आचार्य प्रशांत: जब हम शादी करते हैं तो शायद ही होगा कोई जो कहेगा कि भाई जवानी छा रही है, शारीरिक माँगें हैं, इसके लिए हम विवाह करने जा रहे हैं। ख़ास तौर पर महिलाएँ तो बिलकुल नहीं मानेंगीं, वो कहेंगीं—"छी, छी! इतनी गंदी बात। हम बोल ही नहीं सकते अपने मुँह से।" कर सके हो, बोल नहीं सकते? जीवन भर यही करते हो; बोला नहीं जाएगा?
बिलकुल होता है कि और भी चीज़ें होती हैं, विवाह के उपरांत एक मित्रता भी स्थापित हो सकती है स्त्री-पुरुष में। और कई चीज़ें हो सकती हैं। होती भी हैं कई बार। लेकिन फिर भी मत इनकार करिए कि उसका आधार तो शारीरिक ही है। विवाह की वेदी पर स्त्री को पता चल जाए कि पुरुष नपुंसक है; विवाह होगा? बहुत बढ़िया बंदा है, अव्वल दर्जे का कवि है। उसकी बौद्धिकता—असीमित बिलकुल। किसी ऊँची यूनिवर्सिटी (विश्वविद्यालय) में शोध कर रहा है, लेकिन नपुंसक है। विवाह करेगी स्त्री?
वैसे ही पुरुष को पता चल जाए कि यह जो महिला है बगल में, यह फ्रिजिड (उदासीन) है या इसकी किसी तरह की कोई रुचि नहीं है सेक्स (यौन क्रिया) में। विवाह होगा?
तो, खेल सीधा है न!
हाँ, आपकी बुद्धि थोड़ी साफ़ होने लग जाए, आपके जीवन में कुछ अध्यात्म आ जाए और विवाह के बाद आप कहो कि मुझे अब अपनी पत्नी से अपने सम्बन्ध को एक ऊँचे तल पर ले जाना है। वह बिलकुल अलग बात है। और वैसा हो भी सकता है। और हुआ भी है। और मैं चाहता हूँ कि वैसा प्रयास करा भी जाए कि विवाह के बाद आप कहें कि ठीक है। जैसा भी नाता था, जुड़ गए, शारीरिक संसर्ग कर-करके बच्चे भी पैदा कर दिये। लेकिन, अब हम दोनों अपने रिश्ते को थोड़ा ऊँचाई देते हैं, बिस्तर से उठा करके मंदिर में ले आते हैं। यह निसंदेह करा जा सकता है, करा जाना चाहिए।
लेकिन फिर भी, शुरुआत तो शयनकक्ष से ही है न; पूजाकक्ष से नहीं।
आप अगर बात की गहराई में जा रहे होंगे, तो आपको दिख रहा होगा कि इस पूरे मुद्दे का फिर और गहरा सम्बन्ध हमारे देहभाव से है। चूँकि हम अपनेआप को देह समझते हैं, इसलिए दूसरे से रिश्ता ही देह के तल पर ही बनाते हैं।
हाँ, देह के तल पर जो रिश्ता बन रहा है, उसमें दो-चार और शाखाएँ फूट आएँ, ऐसा बिलकुल हो सकता है। लेकिन, उस रिश्ते की—यह मैं चौथीं-पाँचवीं बार कह रहा हूँ—उस रिश्ते की बुनियाद तो देह ही होती है।
हाँ, यह बिलकुल हो सकता है कि पति-पत्नी साथ हैं, दो बच्चें हो गए। अब बच्चों से पति को भी मोह है, पत्नी को भी मोह है; तो बच्चों के कारण रिश्ता आगे चल रहा है। यह हो सकता है कि बाद में ऐसा हो जाए। लेकिन फिर भी बुनियाद तो देह थी।
और यही वजह है कि देह जब ढलने लग जाती है, तो रिश्ता भी फिर ठंडा पड़ने लग जाता है। विवाह के दो-चार साल बाद सम्बन्ध में उतनी गर्मी रह नहीं जाती। यह मत समझिएगा कि पतिदेव बेवफ़ा हो गए। वो बेवफ़ा नहीं हो गए। अनुबन्ध की मियाद पूरी हो गई। अनुबन्ध माने—कॉन्ट्रैक्ट । मियाद माने—अवधि।
उस अनुबन्ध की शर्त ही यही थी कि मैं कामुक, तुम हॉट (कामोत्तेजक); आ मिला हाथ। या जो कुछ भी। आप हॉट रह नहीं गई हैं, उसने इधर-उधर विवाह से इतर सम्बन्ध स्थापित कर लिए हैं, *एक्सट्रामैरिटल*। फिर आपको झटका लग जाता है कि अरे! पतिदेव अब इधर-उधर मुँह मार रहे हैं। यह तब नहीं पता था जब रिश्ता शुरू हो रहा था?
पर नहीं। जब रिश्ता शुरू हो रहा होता है उस वक़्त तो भावनाओं और वासनाओं का ज़ोर ऐसा हावी होता है कि कुछ समझ में नहीं आता। टिक-टॉक की दुनिया—रूमानी-गुलाबी।
कोई पुरुष आपसे पूछता है, "अपना ज्ञान बताओ"? दुनिया भर में इतनी बातें, इतने मुद्दे चल रहे हैं।
वर्तमान शताब्दी मानवता के इतिहास में सबसे वीभत्स और दर्दनाक कालों में से है। इस समय हम यहाँ पर बैठकर जो साँस ले रहे हैं, उसमें कार्बन डाइऑक्साइड का जो स्तर है, वह पिछले बीस लाख सालों में इतना ऊँचा कभी नहीं था।
आप और आपकी प्रियतमा आमने-सामने बैठे हुए हैं। दोनों साँस तो ले रहे हो न? आँखों की गहराई और होठों की मिठास से आगे चलकर कभी यह बात भी करी है कि यह वैश्विक-तापन क्या है? यह जलवायु परिवर्तन क्या है? तब लगता है—"ऐसी बातें थोड़े करी जाती हैं। यह तो डेट (मिलने जाना) है, डेट पर तो दूसरे तरह की बातें होती हैं न।"
कौन तब पूछने जाता है कि तुम्हारी चेतना का स्तर कैसा है? ज्ञान की गहराई कैसी है? कुछ करुणा तुममें है या नहीं है? कौन पूछने जाता है?
एक अपनी ही देह इतना बड़ा बोझ होती है; होती है कि नहीं होती? किसी दूसरे की देह को ज़िंदगी में क्यों आमंत्रित कर लेते हो, भाई? दूसरे को जीवन में लाना भी है तो रोशनी की तरह लाओ; जिस्म की तरह क्यों लाते हो? अपनी ही देह की गंदगी से वाकिफ़ नहीं हो क्या, जो दूसरे की गंदगी भी घुसेड़ ली? और फिर रोते हो! पुरुष रोते हैं कि स्त्री मेरा शोषण कर रही है। स्त्रियाँ रोती हैं कि पुरुष मेरा बलात्कार कर रहा है। और बच्चे रोते हैं कि हमें पैदा क्यों कर दिया।
मैंने पाया है कि दो चीज़ें होती हैं, जो इंसान की ज़िंदगी को नर्क बनाती हैं। सब युगों में ऐसा था, आज के समय में विशेषकर।
पहला—आजीविका का ग़लत साधन; ग़लत नौकरी। और दूसरा—ग़लत विवाह।
और अधिकांशतः ये दोनों ही ग़लत होते हैं हर आम आदमी के जीवन में। उसकी नौकरी भी ग़लत होती है—नौकरी में सब कुछ शामिल है; व्यवसाय, पेशा, धंधा, आप जो कुछ भी करते हैं। तो दिन भर आप जो नौकरी कर रहे होते हैं, वह भी उल्टी-पुल्टी होती है; जो आपके मन को बिलकुल गंदा करके रखती है, चेतना का दमन करके। और जो विवाह कर रखा होता है, उसका तो कहना ही क्या!
और इन दोनों में भी जो चीज़ बिलकुल ही ख़त्म कर देती है इंसान को, पूरे जन्म के लिए ख़त्म कर देती है—नौकरी तो फिर भी बदल सकते हो, किसी भी क्षण सोच लेते हो कि अब नया व्यव्यसाय, पेशा आदि कुछ शुरू करना है—साथी नहीं बदल पाते।
तो जो दूसरी चीज़ है—ग़लत विवाह; यह इंसान को कहीं का नहीं छोड़ती। ग़लत शादी हो गई माने पूर्ण विराम; द ऐण्ड (समाप्ति)। गया! या गयी! खेल ख़त्म! अब कुछ नहीं हो सकता। अब जियोगे, तीस-चालीस-पचास साल, और जितना जीना है जियोगे; जीवन नहीं होगा।
थोड़ा सा, बिलकुल ज़मीन पर फिर से बात करते हैं एक बार ताकि होश एकदम दिमाग़ में रहे।
आपकी ज़िंदगी में—आप जवान हैं अभी। ठीक है? आप पच्चीस, तीस या पैंतीस साल के हैं; जिस दरमियान शादी होती है। आप जवान हैं, आपकी वासना उफ़ान लिये हुए है और आपके जीवन में एक व्यक्ति डाल दिया गया है और धर्म ने और कानून ने आपको पूरी स्वीकृति दे दी है। स्वीकृति से आगे, अनुज्ञा दे दी है, लाइसेंस थमा दिया है। यह बोलकर कि यह जो व्यक्ति है, यह तुम्हारे जीवन में लाया गया है, काहे के लिए? काहे के लिए? सेक्स (यौन क्रिया) के लिए। ठीक है?
आप क्या करोगे उस व्यक्ति के साथ? पूजा करोगे उसकी? क्या करोगे? उसे मॉर्निंग वॉक (प्रातः भ्रमण) पर ले जाओगे? दही-बताशे खिलाओगे? क्या करोगे? वह व्यक्ति आपके जीवन में क्यों लाया गया है?
हिचक हो रही है स्वीकार करते हुए न? गंदा लग रहा है, "छी! आचार्य जी, आपने तो इतनी पवित्र चीज़ को इतना गिराकर के बता दिया।"
मुझे गिराने की क्या ज़रूरत? मेरा कोई लेना ही देना नहीं।