वो भगत सिंह थे, इसलिए उन्होंने ये सवाल नहीं पूछा || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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वो भगत सिंह थे, इसलिए उन्होंने ये सवाल नहीं पूछा || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा सवाल भगत सिंह से सम्बन्धित है। कल मैं वीर भगत सिंह के जीवन पर आधारित पिक्चर देख रहा था। तो जब उनको देखा तो एक घृणा आई ख़ुद के प्रति कि वो भी पच्चीस साल के थे और मैं भी अभी पच्चीस साल का हूँ।

आचार्य प्रशांत: घृणा बढ़ जाएगी, वो पच्चीस के नहीं थे। (मुस्कुराते हुए) अगर मूवी में उनका देखा है जब वो अपने सब काम कर रहे थे, तो वो बीस-इक्कीस का देखा होगा।

प्र: जब अन्तिम समय था उनका।

आचार्य: अन्तिम समय था तो बाईस-तेईस के थे।

प्र: तो सर, उनके जीवन को देखकर एक प्रेरणा मिलती है और आन्तरिक बल भी मिला। और लगा कि मौत हो तो ऐसी हो। मैं भी कुछ ऐसा ही सार्थक जीवन में लाना चाहता था। लेकिन कहीं-न-कहीं मन ये भी दुविधा में रहता है कि लोगों के लिए युद्ध करूँगा, कुछ करूँगा तो मुझे कोई याद रखेगा क्या। आपका जीवन देखता हूँ तो भारत में आप पुनः वेदान्त की स्थापना कर रहे हैं। मेरे लिए आप आधुनिक शंकराचार्य हैं, तो आपसे ही जुड़ गया। ये काम सही समझकर ये काम करने लग गया। लेकिन फिर भी ये डर है या सवाल है कि इसमें मैं सिर्फ़ एक सिपाही तो नहीं, सिर्फ़ एक प्यादा तो नहीं। तो ख़ुद के अस्तित्व को लेकर हमेशा एक डर बना रहता है कि मेरा क्या।

आचार्य: इसका क्या मतलब होता है — “पूर्णात् पूर्णमुदच्यते”? इसका क्या अर्थ होता है — “पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।”?

प्र: जो पूर्ण है, वही सिर्फ़ पूर्ण है।

आचार्य: पूर्ण का अवशिष्ट भी पूर्ण होता है। पूर्ण का अवशेष भी पूर्ण होता है। इनफ़िनिटी (अनन्त) का सौवाँ हिस्सा भी क्या होता है?

श्रोतागण: इनफ़िनिटी।

आचार्य: अनन्त का सौवाँ हिस्सा भी?

श्रोता: अनन्त ही होता है।

आचार्य: तो अनन्त के खेल में प्यादा भी अनन्त होगा न? खुश! ये अन्तर है न। तुम अपना पूछ रहे हो, ‘मेरा क्या?’, नाम ले रहे हो भगत सिंह का। भगत सिंह पूछ रहे थे, ‘मेरा क्या’?

जानते हो उनका तर्क क्या था? हक्के–बक्के रह जाओगे! फन्दा चुनने के पीछे उनका तर्क क्या था? उनको भी माफ़ी मिल सकती थी। अंग्रेज़ कोई रक्त-पिपासु लोग नहीं थे। ठीक है? जितने तरह की सल्तनतें हुई हैं और तानाशाह हुए और जिस तरह का उपनिवेशवाद हुआ है दुनिया में, अगर उसके सन्दर्भ में देखो, तो अंग्रेज़ एकदम बुरे लोगों में नहीं गिने जाएँगे। उनके पास एक न्याय व्यवस्था थी। उन्होंने ये थोड़े ही करा था कि भारतीय क्रान्तिकारियों को ऐसे देखते ही गोली मार दिये। पहले बाक़ायदा मुकदमा चलता था, ये होता था। कई बार बरी भी होते थे, कई बार जेल भी होती थी, फिर कई बार फाँसी, फिर कुछ हुआ। तो अंग्रेज़ों की ओर से भगत सिंह के सामने ये विकल्प था कि ये शर्तें हैं, मान लीजिए और आप रिहा कर दिये जाएँगे या आपकी सज़ा मामूली कर दी जाएगी। उन्होंने नहीं माना। बताओ, क्यों नहीं माना?

