अकेले रहने में डर और परेशानी? || आचार्य प्रशांत (2018)

Acharya Prashant

37 min
220 reads
अकेले रहने में डर और परेशानी? || आचार्य प्रशांत (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, यह डर लगा रहता है कि अकेले रहने का फ़ैसला तो कर लिया है, पर कभी अचानक रात को तबियत ख़राब हो गई तो क्या करूंगी? अकेले रहने में और कोई परेशानी नहीं है। बहुत मस्त रहती हूँ जब से आपकी बातें सुनी हैं। मन शांत रहता है, जीना आ गया है। जीवन में रस है।

आचार्य प्रशांत: रात को तबियत ख़राब हो गई तो डॉक्टर बुला लीजिएगा।

प्रश्नकर्ता: फ़ोन कैसे करूंगी?

आचार्य प्रशांत: ये क्या सवाल है? _(मुस्कुराते हुए) _

प्रश्नकर्ता: बस यही है, और कुछ नहीं है।

आचार्य प्रशांत: नहीं, यही नहीं है। जो चीज़ मन पर हावी रहे, भीतर का माहौल ख़राब करके रखे, वो चीज़ छोटी थोड़े ही होती है।

प्रश्नकर्ता: नहीं, माहौल ख़राब तो नहीं रहता, फिर भी कभी-कभी आ जाता है डर।

आचार्य प्रशांत: कभी-कभी बाहर से थोड़े ही आ जाता है; भीतर हमेशा रहता है, कभी-कभी प्रकट हो जाता है। और अगर वो भीतर है, तो आप ये डर हटाने की व्यवस्था कर भी लेंगी तो वो किसी और मुद्दे को लेकर शंकित रहेगा। किसी और मुद्दे को बढ़ा-चढ़ा कर के अशांति का निर्माण कर लेगा। भीतर वो छुपा तो बैठा ही है न जिसे अशांति पसंद है। उसको तो बहाना चाहिए। सेहत का बहाना नहीं मिलेगा तो दूसरा बहाना ढूंढेगा। और अगर भीतर वो नहीं है जिसे अशांति चाहिए, तो बाहर अगर कारण मौजूद भी हैं अशांति के, तो भी उन कारणों को भीतर प्रवेश करने नहीं दिया जाता। उन कारणों को समर्थन और ताक़त नहीं दी जाती, तो वो कारण फ़िर बाहर-बाहर रहते हैं, भीतर प्रभाव नहीं डालते।

“अकेली रह रही हूँ, कभी तबियत ख़राब हो गई तो क्या होगा?”

प्रश्नकर्ता: नहीं, दिन में तबियत ख़राब हो जाए तो उसकी चिंता नहीं है, रात को कोई सुनेगा ही नहीं।

आचार्य प्रशांत: अच्छा, बुरे-से-बुरा क्या होगा—मर जाएंगी?

प्रश्नकर्ता: हाँ, तो फ़िर मर जाऊंगी और क्या? _(हँसते हुए) _

आचार्य प्रशांत: तो मर जाइए।

प्रश्नकर्ता: हाँ, यह सोच लिया है तभी तो खुश रह पा रही हूँ। लेकिन ये था कि बस आप से ये सवाल पूछ लूँ।

आचार्य प्रशांत: देह का इतना लोभ अगर रहेगा तो मात्र मृत्यु का डर ही थोड़े परेशान करेगा, फ़िर तो देह संबंधी पचास और चिन्ताएँ भी पकड़े रहेंगी। देह को लेकर ही तो घबरा रहीं हैं न?

प्रश्नकर्ता: हाँ, बस यही कि कोई फ़ोन उठाएगा या नहीं, सब सो रहे होंगे उस समय।

आचार्य प्रशांत: आप समझिए पहले बात को। बहुत विस्तार से वर्णन मत कीजिए। सपने का बहुत विस्तार से वर्णन करेंगी तो उससे सपना हट नहीं जाएगा। पहले समझिए कि आपने किस तरीक़े से अपने ही ख़िलाफ़ एक स्वार्थ बना रखा है। देह से जिसको आसक्ति हो गई है, देह उसको किसी भी सही जगह जाने से रोक देगी। आप कुछ भी करने निकलेंगी, देह बाधा बनेगी। देह का मोह बड़ी-से-बड़ी व्याधि होता है। देह में व्याधि नहीं लगती; देह का मोह ही व्याधि है।

बीमार वो नहीं है जिसके शरीर को रोग लग गया है, बीमार वो है जिसे शरीर का मोह लग गया है।

शरीर का अगर मोह लग गया है तो कोई आवश्यकता ही नहीं है कि कोई दुर्घटना घटे; दुर्घटना की आशंका ही काफ़ी है। न जाने कितने बैक्टीरिया हैं जो हवा में तैर रहे हैं। पता नहीं ये पानी क्या है?—हैजा न हो जाए। नाखून काट रहे हैं और ज़रा सा खून आ गया—कहीं टिटनेस न हो जाए। भीतर जो बैठा हुआ है, उसका तो ‘एक’ मकसद है—किसी तरह चिल्लपों मची रहे, उधेड़बुन चलती रहे, अशांति लगी रहे। उसके लिए वो कारण निर्मित कर लेगा, गढ़ लेगा, आविष्कृत कर लेगा। जहाँ कारण ही नहीं होगा, वहाँ कारण उठा लाएगा।

तो बात देह की नहीं है, बात आपकी मूलवृत्ति की है। अशांति की समर्थक हैं आप। अपनेआप से बचकर रहिएगा। और जो अशांति का समर्थक होता है, वो अपने को भी अशांत करता है और दूसरों को भी अशांत करता है। वो जिसके साथ रहेगा, उसको भी अशांत कर देगा, क्योंकि उसे शांति पसंद है नहीं। वो अगर बूढ़ा है तो कहेगा, “मुझे देह का भय है”, और अगर वो जवान होगा तो कहेगा कि “देह की कामनाएं पूरी करनी हैं, इसलिए अशांत हूँ।”

बूढ़े की भी अशांति किस से संबंधित हुई? देह से। कि कहीं देह को कुछ हो न जाए—“बूढ़ा गया हूँ, जर्जर है देह”, और वही व्यक्ति यदि जवान है—कौन-से व्यक्ति की बात कर रहे हैं हम? जिसे अशांत रहना पसंद है। वही व्यक्ति जब जवान है तो वो कहेगा—“देह है तो देह की पचास माँगे हैं। उनको पूरा करना है इसलिए अशांत हूँ।” मकसद तो एक है न, क्या? अशांति। वो मकसद पूरा हो जाएगा। और किसी तरह ये स्थिति आ भी जाए कि देह से आपका मोह ज़रा कम करा दिया जाए, तो अशांत होने की वृत्ति कोई और विषय, कोई और वस्तु पकड़ लेगी और उस वस्तु को लेकर अशांत हो जाएगी। वो कोई बहुत छोटी-सी वस्तु भी हो सकती है।

