प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आज आपने ये बताया कि प्रकृति कर्ता है, तुम अकर्ता हो। और एक चीज़ आती है कि हर क्षण तुम्हारे पास चुनाव है। ये दोनों बातें एक ही तल की हैं या अलग-अलग?
आचार्य प्रशांत: जो पहली बात है उसमें आत्मा है अकर्ता। अगर आत्मा हो पाओ आप तो आप अकर्ता हो, फिर किसी चुनाव की ज़रूरत ही नहीं। जो दूसरी बात है उसमें आप अहंकार हो, आत्मा नहीं; अहंकार को चुनाव करने पड़ते हैं।
प्र२: आचार्य जी प्रणाम। अभी आपने बोला कि यदि आपको अहंकार को हटाना है तो विषय को हटाओ। लेकिन विषय तो हमेशा हमारी ज़िंदगी में कोई-न-कोई रहते ही हैं, एक विषय हटा देंगे तो दूसरा विषय आ जाएगा, तो अहंकार तो फिर जाएगा ही नहीं कभी?
आचार्य: आप सब विषयों से थोड़े ही संबंधित हो! सब विषयों का तो आपको पता भी नहीं है, भले ही वो आपके बगल में बैठा हो। सब विषयों का कुछ पता है क्या? आपके बगल में जो सज्जन बैठे हैं, उनका नाम बताइए!
प्र२: सबका तो नहीं पता, लेकिन मेरे जीवन में कोई विषय तो होगा न?
आचार्य: देखिए, जो बात कही जा रही है वो ये है कि यदि आप कोशिश करोगे भीतरी जीवन बदलने की बाहरी जीवन बदले बिना, तो आप सफल नहीं हो पाओगे। आप गए थे, उदाहरण के लिए, आपको मीठा पसंद है मान लीजिए, और आप गए हैं गुड़-शक्कर की दुकान पर काम करने के लिए, इसीलिए कि आपको मीठा पसंद है। और आप कहो, ‘काम तो मैं उसी दुकान पर करता रहूँगा, लेकिन गुड़-शक्कर खाने की, चबाने की या चुराने की अपनी वृत्ति त्याग दूँगा’, तो असफल ही रहेंगे आप। क्योंकि अब वहाँ कर क्या रहे हो? जब गुड़-शक्कर से प्रयोजन नहीं रहा, तो गुड़-शक्कर की दुकान में बैठे क्यों हो अब?
प्र२: पर मैं फिर किसी और दुकान में गया, और मेरी वृत्ति है, मैंने कोई दूसरा विषय पकड़ लिया तो?
आचार्य: किसी दूसरी दुकान में सही कारण से जाइए न! यहाँ तो आप इसी कारण से आए थे कि गुड़ खाना है।
प्र२: वो विषय बदल दिया, दूसरी दुकान में फिर कोई विषय मिल गया तो?
आचार्य: आप बदल गए; आप बदल गए। आप कौन थे पहले? जो गुड़ की लालसा से गुड़ की दुकान में आया था। अब आप मान लीजिए किसी दूसरी वजह से दूसरी दुकान में जाते हैं, अब आपकी वजह ये है कि मैं वहाँ जाकर के व्यापार सीखूँगा। तो अब उस दुकान में मान लीजिए नमक बिकता है, आप गए हैं वहाँ व्यापार सीखने, तो आप नमक थोड़े ही चाटने लगेंगे! पहले आप आए ही थे इस दुकान में क्योंकि आपको गुड़ चाहिए था। अब नमक का व्यापार माध्यम-मात्र है, अब आपका उद्देश्य दूसरा है, नमक उद्देश्य नहीं रहा। उद्देश्य क्या है अब आपका? व्यापार सीखना। तो नमक अब आपके लिए एक माध्यम है, उसको चाटने नहीं लग जाएँगे आप।
प्र३: आचार्य जी प्रणाम। वैसे तो प्रश्न का काफ़ी उत्तर मिल चुका है, लेकिन थोड़ी और स्पष्टता के लिए उसको मैं पुनः पूछना चाहता हूँ, कि विषय-विकार मिटाओ – ऐसा हमारे शास्त्रों में भी है, और जैसा कि एक प्रसिद्ध गायक जगजीत सिंह जी ने भी कहा था कि दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है।
तो उसमें एक मन में शंका उठती है कि क्या विषय को मिटाने के लिए उसको पाना भी एक विधि हो सकती है? मैं अपने आधार पर कहूँ, जैसे मुझे कपड़ों का शौक था, मैंने बहुत सारे कपड़े खरीद लिए। और वो मैं पहनता भी नहीं हूँ, वो पड़े हुए हैं, उनको जाकर मैं दान कर दूँगा। तो क्या वो खरीदना वास्तव में, उस विषय को भोगना ही एक तरह से विधि बन गई मेरे लिए उससे मुक्त होने की?
आचार्य: नहीं, उससे विषय मिटता नहीं है, उससे बस ये होता है कि विषय रूप बदल लेता है। विषय को हटाने के लिए तो सही जगह पर प्रेम लगाना पड़ता है, एक सार्थक उद्देश्य देना पड़ता है। नहीं तो बस ये होगा कि अभी कपड़ों के पीछे हो, कल दूसरी चीज़ के पीछे हो जाओगे।
अगर भीतर एक सार्थक उद्देश्य का अभाव है, तो उस अभाव को विषयासक्ति भर देती है। आप नहीं जानते कि आपको किधर जाना है, क्या चीज़ पाने लायक है, तो भीतर एक सुराख़ बन जाता है। वो सुराख़ अज्ञान का है – ‘नहीं जानते‘ – तो उसमें तरह-तरह के विषय आकर फिर अपना कब्ज़ा करने लग जाते हैं। और वो कोई भी विषय वहाँ पूरी तरह बैठ नहीं पाते, क्योंकि वो सुराख़ उनके आकार का है ही नहीं। वो सुराख़ बहुत बड़ा है, कोई भी विषय उसको भर नहीं पाएगा, फ़िट नहीं होगा।
जब एक नहीं फ़िट होता तो फिर क्या होता है? हम सबक तब भी नहीं सीखते कि इस सुराख़ को उद्देश्य से भरना है, विषय से नहीं। हम क्या करते हैं? हम विषय बदल देते हैं। अभी आपको कपड़े चाहिए, कल आपको जूते चाहिए, परसों चश्मे चाहिए, फिर कुछ और; लेकिन जो वास्तव में चाहिए, उसकी ओर हम आमतौर पर ध्यान नहीं देते हैं।
प्र४: प्रणाम आचार्य जी। तो मेरा अगर उद्देश्य वेदान्त को जानना, उपनिषद् को जानना, आध्यात्मिकता को जानना – यही है, और अगर मैंने अपने विषय को इस उद्देश्य में बदल दिया है, तो आज भी मैं उसी जंगल में जाकर वही लकड़ी काट सकता हूँ?
आचार्य: आपका जो सम्बन्ध है आपके काम से, वो बदल चुका है न! आप व्यक्ति दूसरे हो जाओगे। जब व्यक्ति दूसरा हो जाएगा तो पुराना काम करे इसकी संभावना कम ही रह जाती है। बुद्ध जब व्यक्ति दूसरे होने लगे तो क्या पुराना ही काम करते थे?
कई बार तो ऐसा होता है कि नया व्यक्ति बनने के लिए पुराना काम पहले त्यागना पड़ता है। कई बार ऐसा होता है कि नए व्यक्ति बन जाते हो तब भी कुछ दिनों तक पुराना काम खिंचता रहता है, लेकिन फिर वो हट ही जाता है। लेकिन एक बात पक्की है कि नया व्यक्ति और पुराना काम बहुत दूर तक साथ चल नहीं सकते।
प्र४: अगर उद्देश्य ठीक है तो?
आचार्य: आदमी बदल गया है तो।