आचार्य प्रशांत: ये जिसको आप एंग्ज़ायटी कहते हो, ये बस बीमारी ही है, परेशानी की लत है। इस लत को जब विषय मिल गया तो वो चिंता बन जाती है। फ़िर आप कहते हो—“फलानी चीज़ को लेकर मैं चिंतित हूँ”, और जब कोई विषय नहीं मिला तो आप बिना विषय ही उदास रहते हो। अनुभव भी किया होगा, आस-पास भी देखा होगा, कि कोई मुंह लटकाए घूम रहा है, आप पूछोगे—“बात क्या है?”, वो कहेगा— “बात तो कुछ नहीं है, बस यूं ही, माहौल ख़राब है भीतर।”
“बात कुछ नहीं, माहौल ख़राब है”—ये तो बहुत बड़ी बात है। ऐसी लत लगी है कि अब मन ख़राब करने के लिए कारण भी नहीं चाहिए। अब हम बेशर्म हैं।
पहले कम-से-कम अगर मुँह लटकाते थे तो उस उदासी को थोड़ा सत्यापित, थोड़ा प्रमाणित करने की ज़रूरत समझते थे। चाहते थे कि हमारी उदासी की कुछ वैधता हो, उसका कुछ जस्टिफिकेशन हो, कि कोई पूछे भी कि भई क्यों उदास हो? तो बता तो पाएँ कि फलानी वजह से उदास हैं। भले ही वजह ये हो कि आज मंगलवार है इसलिए उदास हैं। भले ही वजह ये हो कि दस बजे हैं और बादल छाए हैं, तो हम उदास हैं। व्यर्थ ही सही, बेवकूफी भरी ही सही, कुछ वजह तो बताते। इतनी तो लाज-शर्म रखते। नहीं। कुछ लोग इससे भी आगे निकल जाते हैं। वो कहते हैं— “हम तो बेवजह उदास हैं”, इन्होंने अब सारी आंतरिक हया ताख पर रख दी है। ये अब बेधड़क, खुल्लम-खुल्ला, नंगे मैदान में उतर आए हैं और कह रहे हैं कि “मैं वो हूँ जिसे उदास रहना है और मैं खुल्लम-खुल्ला उदास रहूँगा और मुझे किसी कारण का सहारा लेने की भी ज़रूरत नहीं है; मैं बस उदास हूँ।” अच्छा है, बात चूँकि बेशर्मी की है, इसीलिए थोड़ी ईमानदारी की है। कम-से-कम इन्होंने स्वीकार तो किया कि इन्हें तो उदास होना ही था, कारण तो बहाना था।
यही बात अन्य वृत्तियों पर भी लागू होती है—क्रोधित होना है तो होना है; कारण खोज कर ही रहेंगे। दिखाना है कि हम सुसंस्कृत आदमी हैं, तो कुछ कारण खोजकर बताएंगे कि, “मैं इस कारण से क्रोधित हूँ”। फ़िर एक दिन आप बिलकुल अपनी पर उतर आते हो, कहते हो—“कारण वगैरह कुछ नहीं है, बस खुंदक है। है तो है।” सही बात तो ये है कि कारण कभी था ही नहीं, ‘वृत्ति’ थी। कारण बाहर होता है, वृत्ति भीतर होती है। कारण तो कभी था ही नहीं; कारण तो बस यूँ ही आडम्बर था। असली चीज़ तो वृत्ति थी जो भीतर बैठी हुई है कहीं। क्यों ऐसी आत्मघाती वृत्तियों को पोषण देते हो?