देखा होगा आपने लोगों को, कैसी-कैसी बातों पर बौरा जाते हैं—कोई आपकी बहुत पुरानी शर्ट है, उसका आपको ख्याल भी नहीं। साल भर से, आपको उसका ख्याल ही नहीं आया। आपका काम मज़े में चल रहा था और वो शर्ट भी बहुत पुरानी हो चुकी है। आपने उसका खूब इस्तेमाल कर लिया है। और आज सुबह आपको उस शर्ट की याद आ गई और आप दस जगह ढूंढ रहे हैं कि वो गई कहाँ। हुआ है ऐसा? अरे, शर्ट नहीं तो कोई और चीज़ होगी।

क्या वो आपके लिए आवश्यक थी—शर्ट? आप तो उसे भुलाए बैठे थे, और आपका मज़े में काम चल रहा था। उसकी कोई आवश्यकता नहीं है आपको। लेकिन वृत्ति अशांत होने के लिए कुछ-न-कुछ सामग्री चाहती है—सामग्री मिल गई। देह, नहीं तो वस्त्र। देह और वस्त्र तो फ़िर भी तथ्य हैं—भौतिक वस्तुएँ हैं—अगर चस्का ही लगा हो परेशान रहने का तो आपको किसी वस्तु की भी आवश्यकता नहीं, आप यूँ ही परेशान हो जाइए और कहिए कि, “मुझे तो पता भी नहीं है कि मैं परेशान क्यों हूँ”। ऐसे लोग फ़िर अपनेआप को बताते हैं कि, “हम एंग्ज़ायटी के मरीज़ हैं”। वो कहते हैं—“देखिए साहब, हमारी स्थिति चिंताग्रस्त आदमी की नहीं है। चिंताग्रस्त आदमी के पास चिंता के लिए कोई विषय, कोई कारण होता है। हमारे पास कोई वजह नहीं है चिंतित होने की, व्याकुल होने की, हम बेवजह व्याकुल हैं। हम चिंतित आदमी से ज़्यादा गंभीर स्थिति में हैं। हमारी स्थिति को आप एक गहन मनोरोग का दर्जा दीजिए—हम ‘एंग्ज़ायटी’ के मरीज़ हैं।”

ये जिसको आप एंग्ज़ायटी कहते हो, ये बस बीमारी ही है, परेशानी की लत है। इस लत को जब विषय मिल गया तो वो चिंता बन जाती है। फ़िर आप कहते हो—“फलानी चीज़ को लेकर मैं चिंतित हूँ”, और जब कोई विषय नहीं मिला तो आप बिना विषय ही उदास रहते हो। अनुभव भी किया होगा, आस-पास भी देखा होगा, कि कोई मुंह लटकाए घूम रहा है, आप पूछोगे—“बात क्या है?”, वो कहेगा— “बात तो कुछ नहीं है, बस यूं ही, माहौल ख़राब है भीतर।”

“बात कुछ नहीं, माहौल ख़राब है”—ये तो बहुत बड़ी बात है। ऐसी लत लगी है कि अब मन ख़राब करने के लिए कारण भी नहीं चाहिए। अब हम बेशर्म हैं।

पहले कम-से-कम अगर मुँह लटकाते थे तो उस उदासी को थोड़ा सत्यापित, थोड़ा प्रमाणित करने की ज़रूरत समझते थे। चाहते थे कि हमारी उदासी की कुछ वैधता हो, उसका कुछ जस्टिफिकेशन हो, कि कोई पूछे भी कि भई क्यों उदास हो? तो बता तो पाएँ कि फलानी वजह से उदास हैं। भले ही वजह ये हो कि आज मंगलवार है इसलिए उदास हैं। भले ही वजह ये हो कि दस बजे हैं और बादल छाए हैं, तो हम उदास हैं। व्यर्थ ही सही, बेवकूफी भरी ही सही, कुछ वजह तो बताते। इतनी तो लाज-शर्म रखते। नहीं। कुछ लोग इससे भी आगे निकल जाते हैं। वो कहते हैं— “हम तो बेवजह उदास हैं”, इन्होंने अब सारी आंतरिक हया ताख पर रख दी है। ये अब बेधड़क, खुल्लम-खुल्ला, नंगे मैदान में उतर आए हैं और कह रहे हैं कि “मैं वो हूँ जिसे उदास रहना है और मैं खुल्लम-खुल्ला उदास रहूँगा और मुझे किसी कारण का सहारा लेने की भी ज़रूरत नहीं है; मैं बस उदास हूँ।” अच्छा है, बात चूँकि बेशर्मी की है, इसीलिए थोड़ी ईमानदारी की है। कम-से-कम इन्होंने स्वीकार तो किया कि इन्हें तो उदास होना ही था, कारण तो बहाना था।

यही बात अन्य वृत्तियों पर भी लागू होती है—क्रोधित होना है तो होना है; कारण खोज कर ही रहेंगे। दिखाना है कि हम सुसंस्कृत आदमी हैं, तो कुछ कारण खोजकर बताएंगे कि, “मैं इस कारण से क्रोधित हूँ”। फ़िर एक दिन आप बिलकुल अपनी पर उतर आते हो, कहते हो—“कारण वगैरह कुछ नहीं है, बस खुंदक है। है तो है।” सही बात तो ये है कि कारण कभी था ही नहीं, ‘वृत्ति’ थी। कारण बाहर होता है, वृत्ति भीतर होती है। कारण तो कभी था ही नहीं; कारण तो बस यूँ ही आडम्बर था। असली चीज़ तो वृत्ति थी जो भीतर बैठी हुई है कहीं। क्यों ऐसी आत्मघाती वृत्तियों को पोषण देते हो?

हम होस्टल में हुआ करते थे, तो एक ‘पप्पी’ था। ‘पप्पी’ माने कुत्ता नहीं—‘पप्पी’, नाम था एक व्यक्ति का। तो अब पप्पी हमेशा मुँह लटकाए घूमे—ये पप्पी का चरित्र था। और ऐसों को छेड़ने में लड़कों को ज़्यादा स्वाद आता है। जो पहले ही छिड़ा-छिड़ा घूम रहा हो, उसको छेड़ना तो आवश्यक सा हो जाता है। कैसे छोड़ देंगे? इसलिए ‘बम्प्स’ का रिवाज़ था। ‘बम्प्स’ समझते हो? चार लोग लगते थे, दो हाथ पकड़ते थे, दो पाँव पकड़ते थे और झूला झुलाते थे। और बाकी दस जन दनादन-दनादन पिछवाड़ा गरम करते थे—लातों से। तो जहाँ पप्पी को देखा जाए कि मनहूस सूरत लेकर घूम रहा है, तहाँ मन करे कि पप्पी को बम्प्स देने हैं। पर कोई वजह तो होनी चाहिए, तो फ़िर वजहें निकाली जाती थीं—क्या? साढ़े-तीन बजे हैं—पप्पी को बम्प्स। आज मेस में खाना ख़राब बना था—पप्पी को बम्प्स। आज फलानी लड़की ने पीला सूट पहना था—पप्पी को बम्प्स। आज का पेपर बहुत आसान आया था—पप्पी को बम्प्स। आज का पेपर बहुत कठिन आया था—पप्पी को बम्प्स। आज मौसम बहुत ख़राब है, आज मौसम ख़ुशगवार है—पप्पी को बम्प्स।

