व्यक्ति-सापेक्ष प्रेम, एक झूठ || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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व्यक्ति-सापेक्ष प्रेम, एक झूठ || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न : अगर प्रेम हर जगह से उपलब्ध होता ही रहता है और हो ही रहा है हर समय, तो फिर जिसे हम प्रेम कहते हैं, हमारा व्यक्तिगत, निजी प्रेम, इसकी ज़रूरत क्यों पड़ती है?

वक्ता: क्या पूछ रहे हैं ये, स्पष्ट है?

प्रेम तो पचास दिशाओं से मिल सकता है। ये भी ज़रूरी नहीं है कि किसी जिंदा इंसान से या जानवर से ही मिले, प्रेम तो प्रेम है, मन जहाँ भी शांत हो गया, मस्त हो गया, वही स्थिति प्रेम है। फिर हमें इंसान क्यों चाहिए? एक ख़ास इंसान की ही क्यों तलाश रहती है?

कई बातें हैं, पहली बात तो ये कि इंसान अपनेआप को हर चीज़ से ऊंचा समझता है, हर चीज़ से ही नहीं, प्रकृति में जो कुछ भी है, उस सब से ऊंचा समझता है। ‘’अब मेरे लिए इसमें कुछ ख़ास है ही नहीं कि एक गाय या एक कुत्ता या एक मुर्गा या एक चिड़िया इनसे प्रेम हो, क्योंकि इनकी कोई कीमत ही नहीं हैं, मैं तो इस क़ायनात में अपनेआप को सबसे ऊपर रखता हूँ बाकि सब को तो अपने से नीचे मानता हूँ। उनकी कोई हैसियत ही नहीं है मेरी निगाह में।’’ तुम नदी किनारे बैठे हो, और पानी तुम्हारे पांव को छू-छू के जा रहा है उसको कहाँ तुम कोई तवज्जो दे पाओगे! क्यूंकि नदी की क्या औकात? तुम नदी को तोड़ देते हो, मरोड़ देते हो, बाँध बना देते हो, गन्दा कर देते हो, कुछ भी कर सकते हो उसके साथ; तो नदी एक छोटी सी हीन चीज़ है, तो नदी अगर तुम्हें प्यार दे भी रही है तो उस प्यार की हैसियत क्या है! सबसे ऊपर इंसान है, तुम्हें इंसान से ही प्यार चाहिए। समझ रहे हो बात को क्या बोल रहा हूँ? ये बात सिर्फ़ यही नहीं है कि एक ख़ास इंसान से प्यार चाहिए, इंसानों में भी अगर कोई ऐसा हो जिसकी बड़ी इज्ज़त हो, जिसकी बड़ी शौहरत हो, पैसा हो और वो तुमको भाव देने लगे, तो ज़्यादा अच्छा लगता है इसकी तुलना में कि कोई साधारण सा आदमी तुम्हें प्यार दे। समझ रहे हो?

ये पूरा खेल अहंकार का है, ये दिखाई दे रहा है? तो जिस पैमाने पर हम इंसानों को नापते हैं और जिस तरह से कोई ऊंचा इंसान आकर हमारी तारीफ़ कर दे या यही कह दे कि मुझे तुमसे प्यार है, तो हमें जैसी ख़ुशी मिलती है। ठीक, वही बात पूरे अस्तित्व पर भी लागू हो जाती है। जैसे इंसानों में हम उंच-नीच करते हैं, ऐसे ही प्रकृति में भी करते हैं; तो एक तो ये हुई सतह-सतह की बात।