हम होस्टल में हुआ करते थे, तो एक ‘पप्पी’ था। ‘पप्पी’ माने कुत्ता नहीं—‘पप्पी’, नाम था एक व्यक्ति का। तो अब पप्पी हमेशा मुँह लटकाए घूमे—ये पप्पी का चरित्र था। और ऐसों को छेड़ने में लड़कों को ज़्यादा स्वाद आता है। जो पहले ही छिड़ा-छिड़ा घूम रहा हो, उसको छेड़ना तो आवश्यक सा हो जाता है। कैसे छोड़ देंगे? इसलिए ‘बम्प्स’ का रिवाज़ था। ‘बम्प्स’ समझते हो? चार लोग लगते थे, दो हाथ पकड़ते थे, दो पाँव पकड़ते थे और झूला झुलाते थे। और बाकी दस जन दनादन-दनादन पिछवाड़ा गरम करते थे—लातों से। तो जहाँ पप्पी को देखा जाए कि मनहूस सूरत लेकर घूम रहा है, तहाँ मन करे कि पप्पी को बम्प्स देने हैं। पर कोई वजह तो होनी चाहिए, तो फ़िर वजहें निकाली जाती थीं—क्या? साढ़े-तीन बजे हैं—पप्पी को बम्प्स। आज मेस में खाना ख़राब बना था—पप्पी को बम्प्स। आज फलानी लड़की ने पीला सूट पहना था—पप्पी को बम्प्स। आज का पेपर बहुत आसान आया था—पप्पी को बम्प्स। आज का पेपर बहुत कठिन आया था—पप्पी को बम्प्स। आज मौसम बहुत ख़राब है, आज मौसम ख़ुशगवार है—पप्पी को बम्प्स।
ऐसी हमारी हालत है। हम सोचते हैं कि हमारे कार्य किसी कारण से निकाल रहे हैं। हमें कार्य-कारण के जोड़े में बड़ा यकीन है। हमारे कार्य, ‘कारण’ से नहीं निकलते। वहाँ कॉज-इफेक्ट मत खोज लेना। हमारे कार्य वृत्तियों से निकलते हैं; कारण तो हम बाद में गढ़ लेते हैं। कारण गढ़ना तो ऐसा है कि तुम फिर तर्क खड़ा कर दो कि—“हम जैसा जी रहे हैं, क्यों जी रहे हैं?”। ये तर्क बाद में खड़ा किया जाता है। ये मत कह देना कि चूँकि तर्क है इसलिए काम है। काम जो है वो इसलिए है क्योंकि वो काम ‘वृत्ति’ द्वारा प्रेरित और संचालित है। बाद में तुम अपने कार्य को वैधता देने के लिए कारण का निर्माण कर लेते हो—वो तर्क कहलाता है, लॉजिक, जस्टिफिकेशन।
तुम्हें परेशान रहना है। सोलह साल की लड़की की देह भी दे दी जाए, तो भी परेशान तो रहोगे, तब कारण कुछ और खोज लोगे। अभी कहोगे—“देह जर्जर है इसलिए परेशान हूँ”, फ़िर कहोगे—“देह इतनी खूबसूरत है तो परेशान हूँ, मुझे लोग बेबी बेबी बेबी बोलते हैं।” परेशान तो रहना है, क्योंकि परेशान नहीं रहोगे तो उससे मिलन हो जाएगा न। और उससे बड़ा ऐतराज़ है, बहुत घबराते हो। जीवन भर की दौड़-धूप ही इसलिए की है कि किसी तरीक़े से उससे बचे रह सकें।
तर्कों को बहुत कीमत मत दे दिया करो—हमारे ‘काम’ पहले आते हैं, तर्क बाद में आते हैं। तुम करोगे वही जो तुम्हें करना है। हाँ, ज़रा होशियार आदमी हो, पढ़े-लिखे, विद्वान, पंडित आदमी हो, तो तर्क तुम बहुत महीन ढूंढ निकालोगे। लोग कहेंगे—“वाह! कितना बढ़िया तर्क था इसके पास। इसलिए इसने ऐसा काम किया।” बात उल्टी है। तर्क से काम नहीं आया है, ‘काम’ पहले आया है, तर्क बाद में रचा गया है। हमारे तर्क आते हैं हमारी बहुत आदिम और पुरातन पाशविक वृत्तियों से। वहाँ से हमारे सारे ‘काम’ उठते हैं। तुम पैसे की ओर क्यों भागते हो? तुम लाख तर्क दे दो, सही बात ये है कि भीतर जो पुरानी हिंसा भरी हुई है, वो तुम्हें पैसे की ओर भगाती है। डरे हुए हो तो किसी तरह की भौतिक सुरक्षा इकट्ठी करना चाहते हो—उसका नाम है पैसा; और हिंसक भी हो, दूसरों पर आक्रमण भी करना चाहते हो, उसके लिए जो अस्त्र इकट्ठा करना चाहते हो—उसका नाम है पैसा। हाँ, तुम तर्क पचास तरीक़े के दे दोगे, तुम अर्थशास्त्री हो जाओगे, तुम न जाने कहाँ-कहाँ से ऊँचे-ऊँचे सिद्धांत लेकर आओगे और कहोगे—“देखिए, इसलिए धन इकट्ठा किया जाता है।” हटाओ! तुम अगर डरे नहीं होते तो इतना पैसा इकट्ठा करते क्या—ईमानदारी से बताना? तुम अगर हिंसक नहीं होते तो पैसे के लिए इतने व्याकुल रहते क्या?
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