ऐसी हमारी हालत है। हम सोचते हैं कि हमारे कार्य किसी कारण से निकाल रहे हैं। हमें कार्य-कारण के जोड़े में बड़ा यकीन है। हमारे कार्य, ‘कारण’ से नहीं निकलते। वहाँ कॉज-इफेक्ट मत खोज लेना। हमारे कार्य वृत्तियों से निकलते हैं; कारण तो हम बाद में गढ़ लेते हैं। कारण गढ़ना तो ऐसा है कि तुम फिर तर्क खड़ा कर दो कि—“हम जैसा जी रहे हैं, क्यों जी रहे हैं?”। ये तर्क बाद में खड़ा किया जाता है। ये मत कह देना कि चूँकि तर्क है इसलिए काम है। काम जो है वो इसलिए है क्योंकि वो काम ‘वृत्ति’ द्वारा प्रेरित और संचालित है। बाद में तुम अपने कार्य को वैधता देने के लिए कारण का निर्माण कर लेते हो—वो तर्क कहलाता है, लॉजिक, जस्टिफिकेशन।

तुम्हें परेशान रहना है। सोलह साल की लड़की की देह भी दे दी जाए, तो भी परेशान तो रहोगे, तब कारण कुछ और खोज लोगे। अभी कहोगे—“देह जर्जर है इसलिए परेशान हूँ”, फ़िर कहोगे—“देह इतनी खूबसूरत है तो परेशान हूँ, मुझे लोग बेबी बेबी बेबी बोलते हैं।” परेशान तो रहना है, क्योंकि परेशान नहीं रहोगे तो उससे मिलन हो जाएगा न। और उससे बड़ा ऐतराज़ है, बहुत घबराते हो। जीवन भर की दौड़-धूप ही इसलिए की है कि किसी तरीक़े से उससे बचे रह सकें।

तर्कों को बहुत कीमत मत दे दिया करो—हमारे ‘काम’ पहले आते हैं, तर्क बाद में आते हैं। तुम करोगे वही जो तुम्हें करना है। हाँ, ज़रा होशियार आदमी हो, पढ़े-लिखे, विद्वान, पंडित आदमी हो, तो तर्क तुम बहुत महीन ढूंढ निकालोगे। लोग कहेंगे—“वाह! कितना बढ़िया तर्क था इसके पास। इसलिए इसने ऐसा काम किया।” बात उल्टी है। तर्क से काम नहीं आया है, ‘काम’ पहले आया है, तर्क बाद में रचा गया है। हमारे तर्क आते हैं हमारी बहुत आदिम और पुरातन पाशविक वृत्तियों से। वहाँ से हमारे सारे ‘काम’ उठते हैं। तुम पैसे की ओर क्यों भागते हो? तुम लाख तर्क दे दो, सही बात ये है कि भीतर जो पुरानी हिंसा भरी हुई है, वो तुम्हें पैसे की ओर भगाती है। डरे हुए हो तो किसी तरह की भौतिक सुरक्षा इकट्ठी करना चाहते हो—उसका नाम है पैसा; और हिंसक भी हो, दूसरों पर आक्रमण भी करना चाहते हो, उसके लिए जो अस्त्र इकट्ठा करना चाहते हो—उसका नाम है पैसा। हाँ, तुम तर्क पचास तरीक़े के दे दोगे, तुम अर्थशास्त्री हो जाओगे, तुम न जाने कहाँ-कहाँ से ऊँचे-ऊँचे सिद्धांत लेकर आओगे और कहोगे—“देखिए, इसलिए धन इकट्ठा किया जाता है।” हटाओ! तुम अगर डरे नहीं होते तो इतना पैसा इकट्ठा करते क्या—ईमानदारी से बताना? तुम अगर हिंसक नहीं होते तो पैसे के लिए इतने व्याकुल रहते क्या?

इसी तरह बहुत सीधा उदाहरण है—ये जो स्त्री-पुरुष का आकर्षण होता है, मूल आकर्षण वही पुरानी, पाशविक, प्राकृतिक वृत्ति के कारण है। मूल आकर्षण सिर्फ़ इसलिए है क्योंकि प्रकृति तुमसे संतानोत्पत्ति करवाना चाहती है। उसी को तुम बोलते हो—“पहली नज़र का प्यार”। मतलब समझते हो न उसका? कि तुम्हें पता भी नहीं चला कि तुम आकर्षित क्यों हो रहे हो! पहली नज़र में प्यार का तो अर्थ ही यही है कि तुम्हारे पास विचारने का भी समय नहीं था। वैसी सी ही बात थी कि चुंबक है और लोहा है। ये तो वृत्ति का खेल था सीधे-सीधे, पर तुम किसी को कैसे बताओगे कि उस स्त्री की ओर इसलिए जा रहे हो क्योंकि तुम्हें बच्चा पैदा करना है? बात सुनने में ही बड़ी असभ्य लगती है। और अगर स्त्री ये बता दे कि—“मुझे वो पुरुष अच्छा लगता है क्योंकि मुझे बच्चा पैदा करना है”, तो समाज कहेगा कि और ज़्यादा असभ्य बात है ये तो! तो फ़िर तुम सीधे-सीधे ये नहीं कहते कि ‘क्यों’ किसी की ओर आकर्षित हो रहे हो। फ़िर तुम शायरी करते हो। फ़िर तुम बताते हो कि ये जो घटा जैसी जुल्फें हैं, हमें ये पसंद आयी हैं। फ़िर तुम बताते हो कि बात-चीत करने में बड़ी होशियार है, स्वभाव से बड़ी मीठी है, इसलिए हमें अच्छी लगती है।

वो सारी वजहें कायम रहें और जो मूल वजह थी वो हटा दी जाए, फ़िर देखना कि वो तुम्हें कितनी अच्छी लगती है। ऊपर-ऊपर की सारी वजहें यथावत रहें, उसकी ज़ुल्फ़ें वैसी-की-वैसी रहें, वो चाय उतनी ही मीठी बनाए, उसका दुपट्टा उतना ही पीला रहे, उसकी खुशबू उतनी ही प्यारी रहे, विद्वत्ता भी उसकी पहले जैसी ही रहे, हँसे तो फूल झड़े—बस ये तय कर दिया जाए कि इसको छूने को कभी नहीं पाओगे, फ़िर देखना कि तुम्हारा आकर्षण शेष रहता है या नहीं। पहले ही बता दिया जाए।

पूछो किसी से—“विवाह क्यों कर रहे हो?”, तो सीधे थोड़ी बता देगा कि इसलिए कर रहे हैं क्योंकि संतान चाहिए। ख़रगोशों को नहीं देखा कभी? नर ख़रगोश, मादा ख़रगोश के पास क्यों जाता है? प्रकृति चाहती है कि नन्हे-मुन्हे ख़रगोश आएँ। बस इतनी सी बात है, इसलिए जाता है। पर पचास बातें बताई जाएंगी कि “देखो ऐसा है, वैसा है, बुढ़ापे का सहारा चाहिए। कभी बीमार हो गए और अकेले होंगे तो क्या होगा?”—ये सारी बातें।

यही विवाह के वक़्त, स्त्री और पुरुष को बता दिया जाए कि तुम दोनों को एक-दूसरे में जितनी बातें अच्छी लगती हैं वो सब कायम रहेंगी, बस एक दूसरे को कभी छूने को नहीं पाओगे। फिर बताओ—विवाह होगा? होगा क्या? तो मूल बात कुछ और होती है। उसके पीछे कारण गढ़ लिए जाते हैं। कारणों की बहुत परवाह मत करना, कारण तो नैतिकता से आते हैं, मर्यादा से आते हैं। कारण तो इसलिए आते हैं ताकि तुम्हारे मन में तुम्हारी जो प्रकाशित छवि है, उज्जवल छवि है, वो कायम रह पाए। ताकि तुम अपनी ही नज़रों में गिर न जाओ। ये बातें सब सामाजिक हैं। इनका यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं।

तो इसी तरह ये सब देह इत्यादि की बातों का यथार्थ से कोई लेना-देना नहीं। मूल बात इतनी ही है कि ‘उससे’ (परमात्मा से) गुरेज़ है। ‘उससे’ किसी तरीक़े से बचना है। शांत हो गए तो वो उतर आएगा। तो कोई तो बहाना चाहिए न व्यथित रहने का, व्यस्त रहने का। वो तो तभी आता है तुम्हारे पास जब तुम कहते हो कि—“अब हम पूरी तरह खाली हैं इसीलिए तुम्हारे लिए उपलब्ध हैं, तुम्हारे प्रति उपस्थित हैं।” वो आएगा ही नहीं तुम्हारे पास अगर तुम कहोगे कि—“अभी तो हम व्यस्त हैं। अभी हमें शरीर की परवाह है। हम शरीर की परवाह करने में व्यस्त हैं। अभी तो हमें घर चलाना है, संसार बढ़ाना है। हम उन सब फितूरों में व्यस्त हैं।” वो आएगा ही नहीं, वो कहेगा—“अभी तुम व्यस्त रह लो”। तुम कहते हो—“ठीक। हम समझ गए। तुमसे बचना हो तो हमें व्यस्त रहना होगा।” तो हम व्यस्तताएं गढ़ते रहते हैं। हम व्यस्त होते नहीं हैं, हम व्यस्तताएं गढ़ते हैं।

लोग शिकायतें करते हैं कि काम ज़्यादा है। जानती हो आदमी की बड़ी-से-बड़ी शिकायत क्या है? कहीं काम कम न हो जाए। ये झूठी शिकायत है कि “मैं बहुत व्यस्त हूँ, समय नहीं मिलता”। तुम्हें असली तकलीफ़ तब होती है जब तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं होता। तुम तड़प उठते हो बिलकुल। ये क्या हो गया! फ़िर और कुछ करने को नहीं होगा तो टी.वी. का रिमोट उठाओगे और लगोगे चैनल बदलने। एक भी क्षण पूर्ण शांति का, स्थिरता का और ख़ालीपन का कंपा जाता है भीतर, क्योंकि तुम खाली हुए नहीं कि ‘वो’ उतरेगा। उसको जगह मिली नहीं कि ‘वो’ उतरेगा। और तुम डर जाते हो क्योंकि वो उतरा नहीं कि ‘तुम’ गए। तुम कहते हो—“जगह मत छोड़ना उसके लिए। सो भी रहे हो तो भी उसके लिए जगह मत छोड़ना। सपने में भी चिंतन चलता रहे।” फ़िर तुम मीठे सपने देखते हो, कड़वे ही सही, जैसे भी हैं, व्यस्त तो रखते हैं न तुमको।

ये जो देखते हो रेला-मेला चला जा रहा है, तुम्हें क्या लगा रहा है, इन सब लोगों के पास जायज़ वजहें हैं वहाँ जाने की जहाँ वो चले जा रहे हैं? ज़रा भ्रम से बाहर आओ। अभी मैं यहाँ आ रहा था, शाम का वक्त था, दफ़्तर छूटे होंगे। हबड़-तबड़ एक ऑटो वाले ने एक कार वाले को मार दिया—जानबूझकर नहीं, चौराहे पर खड़ा था, उसने ज़रा ऑटो पीछे किया तो गाड़ी में छू गया। वहाँ फसाद हो गया। रेले पे रेला, जत्थे पे जत्था—तुम्हें क्या लगा रहा है, इन सब के पास जायज़ वजहें हैं व्यस्त होने की? नहीं। व्यस्तता ज़रूरी है ताकि ‘उससे’ बचा जा सके। ये सब लोग काम के लिए नहीं भाग रहे हैं, ये सब लोग काम की तरफ़ नहीं भाग रहे हैं; ये सब सत्य से दूर भाग रहे हैं। व्यस्त रहना ज़रूरी है। व्यस्त रहना बहुत ज़रूरी है। कुछ-न-कुछ चलता रहना चाहिए।

तभी तो ध्यान इतना मुश्किल पड़ता है क्योंकि ध्यान का अर्थ होता है थम जाना, स्थिर हो जाना। और समाज ने तुम्हारा ये मुद्दा ही अपमान का बना दिया है। अगर तुमसे पूछा जाए और तुम कह दो कि, “मैं कुछ नहीं करता”, अरे! कुछ नहीं करते! बेरोज़गारी को लेकर ये आशंका फ़िर भी छोटी होती है कि पैसा नहीं होगा तो क्या करेंगे। बेरोज़गारी को लेकर तुम्हारी बड़ी-से-बड़ी आशंका ये होती है कि इतने खाली समय का करेंगे क्या? जानते हो, बहुत बड़ी तादाद में दुनिया में और इस देश में भी लोग प्रच्छन्न रूप से बेरोज़गार हैं। छुपा हुए बेरोज़गार है। प्रच्छन्न बेरोज़गारी—वो जानते हो क्या होती है? जो काम दो घंटे में हो सकता है, वो दिन भर में किया जाता है, ताकि ये लगता रहे कि तुम व्यस्त हो, रोज़गारी हो, कामगार हो। काम करने को कुछ नहीं है, पर दिन भर तुम यही दिखाते हो कि ‘मैं तो लगा हुआ हूँ’।

ये सब खाली हो जाने के प्रति तुम्हारा विरोध है, और कुछ नहीं। तुम जताना चाहते हो कि तुम बड़े महत्वपूर्ण हो कि तुम्हारे पास करने के लिए अभी बड़े कीमती काम बाकी हैं। तुम दिखाना चाहते हो कि अभी तुम्हें बहुत सारी यात्रा करनी है। तुम दिखाना चाहते हो कि तुम्हारे हाथ भरे हुए हैं। तुम दिखाना चाहते हो कि अभी पलायन कैसे कर जाएं, अभी कूच कैसे कर जाएं, अभी तो हमारे ऊपर बड़ी ज़िम्मेदारियाँ हैं। अभी तो ये देखो—कामों की इतनी लम्बी फेहरिस्त पड़ी हुई है। तुम चाहते हो कि जब वो तुम्हारे सामने खड़ा हो तो तुम उससे बोलो—“देखिए, आपसे प्यार तो हमें बहुत है पर इतने सारे काम हमें पूरे करने हैं।” ये काम कभी पूरे होंगे नहीं, इसलिए नहीं कि ये काम पूरे हो सकते नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि तुम इन कामों को कभी पूरा होने दोगे नहीं। देखा है कोई आदमी जो मरते वक़्त भी कहे कि मेरे काम सारे पूरे हो गए, मेरी कहानी पूरी हो गई, मेरी यात्रा पूरी हो गई? देखा है?

