैसी ही तुम्हारी मति हो जाती है। इसलिए ज़रूरी होता है कि तुम अपने लिए सही वातावरण चुनो, बनाओ।

एक बात बताओ — तुम अपने कमरे में चारों तरफ़ तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवान रख लो, नमकीनें, गुझियाँ, मिठाइयाँ, अचार, पापड़, पचास और तरह के सुस्वादु व्यंजन, इन सबको रख लो। नतीजा क्या निकलेगा? क्या निकलेगा?

जितना तुम आमतौर पर भी नहीं खाते उससे ज़्यादा खाओगे और सब गलत ही चीज़ खाओगे, क्योंकि वो चीज़ तुम अपने जीवन में चुनकर ही इस आधार पर लाए हो कि वो चटपटी हैं, लज़ीज़ हैं, चटकारा देती हैं।

अब अगर तुम किसी व्यक्ति को अपने जीवन में, अपने शयनकक्ष में चुनकर ही इसलिए लाए हो कि वो विपरित लिंगी है और तुम्हारी उम्र का है और चटकारा देता है तो तुम करोगे क्या दिन भर, बोलो? जितनी वासना तुममें समान्यतया भी नहीं उठती उतनी अपनी पत्नी या पति की मौजूदगी में उठेगी, क्योंकि तुमने उसका चयन ही इस आधार पर किया है।

तुमने पहली बात तो चयन विपरित लिंगी का किया है। विपरित लिंगी चुनने का मतलब क्या है? कि इससे कामवासना पूरी हो सकती है और दूसरी बात जो विपरित लिंगी चुना है वो भी एक खास उम्र का चुना है, खास तरह की देह का चुना है, खास तरह के रूप-रंग का चुना है, यौवन देखकर चुना है तो तुम अपने लिए अपनी भोग की पूर्ती का ही माल ले आए हो न? ये पूरी सामग्री तुम्हारे उपभोग के लिए ही तो आ रही है न, और तुमने बहुत नाप-तोलकर के इस सामग्री का चयन किया है, किया है कि नहीं किया है?

कद भी देखते हो, वज़न भी देखते हो। उसकी आर्थिक हालत भी देखते हो, बहुत चीज़ें देखते हो, लेकिन जितनी भी चीज़ें तुम देखते हो उन सबमें तुम्हारा इरादा तो भोगने का ही होता है न?

जब भोगने की चीज़ तुम अपने घर लाकर रखोगे — अरे, तुम्हारे घर में अचार और चटनी और मठरी और गुझियाँ तो फिर भी कुछ दूरी पर रखे होते हैं, जिसको तुम जीवनसाथी कहते हो वो तो लागातार एकदम ही निकट होता है, तो तुम ये अपने लिए कर क्या रहे हो?

हाँ, तुम्हारे चुनाव का आधार दूसरा हो तो मैं नहीं कहता। तुम अपने कमरे में नारियल पानी भी रख सकते हो, तुम अपने कमरे में व्यायाम करने का कोई उपकरण भी रख सकते हो। बात संगति की है कि तुम किस चीज़ को किस नीयत से अपने साथ रखने जा रहे हो। अचार की बर्नी अगर तुम रखोगे अपने कमरे में तो फिर तुमको ताज्जुब नहीं होना चाहिए अगर तोंद निकले और मुँह पर फोड़े-फुंसी निकलें।

देखो न तुमने भर क्या रखा है कमरे में! पाँच-सात तरह के अचार हैं — मिर्च का अचार है, नींबू का अचार है, ये आँवले का अचार है और ये बड़ी-बड़ी बर्नी। खुशबू उठती है क्या बढ़िया मसाला है — ‘आह! माँ ने चुनकर मुझे सौंपा है’, कुछ याद आ रहा है? बढ़िया बर्नी है चिकनी-चिकनी और उसके भीतर स्वादिष्ट मसाला है। घर से आया है, घर से जैसे अक्सर पत्नियाँ आती हैं, पति भी आता है। नतीजा तो कुछ अच्छा नहीं निकलने वाला।

मैं विवाह के विरुद्ध नहीं, मैं विवाह के आधार के विरुद्ध बोल रहा हूँ। तुम किस आधार पर विवाह करते हो, तुम किस आधार पर अपनी संगति चुनते हो, बोलो तो?

इस बात से मुझे मतलब ही नहीं है कि विवाह एक समाजिक संस्था है या ये है वो है। मैं तो बिलकुल ज़मीनी बात कर रहा हूँ — जिससे तुम कहते हो कि मैंने विवाह कर लिया! तुम लगातार उसके साथ रहने लग गए। मेरे लिए महत्व की बात ये है कि तुम किसके साथ रह रहे हो। चाहे विवाह करके रहो चाहे विवाह बिना करके रहो।

तुम रह किसके साथ रहे हो? किस आधार पर तुमने अपनी सहकक्षी का चयन करा है? कोई छोटी बात है क्या कि फ़लाना व्यक्ति अब से लगातार मेरे कमरे में रहेगा? ये बहुत बड़ी बात है। इसी बात पर तुम्हारी ज़िंदगी या तो बन जाएगी, या बिलकुल बर्बाद हो जाएगी।

ये किसकी शक्ल तुम सुबह उठकर रोज़ देखने वाले हो, कौन है? माँ सरस्वती? बोलो?

माँ सरस्वती जैसी हो तो फिर तो क्या कहने! उसकी शक्ल ही मत देखो, चरण वंदन करो। पर माँ सरस्वती जैसी होगी तो वो तुमको पसंद नहीं आएगी। तुमको तो कुछ चाहिए जो ज़ायकेदार और मसालेदार हो।

किसके शब्द लगातार पड़ने लग गए हैं तुम्हारे कानों में? किसकी कॉल के लिए तुमने अलग ही कॉलर्ट्यून लगा रखी है? कौन है भाई, कौन? किसको इतनी जगह दे दी?

जिसको तुमने अपने मन में जगह दे दी वही तुम्हारा जीवन बन जाएगा, तुमने किसको अधिकार दे दिया तुम्हारी ज़िंदगी पर छा जाने का?

यही बात दफ़्तर के लिए है — दिन के आठ घंटे, दस घंटे किन लोगों की शक्लें देख रहे हो भाई? ये जिसको तुम अपना बॉस बोलते हो ये आदमी कैसा है?

क्योंकि संगति वाली बात हुकुम पर भी लागू होती है। बार-बार समझाया गुरु लोगों ने कि एक के ही हुकुम पर चलना है, याद है न “हुकुम रजाई?” एक के ही हुकुम पर चलना है तो किसका हुकुम मानने लग गए हो?

किसको इतनी हैसियत दे दी कि अब वो तुमको बताता है कि अब ये करो अब वो करो। वो अगर उसके (परमात्मा के) जैसा है तो ज़िंदगी बन जाएगी तुम्हारी और अगर वो यूँही है कोई सड़क का आदमी जो तुम्हारी ज़िंदगी पर अब अधिकार रखने लग गया है तो तुम बर्बाद हो जाओगे।

यही बात सहकर्मियों पर लागू होती है। यही बात दफ़्तर के माहौल पर और धंधे की प्रकृति पर लागू होती है — क्या बेच रहे हो? तुम्हारी संस्था कमाती किस चीज़ से है? तुम्हारे काम में किस तरह के लोग लगे हुए हैं? किस तरह की जनता से दिन-रात पाला पड़ता है?

ये कोई छोटी बात है क्या? यही तो ज़िंदगी है — क्या देख रहे हो? क्या सुन रहे हो? क्या खा रहे हो? क्या पी रहे हो? क्या सोच रहे हो? किस दिशा में कर्म कर रहे हो? कहाँ से तुम्हारी प्रेरणाएँ आ रही हैं?

ये जो रोज़ रात को रोटी खाते हो ये रोटी कहाँ से आ रही है?

नानक साहब का याद है न — सेठ ने रोटी दी थी, उन्होंने रोटी यूँ निचोड़ी और उसमें से बहा खून। बात के संकेत को समझो। कहीं तुम्हारी रोटी में भी खून तो नहीं है?

रोटी में खून भी हो सकता है, रोटी में अमृत भी हो सकता है। हो सकता है तुम्हारी रोटी ऐसी जगह से आ रही हो कि रोटी कमाने की प्रक्रिया में ही तुम मृत्यु के भय से दूर जाते जा रहे हो, तब रोटी में अमृत होता है। कि साहब आटा पानी से नहीं मढ़ा था, आटा अमृत से मढ़ा था।‌

रोटी कमा रहे हैं। कोई बाहर से देखेगा तो उसको यही लगेगा आजिविका ही तो चला रहा है, काम ही तो करता है कहीं पर, नौकरी ही तो करता है कहीं पर। पर वो हमारी नौकरी कुछ इस तरीके की है कि नौकर मालिक के करीब आते जा रहा है।‌ ये नौकरी ऐसी है कि नौकर को मालिक से मिलाती जा रही है। ऐसी नौकरी तुम्हें मिल जाए तो क्या कहने! पर ऐसी पहली बात — होती बहुत कम है, दूसरी बात — तुम्हारे सामने आ भी जाए तो तुम स्वीकारोगे कहाँ।

हम क्या स्वीकारेंगे? वही, ऐसे माहौल काम के जहाँ लागातार लालच की बातें हो रही हों, घटिया बातें हो रही हों, कोई बड़ा लक्ष्य न हो, कोई छोटे-छोटे संकीर्ण स्वार्थ, जितने लोग हों सब एक-दूसरे को बेवकूफ़ बना रहे हों, बॉस लगा हो कि किसी तरीके से अपने अधिनस्थ लोगों से ज़्यादा-से-ज़्यादा काम निकलवा लें और कर्मचारी लगे हों कि कम-से-कम काम में ज़्यादा-से-ज़्यादा तनख्वाह निकलवा लें। ऐसा ही होते हैं न ज़्यादातर दफ़्तर? अब ऐसी दफ़्तर में तुम काम कर रहे हो। तुम क्या सोच रहे हो, तुम्हें मुक्ति मिल जानी है? तुम्हारे मन में बड़ी शुद्धि आ जानी है?

और अब गौर फरमाइए उन लोगों की हालत पर जो ऐसे दफ़्तरों से निकलते हैं और अचार-चटनी वाले घर में घुस जाते हैं।

दफ़्तर अड्डा था लालच का और व्यर्थ स्वार्थों का और वहाँ से निकलकर आए शाम को सात बजे और घुस गए घर में जहाँ पूड़ियाँ छन रही हैं, मसाले की ज़ायकेदार खुशबू उठ रही है, बढ़िया!

जानते हो खौफ़नाक बात क्या है? दुनिया के निन्यानवे प्रतिशत लोग ऐसे ही हैं, जो घटिया दफ़्तरों से निकलकर घटिया घरों में घुस जाते हैं। ये उनकी ज़िंदगी है।

और कुछ तुम्हें नहीं देखना है ये जानने के लिए कि कोई आदमी कैसी ज़िंदगी जी रहा है। मत पूछो उससे कि यम-नियम बता ज़रा, प्राणायाम-प्रत्याहार बता ज़रा, धारणा बता, ध्यान दिखा, समाधि मिली की नहीं? ये सब बातें इतनी पूछने की ज़रूरत नहीं है। ये सब बातें तो सैद्धांतिक हैं। इसमें वो तुम्हें गच्चा दे जाएगा। तुम बस ये दो चीज़ें देख लो किसी भी आदमी का अगर तुमको मूल्यांकन करना है तो, पहली — कहाँ काम करता है, क्या काम करता है और दूसरी — किसके साथ रहता है, किसकी संगति में दिन-रात गुज़ार रहा है। बस, इतने से ही सब तय हो जाना है। इसी में स्वर्ग है, इसी में नर्क है।

छोटे-मोटे निर्णय जीवन के, अगर बहकी हुई बेहोश हालत में भी हो जाएँ तो भी चल जाएगा, पर जो निर्णय जितना महत्वपूर्ण होता है वो चेतना के उतने ऊँचे स्थान से किया जाना चाहिए। मानते हो कि नहीं?

कोई छोटा-मोटा निर्णय है जैसे चप्पल खरीदनी है, वो तुमने थोड़ा सा बेध्यानी में भी कर लिया तो चलेगा। चप्पल ही थी, गलत भी ले आए तो क्या हो गया। कुछ दिन पहनेंगे, फेंक देंगे या ज़्यादा चुभने लग गई तो कभी भी जाकर दूसरा ले आएँगे। लेकिन जो निर्णय जीवन को जितना ज़्यादा केंद्रियता से प्रभावित करता हो उसको उतनी ज़्यादा सावधानी से, उसको उतने ज़्यादा होश से लोगे कि नहीं? उसी को कह रहा हूँ कि चेतना के उतने ज़्यादा ऊँचे स्थान से लोगे कि नहीं लोगे?

हमारे साथ उल्टा होता है। जो निर्णय जीवन में सर्वोपरि होते हैं, सबसे अहम स्थान रखते हैं, उन निर्णयों को हम चेतना के उतने निम्नतम स्थान से लेते हैं।

जीवनसाथी का निर्णय चेतना की ऊँचाइयों से लिया जाना चाहिए न, क्योंकि वो जीवन का बहुत महत्वपूर्ण निर्णय है। मान लीजिए जीवनसाथी नहीं भी है, पाँच ही दस साल साथ रहने वाला है, तो भी पाँच-दस साल तो बहुत होता है। तो साफ़-से-साफ़, सुथरे-से-सुथरे मन से ये निर्णय होना चाहिए न? और हम कैसे चुनते हैं? जो सबसे हमारी चेतना की निकृष्टतम जगह होती है वहाँ से हम चुनते हैं कि घर में कैसी स्त्री को या कैसे पुरुष को लाएँगे।

हमें तो वो होता है न 'पहली नज़र वाला प्यार।’ उस पहली नज़र वाले प्यार में आपने ये देखा होता है कि जो आपको इतना पसंद आ गया वो आपके मन को स्वच्छ कर देगा क्या? ये देखते हो? ऐसे होता है क्या पहली नज़र का प्यार?

घर वाले आते हैं तो तस्वीरें ही तो दिखाते हैं — ये देखो बेटा इतनी लड़कियों के आए हैं। तुम देखते हो तस्वीरें। और उन तस्वीरों में भी क्या देखते हो? रूप-लावन्य कैसा है, यौवन मदमाता हुआ है कि नहीं, यही देखते हो न?

इतना महत्वपूर्ण निर्णय जीवन का इस आधार पर हो रहा है कि रंग गेहुॅंआ है कि साँवला। अरे, शाबाश! मैदान मार लिया पट्ठे ने। या इस आधार पर हो रहा है कि नौकरी सरकारी है कि प्राइवेट। ‘कहीं किसी एनज़ीओ (गैर सरकारी संगठन) में तो नहीं काम करता? छी!’

जैसे कि तुमने अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पर्चे को, परीक्षा को निर्णय किया हो शराब पीकर लिखने का। जो काम होना चाहिए था बिलकुल होश के साथ कि गणित की परीक्षा है भाई नींद अच्छी रखो, ज़्यादा खाओ पीओ नहीं, पेट हल्का, ज़्यादा थको भी नहीं और फिर जाएँगे लिखेंगे।

ये काम हमें करना है बिलकुल होश भरी चेतना के साथ। उस काम को तुमने निर्णय किया कि तीन बोतल अंदर डालकर, रात भर जगकर, सुबह तक नाचकर, दो-चार से लड़-भिड़कर के, नाक पर और कनपटी पर घूँसे खाकर के, लड़खड़ाते हुए हम जाएँगे गणित की परीक्षा लिखने। और वहाँ पर हम चुनेंगे कि सही विकल्प कौनसा है — 'अ', 'ब', 'स।'

ऐसे हम नौकरी का और जीवनसंगी का चयन करते हैं, एकदम बेहोश होकर के। ‘दो-हज़ार रुपए ज़्यादा तनख्वाह कहाँ मिल रही है? बताओ, बताओ।’ और ऐसे कि यहाँ पर मैंने पूछा तो इन्होंने कहा कि यहाँ पर तो सात बजे से पहले तो कोई दफ़्तर से निकलता नहीं तो वो दूसरी जगह ज़्यादा ठीक है। वो घर के पास भी है और वहाँ छ: ही बजे छोड़ देते हैं। इस आधार पर नौकरी चुनी जा रही है कि वो घर के पास है और वो छ: ही बजे छोड़ देंगे रोज़।

क्यों? क्यों पसंद आ गया तुमको? ‘छ: फीट का है।’ क्यों, लंबाई नापकर के ज़िंदगी काटेगी तू? ये वैसी सी बात है कि फ़लानी जगह क्यों नौकरी कर रहे हो। कह रहे हो, ‘उस दफ़्तर की बिल्डिंग चौदह माले की है।’ बिल्डिंग की लंबाई से तेरे जीवन में गहराई आ जाएगी?

पर ये बहुत बड़ी बात होती है भाई — ऊँची सी बिल्डिंग है और उसके नीचे खड़े होकर के आप ऐसे देखते हो कि वाह! एकदम मुझे मेरी औकात याद दिला दी कि मैं कितना छोटा हूँ। एकदम तत्काल प्रसन्न हो जाते हो, कहते हो, ‘बस, यहाँ पर किसी तरीके से एक बार अपनी सेवाएँ अर्पित करने का मौका मिल जाए, तत्काल मोक्ष!" ऐसे तो चयन होता है।

क्यों पसंद आ गई? ‘बड़ी खनखनाती हुई आवाज़ थी।’ जैसे कि कोई गणित के प्रश्नपत्र को हल कर रहा हो उसे सूँघ-सूँघकर के। कहे, ‘क्या है, क्यों पसंद आया फ़लाना?’ कहे, ‘उसकी खुशबू बड़ी प्यारी है, आ-हा-हा!’ गणित का पर्चा तुम्हें मिला है और तुम क्या कर रहे हो उसे? सूँघ रहे हो। समझ नहीं रहे, उसे सूँघ रहे हो।

ऐसे ही हम अपनी ज़िंदगी के लोगों का चयन करते हैं। उन्हें समझ नहीं रहे, सूँघ रहे हैं और वो भी सुँघाए पड़े हैं तुम्हें।

क्या कहोगे किसी ऐसे को, जिसके सामने प्रश्नपत्र रखा हुआ है, रसायनशास्त्र, केमिस्ट्री का और अब वो उसको चाट रहा है। कहे, ‘इससे क्या करेगा?’ तो वो कहे, ‘इससे पता चलेगा न कुछ, रसायनशास्त्र का पर्चा है न!’ चाटकर तुझे क्या पता चलेगा वहाँ बात क्या है?

यही काम हम करते हैं — ज़िंदगी में जो आता है उसको लगते हैं चाटने। चाटने से क्या जान जाओगे उसके बारे में?

छोटे मसलों में हम बड़ा होश दिखाते हैं — ‘सतर्क, सावधान, भिंडी खरीदनी है!’ और भिंडी वाली बुढ़िया बैठी है, उसकी नाक में दम कर दिया है। वो कह रही है, ‘बारह रुपए पाव।’ लगे हुए हैं, ‘नहीं, ग्यारह रुपए अस्सी पैसे।’ कह रहे हैं, ‘इससे हमारी सजगता प्रदर्शित होती है, देखो, हम जीवन के बाज़ार में लुटना नहीं चाहते और ये बुढ़िया हमें लूटने पर आमादा है।’ और वो अस्सी साल की बुढ़िया। वो कुल दो पाव भिंडी लेकर के बैठी है। उसके पीछे लगे हो हाथ धोकर के कि तू बीस पैसा कम कर।

यहाँ तुम्हें अपना नफ़ा-नुकसान बहुत समझ में आ रहा है और शादी-ब्याह के, नौकरी के जब निर्णय करते हो तब अंधे हो जाते हो, बेहोश हो जाते हो। तब अपना नुकसान नहीं दिखाई देता?

और भिंडी तो भिंडी है एक बार खा लोगे तो हज़म हो गई, खत्म हो गई। और जो कुछ (पत्नी) उठा लाते हो घर, रख लेते हो वो खत्म नहीं होने वाली। वो दिन-रात फैलने वाली है। भिंडी कभी ऐसा हुआ है कि एक पाव लाए हो और छ: दिन बाद एक किलो हो गई हो? होता है ऐसा? लेकिन वो जो चीज़ तुम लेकर के आते हो न, सूँघकर, चाटकर, वो पैंतालीस किलो लेकर आते हो और तीन साल में पैसठ। जिसको तुम बोलते हो ब्याज, बढ़ोतरी हो रही है, मुनाफ़ा मिल रहा है। मूर्ख!

अभी भी मुस्कान छा रही है। इसी को बोलते हैं अंग्रेज़ी में 'पेनी वाइज़ एंड पाउंड फ़ूलिश। ' छोटी-छोटी चीज़ों में तो बड़ी अक्ल चलती है और जो जीवन के सबसे गंभीर मुद्दे हैं वहाँ बन गए मूर्ख।

हर चीज़ को तुम हल्के में ले लेना, बहुत महत्व मत देना, गंभीर मत हो जाना। इन दो मुद्दों के प्रति बहुत गंभीर रहना — कंचन, कामिनी। कंचन माने धन, कहाँ से पैसा आता है तुम्हारे पास, कितना आता है। और कामिनी माने वो जो तुम्हारे जीवनी में कामवासना पर बैठकर आया है, चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष हो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories