व्यर्थ का छूटना और सार्थक का बढ़ना सदा समानांतर होते हैं || महाभारत पर (2018)

Acharya Prashant

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व्यर्थ का छूटना और सार्थक का बढ़ना सदा समानांतर होते हैं || महाभारत पर (2018)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बेफ़िक्री और कामचोरी में क्या अंतर है? आपके सानिध्य के साथ बेफ़िक्री बढ़ी है, पर ऐसा लगता है कि कहीं कामचोरी भी तो नहीं बढ़ रही। कृपया स्पष्टता प्रदान करें।

आचार्य प्रशांत: जब सही काम चुन लिया जाता है तो मूर्खताओं को, दुनिया भर के तमाम झंझटों को ले करके जो फ़िक्र रहती है, वो ख़त्म हो जाती है। ये कहलाती है बेफ़िक्री। तो बेफ़िक्री का संबंध सर्वप्रथम सही काम के चुनाव से है।

जिसने सही काम चुन लिया, वो सब व्यर्थ के कामों के प्रति बेपरवाह हो जाता है।

कुछ होता है ऐसा जो तुम्हें इतनी ताक़त दे देता है कि तुम्हें फिर आवश्यकता नहीं महसूस होती डरने की, छोटे-छोटे स्वार्थ, लालच, संकीर्णताएँ दिखाने की। तुम कहते हो कि बात छोटी है; हो तो हो, और न हो तो न हो। उसके होने से भी कुछ हो नहीं जाना है, उसके न होने से भी कुछ हो नहीं जाना है, क्योंकि जो परम है, जो बड़ा है, जो इतना महत्वपूर्ण है कि उसने मुझे जकड़ लिया है, वो तो हो ही रहा है न। असली घटना तो घट ही रही है, असली काम तो चल ही रहा है, अब ये ज़रा-ज़रा से क्षुद्र काम बनें, कि बिगड़ें, परवाह कौन करता है! - ये हुई बेफ़िक्री।

बेफ़िक्री के लिए आवश्यक है कि तुम्हें पता हो सर्वप्रथम कि तुम्हारे लिए करणीय क्या है; क्या है जो करना तुम्हारे लिए उचित है। तो दोनों चीज़ें एकसाथ होंगी; जैसे-जैसे उसमें आगे बढ़ते जाओगे जो सही है, वैसे-वैसे वो स्वतः ही छूटता जाएगा जो व्यर्थ है। व्यर्थ का छूटना और सार्थक का बढ़ना सदा समानांतर होते हैं, सदा एकसाथ होते हैं।

दूसरी बात तुमने कही कामचोरी की। दो तरह की होती है कामचोरी, एक छोटी कामचोरी और एक बड़ी कामचोरी। दोनों समझा देता हूँ। छोटी कामचोरी तो ये है कि तुमने काम ही छोटा पकड़ लिया है। अब चूँकि तुमने छोटा काम पकड़ा है, इसलिए उसमें जी तुम्हारा लगेगा नहीं। ‘छोटे काम’ से मेरा क्या आशय है?

‘छोटे काम’ से मेरा आशय है वो काम जो तुम्हारे छुटपन से निकलता हो या वो काम जो तुम्हें और ज़्यादा क्षुद्र अनुभव कराता हो। डर से जो काम निकले, वो छोटा; लालच से जो काम निकले, वो छोटा; भय, लोभ, घृणा, अज्ञान, इनसे जो भी काम निकलें, वो छोटे। और छोटा काम तुम जब भी पकड़ोगे, उसमें डूब नहीं पाओगे, क्योंकि भीतर तुम्हारे कोई है जो किसी भी तरह की क्षुद्रता से सहमत नहीं हो सकता।

और तुमने पकड़ लिया है अपने लिए ज़बरदस्ती छोटा काम, तो वो भीतर वाला उस काम से कन्नी काटेगा। वो वास्तव में उस काम के प्रति ऊर्जाहीन होकर तुमको ये संदेश दे रहा है कि तुम ग़लत जगह फँसे हुए हो, तुम ग़लत काम कर रहे हो।

ज़्यादातर लोग अपने काम के प्रति बहुत निष्ठावान नहीं हो पाते और वो ग्लानि का अनुभव करते हैं, वो कहते हैं कि, “हम अपने काम के प्रति ईमानदार नहीं हैं, हमें ग्लानि इसलिए है।” मैं कह रहा हूँ कि उन्हें ग़लत बात पर ग्लानि है। ग़लती उन्होंने की है, पर उनकी ग़लती ये नहीं है कि उन्होंने जो काम पकड़ा है, वो उसके प्रति निष्ठावान नहीं हो पा रहे, उनकी ग़लती ये है कि उन्होंने काम ही ग़लत पकड़ा है।

जो कोई छोटा काम पकड़ेगा, उसे अनुभव होगी ऊब, बेचैनी, अन्यमनस्कता। काम के क्षणों में उसे लगातार यही लगता रहेगा कि “काश! कहीं और चला जाऊँ, काश! ये काम करना न पड़े”, इत्यादि-इत्यादि। किसी तरह से समय काटेगा, ताकता रहेगा कि किसी तरह घड़ी की सुइयाँ पाँच बजाएँ, छः बजाएँ; काम की अवधि ख़त्म हो और पिंड छूटे। ये हुई छोटी कामचोरी।

बड़ी कामचोरी क्या है? बड़ी कामचोरी ये है कि जिस काम के लिए तुम पैदा हुए हो, तुमने उसी काम के प्रति चोरी कर दी। जिस काम के लिए जन्म हुआ है तुम्हारा, तुम उसी काम के प्रति ईमानदार नहीं रहे, ये हो गई बड़ी कामचोरी। जो बड़ी कामचोरी करेगा, उसे छोटी करनी ही पड़ेगी। ये बात तो स्पष्ट होगी न? क्योंकि जिसने सही काम नहीं पकड़ा, वो ग़लत काम पकड़ेगा। जो ग़लत काम पकड़ेगा, वो ग़लत काम में भी कैसा रहेगा? कामचोर। बड़ी कामचोरी का नतीजा होता है छोटी कामचोरी।

तो एक ही बात फिर समझने लायक बचती है – बड़ी कामचोरी मत करो, बाकी सब अपने-आप ठीक हो जाएगा। बड़ी कामचोरी नहीं करोगे, सही काम पकड़ोगे तो बेफ़िक्र रहोगे, बेपरवाह रहोगे। और अगर बड़ी कामचोरी कर दी, तो छोटे काम में भी अपने-आपको उदास, अनमना, कटा-कटा-सा ही पाओगे।

जीवन जीने का एक ही तरीका है – प्रतिक्षण सही कर्म करते चलो।

और सही कर्म का पता कैसे चले?

जो कर्म तुम्हारे अहंकार को पोषण न देता हो, जो कर्म तुम्हारी छोटी-छोटी पहचानों से न निकलता हो, तुम्हारे व्यक्तिगत संकीर्ण स्वार्थों से न निकलता हो, उसी को जान लेना कि वो सही कर्म है। जो कर्म करने के पीछे कोई बहुत बड़ा तर्क न हो, जो कर्म न वृत्तियों से उठता हो, न तर्कों से उठता हो, अपितु सीधे हृदय से उठता हो, उसी को जान लेना कि वो सही कर्म है।

प्र२: आचार्य जी, जो काम पहले बहुत ही पसंद आता था, जो उस समय का शायद उचित कर्म था, अब वो बहुत ही तुच्छ और टुच्चा लगता है, और लगता है कि क्या टुच्चापना कर रहे हैं। अब इस पल का उचित कर्म कुछ और होगा?

आचार्य: हाँ, बिलकुल। अहंकार तो लगातार परिवर्तनशील ही रहता है न, लगातार बदलता ही रहता है न; आत्मा अचल होती है। और अहंकार जब लगातार बदल रहा है, तो उसके लिए जो उचित कर्म है, वो भी लगातार बदल ही रहा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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