हम अपने मकसद में कामयाब हो जाते हैं। हम चाहते हैं कि जीवन हमारा बीत जाए उससे बचे-बचे, ओट में छुपे-छुपे, और हमारे मंसूबे कामयाब हो जाते हैं, हम सफल हो जाते हैं। यही तो हम चाहते थे कि किसी तरह से मृत्यु का पल आ जाए; जीवन रूपी अवसर पूरे तरीक़े से बीत ही जाए, और मुक्ति का सामना न करना पड़े। जीवन को लेकर जो बड़ी-से-बड़ी चीज़ हमें घबराती है वो मृत्यु नहीं है—मुक्ति है। मृत्यु का डर फ़िर भी छोटा होता है, मुक्ति का डर बहुत बड़ा होता है। इसीलिए तुमने देखा होगा कि मृत्यु का वरण तो बहुत सारे लोग स्वयं ही कर लेते हैं।

क्रोध चढ़ रहा है, तुम जा रहे हो पांच लोगों से भिड़ने। दो-चार तुम्हें सलाह भी दे रहे हैं—तुम्हारे शुभ चिंतक, कि, “मत जाओ, वो पाँच खड़े हैं, उनके पास हथियार है।” तुम कहते हो—“गुस्सा आ रहा है, जाना है”। ये तुम स्वयं ही मृत्यु का वरण कर रहे हो, कर रहे हो न? लोग आत्महत्या कर लेते हैं—चुन ली उन्होंने मौत। लोग ऐसे पेशों में चले जाते हैं जहाँ पर मौत की संभावना होती है—सिपाही बन जाते हैं। और भी ख़तरनाक पेशे हैं, उनमें चले जाते हैं। ये सब मृत्यु का वरण है।

मृत्यु का वरण आदमी फ़िर भी आसानी से कर लेता है, मुक्ति का वरण नहीं कर पाता—मुक्ति बहुत खौफनाक है।

‘शारीरिक मृत्यु’ को आप ‘मृत्यु’ कहते हैं; ‘मानसिक मृत्यु’ को, ‘वृत्तिगत मृत्यु’ को ‘मुक्ति' कहा जाता है। शरीर की मौत को आप स्वीकार कर लेते हो; मन की मौत को आप स्वीकार नहीं कर सकते। वजह ये है कि हम शरीर में नहीं जीते। शरीर में जो जिए वो तो फिर भी तथ्य में जी रहा है। शरीर क्या है? तथ्य है। हम कल्पनाओं में जीते हैं —कल्पनाएं माने ‘मन’। हम तथ्यों में नहीं जीते। हमारा शरीर से लेना-देना कम है। हमारा ज़्यादा लेना-देना किससे है? कल्पनाओं से, धारणाओं से, उन सब वस्तुओं से जो ‘मानसिक’ हैं।

तो हमारा ज़्यादा तादात्म्य शरीर की अपेक्षा ‘मन’ से है। हम सम्बंधित दोनों से हैं—हम में ‘देहभाव’ भी सघन है और हम में ‘मनोभाव’ भी सघन है। लेकिन हम जैसे लोग हैं—हमें ज़्यादा बुरा तब लगता है जब हमें कोई पागल बोल दे। कोई बोल दे कि “तुम नाटे हो, कुरूप हो”, हमें ज़रा कम बुरा लगेगा, क्योंकि उंगली उठाई गई हमारी ‘देह’ पर। तुम्हारी देह को बुरा बोल दिया जाए, तुम्हें बुरा लगता है, पर तुम झेल जाते हो। तुम्हारे मन को ही बुरा बोल दिया जाए, तुम झेल नहीं पाते हो। बोल दिया जाए कि—“तुम बेवकूफ़ हो”, ये बात तुम्हारे शरीर के बाबत नहीं कही गई है, ये बात कही गई है मन के बाबत—“तुम बेवकूफ़ हो”। देखा है कितना बुरा लगता है? या तुम्हारी धारणाओं पर कोई चोट कर दे—तुम तिलमिला जाते हो। शरीर पर चोट कर दे, एक बार को झेल जाओगे पर धारणाओं पर अगर डंडा पड़ जाए तो हो नहीं सकता कि तुम प्रतिवाद न करो। मुक्ति के लिए वैसे भी तड़प कौन रहा है, शरीर या मन? तुम्हारा अंगूठा कहता है क्या कि “मुझे मुक्त होना है”? मन कहता है न?

मन ही मुक्ति के लिए तड़प रहा है और मुक्ति से ही हम सर्वाधिक घबराते हैं। इसीलिए कल मैंने कह था कि आदमी अपने ही ख़िलाफ़ रची गई साज़िश है।

मुक्ति से ज़्यादा हमें कुछ चाहिए नहीं और मुक्ति से ज़्यादा हम किसी से घबराते नहीं। और अभी हमने कहा कि हम मौत से भी कम घबराते हैं—मुक्ति से ज़्यादा घबराते हैं। मौत को आदमी झेल जाएगा, यही वजह है कि किसी ‘कारणवश’ जान दे देने वालों की तादाद बहुत है। युद्ध होता है, उसमें लाखों मर जाते हैं; इधर के सिपाही, उधर के सिपाही। पर ‘मुक्त’ पुरुषों की तादाद बहुत कम है। शरीर को मौत दे देना हमारे लिए आसान पड़ता है, रणक्षेत्र में पहुँच जाओ बंदूक लेकर—शरीर को मौत मिल गई। शरीर की मौत हम स्वीकार कर लेते हैं पर ‘बुद्धत्व’ हमें बहुत कठिन पड़ता है।

शहीद बहुत हैं, बुद्ध बहुत कम। बुद्धत्व असली शहादत है क्योंकि उसमें शरीर नहीं मरता, मन मरता है। तो हम शरीर की शहादत स्वीकार कर लेते हैं। ‘बुद्धत्व’ अर्थात ‘मन’ की शहादत स्वीकार करना बड़ा मुश्किल पड़ता है।

आप शरीर को लेकर नहीं परेशान हैं। शरीर तो मन के हाथ में एक खिलौना है। शरीर का तो इस्तेमाल कर रहा है मन—अशांत बने रहने के लिए। मैंने कहा कि शरीर हट गया तो मन कोई और कारण खोज लेगा—उसे तो अशांत रहना ही है। जितनी ऊर्जा हम लगाते हैं अशांत बने रहने में, उसकी तिहाई ऊर्जा, चौथाई ऊर्जा भी हमने किसी सृजनात्मक काम में लगा दी होती तो न जाने क्या खूबसूरत निर्माण हो गया होता। बड़ी-से-बड़ी तमन्ना हमारी यही रहती है कि अपनेआप को छेड़ते रहें। एक सुई लेकर खुद को ही चुभोते रहें। कुछ भी कर लें, बस परेशान रहें। परेशानी आ जाती है तो लगता है जान आई! अब जीने के लिए कोई कारण मिला, नहीं तो बड़ी बेवजह ज़िंदगी जा रही थी।

अब समझना असली अर्थ उस गीत का, जब पुरुष, स्त्री को देखकर बोलता है—“तुम आ गए हो, नूर आ गया है, नहीं तो बड़ी बेवजह ज़िंदगी जा रही थी”। परेशानी ही नहीं थी कुछ! अब वजह मिली जीने की! और अब इस बात को सूत्र की तरह गाठ बांध लो—जो चीज़ तुम्हें परेशान करने की जितनी संभावना रखती है, वो चीज़ तुम्हें उतनी आकर्षित करेगी, और जो चीज़ तुम्हें जितनी आकर्षित कर रही है, वो तुम्हें परेशान करने की उतनी ज़्यादा संभावना रखेगी। आकर्षण से बचना। तुम आकर्षित हो ही इसीलिए रहे हो ताकि तुम परेशान हो सको। और किसी चीज़ से हो परेशान? जिधर को खिंचे चले गए थे उधर से ही अब परेशान हो।

जो कुछ भी तुम्हें बहुत भाता हो, सुहाता हो, खींचता हो, जान लेना कि वो तुम्हें ‘भा’ इसीलिए रहा है ताकि तुम्हारे लिए वो परेशानी बन सके।

हमारी मूल रुचि ही है ‘परेशानी’ में। अब समझ में आ रहा है न कि—क्यों मलिन होना आसान है और निर्मल होना मुश्किल? अब समझ में आ रहा है न कि—क्यों बहुत आसान है विकारग्रस्त हो जाना और निर्विकार होने के लिए बड़ी साधना करनी पड़ती है। क्यों समझाने वालों ने कहा है कि ज़िंदगी एक रपटीली ढलान की तरह है; फिसलना आसान है—संभलना मुश्किल है। क्योंकि हमारी मूल-वृत्ति मुक्ति की पक्षधर नहीं है, वो परेशानी की पक्षधर है।

जो बच्चा जन्म लेता है, उसकी मूल रुचि मुक्ति में नहीं है—अशांति में है। ज्ञानी, महात्मा, फ़क़ीर, वेद-उपनिषद हमें बता गए हैं कि हमारा स्वभाव है—शांति। वो बात ठीक होकर भी बहुत उपयोगी नहीं है। तुम अपना मूल स्वभाव याद रखो या न रखो, मूल वृत्ति को ज़रूर याद रखना। मूल स्वभाव भले ही होगा शांति, पर मूल वृत्ति है अशांति—ये बात याद रखना ज़रूर। नहीं तो आदमी अपनेआप को ही बड़े भ्रम में रख लेता है।

बड़ा मीठा लगता है न—“मैं तो शुद्ध-बुद्ध आत्मा मात्र हूँ; निर्मल हूँ, निरंजन हूँ, निर्विकार हूँ, निराकार हूँ”। अजि हटाओ! तुम वो हो जिसे कीचड़ के लोटे बिना चैन नहीं है। कहाँ तुम बात कर रहे हो निर्मल होने की और निर्विकार होने की? आत्मा तो हमारे लिए बहुत दूर का तारा है। आत्मा सत्य होकर भी हमसे बहुत दूर की बात है। इतनी आसानी से मत बोल दिया करो कि “आत्मा मात्र हूँ मैं”। आत्मा तुम बाद में हो, पहले तुम ‘वृत्ति’ हो। वो वृत्ति कांटों में पैदा होती है और कांटों में ही लहूलुहान रहना चाहती है; शांति उसके लिए मृत्यु समान है।

अपनेआप को पकड़ा करो, दिन भर जो कुछ भी करने में मशगूल रहते हो, पकड़ा करो, कि “ये मैं सिर्फ़़ इसलिए कर रहा हूँ न ताकि व्यस्त रह सकूँ, अनुपलब्ध रह सकूँ?” अगर दस बार ये सवाल पूछोगे तो नौ बार जवाब मिलेगा—हाँ।

मैं मान रहा हूँ कि थोड़ी ईमानदारी शेष है। ईमानदारी से अगर दस बार ये सवाल पूछोगे कि “जो भी कुछ कर रहा हूँ, सिर्फ़़ इसलिए कर रहा हूँ न ताकि व्यस्त रह सकूँ? अपनेआप को ये सिद्ध कर सकूँ कि —कोई चुनौती है, मैं जिसका सामना कर रहा हूँ; कोई बड़ा युद्ध है, जिसमें मुझे रत रहना है; कोई बड़ा मकसद है, जिसे मुझे पाना है। बस अपनेआप को साबित करना चाहता हूँ न ताकि मैं उसके लिए अनुपलब्ध रहूँ?” तुम्हें उत्तर ‘हाँ’ में ही मिलेगा—“हाँ, यही बात है”।

देखते नहीं हो, बीस मिनट, आधा घंटा खाली अगर बैठ गए तो तुरंत खोजते हो—“मोबाइल कहाँ है”। कहीं से आफ़त खोद के तो निकालनी है न। अपने घर परिवार में न मिले तो यही पता चल जाए कि दुनिया में कहाँ आफ़त है। पृथ्वी ग्रह पर आफ़त न पता चले तो कहीं और की पता चल जाए। तथ्यों में आफ़त न पता चले तो लाओ भई, कोई किस्सा-कहानी पढ़ लेते हैं। और किस्से-कहानी फ़िर तुमको बताएँगे कि विदेशी ताक़तें—और ‘विदेशी’ से मेरा आशय पृथ्वी के दूसरे देशों से नहीं है—पारलौकिक ताक़तें, किसी अन्य ग्रह, किसी अन्य आकाशगंगा से आए हुए दूत तुम पर आक्रमण कर रहे हैं—“अब ये आई आफ़त! छोटी-मोटी आफ़त के क्या करने? ये मिसेज़ खन्ना तो रोज़ कचरा फेंकती हैं—पड़ोसन। मज़ेदार आफ़त तो तब है जब किसी और गैलेक्सी से आता हुआ कोई यहाँ पर बड़ी कोई चमत्कारी मिसाइल फेंके। अब कचरे से कुछ हमारी प्रोन्नति हुई।” देखा है ऐसी फ़िल्में कितनी चलती हैं? हॉलीवुड में साइंस-फिक्शन का अर्थ ही यही होता है। और कुछ नहीं हो रहा होगा—बिलकुल यही है। (उपरोक्त वर्णित ख्याली पुलावों को इंगित करते हुए) किसी अन्य लोक से अजीब-अजीब से जीव आएँ हैं, उनका एक ही मकसद है—तुम्हें परेशान करना। उनका मकसद है तुम्हें परेशान करना, या तुम उनको गढ़ रहे हो ताकि तुम परेशान हो सको?

तो ये मत सोचना कि किसी भी दिन तुम्हारी परेशानियाँ खत्म हो जाएंगी। अगर तथ्य नहीं बचा परेशानियों का तो तुम परेशानियों को कल्पित कर लोगे। कल्पना को कौन रोक सकता है? अधिक-से-अधिक ये तथ्य के तल पर ही सिद्ध किया जा सकता है न कि अब परेशान होने को कुछ नहीं बचा। कल्पना के तल पर तो अभी कुछ भी कल्पना की जा सकती है। आओ कल्पना करें कि कुछ होने वाला है—“मैं बीमार पड़ गई हूँ। हाथ सुन्न है, लकवा मार गया है, मोबाइल तक पहुँच नहीं रहा है।” कितनी फ़िल्में देखती हैं?

प्रश्नकर्ता: मैं देखती ही नहीं थी।

आचार्य प्रशांत: अरे! इतना गढ़ लेती हैं, बिना टी.वी. देखे? कितना उर्वर दिमाग है!

प्रश्नकर्ता: बहन ने बात करी थी, तब से वो दिमाग में है।

आचार्य प्रशांत: उफ़! गंगा का दोआब है। मुरादाबाद में आप रहती हैं, बगल में गंगा बहती है। ज़मीन ही उपजाऊ है। न जाने उसमें क्या-क्या उगता है। किसी भी चीज़ का बीज डाल दो, तुरंत वृक्ष खड़ा हो जाता है। और बीज-ही-बीज हैं। मूल बीज को ‘वृत्ति’ कहते हैं।

अभी कल जापान में दो भूकंप के बड़े झटके आए। (तंज कसते हुए) बहुत दूर थोड़े ही है जापान! वो झटके ससुरे टहलते-टहलते यहाँ पहुँच गए तो? अभी फटेगी ज़मीन, अभी समा जाओगे। सब खत्म हो जाना है। कल देखा था—बिजली गिरी थी, आज न जाने क्या गिरे? कोई प्रमाण है कि सारे डायनासोर मर ही गए हैं? एक-आधे ऊपर से गिरे तो? इतना ही तो पता है कि विलुप्त हो गए, हो सकता है कोई अंतरिक्षयान बनाकर भग गए हों और एक हो उनमें कोई योडा (साइंस-फ़िक्शन फिल्म का एक पात्र) , वो लटक रहा हो यान से और यहीं गिर पड़े। कल्पना के कोई सींग-पूँछ होती है? कुछ भी सोच लो। ऐसा हो जाएगा, वैसा ही जाएगा, फिर क्या?

प्रश्नकर्ता: कभी-कभी आपके वीडियो देखने के बाद, या ऐसे ही मैं खुश हो जाता हूँ कि शांति है। फिर अचानक से मन में आता है कि इतनी बड़ी दुनिया है, ये परेशान है, इनका क्या होगा?

आचार्य प्रशांत: दिक्कत ये है कि दुनिया में सब तुम्हारे ही जैसे हैं। और दुनिया इसलिए परेशान है क्योंकि सब यही सोच-सोच के परेशान हैं कि क्या होगा। आश्रम में इन दिनों बिलकुल टूट-फूट मची हुई है। जिस सभागार में सत्र होता था उसकी छत नीचे आ गई है। खुदाई चल रही है, खंबे खड़े किए जा रहे हैं। तो ये सब चल रहा है। तो ये पिछले पाँच-सात दिन मैं आश्रम में ही सोता था रात को। अपना मज़े में सो रहे हैं। एक दिन एक स्वयंसेवी बोलता है—“यहाँ तो दरवाज़ा ही नहीं है”। तो मैंने कहा—“तो? हम हफ्ते भर से यहीं सो रहे हैं। ये आगे से भी खुला है, पीछे से भी खुला है और ऊपर से भी खुला है।” और बात बिलकुल ठीक है। आश्रम के चार किलोमीटर इधर कोई नहीं बसता, चार किलोमीटर उधर कोई नहीं बसता। न पाताल लोक में है, न ऊपर—कहीं कुछ नहीं है। और कोई फ़र्क नहीं पड़ रहा था। यूँ ही खुले में सोते थे सब। पर एक बार उसने ये कल्पना उठा दी कि कोई आ गया तो? तो अब, सब बेचैन, किसी को नींद न आए। अगर ऐसा हो गया तो?

आपको अपनेआप से पूछना पड़ेगा कि ताले और चोरी में संबंध क्या है? क्योंकि बहुत सारे ऐसे कबीले हैं जहाँ न ताला है न चोरी है। आपको सुविधा होगी ये दावा करने में कि चूँकि चोरी है इसलिए ताला है। मैं आग्रह करूँगा कि थोड़ा बात को पलटकर देखें—ये भी हो सकता है कि शुरुआत ताले से होती हो, क्योंकि बहुत ऐसे उदाहरण हैं जहाँ न ताला है, न चोरी है। कहीं ऐसा तो नही कि चोरी की कल्पना पहले आती हो और चोरी बाद में होती हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि अनिष्ट की आशंका पहले आती हो, अनिष्ट बाद में होता हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि जिनको आशंका ही नहीं होती कि कुछ बुरा हो सकता है, उनके साथ कुछ बुरा होता भी न हो? ये कैसी बात?

जिन्हें लगता नहीं कि कुछ बुरा हो सकता है, उनके साथ कुछ बुरा होता भी नहीं, और जिन्हें लगता है कि कहीं ऐसा न हो जाए—उनके साथ, जो वो सोच रहे होते हैं, उससे दुगना होता है। नहीं, अब यही क्यों हो सकता है कि एक हाथ में लकवा मार जाए—दूसरा भी तो है?

ये भी तो हो सकता है कि कोई फ़ोन लाए और मुँह के पास रख दे कि “बोलो, डॉक्टर को क्या बताना है?”, और पता चले कि जबड़े में भी लकवा मार गया है। शब्द ही नहीं बाहर आ रहे, अब क्या करेंगे? संतों की फ़ाक़ा मस्ती देखिए—“तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोए”।

प्रश्नकर्ता: अब तो मैं यही कहती हूँ।

आचार्य प्रशांत: अब तो बिलकुल यही कहती हूँ, चिंता तो पड़ोसन को हो रही है?

प्रश्नकर्ता: नहीं-नहीं। अतीत में था ये।

आचार्य प्रशांत: अरे, अरे, तो ये प्रश्न अतीत से आ रहा है कहीं से?

