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यहाँ' से बेहतर कोई जगह नहीं || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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श्रोता १ : सर, मुझे एक अच्छा इंजीनियर बनना है, लेकिन मैं यह जानता हूँ कि मेरे कॉलेज में ज्यादा अच्छी सुविधायें नहीं हैं। तो मुझे क्या करना चाहिए?

वक्ता: किस तरह की सुविधायें?

श्रोता १: सर, यहाँ पर प्रैक्टिकल इंस्ट्रूमेंट्स नहीं हैं। और हमें दिक्कत प्रैक्टिकल में ही ज़्यादा होती है, पर हमें प्रैक्टिकल ज्ञान तो मिल नहीं रहा। तो हमारी ग्रोथ कैसे होगी?

वक्ता: कहानी पूरी देखनी पड़ेगी और अगर मुद्दे को समझना है, इसका कोई समाधान निकालना है, तो हमेशा उसे पूरा ही देखना पड़ता है। एक बड़े चित्र के एक छोटे से हिस्से को देख कर कुछ समझ में आता ही नहीं है, है ना?

पहली बात तो यह कि कोई वजह है जिसकी वजह से कोई भी कहीं पर है। मैं नहीं कह रहा हूँ कि वो वज़ह हमेशा तुम्हारे हाथ में होती है। पर वज़ह है जरूर। कारण होते जरूर हैं – जो हमें कहीं पर भी लेकर के जाते हैं। इस दुनिया में कुछ भी आकस्मिक नहीं होता है। अतीत में, परिस्थितियों में ज़रूर कुछ ऐसा है जिसके कारण तुम यहाँ हो और कोई और, कहीं और है। सबसे पहले उसको स्वीकार करना होगा।

सबसे पहले उसको स्वीकार करना होगा कि मेरे अतीत में ही कुछ ऐसा है, जो मुझे यहाँ ले करके आया है।

समझ रहे हो बात को?

मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि इससे तुममें कोई अपराध-भाव आ जाये कि “मैंने कोई गलतियाँ करी थी, जिसका मुझे अब दंड भुगतना पड़ रहा है।” न । मैं ऐसा कुछ नहीं कह रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि – वज़ह होती है । दुनिया में कार्य-कारण का ही चक्र चलता है। कारण मौजूद हैं, बिना कारण के कुछ होता नहीं। कुछ कारण हैं जो तुम्हें यहाँ लेकर के आये हैं। कुछ कारण हैं जो तुम्हें कहीं और भी लेकर के जा सकते हैं। तुम यहाँ आ चुके हो – इस तथ्य को अब तुम बदल नहीं सकते। क्योंकि पीछे जा कर, अतीत को अब बदला नहीं जा सकता। वहाँ तो जो हो गया, सो हो गया। तो सवाल ये है कि फ़िर हमारे हाथ में क्या है?

हमारे हाथ में एक बहुत बड़ी ताकत होती है। वो ताकत ये होती है कि हमारा अतीत हमें जहाँ लेकर के आ गया है, वहाँ से, समय में आगे का रास्ता हमारे ही हाथ में होता है। पूरे तरीके से हमारे हाथ में होता है। तो अतीत ताकतवर होते हुए भी, तुमसे कम ताकतवाला है। अतीत ने इतना ही करा है कि तुमको उठा करके कहीं पर रख दिया है। पर तुम वहीं पर रह जाते हो या कहीं और को उड़ जाते हो, उसकी ताकत पूरे तरीके से किसके हाथ में है…?

श्रोतागण *(एक स्वर में)* : हमारे हाथ में।

वक्ता: क्योंकि एक ही घर में पैदा हुए दो बच्चे बहुत अलग-अलग दिशाओं में जा सकते हैं। एक ही गली-मोहल्ले से निकले हुए दो इंसान बिल्कुल अलग धारायें पकड़ सकते हैं। जुड़वां भाईयों की भी जिंदगी एक-सी चलेगी ऐसा नहीं है। इसी कॉलेज से कोई कहीं को जायेगा और कोई कहीं और को जायेगा।

जो उड़ेगा , जो ऊँचाइयाँ छूएगा, वो इस कारण छूएगा कि उसमें शिकायत का भाव नहीं था। उसने इस बात का सहज स्वीकार कर लिया कि कुछ वजह थी, जिनके कारण वो यहाँ आया। “मेरे साथ किसी विधाता ने कोई अन्याय नहीं कर दिया है कि मैं यहाँ पहुँच गया हूँ। ठोस कारण थे, जिनकी वजह से मैं यहाँ बैठा हूँ। ठोस कारण! और मैं उन कारणों से इंकार नहीं कर सकता। शिकायत करने का हक़, मुझे है ही नहीं।”

‘बनानेवाले’ के चक्र में कुछ भी गलत होता नहीं है। वहाँ एक-एक बात का लेखा-जोखा रखा जाता है। एक-एक बात का! तुम्हारे एक-एक क्षण के ध्यान का, तुम्हारे द्वारा खाये गये एक-एक निवाले का, छोटी से छोटी जो घटना घट रही है ना, समझ लो, कि प्रकृति में उसकी एक रजिस्टरी हो रही है। और उन सब, बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी घटनाओं का जो फ़ल निकलता है, उसी फ़ल को तुम कहते हो कि “मैं यहाँ पर आ गया हूँ।” कुछ भी छोड़ नहीं दिया जाता। कुछ भी ऐसा नहीं है कि जो ‘लिखनेवाले’ के ध्यान से अछूता रह जाता हो।

तुम्हीं ने कुछ किया है, और उसमें ये बात नहीं है कि तुमने जानते – बूझते किया हो। उसमें तुम्हारा बहुत-बहुत पीछे तक का इतिहास भी शामिल है। उसमें तुम्हीं नहीं शामिल हो, तुम्हारे माता-पिता भी शामिल हैं, उनके पीछे की पूरी पीढ़ियाँ भी शामिल हैं, पूरा समाज शामिल है। हम उन्हीं सबसे तो मिल-जुल के बनते हैं ना? तो तुम आज जहाँ हो और ये आज जहाँ है और मैं आज जहाँ हूँ, हम जो भी कहते हैं कि “हम जहाँ हैं”, उस सबके पीछे ठोस, वाज़िब, व्यक्तिगत और सामूहिक – हर तरह की वज़हें हैं।

उनके सामने सर झुकाओ। उनसे तुम लड़ नहीं पाओगे। क्योंकि वो हैं। और जो है ही उसको नकारना कैसा? जो है ही , उसको नकारा नहीं जा सकता। हाँ, तुम अपनी पूरी ताकत का इस्तेमाल कर सकते हो कि यदि कुछ था, जो मुझे यहाँ ले आया तो कुछ हो सकता है जो मुझे कहीं और भी पहुँचा दे। लेकिन उस कहीं और पहुँचने के बीज यहीं पर हैं। जो हवाई जहाज होता है, बहुत ऊँचा उड़ता है, बहुत ऊँचा उड़ता है, पर ऊँचा उड़ने से पहले क्या करता है?

श्रोता २: दौड़ता है।

वक्ता: कहाँ दौड़ता है? आसमान में दौड़ता है?

श्रोता २: नहीं सर, रनवे पर।

वक्ता: रनवे कहाँ पर होता है?

श्रोता २ : सर, ज़मीन पर।

वक्ता: हाँ, ज़मीन पर दौड़कर, आसमान में उड़ जाता है। ये बड़ी विचित्र घटना है। X-Y प्लेन में दौड़ करके Z में पहुँच जाता है। ये क्या हो रहा है?

X-Y प्लेन में ही Z की कुंजी छिपी हुई है! X-Y प्लेन को ध्यान से देखो, उसमें कहीं Z दिखाई देता है क्या? ज़मीन को ख़ूब देखो, ख़ूब विश्लेषण करो, उसमें कहीं आसमान दिखाई देता है? जल्दी बताओ।

श्रोतागण: नहीं।

वक्ता: लेकिन उसी ज़मीन में आसमान छिपा हुआ है। और ‘ज़मीन’ ज़मीन है, बेचारी पाँव के नीचे रहती है, कोई हैसियत नहीं है उसकी, कोई औक़ात नहीं। तुम कहोगे “ज़मीन – टुच्ची, लोग थूकते हैं, पाँव से कुचलते हैं”। पर उसी ज़मीन का समुचित प्रयोग करके, हवाई जहाज़…

श्रोता ३: उड़ता है ।

वक्ता: इशारा किधर को कर रहा हूँ यह समझ रहे हो?

श्रोता: जी सर ।

वक्ता: ज़मीन का इस्तेमाल करना सीखो । जिसने ज़मीन का इस्तेमाल करना सीख लिया, जिसने ज़मीन को सम्मान देना सीख लिया, जो ज़मीन के प्रति शिकायत से अब नहीं भरा हुआ है, वो अपनेआप ही आसमान को पहुँच जायेगा।

लेकिन यदि हवाई जहाज खड़ा रहे और कहे, “मैं पैदा हुआ था पंख लेकर, उड़ने के लिए। अरे! ज़मीन पर तो चींटे रेंगते हैं। मैं ज़मीन पर चलूँगा ही नहीं और मेरा बड़ा दुर्भाग्य है कि मुझे आसमानों से उतार कर ज़मीन पर बैठा दिया गया है। मैं ज़मीन पर चलूँगा ही नहीं।” तो क्या ये हवाई जहाज कभी भी उड़ पाएगा? कभी भी उड़ पाएगा?

श्रोतागण : नहीं सर।

वक्ता : बात अभी और आगे भी जाती है। हवाई जहाज पूरा जिस तत्व का बना हुआ है, वो तत्व कहाँ से आता है?

श्रोता ३: उसी ज़मीन से।

वक्ता: उसी ज़मीन से। उसी ज़मीन के अंदर से। ज़मीन से एक होना सीखो जहाँ पर हो , अगर वहाँ पर पूरी तरह हो लो , तो वहाँ से आगे के सौ रास्ते फूटेंगे । पर पूरी तरह वहाँ के हो तो लो! जहाँ भी हो, और मैं किसी कॉलेज विशेष की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं खेल के मैदान की भी बात कर रहा हूँ, मैं घर की भी बात कर रहा हूँ, मैं सड़क की भी बात कर रहा हूँ। जहाँ कहीं भी हो, वहाँ के पूरे हो लो; किसी और आयाम में पहुँच जाओगे । एक आयाम से ही अगला आयाम फूटता है, यदि उस आयाम के प्रति समर्पित हो जाओ।

तुममें से कोई भूलकर भी यह ना सोचे कि “आसमानों से नए रास्ते खुलते हैं।” आसमानों में कोई रास्ते नहीं खुलते। सारे रास्ते ज़मीन से निकलते हैं, जिस ज़मीन पर तुम्हारे कदम हैं। तुममें से कोई भी ज़मीन के प्रति निराशा से, दुराग्रह से, ना भरे। कोई भी ये ना कहे कि “मुझे तो कहीं और पहुँचना है। मैं कहीं और फँस गया हूँ।”

तुम कहीं फँस नहीं गए हो। तुम्हें जहाँ जाना है, उसकी राह यहीं से निकल रही है – अगर तुम आँख खोलकर देखो, अगर तुम कटुता से भरे हुए ना हो तो।

किसी ज़मीन से आसमान का पता नहीं चलता। आगे तुम्हें जो बहुत ‘ऊँचा-ऊँचा’ करना है, वो हो सकता है कि वर्तमान में कहीं दिखाई ना दे। तुम कहते हो, “मुझे इंजीनियरिंग के इंस्ट्रूमेंट्स नहीं मिलते हैं। मैं प्रैक्टिकल नहीं कर पाता हूँ।” बातें तुम्हारी बिल्कुल वाज़िब होंगी। लेकिन मैं उसके बाद भी कह रहा हूँ – जो तुम्हें मिला हुआ है, क्या उसका पूरा-पूरा प्रयोग करा? दृष्टि किधर को है? जो मिला है उसकी तरफ़ या जो नहीं मिला है उसकी तरफ़?

जो मिला है उसका ही इस्तेमाल कर लो , उड़ने लगोगे। और जितना उड़ोगे, पंखों में उतनी ही ताकत आयेगी। और आगे जाओगे। हाँ, बैठे-बैठे सिर्फ़ अपनी किस्मत का रोना रोओगे तो दिक्कत हो जानी है। और जानते हो, होता क्या है? अक्सर कुछ ना करने के प्रति मन, अहँकार बहाने माँगता है। अहंता कभी ये तो स्वीकार करेगी नहीं कि चेष्टा नहीं करना चाहता हूँ, श्रद्धा नहीं है। वो क्या कहेगी? वो कहेगी, “परिस्थितियाँ ख़राब हैं। और मैं तुमको पक्का बोल रहा हूँ – ये बात भूलना नहीं: परिस्थितियाँ कभी ख़राब होती नहीं क्योंकि परिस्थितियों को वही होना था जो वो हैं । तुम इसके अलावा कहीं और हो ही नहीं सकते थे।

जैसे तुम कह रहे हो, वैसे ही जब मैं *आई .* *आई .* टी . में पहुँचा तो देखा था। अब वहाँ जितने आते हैं, सब अपने-अपने मन में तो धुरंधर ही होते हैं। बहुतों को ये लग रहा होता था कि “हमें तो *आई .* *आई .* टी . की परीक्षा में टॉप करना था।” ( हँसते हुए ) “पहली रैंक आनी चाहिए थी हमारी!” अब किसी को कंप्यूटर साइंस डिपार्टमेंट चाहिए। और वो उस समय मिलता था, देश भर में कुल सौ लोगों को। पूरा देश उन सौ सीटों के लिए दौड़ता था। अब उस बेचारे की रैंक आ गयी ११०। नहीं मिला उसको। अब वो आकर क्या बोल रहा है? वो कह रहा है, “एक सवाल और ठीक कर दिया होता ना, तो मेरी टॉप-टेन में रैंक होती। मैं गलती से फँस गया हूँ इलेक्ट्रिकल डिपार्टमेंट में। मुझे तो कंप्यूटर साइंस डिपार्टमेंट में होना चाहिए था। एक सवाल और ठीक कर दिया होता तो *सी . एस*. में पहुँच गया होता।”

अब सवाल यह है कि क्या वो एक सवाल और ठीक कर सकता था?

श्रोता २: कर सकता था।

वक्ता : नहीं कर सकता था बेटा। उसने ठीक वही किया जितना वो कर सकता था। हाँ, मन को हमेशा क्या लगता है? मन को ये लगता है, “मैं इतना ऊँचा था पर मैं उतना ऊँचा उड़ नहीं पाया।” ना। ( हँसते हुए ) तुम ठीक उतना ही उड़ते हो , जितना तुम्हें उड़ना होता है। ऐसे समझो। जब तुमसे कोई गलती हो जाती है, तो तुम्हारे मन में यही बात आती है ना कि “मैंने ये गलती कैसे कर दी?”

वहाँ पर, जानते हो, अहँकार क्या बोल रहा होता है? वो बोल रहा है कि “मैं, जो इतना ऊँचा, इतना साफ–सुथरा, मैंने ये नीच काम कैसे कर दिया?”

तुम्हें वही करना ही था, क्योंकि तुम हो ही वैसे। पर बाद में पछताकर तुम अपनेआप को ये सिद्ध करते हो कि “नहीं, मैं ऐसा हूँ नहीं। मुझसे धोखे से गलती हो गयी।” धोखे से नहीं हुई है, ये गलती धोखे से नहीं हुई है । तुम्हें करनी ही थी, क्योंकि तुम्हारे चित्त की दशा ही ऐसी है। तुम्हारे मन के पूरे संस्कार ही ऐसे हैं। तो अगर कोई कहे कि “एक सवाल और ठीक कर देता तो सी.एस. डिपार्टमेंट मिल जाता” तो वो अपनेआप को धोखा दे रहा है। एक सवाल अनायास ही हल नहीं हो जाता। उसके कारण होते हैं। उसके पीछे की तैयारी होती है। क्या तुमने वो सारी तैयारी करी थी? और फिर उसके पीछे भी कारण होते हैं और उसके पीछे भी कारण होते हैं। जैसा मैंने कहा – व्यक्तिगत, सामूहिक, हर तरह के कारण होते हैं। ठीक उसी तरीके से कारण है कि कोई भी, कहीं पर भी क्यों है। ( हँसते हुए ) कारण है (प्रश्नकर्ता की ओर इशारा करते हुए) कि तुम उस कुर्सी पर क्यों बैठे हो और मैं इस कुर्सी पर क्यों बैठा हूँ। उन कारणों को समझो। उनसे लड़ो मत। जहाँ पर हो उस जगह के प्रति ही समर्पित हो जाओ। मैं बिल्कुल आश्वासन दे रहा हूँ कि ये रनवे है। ज़ोर से दौड़ो। पूरी ताक़त-से दौड़ो। जानते हो कितनी तेज़ी-से दौड़ता है प्लेन उड़ने से पहले?

श्रोता : जी नहीं।

वक्ता : गौर करना। पढ़ना। और उतनी तेजी से यदि ज़मीन पर न दौड़े तो उड़ नहीं सकता। यहीं पर दौड़ लगाओ, एक दिन पाओगे कि उड़ने लग गए।

मैं जो कह रहा हूँ – थोड़ा बुरा-सा लग सकता है। “यहीं पर करना पड़ेगा। कोई और तरीका नहीं है?”

(हँसते हुए) पर करें क्या? तुम हो, मैं हूँ या कोई भी है, जीवन हमें कोई विकल्प नहीं देता। जीवन में विकल्प होते ही नहीं हैं। निर्विकल्प होता है। जो है, वही है बस । हाँ उसी में अगर गहरे डूब जाओ तो पता नहीं क्या हो जायेगा। तो गहरे डूबो – वो जरूरी है।

श्रोता ४: सर, आजकल की जो परिस्थितियाँ हैं, उनसे अगर हम लड़ेंगे नहीं तो आगे कैसे बढ़ेंगे? फ़िर तो हम यहीं पर रह जायेंगे।

वक्ता : कैसे लड़ोगे परिस्थितियों से, और कौन लड़ेगा?

श्रोता ४: लड़ने का मतलब यह हो सकता है कि हम उन गलतियों को सुधारकर, फ़िर आगे जा सकते हैं।

वक्ता: कौन सुधारेगा? सवाल ध्यान से समझो।

श्रोता ४: जैसे हम लोग यहाँ पर हैं। तो इसका मतलब है कि हममें कोई कमी रही होगी।

वक्ता: न! मैं इतनी देर से यही कह रहा हूँ कि उसको कमी मत मानो। उसको कमी अगर मान रहे हो तो उसमे तुम्हारा अहँकार है। कमी हमेशा तुलना के फ़लस्वरूप आती है। तुमसे पुछा जाये कि प्रशांत महासागर में पानी कितना है? तो तुम कहोगे “बहुत सारा।” तुमसे पुछा जाये कि “भारतीय महासागर में पानी कितना है”? तुम कहोगे, “बहुत सारा”। मैं कहूँगा, “दोनों में से ज़्यादा पानी किसमें है?” तो तुम कहोगे “पहले वाले में ‘ज़्यादा’ है और दूसरे में ‘कम’ है।” अब दूसरे में कम कैसे हो गया?

और किसको ‘कम’ बोल रहे हो ? (हँसते हुए) तुम एक महासागर को ‘कम’ बोल रहे हो क्योंकि तुमने उसकी तुलना कर दी। अब महासागर भी ‘कम’ हो गया!

तुलना मत करो, तो कोई कमी नहीं हुई है। जो हुआ है वही होना था। उसमें कमी जैसी क्या बात है? उसके अलावा कुछ हो नहीं सकता था। वही होना था। इस बात को बिल्कुल मन से निकाल दो कि कुछ ‘गड़बड़’ हो गयी है। तुम यहाँ मौजूद हो, यही होना था! इसके अतिरिक्त और कुछ हो ही नहीं सकता था। ये उच्चतम है जो तुम्हें मिल सकता था। ये एकमात्र है जो तुम्हें मिल सकता था। कोई भूल-चूक नहीं हो गयी है कि धोखे से तुम यहाँ पर गिर पड़े हो। (हँसते हुए) कि जा तो कहीं और रहे थे और धोखे से गिर पड़े यहाँ, ऐसा कुछ नहीं हो गया है। तुम्हें यहीं होना ही था। और मज़ेदार बात क्या है कि जब कोई इस बात को पूरा स्वीकार कर लेता है तो वही जगह उसके लिए…?

श्रोता ३: रनवे हो जाता है।

वक्ता: फिर वो उड़ जाता है। जो लड़ता रहता है, वो फँसा रहता है क्योंकि लड़ने के लिए वो जगह चाहिए, वरना लड़ोगे किससे? (हँसते हुए) लड़ना बड़ी मोहब्बत का काम है। तुम्हें दो ही लोग याद आते होंगे। पहला वो: जिनसे तुम्हें प्यार है। और दूसरा वो: जिनसे तुम लड़ते हो। इन दो के अलावा कोई तीसरा नहीं है जो हमारे मन पर छाया रहता हो। लड़ने में तो बड़ा प्यार है। हम जिससे लड़ते है, वो लगातार हमारे मन में मौज़ूद रहता है, प्रेमी की तरह। गौर किया है कभी? जिससे तुम्हें नफरत हो, वो लगातार मन में मौज़ूद रहता है। यही तो आशिक़ी है।

(सभी हँसते हैं)

तो तुम इसीलिए परिस्थितियों से लड़ना चाहते हो। मैं कह रहा हूँ कि लड़ने की जरुरत क्या है? जो है, सो है । अब देखो कि करना क्या है? और वो जो करना है, वो लड़ना नहीं है। वो शांत होकर, स्थिर होकर के वो करना है, जो सही मायनों में होना चाहिए। लड़ने में तो हिंसा का भाव है। लड़ने में तो नकारने का भाव है। तथ्यों को कैसे नकारोगे, बेटा?

श्रोता ५: सर, हमारे जो विचार होते है वो तो हमेशा संभावनाओं पर ही आश्रित होते हैं। हम जो भी सोचते हैं, वो यह सोचते हैं कि “ऐसा हो सकता है। ऐसा होना चाहिए”। ये नहीं सोचते कि “ ऐसा होता है”।

वक्ता : बहुत बढ़िया बात कही। हम हमेशा क्या सोचते हैं- “कि क्या हो सकता है?” और हम जो भी कुछ कहते हैं कि ‘हो सकता है’, वो कहाँ से आता है? उदाहरण के लिए, तुम सबके मन में भविष्य के बड़े सपने हैं। तुम सब सोचते हो कि ऐसा कुछ हो सकता है, कोई ख़ूबसूरत बात जिसे सोचकर अच्छा-सा लग रहा है। लेकिन जो भी सोचते हो कि मुझे ऐसा कुछ मिल सकता है भविष्य में, ऐसा कुछ हो सकता है, वो छवियाँ तुम्हारे मन में कहाँ से आती हैं?

श्रोता ४ : अतीत से।

वक्ता: अतीत से आईं। और अतीत में तुम कौन हो? जिसकी हरकतों की वजह से तुम यहाँ पहुँचे। अतीत में जो तुम थे, उसके कर्म ऐसे थे कि तुम कहाँ पहुँचे? उस जगह पर जिस जगह को तुम पसंद नहीं कर रहे हो। भविष्य के तुम्हारे सपने हैं और जैसे तुमने कहा कि भविष्य की तुम्हारी जितनी भी कल्पनायें होंगी, आनी तो वो अतीत से ही हैं। और तुम्हारे मुताबिक अतीत में तुम वो थे, जिसने गड़बड़ ही गड़बड़ करी तब तो तुम भविष्य में भी वही होना चाहते हो जो गड़बड़ ही गड़बड़ कर रहा था। (हँसते हुए) तो ये तुम क्या कर रहे हो?

बात समझ में आ रही है?

तुम भविष्य के सपने तो बना रहे हो, पर तुम्हारा भविष्य का हर सपना अतीत को दोहराने के अलावा कुछ करेगा नहीं। और अगर अपनेआप को अतीत में दोहराओगे तो फ़िर वहीं पहुँच जाओगे जहाँ हो! और जहाँ हो, वो तुम्हें पसंद नहीं है। तो तुम ख़ुद तैयारी कर रहे हो फँसने की और फँसे ही रहने की!

श्रोता ६: सर, कुछ लोग कहते हैं कि जो होना होता है, वही होता है। और जो भी हो रहा है वो सब पूर्वनिर्धारित होता है। तो इसका मतलब हम कुछ भी कर लें, कोई फ़र्क ही नहीं पड़ेगा?

वक्ता : “जो होना होता है वो पूर्वनिर्धारित होता है”, ये कभी नहीं कहा गया। कभी भी नहीं कहा गया। हाँ, ये ज़रूर कहा गया है कि “होता वही है जो होना होता है।”

अनहोनी होनी नहीं होनी होय सो होय ।”

इसमें ये कहीं नहीं कहा गया है कि पहले से तय है कि आगे क्या होगा। इसमें ये कहा गया है कि निर्विकल्पता होती है। तुम जब भी कहते हो कि “कुछ और हो सकता था”, तो तुम फ़ालतू की बात कर रहे हो। मात्र एक चीज़ है जो हो सकती थी। पर आदमी का मन कहता है “न, कुछ और भी तो हो सकता था।”

ये तुलसीदास का पद है और वो ये कह रहे हैं कि “तुम जो हो, तुम्हारे यह होते, कुछ और हो ही नहीं सकता”। पर तुम चाहते हो, अहँकार की गहरी से गहरी चाह ये रहती है कि “मैं तो वही रहूँ जो मैं हूँ, पर कुछ और हो जाए”। ऐसा हो नहीं सकता, बेटा। हमारे सपने यही रहते हैं। तुम जब भविष्य के सपने सजाते हो तो उसमें जानते हो तुम्हारे सपने क्या होते हैं?

वक्ता : कि तुम तो तुम ही रहो। और तुम कैसे हो? जैसे तुम आज है। तुम्हारी मनोस्थिति वैसी ही है, तुम्हारे सोचने का ढंग वैसा ही है लेकिन उसको बहुत कुछ मिल गया है। पुराने हो गये हो। तुम्हारी बड़ी इज़्ज़त हो गयी है। और दुनिया भर की तमाम सुविधाएँ तुम्हें मिल गयी हैं। कहनेवाला कह रहा है कि यह असंभव है। ये हो ही नहीं सकता। क्योंकि तुम जब तक तुम हो, तुम नये कैसे हो सकते हो? तुम जब तक तुम हो, तुम्हें कुछ नया मिल कहाँ सकता है? कुछ नया, तुम्हें तब मिलेगा जब ‘तुम’ तुम ही ना रहो। उसके लिए तुम तैयार नहीं होगे। क्योंकि अहँकार पलता ही इसी में है कि “मैं ठाकुर दीपक सिंह कवि हूँ।” अब जब तक तुम ‘ठाकुर’, और ‘दीपक’, और ‘सिंह’, और ‘कवि’ हो, तुम्हें नया भविष्य कहाँ से मिल जाएगा? कैसे मिलेगा?

बात समझ में आ रही है?

हम जो माँग रहे हैं, वो असंभव है मिलना। हम कह रहे हैं कि “ ब्लैकबोर्ड सफ़ेद हो जाये”। पर अगर ब्लैकबोर्ड सफ़ेद हो गया तो क्या वो ब्लैकबोर्ड रह गया? अब वो क्या कहलायेगा?

श्रोतागण : *वाइटबोर्ड*।

वक्ता : पर हमारी माँग यह है कि ब्लैकबोर्ड सफ़ेद हो जाये। ब्लैकबोर्ड को ब्लैकबोर्ड भी रहना है और सफ़ेद भी हो जाना है। ये कैसे होगा? कैसे होगा? असंभव है बेटा। पर अहँकार माँगता यही है कि- ‘मैं’ मैं रहूँ। ‘मैं’ ना बदलूँ।

~‘संवाद-सत्र’ पर आधारित । स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

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