दूसरा ये है कि जो आप अपनेआप को तुम समझते हो — ये अहंकार की बड़ी मस्त चाल होती है — अहंकार उससे नीचे भी नहीं चाहता कि आप जाओ और ये भी नहीं चाहता कि आप उससे ऊपर जाओ। समझ रहे हो? वो और घना होना चाहता है उसी क्षेत्र में, जहाँ पर वो पहले से है। आप अपनेआप को पूरे तरीके से एक पर्सनैलिटी समझते हो, एक व्यक्तित्व समझते हो, आप बाकी पूरी दुनिया को अपने से नीचे समझते हो, बाकी पूरी दुनिया से मेरा मतलब है जो इंसान नहीं हैं, उनको तो आप अपने से नीचे समझते हो, तो अहंकार ये बिलकुल नहीं चाहेगा कि आप उनके प्यार में पड़ो और जो आपसे ऊपर का है, वास्तव में ऊपर का है, जो बियॉन्ड ईगो है — जिसको चाहे तुम जो बोल लो टोटल, कम्पलीट, गॉड, परम, खुदा, इंटेलिजेंस; मर्ज़ी है तुम्हारी — अहंकार ये भी नहीं चाहता कि तुम उसके प्यार में भी पड़ो! “अहंकार ना तो तुम्हें उसके प्यार में पड़ने देता है, जिसे तुम क्षुद्र कहते हो और ना उसके प्यार में पड़ने देता है, जिसको वो कहीं न कहीं जानता ही है कि ये अति विराट है। वो तो कहता है कि, ‘’मैं एक पर्सन हूँ, मैं एक पर्सनैलिटी हूँ और मझे किसी और पर्सनैलिटी की ही तलाश है और कैसी पर्सनैलिटी की तलाश है? ठीक वैसी ही पर्सनैलिटी कि जिसने मुझे पर्सन बनाया है। मैं पर्सन कैसे बना? संस्कारों से। जिस संस्कार से मैं पर्सन बना हूँ, उसी संस्कार ने मझे ये बता दिया है कि मुझे कैसे पर्सन की तलाश भी है। समझना बात को

जिन प्रभावों ने हमें हमारी पहचान दी है, उन्हीं प्रभावों ने हमारे अन्दर ये बात भी भर दी है कि किससे प्यार करना है। बात बहुत सीधी है, जिन ताकतों ने हमें हमारी पहचान दी है, उन्हीं ताकतों ने हमारी ये प्रोग्रामिंग भी कर दी है कि हमें कौन पसंद आएगा और कौन नापसंद होगा।

तो रेत, पत्थर, पशु, पक्षी इनसे तो प्यार कर ही नहीं सकते, परमात्मा से भी प्यार नहीं कर सकते, और इंसानों में भी तुम सिर्फ उसकी ओर ही आकर्षित होगे, जिसकी ओर आकर्षित होने के लिए तुम संस्कारित हो। अब इस पूरी प्रक्रिया में प्रेम कहाँ है ये बता दो? मैं कह रहा हूँ अस्तित्व के तुम तीन तल देखलो, हालांकि ये कोई तल-वल नहीं है पर अहंकार चाहता ही है कि तल बनाकर के बात करें, तो बात कर लेते हैं, तुम सबसे नीचे जिन्हें रखते हो- पत्थर, बादल, पानी; सवाल ही नहीं उठता कि तुम घोषणा करो कि, ‘’मैं बादलों के प्यार में हूँ- उसके लिए कोई सरफिरा चाहिये, वो हम हो हीं सकते; सवाल ही नहीं उठता कि तुम किसी दिन चिल्ला कर बोलो कि, ‘’गंगा, प्यार है तुझसे!’’ हाँ, शूटिंग करवा रहे हो कि कोई कैमरा लेकर खड़ा है, तो अलग बात है। फिर कुछ भी बोल सकते हो लेकिन ईमानदारी से बड़ा मुश्किल है। अभी मेरे सामने यहाँ एक कीड़ा घूम रहा था, बड़ा मुशकिल है हमारे लिए; या वो जुगनू जो रास्ते में मिले थे, बड़ा मुशकिल है; या वो चिड़िया जो तार पर बैठी रहती है, बड़ा मुशकिल है; या वो मुर्गा जिसे दिन रात खा जाते हो; या वो कुत्ता जो सड़क पर घूम रहा होता है और लात मार देते हो; या वो तमाम जानवर जिन्हें दिन रात देखते हो, बड़ा मुश्किल है!

यही मन किसी और सत्ता के प्यार में भी नहीं पड़ सकता। तुम्हें जितनी तकलीफ होगी ये कहने में कि मुझे रेत से प्यार है, ठीक उतनी ही तकलीफ होनी है तुम्हें ये कहने में कि मुझे खुदा से प्यार है! बिलकुल बराबर की तकलीफ होनी है। बिलकुल बराबर की! और जो आदमी ये कह सकता हो कि, ‘’मुझे गंगा से प्यार है,’’ बस वही, सिर्फ वही ये भी कह पाएगा ईमानदारी से कि, ‘’मुझे परमात्मा से प्यार है,’’ और कोई तुम्हें ऐसा मिलता हो जो ये कहे कि गंगा! इसमें क्या है प्यार करने लायक? हाँ, हमें इश्वर से बड़ा प्यार है; तो समझना कि बड़ा झूठा आदमी है!

समझ रहे हो?

एक तल पर बैठता है अहंकार, उससे नीचे वाले से नहीं करने देगा, उससे ऊपर वाले से भी नहीं। नीचे-ऊपर कुछ है नहीं, पर अहंकार ने बना रखे हैं तल और जिस तल पर वो बैठा है, उस तल पर भी कहता है कि सारे इंसानों से भी प्यार नहीं हो सकता, इंसानों में भी किससे हो सकता है?

श्रोता: जिसके लिए उसे संस्कारित किया हो।

वक्ता: अब ये बता दो कि प्यार है कहाँ? जो नीचे का है उससे नहीं कर सकते, जो परम है उससे नहीं कर सकते और जिनको तुम अपने स्तर का समझते हो, उनमें भी तुमने कांट-छांट कर रखी है, प्यार है कहाँ?

ये जो व्यक्तिगत प्रेम है, इसको लव कहना ही भूल है; हालांकि हर तरह का आकर्षण भी उठता एक आतंरिक पुकार से ही है। तुम अगर आकर्षित भी होते हो, तो उसके मूल में कहीं न कहीं पुकार यही है कि, ‘’मैं पूरा हो जाऊं, मझमें कुछ कमी है, उस कमी को मैं भर लूँ।’’ तुम जिसकी ओर भी आकर्षित होते हो, तुम रुपया-पैसे, घटिया से घटिया चीज़ के तरफ भी आकर्षित हो रहे हो, तो वो पुकार प्रेम की ही है, तुम्हें प्रेम चाहिए, और प्रेम मिल नहीं रहा तो तुम उसके विकल्प के तौर पर किसी और चीज़ की तरफ आकर्षित हो रहे हो। तुम्हें प्रेम नहीं मिल रहा, तो तुम मूवी की तरफ आकर्षित हो रहे हो; तुम्हें प्रेम नहीं मिल रहा तो तुमने रूपया-पैसा इकट्ठा कर लिया; तुम्हें प्रेम नहीं मिल रहा, तो तुम ज्यादा खाना खाने लग गये; तुम्हें प्रेम नहीं मिल रहा, तो तुम विश्वभ्रमण पर निकल गए; तुम्हें प्रेम नहीं मिल रहा तो तुम चुनाव में खड़े हो गये और दुनिया के राष्ट्रपति बन गये; तुम्हें प्रेम नहीं मिल रहा है तो तुमने पंद्रह फैक्ट्रियां डाल दीं; तुम्हें प्रेम नहीं मिल रहा है तो तुम शराबी हो गये; तुम्हें प्रेम नहीं मिल रहा है, तो तुमने कहा कि ऊंची से ऊंची नौकरी चाहिए, और सबसे ऊंची डिग्री हासिल करके रहूँगा; तुम्हें प्रेम नहीं मिल रहा है, तो तुम इज्ज़त की तलाश में निकल गये, और ये बहुत बड़ी बीमारी है।

इज्ज़त की तलाश में आदमी निकलता ही तभी है, जब प्रेम न हो जीवन में, जिसके पास प्रेम है, वो इज्ज़त लेकर क्या करेगा?

तो तुम बिमारियों की तलाश में भी अगर निकलते हो, तो उसके मूल में तो प्रेम की ही पुकार है, लेकिन मैं फिर भी कहूँगा कि व्यक्तिगत या व्यक्ति सापेक्ष प्रेम को प्रेम कहना ठीक नहीं है, चाहे उसके मूल में प्रेम की ही पुकार हो! क्यों? क्योंकि तुम्हें भूख लग रही हो और तुम ऐसे मूर्ख हो कि लग तो रही हो भूख, और तुम दौड़ लगाने निकल पड़ो; तो क्या ये कहना उचित होगा कि ये दौड़ना भूख मिटाने का साधन है? ठीक उस ही तरीके से भीतर से तो उठ रही है प्रेम की पुकार और तुम खोजने निकल पड़े कोई एक विशेष इंसान, तो ये कहना बिलकुल भी उचित नहीं है कि तुम प्रेम की तलाश में निकले हो, भले ही उसके मूल में प्रेम की ही अभीप्सा हो, मूल में तो हमेशा ही प्रेम की अभीप्सा ही होती है, और कुछ होता ही नहीं है।

“हमारी हर कोशिश, प्यार पाने की ही कोशिश है,”

तुम कोई भी कोशिश कर लो, किसी भी चीज़ के लिए कोशिश कर लो, पर कोशिश एक ही कर रहे हो कि प्यार मिल जाए और वो प्यार, वैसा प्यार नहीं है, न हसबैंड वाला न वाइफ़ वाला न डार्लिंग वाला; वो कोई दूसरा ही प्यार है। हमारी हर कोशिश उसी को पाने की है लेकिन ऐसी मूर्खतापूर्ण कोशिश से फ़ायदा क्या, जिसको करके, पाने की जगह और दूर हो जाओ? तुम्हारे भीतर कुछ है, जो तुमसे कहता है कि टोटल को पालो, परम को पालो और तुम उसका अनुवाद ये करते हो कि शादी करलो; तुम्हारे भीतर से एक सूनापन आवाज़ देता है, तुम्हें साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है कि कहीं कोई कमी है, लेकिन हम इतने मूर्ख हैं कि उसका अनुवाद हम ये करते हैं, मन उसका अनुवाद ये करता है: एक सिग्नल आ रहा है कहीं से, बियांड से एक सिग्नल आ रहा है और तुमने उसको डिकोड क्या किया? “*गो एंड गेट मैरीड !* अरे! सिग्नल ये कह ही नहीं रहा था, वो पुकार किसी और चीज़ की थी तुमने उसका अर्थ ही उल्टा कर डाल और जो उल्टा पुल्टा अर्थ है, यही व्यक्तिगत प्रेम है।

बात समझ में आ रही है?

ये तब होता है, जब ये उपकरण- जो कोड को डिकोड करता है, ये खराब हो गया हो। जैसे कि समझ लो कि किसी रेडियो में सिग्नल आ रहा है और रेडियो का हार्डवेयर खराब है, तो वहां से तो आ रहा है गाना और इसने क्या सुना दिया? पखाना! तो गाने का हो गया पखाना! अब गज़ब् हो गया है! तो वैसे ही बियॉन्ड के सिग्नल्स लगातार आते रहते हैं, पर हमारा दिमाग खराब है, तो हम उसका अर्थ कुछ का कुछ कर लेते हैं। तुम सुबह उठते हो और सुबह उठते ही कुछ भी करने का मन नहीं होता, लगता है एक और दिन आ गया, फ़ालतू ही आ गया, तुम ठीक से देखते ही नहीं कि ये भाव क्यूँ उठता है मन में? और उसका अर्थ क्या करते हो कि सुबह उठते ही ऊंची अवाज़ में गाने लगा दो! तुमने समझने की कोशिश भी नहीं की, कि रोज़ सुबह उठते ही ये सूनापन क्यों प्रतीत होता है, और उसकी जगह एक सस्ता इलाज ढूँढ लिया। सोने जाते हो नींद नहीं आती, जानने की कोशिश ही नहीं की कि क्यों नहीं आती, उसका एक सस्ता इलाज ढूँढ लिया, क्या? कि किसी से फ़ोन पर बात करने लगो- एक आध घंटा बात करोगे, अपनेआप नींद आ जाएगी या नीं.द की गोली खालो या कुछ और इलाज ढूँढने में तो हम माहिर ही हैं- सस्ते और घटिया इलाज!

समझ में आ रही है बात?

वो बुला तो हमेशा से ही रहा है, जिसको मैं कह रहा हूँ कि संदेश आ रहा है, कि सिग्नल आ रहा है, वो उस एक का ही है, वो हमेशा से बुला रहा है। निरंतर आवाज़ – आजाओ, आजाओ, आजाओ और इसके अलावा वो और कुछ कहता ही नहीं पर जब दिमाग शुद्ध नहीं होता है, जब बुद्धि भ्रष्ट होती है, तो वहां से आ रहा होता है कि आजाओ, और यहाँ कुछ और ही सुनाई देता है। यहाँ सुनाई देता है – खाना और खाओ!

वो वहां से बोल रहा होता है कि मुझे पाओ, मुझे पाओ, मुझे पाओ और यहाँ दिमाग बिलकुल खराब है क्यूंकि दिमाग की बिलकुल शुद्धि नहीं कर रखी, तो दिमाग उसका क्या अनुवाद कर रहा है कि – लड़की पटाओ, लड़की पटाओ, लड़की पटाओ! वो वहां से बोल रहा होता है कि मुझे पाओ, मुझे पाओ, मुझे पाओ और तुम्हारी पूरी कोशिश क्या है? कि किसी तरीके से लड़की को पटालो! या लड़के को पटा लो, जो भी है। हमारा जो रिसीवर है, जो रेडियो है हमारा वो करप्टेडहै; उसको साफ़ करदो तो सिर्फ आ जाओ ही सुनाई देगा, उसके सिवा कुछ नहीं। फिर ये जो व्यक्तिगत प्रेम वगैरह का झंझट ही ख़त्म, फिर सिर्फ प्रेम है, निजी कुछ नहीं, मात्र प्रेम! व्यक्ति सापेक्ष प्रेम जिसे कह रहे हो, वो तो बीमारी है; प्रेम आनंद देता है, मुक्ति देता है, और ये जो व्यक्ति परक प्रेम होता है, इसमें सिर्फ पीड़ा और तनाव मिलता है। कुछ और मिल सकता ही नहीं है! तुम कितनी भी उम्मीद रखलो कि शायद मझे कुछ और मिल जाए, तुम्हारे लिए अस्तित्व के नियम नहीं बदल जाएंगे। “एक ख़ास इंसान के प्यार में पड़ोगे, तो सिर्फ तकलीफ पाओगे और दुःख पाओगे!!”

श्रोता: तो सर, अगर हम किसी वस्तु को उसके ऑब्जेक्ट होने की वजह से प्यार करेंगे, फिर भी तकलीफ होगी?

वक्ता: हाँ, पर यही तो होता है व्यक्तिगत प्रेम कि वो व्यक्ति कुछ विशेष है, तुमने बना दिया न उसे वस्तु, एक लेबल है कि वो कुछ विशेष है। उसमें तकलीफ के अलावा कुछ पाओगे ही नहीं; मुझे मालूम है इस बात से बड़ी हसरतों पर चोट लगती है क्यूंकि हम सब खोज एक ख़ास इंसान को ही रहे हैं। तम्मानाएं सबकी वही हैं कि एक कोई विशेष व्यक्ति जीवन में आएगा लेकिन ये जो तमन्ना है, ये सिर्फ कष्ट देगी, जिसने भी रखी है, उसे कष्ट ही मिला है और तुम अपवाद नहीं हो सकते! शुरू से ही कष्ट मिलना शुरू हो जाएगा।

श्रोता: जैसे कि??

वक्ता: अब जैसे कि क्या! कष्ट तो कष्ट होगा, दर्द होग, परेशान रहोगे,व्यर्थ।

श्रोता: आपने कहा अपवाद नहीं हो सकते तुम, क्यूँ नहीं हो सकते?

वक्ता: बेटा, ये नियम हैं अस्तित्व के; इनका कोई अपवाद नहीं होता। वो पानी बह रहा है, इसके बहने के कुछ नियम हैं और कोई कितनी ही कोशिश क्यूँ न करले, वो नियम टूट नहीं सकते; ये जो आग है, इसे ऊपर को ही उठाना है, तुम कितनी ही कोशिश करलो ये नियम टूट नहीं सकता; तुम मझे दिखा दो ऐसी लौ जो नीचे की ओर जाती हो, जा नहीं सकती! लौ है, तो ऊपर को ही उठेगी। ये नियम हैं इनमें कोई अपवाद नहीं हो सकता। इसका मतलब ये नहीं है कि मैं नहीं कह रहा हूँ कि इंसानों से प्रेम नहीं हो सकता। मैं कह रहा हूँ किसी इंसान को विशेष मत बना लेना- असल में कुफ़्र यही तो है, और क्या है! विशेष नहीं हो सकता कोई! कोई एक ख़ास नहीं हो सकता!

श्रोता: लेकिन आप अगर किसी इंसान को विशेष न होने की वजह से प्यार कर भी रहें हैं, तो उसकी तो कुछ अपेक्षाएँ होती होंगी न?

वक्ता: तुम क्या दुनिया भर की उम्मीदें पूरी करती हो? दुनिया भर की सही में? तुम किसी एक की ही क्यों पूरी करती हो? क्योंकि, ‘तुमने’ उसे विशेष मान रखा है; जिस दिन तुमने किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों को विशेष मानना बंद कर दिया, तो फिर ये तनाव भी नही रहेगा कि अब इनकी उमीदें भी पूरी करो। ख़ास तो सिर्फ एक हो सकता है, कौन? ‘वो’ और के अलावा कोई और ख़ास नहीं हो सकता। इसीलिए कहा कि ये कुफ्र है, ये पाप है! जो दर्जा सिर्फ उसको दिया जा सकता था, उस पर तुमने किसी और को बिठा दिया।

श्रोता: ये अलग बात है कि अगर वही हर जगह दिखता है।

वक्ता: फिर अलग बात है, फिर कुछ ख़ास नहीं है उसमें, फिर तो वो रेत में भी है, लौ में भी है और पत्थर में भी है, फिर कहीं कुछ ख़ास नहीं है, फिर ठीक है। आ रही है न बात समझ में?

श्रोता: तो इसका मतलब ये हुआ बिना किसी कारण?

वक्ता: हाँ! बिना किसी कारण क्यूंकि फिर तुम कोई रीज़न नहीं दे पाओगे किसी को, कि तुम्हें किसी कीड़े से क्यों प्यार है; तुम्हें किसी लड़की से क्यों प्यार है? तुम रीज़न दे सकते हो कि शक्ल अच्छी है, सूरत अच्छी है, बातचीत बढ़िया करती है, दिखने में सेक्सी है; पर कीड़े से प्यार है! क्या कारण दोगे?

वक्ता: और जिस बादल का कुछ पता नहीं था, आज आगया, बस प्यार है। कैसे बताओगे किसी को? और कौन सा बादल जब तक बताने लगे किसी को…

श्रोता: उड़ गया

वक्ता: बचा ही नहीं उसमें कुछ। तो कौनसा बादल था, जिससे प्यार था?जी, कुछ ख़ास पता नहीं, तो वो तो अकारण ही होता है।

श्रोता : सर, पहले आपने बताया कि उसको पाने के लिए खुद को, पूरा करना पड़ता है, मतलब करना भी नहीं पड़ता, वो खुद हो जाता है।

वक्ता: देखो, ये बड़ा उल्टा नियम है! आमतौर पर दुनिया में ये होता है कि अगर देते हो तो घट जाता है, लेकिन यथार्थ में जो असली दुनिया है, वहां पर ये होता है कि देते नहीं हो, तो घट जाता है! मस्ती पानी है? तो एक ही तरीका है कि दूसरों को मस्त करो; और प्रेम मिले, तो वो जो सिग्नल है, जिसकी मैं बात कर रहा था, वो तुम्हें और साफ़-साफ़ सुनाई दे, सुनना चाहते हो? तो एक ही तरीका है औरों की भी मदद करो कि वो भी सुन पाएं; अगर तुमने ये भूल कर दी कि मुझे तो अब थोड़ा-थोड़ा सुनाई देने लगा है, अब मैं आत्मकेंद्रित हो जाऊं, अपने सुख में डूबने लगूं, तो जितना मिल भी रहा था, वो बहुत जल्दी मिलना बंद हो जाएगा! तुम्हें कभी इसलिए नहीं मिलता कि तुम उसका उपभोग करो, तुम्हें मिलता इसलिये है कि तुम्हारे माध्यम से बंटे।

श्रोता: एक बार हम ओशो की जो सी.डी सुन रहे थे रास्ते में, उन्होंने कहा था कि अगर हमारे पास थोड़ा सा ज्ञान भी हो जाता है, तो सबसे पहले समाज में उसको विस्तृत करने लगते हैं और उससे हम ये जताना चाहते हैं कि उससे हम तुम्हारी हेल्प कर रहे हैं!

वक्ता: वो बिलकुल अलग बात है बेटा! मैं भी यहाँ पर अहंकार चौंड़ा करने की बात नहीं कर रहा हूँ! ये तो जब किसी को ज्ञान बांटता है न, तो ये बाँट रहा नहीं है, बाँट ही नहीं रहा है!

श्रोता: जब हमें ही पूरा ज्ञान नहीं है, तो हम कैसे बाँट सकते हैं?

वक्ता: ज्ञान बांटने की बात नहीं हो रही है यहाँ पर। तुम छपक-छपक कर रही हो पानी में तो तुम दो को और आमंत्रित कर लेती हो कि आओ, तो इसमें तुम ज्ञान नहीं बाँट रही हो, इसमें तुम मस्ती बाँट रही हो। और इस मस्ती को बांटने से अहंकार नहीं बढ़ेगा! ज्ञान बांटने से अहंकार बढ़ता है कि मुझे ये सब पता था, और याद रखना वो सब बांटा नहीं गया है, वो सब थोपा गया है! या ये कहो कि वो फेंक के मारा गया है! मेरे पास इतना सारा था और फटाफट फेंक के मारा जा रहा है ये ले। और तुझे चाहिये या नहीं चाहिये, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, ये ले! जैसे कि जब तुम किसी पर मिसाइल मारते हो, तो उससे पूछते थोड़ी न हो कि तुझे चाहिये या नहीं चाहिये; तुम्हारा तो प्रयोजन ही था आहत करना, तुमने कर दिया आहत। मस्ती दूसरी चीज़ है, मस्ती बँटना बिलकुल दूसरी चीज़ है।

श्रोता: सर, एक बात हमने कही थी कि परम को आत्मसाध करने के लिए उसके जैसा बनना पड़ता है, तो ये जरूरी है कि जिसको हम पाना चाहते हैं, उसकी तरह पहले बनें।

वक्ता: तो इसी बात को आगे बढ़ा लो; तुम उसे कुछ दे नहीं पातीं न? तुम उसे क्या दोगी? वो पूरा है, लेकिन वो तुम्हें सब देता रहता है; तो बन जाओ उसकी तरह, तुम उसे कुछ नहीं दे सकतीं, बदले में वो फिर भी तुम्हें सब देता रहता है, तो बन जाओ उसकी तरह। ये जो हवा चल रही है अभी, इससे सुकून मिल रहा है?

श्रोता: हाँ

वक्ता: तो ये तुम्हें कौन दे रहा है? या ये तुम्हें किसी पात्रता से मिल रही है? बोलो?

श्रोता: नहीं

वक्ता: और अभी यही हवा तपने लगे बिलकुल भयानक तरीके से, तो क्या किसी से शिकयत कर सकती हो? कि मेरा हक था, ठंडी-ठंडी हवा का और ये मेरे राइट्स का वोइलेशन है? “जागो ग्राहक जागो”।

कह सकती हो? तो ये मुफ्त ही मिल रही है न? तो जैसे ‘वो’ इतनी चीज़ें तुम्हें मुफ्त दे देता है, बन जाओ उसके जैसी, तुम भी मुफ्त में बांटों। मत गिनो कि कितना बाँट दिया! इसलिए कह रहा हूँ कि तुम लोगों ने अभी अपने अवलोकन की बात करी, और कई लोगों ने कहा कि अभी मुश्किल से बारह घंटे बीते होंगे और हमें कुछ मिलता सा प्रतीत हो रहा है, कुछ मिला है। तुमने सीख की बात करी, किसी ने कुछ और कहा, किसी ने कुछ और कहा और मैं तुमसे कह रहा हूँ कि अगर कुछ मिलता सा प्रतीत हो रहा है, तो वो तुमसे फिर ‘बँटना चाहिए’; सिर्फ वही तरीका है, उसे कायम रख पाने का नहीं तो मैं तुम्हें एक चेतावनी भी दे रहा हूँ: तुमसे पहले भी मेरे साथ यहाँ लोग आये हैं, उनमें से भी अंधिकांश को यही लगा कि हमें कुछ ख़ास मिल गया है, एक बड़ी एक्सटेसी की भावना यूफोरिया, उन्मुक्त सा हो जाना बिलकुल, वापस जाकर के दो दिन में सब धुल जाता है! और वजह वही है क्योंकि तुम साहस करके उसको बाँटने कि कोशिश नहीं करते।

श्रोता: अगर हम अपने रूम में एच.आई.डी.पी सेशंस की बात भी याद रखें न, तो भी बहुत हो जाता है।

वक्ता: तुम यहाँ आये हो, तो कितना बवाल झेल करके तुम्हें यहाँ लाया गया है, वो भी तो देखो ना!

श्रोता: सर, कोई नहीं सुनता है कोई भी नहीं; उनको अच्छी बातें अच्छी ही नहीं लगतीं!

वक्ता: अभी मैं कुछ कह रहा हूँ, तो तुम सुन रही हो कि नहीं सुन रही हो? तो तुम भी कहोगी तो कोई न कोई सुनेगा कि नहीं सुनेगा? समझ में आ रही है बात? पर ये इंतज़ार मत करना कि हम परफेक्ट हो जाएं, तभी हम किसी से कुछ कहेंगे, ये इंतज़ार मत करना कि अभी तो हम ही आधे-अधूरे हैं, तो हम किसी से क्या कहें। तुम जैस भी हो, जितने भी हो! तुम्हारे पास दो रुपया है, तो तुम दो रुपया बांटों; तुम्हें इतना सा मिला है तुम इतना सा बांटों; जब इतना सा बाँट दोगे, तो इतना मिल जाएगा। वही तरीका है, और पाने का; तुम्हें जितना समझ आया है न, उतना तो समझाओ किसी को। तुम्हारा थोड़ा सा डर दूर हुआ है, तो तुम औरों का थोड़ा सा डर दूर करो; तुम औरों का थोड़ा सा डर दूर करोगे, तो तुम पाओगे तुम्हारा ‘इतना’ डर दूर हो गया और कोई तरीका ही नहीं है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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