प्रश्नकर्ता: हाँ, अतीत का है ये।

आचार्य प्रशांत: सन 1970 लिखा हुआ है इसपर।

प्रश्नकर्ता: अभी मैं जब तनाव में आई थी तब का है ये।

आचार्य प्रशांत: अरे, अरे, अरे, बस, बस, बस, बस, बस! सावधान रहना भाई, मामला ख़तरनाक है।

“अनहोनी होनी नहीं, होनी होए सो होए”

और इसी तर्ज़ पर है कि —

साधु गाँठि न बाँधई, उदर समाता लेय। आगे-पीछे हरि खड़े, जब भोगे तब देय।।

~ संत कबीर

आगे भी हरी खड़े हैं, पीछे भी हरी खड़े हैं, हम फ़िक्र किसकी कर रहे हैं भई? और अगर आप फ़िक्र कर रहे हैं, तो बहुत यकीन है आपका कि आप आगे-पीछे हरी को खड़ा होने नहीं देते। जिनके आगे-पीछे हरी खड़े हैं, उनको तो फ़िक्र हो नहीं सकती। निश्चित रूप से पूरी आपने व्यवस्था करी है कि हरी न आगे रहने पाएँ न पीछे रहने पाएँ। हरी होते तो इतनी चिंता कैसे होती? देखो, हमारी चिंता अगर सिर्फ़ तथ्यों पर आधारित होती, वस्तुओं के अभाव या वस्तुओं की मौजूदगी से संबंधित होती, तो उस चिंता का इलाज वस्तुगत तल पर संभव हो पाता। अगर आपकी चिंता बस ये होती कि कहीं इस बोतल में पानी कम न पड़ जाए, तो इस चिंता का समाधान करा जा सकता था। दस और बोतलें रखी जा सकती थीं या पानी का कोई स्रोत पता किया जा सकता था।

पर ये बात समझने जैसी है कि हमारी चिंता किसी वस्तु को लेकर नहीं होती, हमारी चिंता बस होती है। वस्तु एक बहाना है, हमें तो चिंतित रहना है। इसीलिए वस्तुएँ इकट्ठा कर के जो लोग सोचते हैं कि चिंता के पार चले जाएंगे, वो असफल रह जाते हैं। पश्चिम में वस्तुओं की भरमार है, है न? तुम जितनी वस्तुएँ मांग सकते हो, उपलब्ध हैं। चिंता कम हो गई क्या?

हमारा कार्यक्रम चलता है — “स्पिरिचुअलिटी फॉर साइकोलॉजिकल हेल्थ (एस.पी.एच)” — एक स्वयम्सेवी देखते हैं, और अभी ये कल या परसों ही मुझे बता रहे थे कि उसके लिए ज़्यादातर आवेदन बाहर से आ रहे हैं, क्योंकि मनोरोगों का गढ़ ही पश्चिम में है। ऐसी-ऐसी बीमारियाँ हो रही हैं वहाँ पर जिनका इन दुबले-पतले ग़रीब देशों में नाम ही नहीं पता। वो बीमारियाँ होती ही उनको हैं जो वस्तुएँ इकट्ठा कर-कर के खूब मोटा गए होते हैं। फ़िर ये आता है, बोलता है—“ये नई बीमारी निकली है”। एक-दो बार तो मैंने डाँटा भी है, मैंने कहा ये बीमारियाँ कुछ नहीं हैं; बीमारी सिर्फ़़ एक है—‘अश्रद्धा’; बीमारी सिर्फ़़ एक है—‘असमर्पण’। और उसके पचास तरीक़े के तो नाम दे दिए हैं, लंबे-लंबे नाम। क्या-क्या नाम हैं भई—फलाना डिसऑर्डर; और वो डिसऑर्डर ऐसा होगा कि उसको उच्चारित करने भर में ज़बान में डिसऑर्डर हो जाए। बताओ ही मत मुझे इसका नाम क्या है। कहेंगे, “ये वाला है—और बहुत बड़े मनोचिकित्सक हैं, उन्होंने बताया है कि तुमको ये हुआ है।” और है कुछ नहीं, वो ससुरा बस शक्की है। पर उसको अब बता दिया गया है कि तुझे इतनी लम्बी बीमारी है, वो भी छुपी हुई, तो उसको बड़ी तृप्ति मिलती है कि कुछ तो बड़ा हुआ मेरे साथ। उसको शक यही था कि वो जीवन भर कहीं छोटा ही न मर जाए। अब उसे कुछ तो मिला लंबा—क्या? बीमारी। वो बड़ा संतुष्ट है। फिर वो सामने आएगा मेरे, मैं कहूँगा—तुझे तो कुछ है ही नहीं। ले ये दोहा पढ़ और गाया कर सौ बार। उसको तुरंत क्रोध आता है, कहता है—"हमारे जीवन का एक ही तो सहारा था, यही तो तमगा एक हमको मिला था। वो भी तुरंत छीन लिया। कह रहे हैं कि तुम्हें कुछ है ही नहीं, तुम सिर्फ़़ शक्की आदमी हो, वेहमी आदमी हो।”

कारण? मानसिक। कारण? आध्यात्मिक। और दे-दना-दन गोलियां फांके जा रहे हैं। गोली फांकने से तुम्हें राम मिल जाएगा? और गोलियों का बाज़ार गर्म है। आप में से भी क्या पता कोई हों। तो जैसे पहले होता था न कि सिरदर्द हो रहा है, वैसे ही अब सबको ही डिप्रेशन है।

अगर आपको डिप्रेशन नहीं है, तो आपको इस वजह से डिप्रेशन होना चाहिए। बहुमत की बात है भई! ढूंढ कर लाओ—किसे डिप्रेशन नहीं है। और मैं कह रहा हूँ—है किसी को नहीं, सब के सब मरीज़ हैं वर्तमान व्यवस्था के, सभ्यता के, विचारधाराओं के, झूठी बौद्धिकता के और प्रगति के। और परेशानी पर मनोचिकित्सक का ठप्पा भी लग जाता है—तो अब तो हम ऑफिशियली परेशान हैं। परेशान तो हमे रहना ही था, अब तो हमें डॉक्टर साहब ने भी बता दिया कि तुम्हें बहुत बड़ा रोग है तो अब तो हम राजकीय रूप से परेशान हैं। कोई वहम? कोई शक? कोई सवाल? नहीं, बिलकुल नहीं। कोई आपत्ति न करे।

सब ये डॉक्टर लोग मिलकर के लगे हुए हैं सबको परेशान सिद्ध करने में, और मुझसे पूछो तो मैं बताऊँ कि डॉक्टरों से ज़्यादा परेशान कोई नहीं है। क्यों डॉक्टर साहब? (एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए)

घड़ी छीन लो, कंगन छीन लो, पेन छीन लो, चश्मा छीन लो, बस इनकी परेशानियाँ मत छीन लेना। माफ़ नहीं करेंगी तुमको। बाकी कुछ भी छीन लो, माफ़ी है। किसी आदमी से उसकी परेशानियाँ छीन लीं, तो वो तुम्हें माफ़ नहीं करने वाला।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories