वृत्ति न अच्छी न बुरी, महत्वपूर्ण यह है कि वो समर्पित किसको है || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

Acharya Prashant

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वृत्ति न अच्छी न बुरी, महत्वपूर्ण यह है कि वो समर्पित किसको है || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

आचार्य प्रशांत: ऋषि कहते हैं – “चंड और मुंड नामक दैत्यों के मारे जाने तथा बहुत सी सेना का संहार हो जाने पर दैत्यों के राजा प्रातापी शुम्भ के मन में बड़ा क्रोध हुआ और उसने दैत्यों की सम्पूर्ण सेना को युद्ध के लिए कूच करने की आज्ञा दी। वह बोला, ‘आज उदयुद्ध नाम के छियासी दैत्य सेनापति अपनी सेनाओं के साथ युद्ध के लिए प्रस्थान करें। कुम्भ नाम वाले दैत्यों के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे हुए यात्रा करें’।”

“पचास कोटिवीर्य कुल के और सौ धौम्र कुल के असुर सेनापति मेरी आज्ञा से सेना सहित कूच करें। कालक, दौर्हृद, मौर्य और कलकेय असुर भी युद्ध के लिए तैयार हो मेरी आज्ञा से तुरंत प्रस्थान करें। भयानक शासन करने वाला असुरराज शुम्भ इस प्रकार आज्ञा के सहस्त्रों बड़ी-बड़ी सेनाओं के साथ युद्ध के लिए प्रस्थित हुआ।”

“उसकी अत्यंत भयंकर सेना आती देख चंडिका ने अपने धनुष की टंकार से पृथ्वी और आकाश के बीच का भाग गुंजा दिया। राजन! तदनंतर देवी के सिंह ने भी बड़े ज़ोर-ज़ोर से दहाड़ना आरंभ किया, फिर अंबिका ने घण्टे के शब्द से उस ध्वनि को और भी बढ़ा दिया। धनुष की टंकार, सिंह की दहाड़ और घण्टे की ध्वनि से सम्पूर्ण दिशाएँ गूँज उठी। उस भयंकर शब्द से काली ने अपने विकराल मुख को और भी बढ़ा लिया तथा इस प्रकार वे विजयिनी हुईं।”

“उस तुमूल नाद को सुनकर दैत्यों की सेनाओं ने चारों ओर से आकर चंडिका देवी, सिंह तथा काली देवी को क्रोधपूर्वक घेर लिया। राजन! इसी बीच में असुरों के विनाश तथा देवताओं के अभ्युदय के लिए ब्रह्मा, शिव, कार्तिकेय, विष्णु तथा इन्द्र आदि देवों की शक्तियाँ, जो अत्यंत पराक्रम और बल से सम्पन्न थी, उनके शरीरों से निकलकर उन्हीं के रूप में चंडिका देवी के पास गईं। जिस देवता का जैसा रूप, जैसी वेश-भूषा और जैसा वाहन है, ठीक वैसे ही साधनों से सम्पन्न हो उसकी शक्ति असुरों से युद्ध करने के लिए आई।”

“सबसे पहले हंसयुक्त विमान पर बैठी हुई अक्षसूत्र और कमंडलु से सुशोभित ब्रह्माजी की शक्ति उपस्थित हुईं, जिसे ब्रहमाणी कहते हैं। महादेव जी की शक्ति वृषभ पर आरूढ़ हो हाथों में श्रेष्ठ त्रिशूल धारण किए महानाग का कंकण पहने, मस्तक में चंद्ररेखा से विभूषित हो वहाँ आ पहुँचीं। कार्तिकेय जी की शक्तिरूपा, जगदंबिका उन्हीं का रूप धारण किए श्रेष्ठ मयूर पर आरूढ़ हो हाथ में शक्ति लिए दैत्यों से युद्ध करने के लिए आईं। इसी प्रकार भगवान विष्णु की शक्ति गरुड़ पर विराजमान हो शंख, चक्र, गदा, शंडधनुष तथा खड्ग हाथ में लिए वहाँ आईं।”

“अनुपम यज्ञ वाराह का रूप धारण करने वाले श्री हरि की जो शक्ति हैं, वह भी वाराह शरीर धारण करके वहाँ उपस्थित हुईं। नरसिंह की शक्ति भी नरसिंह के समान शरीर धारण करके वहाँ आईं। उसकी गर्दन के बालों के झटके से आकाश के तारे बिखरे पड़ते थे। इसी प्रकार इन्द्र की शक्ति वज्र हाथ में लिए गजराज ऐरावत पर बैठकर आईं। उसके भी सहस्त्र नेत्र थे। इन्द्र का जैसा रूप है, वैसा ही उसका भी था।”

“तदनंतर उन देव शक्तियों से घिरे हुए महादेव जी ने चंडिका से कहा, ‘मेरी प्रसन्नता के लिए तुम शीघ्र ही इन असुरों का संहार करो’।”

“तब देवी के शरीर से अत्यंत भयानक और परम उग्र चंडिका शक्ति प्रकट हुईं जो सैंकड़ों गीदड़ियों की भाँति आवाज़ करने वाली थीं। उस अपराजिता देवी ने धूमिल जटा वाले महादेव जी से कहा, ‘भगवन! आप शुंभ-निशुंभ के पास दूत बनकर जाइए और उन अत्यंत गर्वीले दानव शुंभ एवं निशुंभ दोनों से कहिए। साथ ही उनके अतिरिक्त भी जो दानव युद्ध के लिए वहाँ उपस्थित हों, उनको भी यह संदेश दीजिए — दैत्यों! यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो पाताल को लौट जाओ। इन्द्र को त्रिलोकी का राज्य मिल जाए और देवता यज्ञ भाग का उपभोग करें। यदि बल के घमंड में आकार तुम युद्ध की अभिलाषा रखते हो तो आओ, मेरी शिवाएँ तुम्हारे कच्चे माँस से तृप्त हों’।”

“चूँकि उस देवी ने भगवान शिव को दूत के कार्य में नियुक्त किया था, इसलिए वह शिवदूती के नाम से संसार में विख्यात हुईं। वे महादैत्य भी भगवान शिव के मुँह से देवी के वचन सुनकर क्रोध में भर गए और जहाँ कात्यायनी विराजमान थीं, उस ओर बढ़े। तदनंतर वे दैत्य अमर्ष में भरकर पहले ही देवी के ऊपर बाण, शक्ति और ऋष्टि आदि अस्त्रों की वर्षा करने लगे।”

“तब देवी ने भी खेल-खेल में ही धनुष की टंकार की और उससे छोड़े हुए बड़े-बड़े बाणों द्वारा दैत्यों के चलाए हुए बाण, शूल, शक्ति और फरसों को काट डाला। फिर काली उनके आगे होकर शत्रुओं को शॉल के प्रहार से विदीर्ण करने लगीं और खटग्वंग से उनका कचूमर निकालती हुई रणभूमि में विचरने लगीं।”

“ब्राह्मणी भी जिस-जिस ओर दौड़ती, उसी-उसी ओर अपने कमंडलु का जल छिड़ककर शत्रुओं के ओज़ और पराक्रम को नष्ट कर देती थीं। माहेश्वरी ने त्रिशूल से तथा वैष्णवी ने चक्र से और अत्यंत क्रोध में भरी हुई कुमार कार्तिकेय की शक्ति ने शक्ति से दैत्यों का संहार आरंभ किया। इन्द्र शक्ति के वज्र प्रहार से विदीर्ण हो सैंकड़ों दैत्य-दानव रक्त की धारा बहाते हुए पृथ्वी पर सो गए।”

“वराही शक्ति ने कितनों को ही अपने थूथुन की मार से नष्ट किया, दाढ़ों के अग्रभाग से कितनों की छाती छेद डाली तथा कितने ही दैत्य उसके चक्र की ओट से विदीर्ण होकर गिर पड़े। नरसिंही भी दूसरे-दूसरे महादैत्यों को अपने नखों से विदीर्ण करके खातीं और सिंहनाद से दिशाओं एवं आकाश को गुंजाती हुईं युद्ध क्षेत्र में विचरने लगीं। कितने ही असुर शिवदूती के प्रचण्ड अट्टहास से अत्यंत भयभीत हो पृथ्वी पर गिर पड़े और गिरने पर उन्हें शिवदूती ने उस समय अपना ग्रास बना लिया।"

आचार्य: यह इस अध्याय का पहला भाग समझिए। दूसरे भाग में रक्तबीज का प्रवेश होगा। उसकी चर्चा हम थोड़ा बाद में करते हैं। यह बताइए कि अभी इस भाग में जो वर्णन है, उससे आपके मन में क्या बात अंकित हुई, महत्वपूर्ण क्या लगा?

प्रश्नकर्ता: इसमें यह बात समझ में नहीं आयी, जैसे जितने भी देव हैं, उन्हीं के रूप में शक्ति प्रकट हुईं। यह स्पष्ट नहीं हुआ।

आचार्य: इसमे कुछ बातें एक दूसरे से संबन्धित हैं, वह तुम्हें देखनी होंगी। पहला तो यह कि ये सारी शक्तियाँ शरीरों से प्रकट होती हैं। दूसरा — जैसा आपने कहा कि देवों की जो वेषभूषा है और उनका जो वाहन है, उनका जो रूप है, उसी वेश में, उसी वाहन, उसी रूप में उनकी शक्तियाँ प्रकट होती हैं। इससे आपको क्या संकेत मिल रहा है?

प्र१: इसका मतलब यह कि, जितना भी मुझे समझ आया है, शक्ति अंदर होती है और एक्स्प्रेशन (अभिव्यक्ति) उसका बाहर होता है हमारे माध्यम से।

आचार्य: बिल्कुल। सब शक्तियाँ जो बुराई को, अज्ञान को, अहंकार को, लड़ने के काम आ सकती हैं, वो आप ही के भीतर सोई पड़ी रहती हैं। शरीर से देवियों का प्रकट होना माने इसी घट से, इसी काया से, इसी व्यक्तित्व से जो भी आपके गुण हैं प्रकृति प्रदत्त, वही गुण जब अच्छाई, सच्चाई के पक्ष में हो जाते हैं तो दैवीय हो जाते हैं।

आपके घट में जो कुछ भी है, वह अपने-आपमें अच्छा या बुरा नहीं है। घट में, आपके शरीर में, आपकी जैविकता में, आपके भौतिक अस्तित्व में ही जो कुछ है, अपने-आपमें न वह अच्छा है, न वह बुरा है, सब कुछ निर्भर इस पर करता है कि वह किसकी सेवा में लगा हुआ है, किसके पक्ष में खड़ा हुआ है।

तो आप देख रहे हैं कि कैसे सब देवताओं ने अपने-अपने व्यक्तित्व को पहन ही रखा है, त्याग नहीं दिया है अभी। ब्रह्मा की शक्ति, ब्रह्मा का व्यक्तित्व धारण ही किए हुए हैं, महादेव की शक्ति, वह महादेव का व्यक्तित्व धारण ही किए हुए हैं। इंद्राणी, शचि, इन्द्र जैसी ही हैं। शिवानी आई हैं तो वह चंद्रभूषण धारण करके ही आई हैं, ठीक वैसे जैसे शिव धारण करते हैं, वृषभ पर बैठकर ही आई हैं। इसी प्रकार से कार्तिकेय की शक्तियाँ, अन्य देवताओं की शक्तियाँ हैं।

आपको जो व्यक्तित्व मिला है, उसके त्याग की बात करना अव्यावहरिक है, आपको जो भी गुण-दोष मिले हैं, वास्तव में गुणों को ही दोष कहते हैं, आपको जो भी गुण-दोष मिले हैं, उन्हें त्यागना नहीं है, उन्हें बुराई के विरुद्ध मोर्चाबद्ध कर देना है।

गुण अवगुण हैं अगर बुराई के विरुद्ध उसका उपयोग नहीं हो रहा और तथाकथित अवगुण महागुण हैं यदि उसका उपयोग भीतरी राक्षस के विरुद्ध हो रहा है।

तो किसी में आलस हो सकता है, किसी में कोई और प्रकृति-प्रदत्त गुण हो सकता है। कोई सतोगुणी प्रधान होता है, कोई काली की भाँति तमोगुण प्रधान होता है। यहाँ जितनी प्रकार की भी देवियाँ उपस्थित हुई हैं, वे हर प्रकार के गुणों का प्रतिनिधित्व करती हैं, माने पूरे संसार का। संसार में जितने तरह के गुण और गुणों के समुच्चय हो सकते हैं, गुणों के सम्मिलन और समिश्रण हो सकते हैं, वे सब यहाँ पर प्रकट हो गए हैं। तुम्हें जिस प्रकार के गुण को सक्रिय देखना हो, वह सब अभी युद्धभूमि पर देवियों के रूप में दिखाई दे रहा है।

तुम्हें सतोगुणी देवी देखनी हैं तो वे उपस्थित हैं सरस्वती के रूप में, गौरी के रूप में, महालक्ष्मी भी उपस्थित हैं। इसीलिए तो देवी के इतने नाम होते हैं न, क्योंकि जग में अनंत विविधताएँ होती हैं। समझ लो कि जितने तरीके की विविधताएँ हैं जगत में, हर विविधता को प्रतिनिधित्व देती हुई, अभिव्यक्ति देती हुई एक देवी मौजूद हैं।

और सब देवियाँ ही हैं पूजनीय। उनमें साझा क्या है? उनमें साझा यह नहीं है कि उनके पास एक साझा व्यक्तित्व है। कोई दो देवियाँ, व्यक्तित्व के आयाम पर एकदम भी एक-दूसरे जैसी नहीं हैं, मेल नहीं खाती। कोई शांत हैं, सौम्य हैं, कोई गौर-वर्णा हैं, कोई काली हैं, कालिका हैं। सबका चरित्र, सबका व्यवहार, सबका वाहन, सबका प्रभाव अलग-अलग है लेकिन फिर भी सब पूज्या हैं, सब एक ही शक्ति के रूप में जानी जाती हैं। उनमें क्या साझा है? इतनी अलग-अलग हैं, उनमे क्या साझा है? उनमें साझा यह है कि सब सच्चाई के साथ हैं और अज्ञान, अहंकार और बुराई के विरुद्ध हैं।

तो अपने भीतर की किसी भी वृत्ति या अपने बाहर के किसी भी व्यक्ति को यदि परखना हो तो कसौटी सिर्फ़ एक है – वह वृत्ति क्या सच्चाई को समर्पित होने को तैयार है? वह व्यक्ति अच्छाई के साथ खड़ा है या विरुद्ध? क्रोध हो सकता है तुममें, सब देवियों में क्रोध है कितना। तुम्हारा क्रोध है किसके लिए और किसके विरुद्ध, यह बता दो बस।

यह बात उन लोगों को विचित्र लगेगी जिन्होंने मान लिया है कि क्रोध अपने-आपमे बुरा होता है। उन्होंने गुणों को गुणों के उपयोग से स्वतंत्र एक मुल्य दे दिया है। गुण किसको समर्पित हैं, उनकी दृष्टि में यह बात मायने नहीं रखती। वे कह रहे हैं कि क्रोध बुरा होता ही होता है। क्रोध यदि बुरा होता ही होता है तो फिर तो सब देवियाँ यहाँ बहुत बुरा काम कर रही है, सब क्रोधित हैं। नहीं, क्रोध अच्छा भी हो सकता है, क्रोध बुरा भी हो सकता है। देखो, दैत्य यहाँ बार-बार कहाँ जाता है कि क्रोधित हो गए, यह बुरा क्रोध है। और कहा जाता है देवियाँ क्रोधित हो गईं बार-बार, यह अच्छा क्रोध है।

तुम्हारा क्रोध समर्पित किसको है, तुम्हारा क्रोध चाहता क्या है? क्रोध माने विरोध, तुम विरोध किसका कर रहे हो, सच्चाई का या झूठ का? क्रोध तुम्हारे भीतर से उठती हुई विरोध की ऊर्जा है। जब कुछ होता है जो तुम्हें अप्रिय होता है, जिसका तुम विरोध करना चाहते हो, रोकना चाहते हो, तो जो फिर शारीरिक, मानसिक अवस्था बनती है, उसे क्रोध कहते हैं; चेहरा लाल हो जाता है, हाथ काँपने लगते हैं। तुम्हारी दृष्टि में कुछ गलत हुआ है, तुम उसे रोकना चाहते हो, यह अवस्था क्रोध की है। भीतर ऊर्जा संचारित होने लगती है, वह ऊर्जा इसीलिए आती है कि तुम उसको रोक दो जो तुम्हें गलत लग रहा है।

क्या गलत लग रहा है तुमको? कहीं सच ही तो गलत नहीं लग रहा, जैसे दैत्यों को लगता है? यह क्रोध गड़बड़ है। और क्या बुरा लग रहा है तुमको? कहीं दैत्यों का शासन तो नहीं बुरा लग रहा? अगर लग रहा है तो यह क्रोध वरणीय है। देवियों का क्रोध ऐसा ही है।

प्रमाद भी हो सकता है तुममें, आलस भी हो सकता है। किस बात के लिए आलस कर रहे हो? क्या टाल रहे हो? शुभ को टाल रहे हो या अशुभ को टाल रहे हो? तुम्हारा आलस अगर ऐसा है जो अशुभ को टाल देता है, इससे अच्छा आलस क्या होगा? तुम्हारा आलस अगर अच्छाई को टाल रहा है, शुभ को टाल रहा है तो यह आलस गड़बड़ है।

जिसको जो कुछ भी मिला है, वह उपहार ही है। कोई गुण अपने-आपमें श्रेष्ठ या निकृष्ट नहीं है। तुम बस गुण का सही उपयोग करते चलो।

दुनिया के लोगों में जितनी विविधताएँ हैं, उन सब विविधताओं का प्रतिनिधित्व हो रहा है इस समय रणक्षेत्र में इन विविध रूपों वाली देवियों के द्वारा। जिस भी तरह का कोई भी व्यक्ति हो सकता है, वैसी ही एक देवी यहाँ मौजूद हैं। और मैं कह रहा हूँ कि सब देवियाँ पूजनीय हैं। अगर सब देवी पूजनीय हैं तो हर व्यक्ति भी संभावित रूप से, पोटेंशियली पूजनीय हो गया न? बस एक उसमें शर्त होती है, एक बंधन लगता है। क्या? तुम किसके पक्ष में खड़े हो, किसके विपक्ष में।

कभी भाग्य को मत कोसना कि तुमको वह नहीं मिला जन्मगत रूप से, देहगत रूप से जो किसी ओर को मिला, तुम्हारे पड़ोसी को मिला, तुम्हारे भाई को मिला, किसी दूसरे देश के किसी भाग्यशाली व्यक्ति को मिला। कभी इस बात को ले करके जी छोटा मत करना। तुम्हें जो कुछ मिला है, वह काफ़ी है। बस क्या करना है? उसको सच्चाई के पक्ष में और असुराई के विरोध में खड़ा कर देना है।

मिली होंगी किसी को हज़ार प्राकृतिक नियामतें, मारा जाएगा। एक से बढ़कर एक दैत्य आए हैं, देखो इन्हें कैसे-कैसे वरदान हैं, कैसी-कैसी इनके पास शक्तियाँ हैं, ये सब मारे जाते हैं, मारे जाते हैं न? क्यों मारे जाते हैं? जबकि देखो कोई कैसा बल रखे हुए है, किसी के पास कैसे शस्त्र हैं, कोई महापराक्रमी है, किसी ने देवताओं को ही जीत रखा है।

महिषासुर के पास देखा कैसी-कैसी शक्तियाँ थीं? कभी रूप बदल लेता था, कभी आसमान में खड़ा हो जाता था, एक शरीर से निकलकर दूसरे में समा जाता था। मारा गया, नहीं मारा गया? अब तुम अगर महिषासुर को देखो और कहो, “अरे! महिषासुर तो बड़ा सौभाग्यशाली है, इसके पास कितने प्रकार के बल हैं, कैसी-कैसी जादुई ताक़तें हैं इसके पास,” और तुम अपने आपको छोटा, बलहीन अनुभव करने लगे, गलत हो गया न, हो गया कि नहीं?

महापराक्रमी दैत्य से भी महाबली है एक छोटा सा चूहा, अगर वह चूहा गणपति का वाहन बन जाए तो। तुमको अगर चूहा पैदा किया है प्रकृति ने तो कोई बात नहीं, तुम देवता के वाहन बन जाओ, तुम बड़े-से-बड़े दैत्य को जीत लोगे। बस यह चुनाव करना सीखो कि किसके पक्ष में अपना जीवन समर्पित करना है।

इतने शेर होते हैं जंगल में शिकारियों की गोली का शिकार। ऐसे शिकार होते हैं कि शेरों की प्रजातियाँ ही विलुप्त होने जा रही हैं, बचाना पड़ता है बेचारों को। कृत्रिम रूप से उनकी संख्या बढ़ानी पड़ती है, अभ्यारण स्थापित करने पड़ते हैं। चिड़ियाघरों में लोग जा रहे हैं शेरों को देखने, ऐसी दुर्दशा है शेरों की। और एक शेर यहाँ भी है, क्या जलवे, क्या रुआब, गौरव देखो उसका, महिमा देखो। उसमें और बाकी शेरों में अलग क्या है, क्या अलग है? देवी के साथ है, तुम्हें भी बस यही करना है।

तुम्हारी कमज़ोरी कभी भी यह नहीं है कि तुम प्रकृतिक रूप से छोटे हो, या बलहीन हो या गुणहीन हो। तुम्हारी कमजोरी जब भी होगी, वह एक गलती होगी, गलती क्या? कि तुमने चुनाव गलत किया। गलती यह नहीं कि तुम्हें प्रकृति से कुछ कम मिला, उसमें क्या गलती है। हमें नहीं पता था कि हमें क्या मिलने वाला है, उसमें तुम्हारा कोई हाथ नहीं, कोई योगदान नहीं, ठीक? वह गलती नहीं मानी जाती है कि तुम कैसे पैदा हुए, तुम्हें कैसे संयोग मिले, पालन-पोषण इत्यादि-इत्यादि। तुम क्या कर सकते थे?

गलती हमेशा एक चुनाव में होती है, तुम किसके साथ खड़े हो, तुम अपनी ऊर्जा, अपना समय, अपना बल, अपनी बुद्धि किसकी ख़ातिर व्यय की?

यही होती है गलती, और यही अंतर है जंगल के शेर में और देवी के सिंह में। इतने पक्षी होते हैं जो देवी का वाहन बन जाते हैं, जैसे उल्लू। ‘उल्लू’ शब्द को हम प्रयुक्त करते हैं किसी को नीचा बोलने के लिए, कह देते हैं न कि उल्लू है यह आदमी। और वही उल्लू जब बन जाता है, किसका वाहन? देवी का। तो उसके लिए तुम दरवाजे खोले रखते हो रात भर। सांकेतिक बात है, ऐसा नहीं है के रात में कोई उल्लू घर में आ जाएगा दिवाली को, पर संकेत समझो। ठीक वैसे ही जैसे उल्लू को गाली की तरह प्रयोग करना भी तो एक संकेत ही तो है न?

एक तरह का अलंकार है यह भाषा में कि किसी को आपने शेर कह दिया, कि उल्लू कह दिया, कि गीदड़ कह दिया। ठीक उसी तरीके से यह एक भाव का अलंकार है कि आप देवी के लिए दिवाली पर दरवाजे खोलकर रखते हो। अब कम लोग खोलते हैं, पहले ज़्यादा होता था।

पर बात को समझो। तुम उल्लू हो तो तुम्हारा महास्वागत होगा घरो में अगर देवी के साथ खड़े हो गए। और अगर तुम गजराज भी हो तो मारे जाओगे, जैसे महिषासुर बीच में गजराज बन गया था, हाथी, बड़ा हाथी बन गया था, पर मारा गया न? क्या गलती थी उस हाथी की, क्या गलती थी? सच्चाई के ख़िलाफ़ हो गया था।

एक चींटी जो सच्चाई के साथ है एक हाथी पर भारी पड़ेगी जो सच्चाई के ख़िलाफ़ है। चींटी नहीं हराएगी, सच्चाई हराएगी हाथी को।

कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, “अरे, तुम डर क्या रहे हो इनको मारने में? ये सब तो मेरे हाथों पहले ही मारे जा चुके हैं।” मतलब समझो – ये मेरे ख़िलाफ़ खड़े हो गए, उसी क्षण ये मर चुके हैं, बस इन्हें पता नहीं है कि ये मर चुके हैं। होंगे ये बड़े महारथी, इनकी मृत्यु उसी क्षण हो गई थी जिस क्षण इस रणभूमि पर ये मेरे विरुद्ध लामबंद हुए थे। ये मर गए थे, उसी क्षण मर गए थे। अरे, अर्जुन! मरे हुओ को मारने में तुम क्या संकोच कर रहे हो? ये मर चुके।

जो कृष्ण के ख़िलाफ़ खड़ा हुआ, फ़र्क़ नहीं पड़ता वह कितना बड़ा महारथी है, वह मर गया। मरेगा नहीं, मर चुका। अब वह अपनी लाश ले करके घूम रहा है। जो भी कोई कृष्ण के विरुद्ध है, सत्य के विरुद्ध है, मृत है। चल-फिर रहा है तो तुम्हें भ्रम हो जाता है कि जीवित है; वह मर चुका।

तुम्हारा अपना बल तुम्हें जीवित नहीं रखता; इंसान जीता है सच्चाई के ज़ोर से। जो सच्चाई के ख़िलाफ़ खड़ा हो गया, वह मर चुका। वरना हमारे पास ऐसा क्या है जो हमें ज़िंदा रखेगा?

मिट्टी का यह शरीर, इसमें क्या जीवन है? जीवन तो चेतना से होता है और चेतना तो सच की अनुगामिनी होती है, सच की छाया, सच के पीछे-पीछे चलती है। जो सच के ख़िलाफ़ हो गया, वह चेतना के ख़िलाफ़ हो गया। जो चेतना के ख़िलाफ़ हो गया तो बताओ वह ज़िंदा कहाँ है? तुम ज़िंदा चेतना से माने जाते हो या शरीर से? जब तुम चेतना से ज़िंदा माने जाते हो और तुमने चेतना ही मार दी अपनी, तो तुम्हें ज़िंदा बोले काहे को?

तभी तो जब देवी असुरों को मारती हैं तो उसमें कोई हिंसा नहीं, क्योंकि असुर पहले ही मर चुके थे, मरे हुए को मारने में कौन सी हिंसा बाबा? ज़िंदा तो वह है न जिसकी चेतना ज़िंदा हो। तुम अपनी चेतना को खा-पीकर डकार मार चुके हो, अब तो तुम्हारी लाश चलती है। और लाश का हाथ काट दिया, सिर काट दिया, यह अपराध माना जाता है क्या? लाश की खाल उतार ली, यह अपराध माना जाता है क्या? ज़्यादातर लोग ऐसे ही होते हैं – लाश जैसे, मृतवत।

जा घट प्रेम न संचरै, सो घट जान मसान। जैसे खाल लुहार की, साँस लेत बिन प्रान। —कबीर साहेब

ज़्यादातर लोग ऐसे ही होते हैं – सो घट जान मसान, साँस लेत बिन प्रान। साँस ले रहे हैं पर प्राण नहीं हैं। शरीर है पर जीवन श्मशान जैसा है। ये तो मरे हुए हैं, ये तो मिट्टी हैं, मिट्टी को मारने पर कौन सी हिंसा!

इसीलिए चाहे श्रीमद्भगवद्गीता हों, चाहे दुर्गा सप्तशती हों, वहाँ पर तुम जो रक्तपात देखते हो, वह हिंसा नहीं है। और बहुत बड़ी हिंसा हो जाती है जब तुम किसी चैतन्य जीव की चेतना पर आघात करो; शरीर पर नहीं, चेतना पर आघात करो। हाँ, शरीर पर आघात करने से अगर चेतना पर आघात होता है तो वह शरीर पर आघात भी हिंसा है।

एक व्यक्ति बैठा हुआ है, विद्यार्थी है। वह कुछ समझ रहा है, कुछ पढ़ रहा है जिससे उसका मन उठेगा, उसके जीवन में समझ बढ़ेगी। वह अपना बैठा हुआ है, अपना मग्न है और तुम जाकर उसके शरीर पर चोट कर दो, यह हिंसा निश्चित रूप से हुई। खून बहे न बहे, भले उसको घाव लगे न लगे, यह हिंसा हुई। क्यों हो गई हिंसा? क्योंकि तुमने उसके शरीर पर जो चोट की, इससे उसकी चेतना का जो आरोहण हो रहा था, उसमें बाधा पड़ी, यह हिंसा है, बहुत बड़ी हिंसा कर दी तुमने।

चेतना पर चोट पहुँचाना हिंसा है। शरीर तो मिट्टी है। शरीर पर चोट पहुँचाना हिंसा है पर सिर्फ़ तब, जब वह शरीर चेतना का वाहन हो, जब वह शरीर चेतना के उत्कर्ष के लिए प्रयुक्त हो रहा हो। जब उस शरीर में एक उर्ध्वगामी चेतना का वास हो, तब शरीर पर चोट पहुँचाना हिंसा हुआ, अन्यथा शरीर में कुछ नहीं रखा है।

जो लोग हिंसा और अहिंसा की व्याख्या ही शारीरिक तल पर करते हैं, ये वो लोग हैं जो शरीर केन्द्रित जीवन जी रहे हैं, जिन्हें शरीर से आगे का कुछ पता ही नहीं, जैसे पशु हैं। तो इनके लिए हिंसा, अहिंसा का पैमाना यही होता है कि किसी के शरीर पर यदि मार दिया तो हिंसा हो गई। और अहिंसक आदमी कौन है इनकी दृष्टि में? जो किसी के शरीर पर चोट न करे।

ये शरीर की इतनी बात कर रहे हैं कि हमें स्पष्ट को जाता है कि ये शरीर से आगे का कुछ जानते ही नहीं, चेतना इनकी दृष्टि में शून्य है। तो शरीर का उपयोग बस एक है – चेतना को आगे बढ़ाना है, सत्य की ओर ले जाना है, सच्चाई में उसको मिला देना है, चाहे कह दो कि विसर्जित कर देना है।

तो मैं सहारा देना चाहता हूँ, प्रेरणा और प्रोत्साहन देना चाहता हूँ, उनको, जिनके मन में किसी प्रकार का क्षोभ होता है या हीनता होती है कि हमें तो समय से न्याय नहीं मिला। वे कहते हैं कि काश! हम किसी दूसरे घर में पैदा हुए होते तो हम भी कुछ होते। “काश! मैं लड़की न पैदा हुई होती तो मैं बेहतर स्थिति में होती। काश! मैं धनी घर में पैदा हुआ होता तो आज मैं विदेश में होता। काश! मेरी शिक्षा-दीक्षा बेहतर हुई होती तो आज मैं बेहतर धन कमा रहा होता, बेहतर जीवन जी रहा होता।” सुना है यह सब या नहीं सुना है?

“मुझे बुद्धि ज़्यादा मिली होती तो मैं परीक्षा में ज़्यादा नंबर ले आता।” सुना है यह सब या नहीं सुना है? “मुझे तन सुंदर मिला होता तो दुनिया मुझे ज़्यादा भाव देती।” सुना है न यह सब? बेकार की बातें है बिल्कुल। क्या बेकार की बातें हैं? नहीं फ़र्क़ पड़ता कि तुम्हें क्या मिला है, फ़र्क़ इस बात से पड़ता है कि तुम्हें जो भी मिला है, जो भी मिला है, उसका तुमने उपयोग क्या किया है। हो रहा है स्पष्ट?

नहीं मिली पाँच अंगुलियाँ, एक ही मिली, क्या किया उसका? नहीं मिली दो आँखें, एक ही मिली, क्या किया उसका? एक अंगुली पाँच अंगुलियों पर बहुत भारी पड़ेगी अगर सच के साथ खड़ी है तो। अब कुतर्क उठेगा, “अच्छा! लेकिन अगर वो पाँच अंगुलियाँ हैं, वो भी अगर सच के साथ खड़ी हों तो कौन ऊपर हुआ?” तो कोई ऊपर नहीं, कोई नीचे नहीं, सब मिल गए, सब मिट गए।

पाँच मुखों वाली नदी जा करके अंततः किससे मिलती है? और एक मुख वाली नदी भी जा करके किससे मिलती है? और मिलने के बाद पाँच वाली बड़ी होती है, छोटी होती है, कैसा रहता है?

सच की तरफ जो-जो खड़े हैं, वे सब एक बराबर हो जाते हैं। और सच के ख़िलाफ़ जो भी खड़ा है, वह कितना भी बड़ा हो, वह सच की तरफ खड़े छोटे-से-छोटे अणु से भी अणुतर हो जाता है, न्यूनतर हो जाता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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