यज्ञ की भाँति कर्म || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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यज्ञ की भाँति कर्म || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

युक्तेन मनसा वयं देवस्य सवितुः सवे। सुवर्गेयाय शक्त्या॥

हम सविता देवता की उपासना के निमित्त यज्ञादि कर्म मनोयोग पूर्वक संपन्न करें। इस प्रकार स्वर्गीय आनंद की प्राप्ति के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करें।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय २, श्लोक २)

आचार्य प्रशांत: कर्म करने हैं यज्ञ की भाँति, किसको तृप्त करने के लिए? सविता देवता को। सविता देवता, अभी हमने पिछले श्लोक में कहा कि है मूल अहम् वृत्ति। ठीक है? मूल अहम् वृत्ति।

तुम्हें कर्म इस तरह से करने हैं कि तुम्हें अपनी मूल तृष्णा का पता चले। यह जो मूल अहम् वृति है न, यही हमारी मूल अतृप्ति है, यही हमारी मूल तृष्णा, मूल प्यास है। इसी मूल अतृप्ति और तृष्णा के कारण हमारे जीवन में हज़ारों अन्य अतृप्तियाँ रहती हैं छोटी-छोटी। कभी ये चाहिए कभी वो चाहिए, इस पल इधर जाना है दूसरे पल उधर जाना है। पचासों तरह की इच्छाएँ रहती है न, हर इच्छा एक अतृप्ति होती है।

ये जितनी इच्छाएँ हमारे भीतर रहती हैं, वो एक मूल इच्छा की वजह से रहती हैं, और वो जो मूल इच्छा है वो इन हज़ारों इच्छाओं के नीचे छुपी रह जाती है। अरे! ये तो बड़ी गड़बड़ हो गई, ये तो बड़ी गड़बड़ हो गई।

हज़ारों इच्छाएँ क्यों है? क्योंकि एक मूल इच्छा है। और हमारा पूरा जीवन किसमें व्यय हो जाता है? इन हज़ारों इच्छाओं की पूर्ति करने में। और चूँकि तुमने पूरा जीवन इन हज़ारों इच्छाओं की पूर्ति करने में लगा दिया तो मूल इच्छा अपूर्ण ही रह जाती है।

तो श्लोक कह रहा है — कर्म ऐसे करो कि अहम् वृत्ति संतुष्ट अनुभव करे। कर्म ऐसे करो कि तुम्हारी जो गहरी-से-गहरी कामना है वो पूरी हो।

श्लोक 'युक्त' शब्द का इस्तेमाल करता है, अनुवाद 'उपासना' शब्द का इस्तेमाल करता है, पास जाना है, अपने ही पास जाना है। युक्त होने का अर्थ है, निकट जाना, मिल जाना, एक हो जाना। उपासना का क्या अर्थ है, उप-आसन (पास बैठना)। किसके पास जाने की बात हो रही है? अपने ही पास जाने की बात हो रही है। अपने माने अपनी खाल के? अपनी नाक के? भीतर अपनी आँतों के? अपने उदर के? किसके पास की बात हो रही है? अपने अहम् के पास जाने की बात हो रही है।

हमारी यह समस्या बहुत बाद की है कि हम आत्मा से दूर हैं, हमारी मूल समस्या यह है कि हम अहम् से भी दूर हैं। हम अहम् से भी दूर हैं। ताज्जुब होगा, आप कहेंगे, "आश्चर्य! हमें तो यह पता है कि आम आदमी घोर अहंकार में जीता है, और सिर्फ आध्यात्मिक आदमी होता है जो आत्मा के निकट जीता है। पर आप कह रहे हैं कि जो सामान्य व्यक्ति है वो भी अहम् से दूर है।" हाँ, वो भी अहम् से दूर है।

मूल अहम् वृत्ति होती है एकीकृत ठोस अहम्, और हम जिस अहम् में जीते हैं, सामान्य व्यक्ति जिस अहम् में जीता है, वो होता है चिथड़े-चिथड़े, सहस्त्रों भागों में विखंडित अहम्, जैसे चूरा। देखा नहीं है हमारा अहम् कभी इधर को लुढ़कता है, कभी उधर को भागता है? कभी तुम कहते हो कि 'मैं एक छात्र हूँ', कभी कहते हो 'मैं एक पुरुष हूँ', कभी कहते हो 'एक पति हूँ', कभी कहते हो 'एक बेटा हूँ', कभी कहते हो 'कर्मचारी हूँ'; 'कभी कुछ हूँ, कभी कुछ हूँ, खुश हूँ, नाखुश हूँ'। ये है ज़बरदस्त तरीके से टूटा हुआ, खंडित, चूरा-चूरा अहम्। हम इसमें जीते हैं।

आध्यात्मिक उन्नति होती है, इस चूर्ण अहम् से पूर्ण अहम् की ओर जाने में। चूर्ण अहम् समझे? चूरा अहम्। और पूर्ण अहम् क्या है? अहम् वृत्ति। अहम् वृत्ति तक जो पहुँच गया उसने अपना काम पूरा कर लिया। अहम् वृत्ति से फिर आत्मा की जो दूरी होती है, वो अपने-आप तय हो जाती है, वो आपको नहीं करनी पड़ती।

तो वास्तव में अध्यात्म में आपका काम ये नहीं होता कि आप आत्मस्थ हो जाएँ, आपका वास्तव में काम यह होता है कि आप अहम् को ही पूरी तरह प्राप्त कर लें। आप टूटे हुए अहंकार से पूरे अहंकार की तरफ़ आ जाएँ। चूर्ण अहम् से पूर्ण अहम् की तरफ़ आ जाएँ।

लेकिन ये करने में, ये जो हमारा चूर्ण अहम् है इसको बड़ी तकलीफ़ होती है, क्यों? क्योंकि इसने विविधताओं से भरा हुआ संसार बसाया हुआ है – 'मैं ये भी हूँ, मैं ये भी हूँ, मैं ये भी हूँ, मैं ये भी हूँ, मैं ये भी हूँ, मैं ये भी, मैं सत्तर चीज़ें हूँ न।'

अभी हम बात करके कह रहे हैं कि ये चूरा-चूरा जीवन है, पर आम आदमी की जो ये सत्तर पहचानें होती हैं, उसके हिसाब से ये सत्तर पहचानें उसके जीवन के सत्तर फूल हैं। वो कहता है 'ये सब तो मेरे जीवन के अलग-अलग रंग हैं न, ये सब मेरे जीवन के बड़े वैभव भरे हिस्से हैं। मैं अभी यहाँ ऐसा हूँ, मैं अभी वहाँ वेसा हूँ।' वो कहता है, ये बात तो अभी उत्सव मनाने की है, ये हमारी अलग-अलग पहचानें हैं। इन सब अलग-अलग पहचानों को छोड़कर के, 'मैं ये, मैं वो', को छोड़ कर के मात्र 'मैं' की ओर बढ़ना पड़ता है। ये जो छोड़ने की प्रक्रिया है वही कहलाती है यज्ञ, जिसकी बात श्लोक में हो रही है।

जो कहा जा रहा है न, "सविता देवता की उपासना में हम यज्ञ करेंगे", तो उस यज्ञ का अर्थ हुआ वो कर्म करना जिसमें तुम्हें अपनी पहचानें 'होम' करनी पड़ती हो, 'स्वाहा!', एक आखिरी पहचान बस बचती हो, कुछ एक ऐसा जीवन में इतना महत्वपूर्ण आ जाता हो जिसकी ख़ातिर तुम अपनी दस-पन्द्रह-चालीस-पचास अलग पहचानों को, संबंधों को, स्वाहा करने पर तैयार हो जाते हो, यह यज्ञ कहलाता है।

यज्ञ या अग्निहोत्र भी ये नहीं होता कि एक हवन कुंड है और जिसमें समिधा, घी, अन्य सामग्री, ये सब डाले जा रहे हैं। वो तो सिर्फ एक स्थूल चित्रण है। यज्ञ का भी अर्थ वो होता है जो श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में दिया है।

यज्ञ का अर्थ होता है वो सब कुछ छोड़ते चलना जो किसी अर्जुन को कृष्ण से दूर रखता है। तुम्हारे पास जो कुछ भी है उसको न्योछावर, समर्पित करते चलना श्री कृष्ण को, अर्थात सत्य को, अर्थात उस उच्चतम को जो तुम्हारे लिए संभव है, ये यज्ञ होता है।

तो जो दूसरा श्लोक है, वो कह रहा है कि जितना ज़्यादा तुमसे हो सके यथाशक्ति, जितना शक्य हो तुमसे। श्लोक कहता है 'शक्त्या', अपनी पूरी सामर्थ्य अनुसार, तुम छोड़ते चलो, तुम यज्ञ करते चलो, तुम होम करते चलो, ताकि तुम निकट पहुँच सको, युक्त हो सको, उपासना कर सको, सविता की, सूर्य की, अर्थात मूल अहम् की।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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