आचार्य प्रशांत: विज्ञान में ऐसी-ऐसी प्रेरक कहानियाँ हैं कि पूछो मत। वो कहानियाँ आपको पता चलें, आप वैज्ञानिकों के मुरीद हो जाएँगे। आप पूजना शुरु कर देंगे उनको।
एक सज्जन अपने बेटे को लेकर मिलने आए मुझसे। वो आई.आई.टी. की परीक्षा की तैयारी कर रहा है। उसको कुछ तनाव इत्यादि था, तो बात करने आया। मैंने देखा कि इसको अपनी ही समस्याएँ इतनी बड़ी लग रही हैं, और जिन नामों से ये रोज़ मुख़ातिब होता है, उनके बारे में ये कुछ जानता नहीं। इसको पता चले कि उन्होंने कितनी बड़ी-बड़ी समस्याएँ झेलीं थीं, तो ये अपने आप को भूल जाएगा।
केपलर, बोल्ट्समैन, मैक्सवेल, मैक्स प्लैंक, एवोगैड्रो – पाँच नाम लिए, और इन पाँचों ने जीवन में बड़ी दुश्वारियाँ झेली थीं। और ये पाँचों आई.आई.टी.जे.ई.ई. के पाठ्यक्रम में शामिल हैं। लेकिन इनकी कहानियाँ हमें कभी बताई नहीं जातीं। अधिक-से-अधिक हमें पता रहता है कोपरनिकस के बारे में, उन्होंने हीलिओ-सेन्ट्रिक ऑर्बिट दे दिया, उसको बहुत मुश्किलें दी गईं। लेकिन हमें नहीं बताया जाता कि केपलर ने जब इलिप्टिकल ऑर्बिट की बात की, तो उनको भी बहुत तकलीफ़ें झेलनी पड़ीं थीं।
सच बोलने पर कोई सिर्फ़ धार्मिक लोगों का एकाधिकार थोड़े ही है। वैज्ञानिकों को भी सच बोलने की, दुनिया का सच बोलने की बहुत बड़ी कीमत देनी पड़ती है। ये हमारे बच्चों को पता ही नहीं। उनकी रुचि कभी इन चीज़ों में जागृत ही नहीं की जाती। इसीलिए ये देश इतने दिनों तक इतना पिछड़ा रहा, अभी भी पिछड़ा है।
हमारी लड़कियों को बताया ही नहीं जाता ‘रोज़ालिंड फ्रैंकलिन’ के बारे में। डी.एन.ए. की आज हमने खूब बात की चर्चा में, कि प्रकृति खूब चाहती है डी.एन.ए. का प्रचार-प्रसार। ब्रिटिश महिला थीं, अगर ठीक से याद है मुझे, और डी.एन.ए. का जो डबल-हेलिक्स स्ट्रक्चर (ढांचा) होता है, ऐसे जैसे हेलिक्स की तरह गोल घूमती हुईं सीढ़ियाँ ऊपर जा रही हों, सबसे पहले रोज़ालिंड फ्रैंकलिन ने ही खोजा था।
कैसे खोजा था? एक्स-रे क्रिस्टलोग्राफी से। क्रिस्टलोग्राफर थीं। भोली थी, उसी के असिस्टेंट (सहायक) ने जाकर, प्रकाशित होने से पहले, उसी की खोज सार्वजनिक कर दी, और लोगों तक पहुँचा दी। जिन तक पहुँचा दी, उनको नोबेल पुरस्कार मिल गया। जिन तक पहुँचा दी, उनको नोबेल पुरस्कार मिल गया। हम चन्द्रयान की दुर्घटना की बात कर रहे हैं, मैं बता रहा हूँ कि विज्ञान के क्षेत्र में कैसी-कैसी त्रासदियाँ होती हैं जिन तक पहुँचा दी, उनको नोबेल पुरस्कार मिल गया। और ये बात हमारे युवाओं को, हमारे बच्चों को पता चलनी चाहिए, ताकि विज्ञान के प्रति उनके मन में आदर बढ़े। फिर हम बहुत चन्द्रयान प्रक्षेपित कर लेंगे।
चन्द्रमा क्या, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, जहाँ-जहाँ पहुँचना है, पहुँचेंगे। आकाश-गंगा पार कर जाएगा ये देश। पर पहले यहाँ के बच्चों में विज्ञान के प्रति आदर तो पैदा करिए।
और दूसरों को मिल गया नोबेल पुरस्कार। सैंतीस की उम्र में, सैंतीस की उम्र में, बूढ़े नहीं हो, जवान ही हो, इस स्त्री की मृत्यु हो गई। मृत्यु क्यों हुई जानते हो? एक्स-रे से ज़्यादा एक्सपोज़र से। डी.एन.ए. की खोज कर सके, एक्स-रे के माध्यम से, उसके लिए उसने इतना एक्सपोज़र सहा, कि उसकी मृत्यु हो गई। जिसने काम किया, उसकी मृत्यु हो गई, और उस काम का नोबेल पुरस्कार कोई और ले गया। सैंतीस की उम्र में मर गई कैंसर से। कैसी लगी ये घटना?
तक्षिला, नालंदा का तो फिर भी सबने नाम सुना है, अलेक्ज़ान्ड्रिया की लाइब्रेरी थी, सुना है नाम? ईसा से पहले उसको जलाया जुलियस सीज़र ने, ईसा के बाद उसको जलाया ईसाइयों ने, और अंततः उसको जलाया बग़दाद के ख़लीफ़ा ने। और ये सारा काम अभी सात सौ-आठ सौ साल के अंतराल में हुआ। बात ये नहीं है कि वो जलती रही, बात ये है कि ज्ञान का वो भण्डार नष्ट किया जाता रहा, और पुनः आता रहा।
बताओ न सबको, सिर्फ़ इधर-उधर की कहानियाँ क्यों बताते हो? इस देश में दो तरह की कहानियाँ चलतीं हैं बस – या तो फ़िल्मी कहानियाँ, या धार्मिक कहानियाँ। या तो फ़िल्मी कहानियाँ, या धार्मिक कहानियाँ। अरे, वैज्ञानिकों की कहानियाँ भी तो कोई बताने वाला हो। क्यों नहीं बताई जातीं?
बाहरवीं के बायोलॉजी के विद्यार्थी, जेनेटिक्स के ग्रेगोर मेंडेल को पढ़ते हैं। पढ़ते हैं न? पर उनका जीवनवृत्त नहीं जानते कि उन्होंने कितनी तकलीफ़ें सहीं। मेंडेल ने तकलीफ़ें कितनी सहीं, ये विद्यार्थी नहीं जानते। तो चन्द्रयान का जो दूरगामी लाभ है भारत को, वो ये है कि भारत जगा है विज्ञान के प्रति।
और भारत का विज्ञान के प्रति जगना बहुत ज़रूरी है, नहीं तो — अंधविश्वास, और अंधविश्वास, और अंधविश्वास!
कहीं बताया जा रहा है कि साँप बड़ी रहस्यमयी और बड़ी आध्यात्मिक प्रजाति होती है – साँप, साँप, साँप! कहीं बिल्लियों की बात की जा रही है, कहीं अन्य जानवरों की बात की जा रही है। अरे ये सब है क्या, समझ तो लो। थोड़ा विज्ञान की तरफ़ तो जाओ। इतनी बड़ी सज़ा मिल रही है इस देश को, विज्ञान को न जानने की, कि विज्ञान का ही नाम लेकर धर्मगुरु इस देश को बेवकूफ़ बना रहे हैं।
कोई बताता है कि “मैं अध्यात्म को ‘क़्वांटम थ्योरी’ से समझाऊँगा।” कोई ‘फील्ड’ बताता है, कोई ‘ऑरा’, फलाना ‘फील्ड’। इन सब शब्दों का प्रयोग तुम जिसको भी प्रयोग करते देखो धर्म में, उससे सावधान हो जाना – ‘क़्वांटम थ्योरी’, ‘फील्ड’, ‘ऑरा’, ‘एनर्जी’। ये सब विज्ञान का अतिक्रमण और शोषण करने वाले लोग हैं।
विज्ञान में एक गरिमा है, क्या बात है। जानते हो बात क्या है वहाँ पर? वहाँ पर हर चीज़ झुठलाई जा सकती है, फॉलसिफाई की जा सकती है।
विज्ञान, विज्ञान ही नहीं, कोई वैज्ञानिक खोज छप ही नहीं सकती, अगर वो फॉलसिफ़ायबल न हो। और विज्ञान कहता है तुम शुरुआत करो स्केप्टिसिज़्म (संशय ) से। मान मत लो कोई बात। कुछ भी मानो मत, कहो कि – “पता करेंगे।” और खासतौर पर हिन्दुस्तान को इस दृष्टिकोण की ख़ास ज़रुरत है – मानना नहीं है, पता करना है।
और कोई तुमसे कहे कि – “बस ऐसा है”, तो उससे कहिए, “ये बात फॉलसिफाई (मिथ्या सिद्ध करना) कैसे होगी? मैं कैसे जानूँ कि आप जो कह रहे हैं, वो सही है? किन शर्तों में आपकी बात झूठी साबित हो जाएगी, साथ में वो भी तो बताइए। फॉलसिफाइंग कंडिशन (मिथ्या स्थिति) ज़रूरी है रिसर्च पेपर (शोध पत्र) के लिए, वो आप नहीं बता रहे, तो फिर तो आप धूर्त हैं, आप बेवकूफ़ बना रहे हैं।”
बात समझ रहे हो?
रिसर्च पेपर्स (शोध पत्र) के प्रति एक रुचि जगनी चाहिए। देश को माँगना चाहिए। खासतौर पर पढ़े-लिखे लोगों को पाया जाना चाहिए कि वो गूगल पर रिसर्च पेपर भी खोज रहे हैं। नहीं तो नतीजा क्या होता है? नतीजा ये होता है कि लोग कुछ भी प्रचारित कर देते हैं। कोई कहता है, “मैंने फलानी मुद्रा विकसित की है, इसको यूनिवर्सिटी ऑफ़ बर्कले ने पाया है कि ये करने से आपके दिमाग की गतिविधि तीन सौ प्रतिशत बढ़ जाती है।” और लोग मान भी रहे हैं। कोई नहीं कह रहा है कि “उसका रिसर्च पेपर तो दिखा दीजिए।” क्योंकि अधिकांश हिन्दुस्तानियों ने रिसर्च पेपर जैसी कोई चीज़ अपनी ज़िंदगी में पढ़ी ही नहीं होती है। उनका परिचय ही नहीं कराया गया। उन्होंने और दस तरीके के पेपर पढ़े होंगे, रिसर्च पेपर कभी नहीं पढ़ा। तो कुछ भी मानते रहते हैं।
और विज्ञान को क्योंकि हमने पास से देखा नहीं, तो विज्ञान हमको नीरस और उबाऊ लगता है। हमने वैज्ञानिकों की छवि भी ऐसी ही बना रखी है कि उनके बाल खड़े रहते हैं, और वो थोड़े सनकी और बहके हुए होते हैं। यही करते हो न? वैज्ञानिक की, या प्रोफेसर की यही छवि बनाते हो न? वैज्ञानिक ऐसे-ऐसे हुए हैं, अभी थोड़ी ही देर पहले मैंने कहा था न, कि उनको जान लोगे तो कायल हो जाओगे उनके। फैन (प्रशंसक) बन जाओगे उनके।
अभी हम इस महीने अंग्रेज़ी में ‘फाउंटेनहेड’ पढ़ने जा रहे हैं। उसमें हॉवर्ड रोअर्क का पात्र है। वो तो काल्पनिक चरित्र है। काश कि हमें हॉवर्ड रॉबर्ट्सन का भी पता होता। हॉवर्ड रॉबर्ट्सन वो शख्स थे जिसने आइंस्टीन की खोज में भी त्रुटि निकाल दी थी। आया मज़ा कि नहीं आया? जवान आदमी! आइंस्टीन ने ‘ग्रैविटेशनल वेव्स’ (गुरुत्वीय तरंग) को लेकर के अपना एक पेपर प्रकाशित होने भेजा। आइंस्टीन का एक रुतबा था। आमतौर पर पेपर के छपने से पहले उसका एक ‘पियर -रिव्यु’ (सहकर्मी समीक्षा) होता है। ‘पियर-रिव्यु’ माने किसी अन्य वैज्ञानिक को वो पेपर दिया जाएगा, और वो उसपर अपनी टिप्पणी लिखेगा।
एक ही नहीं, कई वैज्ञानिकों को दिया जाता है, और जब बहुत कड़ा पियर-रिव्यु होता है, उसके बाद वो पेपर छपता है। खासतौर पर जो उत्कृष्ट जर्नल (पत्रिका) हैं। ‘जर्नल’ माने – विज्ञान की पत्रिकाएँ। जो उत्कृष्ट जर्नल होता है, उसमें आसानी से नहीं छपता है, पियर-रिव्यु होता है। आइंस्टीन ने कहा, “मैं तो ‘आइंस्टीन’ हूँ, मुझे तो 1915 में जेनेरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी पर नोबेल पुरस्कार मिल चुका है, मेरा कौन पियर -रिव्यु करेगा? मेरा तो छप ही जाएगा।” ये पेपर उन्होंने 1915 के बाद छपने भेजा था।
पत्रिका ने पियर-रिव्यु के लिए भेज दिया। किसके पास भेज दिया? हॉवर्ड रॉबर्ट्सन के पास। उसने क्या किया? उसने त्रुटि निकाल दी। उसमें आइंस्टीन की गणनाओं में गलती नहीं थी, उन्होंने जो निष्कर्ष निकाला था, वो गलत था। आइंस्टीन ने उसमें कह दिया था कि ग्रैविटेशनल वेव्स (गुरुत्वीय तरंग) वास्तव में हो ही नहीं सकतीं। गणित में हैं, वास्तव में नहीं हो सकतीं। हॉवर्ड रॉबर्ट्सन ने कहा, “नहीं सर, आप पुनर्विचार करें, ये है।”
वर्ष 2017 का नोबेल पुरस्कार ग्रैविटेशनल वेव्स (गुरुत्वीय तरंग) को खोजने पर दिया गया है।
और इतना नहीं था। आइंस्टीन ये सुनकर कुपित हो गए थे, और बोले, “कौन है जो मेरी बात में खोट निकाल रहा है?” उन्हें नाम नहीं पता चला। अनाम पियर-रिव्यु हुआ था। उन्होंने अपना पेपर किसी और पत्रिका में प्रकाशित करा दिया। जब कहीं और प्रकाशित करा दिया, तो आइंस्टीन का ही एक छात्र या सहयोगी, हॉवर्ड रॉबर्ट्सन से मिला। और वो उस घटना को नहीं जानता था कि हॉवर्ड ने उस पेपर को देखा हुआ है, और उसमें एक त्रुटि को पकड़ा हुआ है।
तो वो दोनों बात करने लगे। हॉवर्ड ने आइंस्टीन के उस सहयोगी को उस त्रुटि के बारे में बता दिया, समझा दिया कि जो निष्कर्ष निकाला गया है, उसमें ये खोट है। उसमें ये खोट है। सहयोगी समझ गया, उसने आइंस्टीन को आकर उस खोट के बारे में बताया। आइंस्टीन समझ गए, बोले, “बात ठीक है, इसमें ये खोट है।” उन्होंने इतना ही नहीं किया, वो पेपर जब दोबारा प्रकाशित हुआ, तो उसमें उन्होंने बाक़ायदा अपनी खोट मानी, और हॉवर्ड रॉबर्ट्सन का शुक्रिया अदा किया। लेकिन ये उन्हें कभी पता नहीं चला कि जब वो पहली बार कुपित हुए थे, तो पहली बार भी खोट निकालने वाले रॉबर्ट्सन ही थे।
अब बताओ ये कहानियाँ क्या नीरस हैं? या इन कहानियों में रोमांच भी है, रस भी है, भव्यता भी है, उच्चता भी है। हमें ये सब कहानियाँ बताई नहीं जातीं। इन पर फ़िल्में भी नहीं बनतीं, और घरों में भी सुनाई जातीं ये सब बातें।
निकोला टेस्ला थे। ये जो बिजली का कर्रेंट यहाँ आ रहा है, ये डायरेक्ट कर्रेंट नहीं है, ये अल्टरनेटिंग कर्रेंट है। ठीक है? इसके होने में, टेस्ला और टेस्ला के लोगों का, आविष्कारों और पेटेंट्स का बड़ा हाथ है। तो 1895 में उनकी पूरी प्रयोगशाला जलकर ख़ाक हो गई। और उस प्रयोगशाला में उनके सारे मॉडल्स, प्रोटोटाइप, रिसर्च पेपर, रिसर्च सामग्री, सब रखा हुआ था। और वो किसी के साथ बाँटते नहीं थे। वो कहते थे, “जब तक पेटेंट नहीं हो जाएगा, तब तक किसी को बताऊँगा नहीं। किसी को बता दिया, तो कहीं वो अपने ही नाम पर न प्रकाशित करा ले।” तो उस प्रयोगशाला में उन्होंने वो सब छिपा कर रखे हुए थे, वो सब जलकर ख़ाक हो गया।
विज्ञान में दुर्घटनाएँ हुई हैं, और लोगों ने उन दुर्घटनाओं से उबरकर के पुनः चढ़ाई की है, और जीता है अपने आप को।
चढ़ाई से याद आता है, एवरेस्ट पर सबसे पहले कौन चढ़ा था?
श्रोता: एडमंड हिलेरी।
आचार्य प्रशांत: तो वो पहली बार में नहीं चढ़ पाए थे। तो लोगों ने पूछा, “अब क्या करोगे?” तो बोले, “फिर आऊँगा। एवरेस्ट जितना है उतना ही रहेगा, मैं और ऊँचा होकर आऊँगा।” एवरेस्ट की मजबूरी ये है कि वो और ऊँचा नहीं हो सकता। तू जड़ है, तू प्रकृति है। तू जितना है, तू उतना ही रहेगा। मैं और ऊँचा, और बेहतर होकर आऊँगा।” वो आए और बेहतर होकर, फ़तह किया, ये विज्ञान है।
सीधा विज्ञान से नहीं है ये उदाहरण, पर चढ़ाई से याद आ गया। पर समझो बात को। हमें ये जज़्बा हिन्दुस्तान में चाहिए। और कल मुझे बड़ा संतोष हुआ कि वो जज़्बा आधी रात के बाद हिन्दुस्तान में देखने को मिला।
और भी बहुत नाम हैं, उनका अभी नाम लूँ तो, एक-से-एक कहानियाँ हैं विज्ञान में। एक-से-एक! कोई वैज्ञानिक ऐसा रहा जिसे निधिकरण (फंडिंग) नहीं मिला, बिना निधिकरण के ही काम करता गया, करता गया, और अंततः सफल हो गया। किसी के निजी जीवन में एक-से-एक उपद्रव थे, उसने उन उपद्रवों पर ध्यान नहीं दिया, काम करता गया, सफल हो गया।
‘मेरी क्यूरी’ का नाम तो जानते ही हैं। मेरी क्यूरी ने एक व्यक्ति से रिश्ता बनाया। उस रिश्ते को ठीक नहीं माना गया उस समय के समाज में। उस समय के समाज में उस रिश्ते को ठीक नहीं माना गया। मेरी क्यूरी के ही किसी सहकर्मी का वो शिष्य था। तो उस रिश्ते को उस समय में ठीक नहीं माना गया, उसे व्यभिचार (अडल्ट्री) माना गया कि “तुमने ठीक नहीं किया, ये अडल्ट्री है।”
फिर नोबेल पुरस्कार मिलने के बाद, दो बार नोबेल मिला था उनको, नोबेल मिलने के बाद उनका सार्वजनिक अभिनन्दन होना था कहीं पर। वो जब जाने वालीं थीं, तो लोगों ने उनको रोकने की कोशिश की, कि “आपका तो इस तरह का गैर-वाजिब रिश्ता है, किसी पराए पुरुष के साथ। आपको नहीं जाना चाहिए। राजा क्या एक व्यभिचारिणी से हाथ मिलाएँगे? आप तो पतिता हैं।”
वो पतिता नहीं थीं, वो वैज्ञानिक थीं। वो बोलीं, “जाऊँगी, हाथ भी मिलाऊँगी। अभिनन्दन हो रहा है मेरा, स्वीकार भी करूँगी। मैं क्या हूँ, ये जानना है तो मेरा काम देखो। मेरी निजी ज़िंदगी में ताकझाँक करने की ज़रुरत नहीं है। मेरा किससे क्या रिश्ता है, छोड़ो। मैं क्या हूँ, ये मेरे काम में परिलक्षित होता है। और मैं बताती हूँ मैं कौन हूँ।” फिर वो बोलीं, “दो अलग-अलग क्षेत्रों में नोबेल पुरस्कार मिला है मुझे — वो हूँ मैं।”
अब ये कहानियाँ क्या बिल्कुल उबाऊ हैं? तो आपको पता क्यों नहीं हैं? भारतीय वैज्ञानिकों की ही जो कहानियाँ हैं, वो आपको क्यों नहीं पता हैं? गणितज्ञों की कहानियाँ आपको क्यों नहीं पता हैं? सी.वी. रमन के बारे में कुछ नहीं जानते, जगदीश चंद्र बोस के बारे में पूछूँगा तो थोड़ा-बहुत बता पाएँगे। उनके बारे में भी जानना, समझ लीजिए उतना ही ज़रूरी है, जितना ज़रूरी है ऋषियों के बारे में जानना। क्योंकि, मैं फिर दोहरा रहा हूँ, जिसको दुनिया का ना पता हो, वो दुनिया के पार कैसे जाएगा? और मैं दुनिया का पता करने के लिए इसीलिए नहीं कह रहा हूँ कि तुम जाओ और दुनिया की बेवकूफ़ियों में लिप्त हो जाओ।
मैं कह रहा हूँ कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखो, ताकि अंधविश्वासी न बनो। वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखोगे तो अंधविश्वास से बचे रहोगे, फ़रेबी धर्मगुरुओं से बचे रहोगे। फिर तुम्हारे लिए हर तरह की मुक्ति के रास्ते खुल जाएँगे।
आ रही है बात समझ में?