प्र: लोगों के लिए उदाहरण…

आचार्य: मैं कह रहा हूँ — ‘हैरान रह जाओगे!’ वो बोले — इस वक़्त इतना जो मेरा लम्बा मुकदमा चला। उनका ऐसा नहीं था कि हफ़्ते में मुकदमा ख़त्म हो गया था, एक महीने में ख़त्म हो गया था। कई महीनों तक उनका मुकदमा चला था। और जब उनका मुकदमा चला था, वो पूरे तरीक़े से नेशनल मीडिया में छाया हुआ था, अख़बारों में। उस समय ये टीवी नहीं होता था, सोशल मीडिया नहीं होता था, पर अख़बार होता था और पत्रिकाएँ होती थीं। और पूरे तरीक़े से मीडिया में उनका मुकदमा छाया हुआ था।

अंग्रेज़ों ने इतना करा था कि वो प्रेस का मुँह नहीं बन्द करते थे कि तुम वही छापोगे जो हम कहेंगे, तो मीडिया स्वतन्त्र था। तो उन्होंने पूरे तरीक़े से कवरेज दी भगत सिंह को। भगत सिंह बोले, ‘मैं यही चाहता हूँ। मेरी बात भारत के एक-एक नौजवान तक पहुँचनी चाहिए। जो पढ़ सकते हैं, उन तक छपे हुए शब्द से पहुँचे और जो नहीं पढ़ सकते, उन तक वार्ताओं से और गोष्ठियों से, संवाद से पहुँचे।‘ तो लम्बी प्रक्रिया चली।

वो बोले, ‘बहुत अच्छा हो रहा है। ये पूरी जो चीज़ है, ये भारत के गाँव–गाँव में पहुँचने दो। आग लगने दो। मैं चाह ही यही रहा हूँ, आग लगे।‘ ऐसा नहीं था कि उन्होंने बिलकुल अन्धे जोश में वीरगति का चयन कर लिया था। बहुत होश था, बहुत विचार था, बहुत बोध था। और फिर वो क्या कहते हैं?

वो बोले, ‘इस समय मैं इस देश के सामने एक नायक की तरह खड़ा हो गया हूँ और मेरी छवि पर कोई दाग नहीं है। अंग्रेज़ मुझे नहीं फाँसी देंगे, वो इस वक़्त देश के नायक को फाँसी देंगे। और ये बात देश में आग लगा देगी, और वही मैं चाहता हूँ — क्रान्ति। लेकिन अगर मैं ज़िन्दा रह गया, तो कुछ-न-कुछ ऐसा होगा जैसा हर इंसान के साथ होता है। कि मेरी छवि पर कुछ कहीं से दाग-धब्बे लग ही जाएँगे। और अगर मेरी छवि पर दाग–धब्बे लग गये, तो फिर जो आग अभी मैंने लगायी है, वो मद्धम पड़ जाएगी।‘

बोले, ‘अगर मैं जियूँगा, तो अभी जो मुझे कद मिल गया है इस देश में, वो कद और बढ़ेगा नहीं, और कम ही होगा। क्योंकि अभी एकदम अनन्त ऊँचाई का कद मिल गया है मुझे इस देश में। बेहतर है कि यही सही मौक़ा पकड़कर के मैं वीरगति को प्राप्त हो जाऊँ। शहीद होने का इससे बढ़िया मौक़ा नहीं मिलेगा। मेरा जीवन देश के बहुत काम नहीं आएगा, क्योंकि अब अगर जिया तो बात अभी जिस ऊँचाई पर पहुँच चुकी है, उससे नीचे ही आ सकती है, अब और ऊपर नहीं जा सकती बात। मेरा जीवन देश के उतने काम नहीं आएगा लेकिन मेरी मौत बहुत काम आएगी।‘

ये भगत सिंह हैं! और यहाँ आप बैठे हो, कह रहे हो, ‘मेरा क्या?’ वो अपनी मृत्यु का समय भी, अपनी डेथ की टाइमिंग भी स्ट्रेटजिकली (रणनीतिक तौर पर) चुन रहे थे। ये सब क्या है? आपको लग रहा है धोखे से हो गया था, वो बम फोड़ रहे थे, पकड़े गये थे? धुएँ वाला बम था, कोई नहीं मरा उससे। आपको क्या लगा, ये धोखे से हुआ था? ये पूरी योजना से हुआ था। ‘ऐसे होगा, फिर ये मुझे पकड़ेंगे, फिर मुझे जेल में रखेंगे, फिर मुकदमा चलाएँगे, और इतने में देश भर में आग लग जाएगी।’ उन्होंने अपनी देह का इस्तेमाल भी अपने काम को अंजाम तक पहुँचाने के लिए किया, बिना ये सोचे कि इसमें मुझे क्या मिल रहा है।

बोले, ‘मैं किस खेत की मूली हूँ! मुझे अपना सोचना क्यों है? मेरे इस सीमित अस्तित्व की क़ीमत ही कितनी है?’ ये एक निष्काम कर्मयोगी का वक्तव्य होता है। ‘मैं कहाँ से बीच में आ गया। जो मेरा ध्येय है, वो है महत्वपूर्ण, वो है ऊँची चीज़। मैं कौन हूँ? कुछ भी नहीं! अकिंचन! उस ध्येय के लिए मैं जाऊँ, मेरे जैसे पाँच-सौ चले जाएँ, कम है? क्या फ़र्क पड़ता है?’

कोई वो पहले से निश्चित कराकर गये थे कि शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले? उन्हें पक्का था? आपने दिया था उनको लिखकर के वादा? ‘कि चलिए कोई बात नहीं, आप विदा भी हो रहे हैं, तो भी हम आपको हिन्दुस्तान के महानायक की तरह याद रखेंगे।‘ ऐसा उन्हें था कुछ निश्चित?

बोले, ‘कुछ नहीं, मैं चला जाऊँ, उसके बाद मेरा क्या होगा? क्या करना है? आज़ादी तो उनके जाने के बीसों साल बाद आयी है। उन्हें कुछ पता था आगे क्या होनेवाला है? कुछ नहीं। इतनी नहीं परवाह करते। ऊँचा जब काम करा जाता है न, तो उसमें मेरा क्या होगा, मुझे कितना मिलेगा, मुझे लोग याद रखेंगे कि नहीं, ये सब नहीं इतना सोचा जाता।

लेकिन वो दिल की बात होती है। वो तब होता है जब आप जो कर रहे हो, उसका महत्व जानते हो। जो कर रहे हो, उससे प्रेम हो गया है आपको, आशिक़ हो गये हो, आशिक़ी। जैसे जवान लड़कों की आशिक़ी होती है न कि फ़लाने से हो जाए। उस समय पर हो जाती थी, अठारह-बीस साल में लड़कों की शादी हो जाती थी। तो भगत सिंह के घरवाले भी आये थे, लड़की वगैरह लेकर कि तू भी कर ले ब्याह!

बोले, ‘मेरा तो हो गया!’ आशिक़ी चाहिए। बोले, ‘मेरी दुल्हन आज़ादी है।‘ ऐसी आशिक़ी चाहिए। तो वहाँ पर थोड़ा ज़्यादा वो राजनैतिक मुक्ति और सामाजिक स्वतन्त्रता के लिए लड़ रहे थे, तो उन्होंने कहा कि आज़ादी मेरी दुल्हन है। आप यहाँ पर ज़्यादा आध्यात्मिक बात कर रहे हो। हालाँकि जो काम हम कर रहे हैं, उसका निश्चित रूप से एक सामाजिक पक्ष भी है बहुत सशक्त। तो आप ऐसे कह सकते हो कि मुक्ति मेरी प्रेमिका है। कोई पूछे कि हाँ भाई, अपनी बन्दी का नाम बता? ‘अरे, तुझे पता ही नहीं था, मुक्ति!’ वो हैरान रह जाएगा, बाक़ी तो ठीक है, नाम बहुत प्यारा है। पर वो यहाँ कितनों की गर्लफ़्रेंड है?

(श्रोतागण हँसते हैं)

जिससे पूछो सब एक ही नाम बताते हैं, मुक्ति। काफ़ी ग़ज़ब की बन्दी होगी! आज़ादी मेरी दुल्हन है। उसमें थोड़े ही देखा जाता है कि मेरा क्या। मुझे पता है क्या कि मेरा क्या? किसको पता है? कहीं-न-कहीं इनके कथन में अभियोग छिपा हुआ है। ये कह रहे हैं कि आप तो बन जाओगे मॉडर्न शंकराचार्य और मैं रह जाऊँगा ऐसा ही। तो आपकी तो ये मूर्ति खड़ी कर देंगे, और इसमें मेरे लिए क्या है? इतना मत आश्वस्त रहो कि मूर्ति का मतलब बहुत प्यारा ही होता है।

अगर ये भी कह रहे हो कि ये जो काम हम कर रहे हैं, उसमें मैं आगे हूँ, तो आगे होने का मतलब ये भी होता है कि उधर से जो हमला आएगा, वो भी झेलने के लिए मैं आगे हूँ। उधर से गोली आएगी, तो भी आगे वाले को ही लगेगी और उसी को निशाना बनाकर मारी जाएगी। तो ऐसा नहीं है कि आप अगुवाई ये सोचकर के करते हो कि मिठाई मिलेगी। तुम्हारी मूर्ति लगवा देते हैं। कल मर जाओ! स्वीकार है? स्वीकार है, बताओ? हम कहते हैं तुमसे, ‘तुम्हारी बहुत बड़ी मूर्ति लगवा देंगे। शर्त ये है कि कल अपना तुम आत्मोत्सर्ग कर दो। स्वीकार है क्या?’

तो बात यहाँ ये नहीं होती कि जगत से कितनी प्रतिष्ठा मिल जाएगी। क्या मिल जाएगा? उसके लिए नहीं काम किया जाता। एक ऐसा प्रेम होता है जो प्राणों से बढ़कर होता है, काम उसके लिए किया जाता है। उसमें ये भी आवश्यक नहीं है कि प्राण चले ही जाएँगे। बहुत हुए हैं जो अस्सी-अस्सी, नब्बे-नब्बे साल, पूरी उम्र जीकर गये हैं। क्रान्तिकारियों में ही कह रहा हूँ। लेकिन वो भी ये नहीं सोच रहे थे कि मरना ज़रूरी है। भगत सिंह ये नहीं सोच रहे थे कि जीना ज़रूरी है।

न मरना ज़रूरी है, न जीना ज़रूरी है। जो तुम्हारा लक्ष्य है, वो ज़रूरी है। उस लक्ष्य के लिए अगर मरना पड़ा तो मरेंगे और अगर जीना पड़ा तो जीकर भी दिखाएँगे।

समझ में आ रही है बात?

लेकिन इतना पक्का है कि कोई भी ऊँचा काम ये कह कर नहीं हो सकता कि मेरा क्या होगा, इसमें मुझे क्या मिलना है। भगत सिंह की शहीदी तो फिर भी आप मना लेते हो। आपको क्या लगता है, उस वक़्त भी भारत की आबादी थी न, पैंतीस-चालीस करोड़ थी, भगत सिंह के समय में। आपको क्या लगता है कि क्रान्तिकारियों की संख्या कुल उतनी ही रही होगी जितने आपने नाम सुने हैं? या जितनों के नाम किताबों में दर्ज़ हैं? छोड़िए! भगत सिंह तो फिर भी एक तरीक़े से सौभाग्यशाली थे कि उनकी जो बात थी वो फैली, वो मीडिया में कवर हुए। उसके बाद भी उनको व्यापक लोकप्रियता मिली, पुस्तकें, लेख वगैरह आये। हज़ारों में क्रान्तिकारी थे, जिनका जज़्बा भगत सिंह से किसी सूरत में कम नहीं था, पर उनको आप नहीं जानते। उन्होंने गुमनाम ही मृत्यु का वरण कर लिया। उनके नाम कहीं होंगे भी तो किसी पुरानी सरकारी फ़ाइल में धूल खा रहे होंगे।

समझ में आ रही है बात?

तो ये सब काम अपनी लोकप्रियता के लिए नहीं करे जाते। फिर बोल रहा हूँ, ‘ये काम आशिक़ी है। जो न्योछावर हो सकता है, वो कर सकता है।‘ मैं अगर आगे हूँ, तो न्योछावर करने में आगे हूँ और मैं आगे–आगे रहूँ और कहुँ — आगे तो मैं हूँ, पर बेटा क़ुर्बानी तुम दे दो पीछे वालों।‘ तो धिक्कार की बात है एकदम!

अच्छा काम करने से ज़िन्दगी अच्छी कट जाती है — अपने को ये फल, ये परिणाम मिलता है। अगर जानना चाहते हो न इसमें मेरा क्या, तो ये है इसमें तुम्हारा, ‘ज़िन्दगी अच्छी कट जाएगी’, ये है। और ये सबको बोल रहा हूँ। कोई पूछे, ‘बहुत भारी काम कर रहा हूँ, एकदम निस्वार्थ — इसके लिए, उसके लिए, फ़लाने के लिए, अपने लिए नहीं कर रहा हूँ, तो इसमें मुझे क्या मिलेगा?’ तो अगर मुझे बताना ही होगा कि इसमें तुम्हें क्या मिलना है, तो ये मिलेगा। क्या? ज़िन्दगी अच्छे से कट जाएगी एकदम आख़िरी दिन तक व्यस्त रहोगे और मौत आ जाएगी। और इससे बड़ी राहत क्या हो सकती है कि ज़िन्दगी के हाथों तड़पने के लिए उपलब्ध ही नहीं थे। ज़िन्दगी जब भी तड़पाने के लिए आयी हमने क्या बोला? हम काम कर रहे हैं।

आचार्य: ज़िन्दगी जब भी आयी तड़पाने को, उसने हमको व्यस्त पाया। हमने कहा, ‘अभी थम जा। जो भी तू ले आयी है दुख, दर्द हमारे सिर पर मारने को, कल आना, अभी टाइम नहीं है। अभी काम कर रहे हैं भाई!’ और ऐसे ही करते-करते बस एक दिन मौत आ जाए, यही प्रार्थना है। वो वक़्त न मिले जब काम नहीं है और तड़प है। जब तक काम रहेगा, तड़प नहीं रहेगी। इतनी सी बात है कुल।

समझ में आ रही है बात ये?

उदाहरण दिया जाता है कि साइकिल जब तक चल रही है, तब तक चल रही है और अगर रुक गयी तो? धड़ाम से गिरोगे। मैं उससे थोड़ा आगे का देता हूँ, भारत तरक़्क़ी कर रहा है, स्कूटर। स्कूटर है वो लुढ़क रहा है आगे को, आप बैठे हो। उसमें फ्यूल भी नहीं है। उसका लुढ़कना रुकने मत देना। पहली बात तो अगर रुकेगा, तो गिरोगे और दूसरी बात, एक बार रूक गया तो स्टार्ट नहीं होगा। काम ऐसा ही रहे, चलता रहे। रुकने मत देना। रुकेगा तो बहुत तड़पोगे। यही है तुम्हारे लिए।

अगर पूछना चाहते हो कि अच्छा काम करने में, ऊँचा काम करने में मुझे व्यक्तिगत इनाम क्या मिलेगा, तो व्यक्तिगत तौर पर ये मिलता है — ज़िन्दगी बहुत अच्छे से कट जाती है। दुख नहीं झेलने पड़ते, क्योंकि हम दुख झेलने के लिए उपलब्ध ही नहीं होते, नॉट अवेलेबल। सौ तरह के झंझट और प्रपंच आ रहे हैं, माया आ रही है घेरने के लिए। हमारे पास एक सधा हुआ जवाब है, क्या? नॉट अवेलेबल! ये मिलता है।

भगत सिंह गये, पूरा देश रोया था। भगत सिंह ख़ुद रोये थे क्या?

श्रोता: नहीं।

आचार्य: क्यों? वो रोने के लिए थे ही नहीं। मृत्यु से पहले वो जूझे हुए थे अपने काम में और मृत्यु के बाद अब रोने के लिए हैं ही नहीं। तो लो, दोनों ही दशाओं में रोये नहीं। तड़पने का कोई मौक़ा नहीं मिलता। नहीं तो ज़िन्दगी बहुत बेकार चीज़ है। जिनके पास कोई सार्थक मकसद नहीं होता है जीने के लिए, उनको ये भी नहीं करती कि एक झटके में मार दे। उनको तिल–तिलकर, रोज़–रोज़ मारती है और सौ साल उनको जिलाती है। सौ साल ज़िन्दा रहोगे, ये सज़ा होगी तुम्हारी और रोज़ घुट–घुटकर मरोगे।

इससे अच्छा ये है, भगत सिंह जैसे हो जाओ, बिलकुल जैसे आसमान में उल्का गुज़रती है। देखा, कितने देर को होती है वो? जिसको बोलते हो, तारे का टूटना। वो कितनी देर को दिखाई देता है? फुस्स..., पर जितनी देर को होता है, उतनी को वो बिलकुल आसमान भी रोशन कर देता है और सब निगाहें अपनी ओर खींच लेता है और फिर...? बस गया! गया!

बहुत लम्बी ज़िन्दगी लो और बेकार ज़िन्दगी, फ़ालतू जी रहे हो। जैसे कभी देखा है? ये जो व्यस्त सड़कों के किनारे ठूँठ खड़े कर दिये जाते हैं। प्रशासन आकर पौधा रोपण के नाम पर वहाँ लगा देता है। अब वहाँ पर न उनको पानी है, न मिट्टी है, सिर्फ़ धूल है और धुँआ है। उनका एक–एक पत्ता धूल से लदा हुआ है और वो उसी हालत में बरसों से हैं। ऐसी ज़िन्दगी जीनी है क्या? इससे अच्छा है कि वो मर जाएँ।

बड़े उद्देश्य का मतलब ही यही होता है कि वो तुमको पूरा सोख लेगा। छोटा काम करोगे, तो उसमें छोटी ऊर्जा और छोटा समय चाहिए। तुम उसको थोड़ा समय दे दोगे, काम पूरा हो जाएगा, अब क्या करोगे? क्योंकि तुम तो तुम हो, और भीतर की तड़प और बेचैनी, वो तो है-ही-है। और वो तब तक नहीं मिटते जब तक तुम तड़पने वाले को पूरी तरह झोंक नहीं देते। तड़प तो तभी मिटती है जब तड़पने वाला मिट जाता है। ये मिलता है अपने लिए। बोलो, छोटी चीज़ है?

लोग परेशान रहते हैं, खाली समय चाहिए, पर्सनल टाइम। मैंने लिखा था, ’पर्सनल टाइम इज़ हेल (व्यक्तिगत समय नर्क है)।‘ तुम्हारी ज़िन्दगी की जो सबसे ख़राब चीज़ हो सकती है, वो है खाली समय। पर्सनल टाइम माने क्या? क्या करोगे उसमें? काम ऐसा चुनो न जिस काम में सारे ऊँचे-से-ऊँचे तत्व पहले ही निहित हों। तो ये थोड़ी फिर करना पड़ता है कि प्रोफ़ेशनल काम गन्दा है और पर्सनल काम अच्छा है।

उदाहरण के लिए, क्या करोगे पर्सनल टाइम में? ‘जी मैं रीडिंग करता हूँ, किताबें पढ़ता हूँ।‘ काम ऐसा चुन लो न, जहाँ किताब पढ़ना काम का ही हिस्सा हो। अब पर्सनल टाइम क्यों चाहिए? ‘नहीं, मैं पर्सनल टाइम में भाई, थोड़े से जो मेरे अपने अच्छे सम्बन्ध हैं, उन पर ध्यान देता हूँ।‘ तो काम से ही सबसे अच्छा सम्बन्ध बना लो न, तो फिर काम के बाद और सम्बन्ध नहीं तलाशने पड़ेंगे।

‘क्या करते हैं काम के बाद? पर्सनल टाइम क्यों चाहिए?’

‘मैं खेलने जाऊँगा।‘

काम ही ऐसा चुन लो न जिसमें ज़रूरी हो जाए शरीर को मज़बूत रखना। अब तुम्हारा खेलना भी तुम्हारे काम का हिस्सा है। क्योंकि खेलोगे नहीं, तो काम नहीं कर पाओगे। तो अब ये नहीं कहोगे कि काम के बाद मैं पर्सनल टाइम में खेलने आता हूँ। और खेल भी रहे हो, तो काम ही कर रहे हो।

समझ में आ रही है बात?

ये मिलता है स्वयं को। मेरा क्या? ये है। ऊँचा लक्ष्य लगभग असम्भव होता है, आपके जीवन काल में नहीं पूरा हो पाएगा। जिस समय भगत सिंह गये हैं, उस समय अंग्रेज़ों की सत्ता बहुत–बहुत मज़बूत थी। वो कमज़ोर तो होनी शुरू हुई हैं साल उन्नीस-सौ-अड़तीस के बाद से। भगत सिंह तो उससे बहुत पहले जा चुके थे। बहुत मज़बूत थे अंग्रेज़। ब्रितानवी सल्तनत का सूरज कभी नहीं डूबता था, कहने की बात थी। पहला विश्वयुद्ध वो जीत चुके थे। दुनिया भर पर वे राज कर रहे थे।

ये मुट्ठीभर क्रान्तिकारी लड़के। इनको भी व्यावहारिक रूप से बहुत अच्छे से पता था कि ऐसा तो नहीं है कि हम अंग्रेज़ों को भारत से भगाने में सफल ही हो जाएँगे। इन्हें भी पता था कि अपने जीवन काल में जो हम परिणाम चाहते हैं, वो नहीं देख पाएँगे। बात अपनेआप को झोंकने की है, बात प्रयास की है। ये नहीं देखना है कि परिणाम आए, फल आए और मैं उसको भोगूँ या मैं उसको कम-से-कम देख पाऊँ। उन्हें पता था कि हम नहीं देख सकते। ये इतनी बड़ी ताक़त है कि इसके ख़िलाफ़ जीत की उम्मीद नासमझी है। जीत तो इनसे नहीं मिल सकती, किसी हालत में नहीं मिलेगी। लेकिन फिर भी जो करना है, वो तो हम करेंगे और पूरी जान लगाकर करेंगे। ये नहीं देखेंगे कि इसमें से मिला क्या, मेरा क्या। ऐसे देखोगे तो किसी को भी क्या मिल गया?

भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, आज़ाद — किसी को भी क्या मिल गया? और नाम जोड़ दो। इनको तो फिर भी हो सकता है थोड़ी ख़्याति मिल गयी। और जिनकी अभी हम बात कर रहे थे जो गुमनाम है, उनको क्या मिल गया? ख़्याति भी नहीं मिली उनको तो। छोटे काम की पहचान ऐसे कर लेना कि उसमें तुम काम के बदले कुछ माँगोगे। जहाँ काम के बदले कुछ माँगने का जी करे, जान लेना वो काम छोटा है। क्योंकि माँगा तो हमेशा मुआवज़ा जाता है कि मैंने ये करा, बदले में मुझे कुछ दे दो। आशिक़ी में माँगा नहीं जाता न?

बड़ा काम वो होता है जहाँ जो कर रहे हो, वही पुरस्कार है। वहाँ बदले में कुछ माँगा नहीं जाता, कि व्यक्तिगत तौर पर मुझे क्या लाभ हुआ। कुछ नहीं। न लाभ हुआ और न लाभ चाहिए था। यही लाभ हुआ कि लाभ की आकांक्षा ही मिट गयी। मज़ा आया न सुनने में? देखो उसको, मज़ा आ गया उसको सुनने में (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए)। हो गयी क्रान्ति! ऐसे ही शुरू होती है।

जिस काम के बदले में कुछ माँगने का मन करे, वो काम करने लायक़ नहीं है फिर, क्योंकि बहुत छोटा है। काम वो करो जिसमें अपनेआप को ही दे देने का मन करे। कि लो भाई, यज्ञ है, हम अपनी ही आहुति चढ़ा देते हैं। सबकुछ दिये देते हैं, माँगना तो कुछ है नहीं। ये चीज़ ऐसी है कि इसमें बदले में क्या माँगे। ये काम ऐसा है, इसको करने में ही आनन्द है, और क्या माँगे?

कितना तुम्हें अजीब लगे, कोई क्रान्तिकारी जाकर के कह रहा है, ‘मैंने क्रान्ति की है, कुछ पैसे मिलेंगे?’ ये कितनी बेहूदगी की बात होगी! सुनने में हँस रहे हो, सोचो। तो आप क्रान्तिकारी हो या नहीं, इसका देख लो फिर कि निर्णय कैसे कर लेना है। क्रान्तिकारियों को सोचो न कि वो अब इन्तज़ार कर रहे हैं कि सैलरी डे आ रहा है। क्रान्ति की है, तो पैसे भी तो आ ही रहे होंगे या कुछ चीज़। कि ढूँढ रहें हैं कि अख़बार में आज नाम छपा कि नहीं छपा। पैसे वगैरह तो मिलते नहीं हैं, कम-से-कम शौहरत मिले! ये कोई क्रान्तिकारी होंगे? हाँ? क्रान्तिकारी ऐसे होते भी नहीं हैं।

और न मैं शंकराचार्य हूँ, न मुझे…। तुम शंकराचार्य तो छोड़ दो, मैं आचार्य भी नहीं हूँ। शंकराचार्य तो बहुत आगे हैं। तो ये सब कि आप तो सारी लोकप्रियता लूटे जा रहे हैं, हमें तो कुछ मिला ही नहीं। ये भाव रहने दो। न लोकप्रियता चाहिए है, न कोई अपना झंडा ऊँचा करने का इरादा है। अब पैदा हो गये हैं, फँस गये हैं तो कुछ तो करना है, तो ये कर रहे हैं। ये ऐसा नहीं है कि यहाँ से कुछ लेकर जाना है। शरीर है, जन्म है, तो जो करा जा सकता है उसमें ढंग का, वो कर रहे हैं। इरादा ये नहीं है कि यहाँ से और लेकर जाएँ, इरादा ये है कि जल्दी-से-जल्दी निपट लें।

ये जो दुनिया है हमारी, ये ऐसी नहीं है कि यहाँ कोई आनन्दित हो जाए और कहे, मुझे पाँच-सौ साल जीना है, हम तो यहीं टिके रहे तम्बू गाड़कर के। ये तो सदा जैसी बात है कि तुम निपट भी गये हो और उसके बाद भी तुम बचे हुए हो। कैसे? याद के तौर पर। मैं बहुत परेशान हो गया, तो मैं वहाँ गया था — हुमायुँ का मकबरा, दक्षिण दिल्ली में।

मैंने कहा, ‘ये मकबरा बनवाया है, इतना बड़ा! क्यों बनवाया है?’ फिर मैं उसके सामने खड़ा हो गया, मैं ऐसे करके खड़ा हो गया (दोनों हाथों को पीछे करके सीधा ऊपर की ओर देखते हुए) सोचो, एक आदमी खड़ा है और दोनों हाथ पीछे हैं। मैंने कहा, ‘इसलिए बनवाया है।‘

जब जीवन बहुत अधूरा होता है न, तो आदमी यहाँ तक कल्पना कर लेता है कि मेरी मौत के बाद भी मुझे सम्मान मिले। उसका बड़ा सा दरवाज़ा है कि आप उसके सामने खड़े हो जाएँ, और यूँ करके देख रहे हैं (देखो, ये मेरे नाम का मकबरा है)।

ऐसा मिटना चाहिए कि तुम्हारी स्मृति भी शेष न रहे इस दुनिया में। पूरी तरह मिट जाओ, कुछ न बचे तुम्हारा यहाँ पर। ग़ायब हो जाओ! अचानक ग़ायब हो गये! और ऐसे ग़ायब हुए कि बस ग़ायब! ऐसा होना चाहिए। तुम मुझसे पूछोगे कि मुझे क्या चाहिए, तो मुझे तो ग़ायब होना है। मैं यहाँ नहीं चाह रहा हूँ कि तुम मेरी मूर्तियाँ बनवाओ। उल्टी बात कर रहे हो, बिलकुल उल्टी बात कर रहे हो (मुस्कुराते हुए)।

और ये मैं आज से नहीं बोल रहा हूँ। ऐसे ही किसी ने बहुत पहले पूछा था और तब बात का कॉन्टेक्स्ट (सन्दर्भ) जो था, वो आध्यात्मिक भी नहीं था। मैं गाड़ी चला रहा था, कोई था बगल में। पूछा कि ज़िन्दगी से चाहते क्या हो। ऐसे ही गाड़ी चलाते–चलाते कहा, ‘यही कि पूरे तरह से ग़ायब हो जाओ, एकदम मिट जाओ। कोई निशान पीछे न बचे।‘

वहाँ तुमको शक हो रहा है कि हमें अपना मकबरा खड़ा करना है। तुम कर लेना अपना। मौज में रिहाई मिल जाए, ये बहुत बड़ी बात है। इससे ज़्यादा कुछ नहीं माँगा जाता। ठीक है? जब तक रहे, कष्ट से बचे रहे और फिर एक दिन चुपचाप विदा हो गये। इससे बड़ी बात कुछ नहीं होती। इससे ज़्यादा कुछ माँगते भी नहीं हैं।

जो पहली लाइन है (भगत सिंह के पत्र में), यहाँ से अभी लेख लेकर के आए हैं। वो पहली ही लाइन ऐसी है कि तुम्हारा होगा क्या सुनकर — ‘तो भगत सिंह को मिल गयी फाँसी की सज़ा, बटुकेश्वर दत्त को नहीं मिली। फाँसी की सज़ा न मिलने पर बटुकेश्वर दत्त काफ़ी अपमानित महसूस कर रहे थे।’ अब क्या करें? तुम क्या पूछ रहे थे? मेरा क्या? वो कह रहे हैं, ‘मैं ही रह गया, ये सब तो रिहा हो गये। मुझे क्यों नहीं दी फाँसी की सज़ा?’

वो बड़े अपमानित थे। उनका दिल टूट रहा है, तो भगत सिंह ने उनको सान्त्वना में पत्र लिखा। हाँ, समझाने के लिए कि बेटा, कोई बात नहीं। समझो कि वो लोग कैसे थे? और हम छोटी–छोटी चिन्दी-चिन्दी बातों के लिए मरे जाते हैं। और देखो, ये लोग क्या हैं! इस पर भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त को एक पत्र लिखा। भगत सिंह ने पत्र में कहा, अब ये उद्धरण है – “वे दुनिया को ये दिखाएँ कि क्रान्तिकारी अपने आदर्शों के लिए मर ही नहीं सकते, बल्कि जीवित रहकर जेलों की अन्धेरी कोठरियों में हर तरह का अत्याचार भी सह सकते हैं।“

मैं कह रहा था न कि वो काम ऐसा है कि उसके लिए मरना पड़ा तो मरेंगे और जीना पड़ा तो जी भी लेंगे, बर्दाश्त कर लेंगे जीना। “भगत सिंह ने उन्हें समझाया कि मृत्यु सिर्फ़ सांसारिक तकलीफ़ों से मुक्ति का कारण नहीं बननी चाहिए। फिर कालापानी की सज़ा के तहत बटुकेश्वर दत्त को अंडमान की सेलुलर जेल भेज गया।” उनको कैंसर हो गया, बटुकेश्वर दत्त को। आज़ादी के बाद की बात है। उनको कैंसर हो गया, तो उनके इलाज के लिए पैसे किसने दिये बताओ? भगत सिंह की माँ ने। और ये अभी आज़ादी के बाद की बात है।

तो पंजाब के मुख्यमंत्री थे रामकृष्ण जी, तो उन्होंने कहा कि आपकी तबियत इतनी ख़राब है, आप जा रहे हो। हम कुछ कर सकते हैं आपके लिए? तो बटुकेश्वर दत्त बोले, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए। बस मेरा दाह–संस्कार भगत सिंह की समाधि के बगल में करना।’ ये माँगा जाता है अपने लिए, कि मौत में भी किसी ऊँचे की संगति रहे। ये माँगा जाता है।

तुम पूँछ रहे हो, ‘मुझे क्या मिलेगा?’ ये माँगा जाता है। कि जब मैं मरूँ, तो मेरा दाह–संस्कार भगत सिंह के बिलकुल बगल में करना। वो धोखा देकर के चला गया था मुझको। मैंने कहा, ’हम दोनों को फाँसी मिलनी चाहिए, उसको मिली मुझे नहीं मिली, कोई बात नहीं। अब मैं पकड़ लूँगा उसको।‘ जहाँ वो लेटा है, वहाँ मुझे लेटा दो। ये माँगा जाता है अपने लिए।

“हुसैनीवाला में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की समाधि के बगल में बटुकेश्वर दत्त की समाधि है।” ये माँगना कि जहाँ वो लेटा हो, हम भी लेट जाएँ।

न मरना ज़रूरी है, न जीना ज़रूरी है। जो तुम्हारा लक्ष्य है वो ज़रूरी है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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