विदेशी पत्रिका द्वारा भारतीय देवी-देवताओं पर मज़ाक || (2021)

Acharya Prashant

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विदेशी पत्रिका द्वारा भारतीय देवी-देवताओं पर मज़ाक || (2021)

प्रश्नकर्ता: फ्रांस की पत्रिका है चार्ली हेबडो। व्यंग्य संबंधित ही इनकी ज़्यादातर समाग्री रहती है। अतीत में भी ये पत्रिका काफी चर्चा और विवाद में रही है। अभी हाल में ही, कल-परसों ही इन्होंने एक कार्टून छापा है जिसमें भारतीयों को ऑक्सिजन के अभाव में तड़पते और दम तोड़ते हुए दिखाया जा रहा है। और फिर उस कार्टून में इन्होंने तंज कसते हुए ये सवाल किया है कि कहाँ गए भारतियों के लाखों-करोड़ों देवी-देवता? इतने सारे आपके देवी-देवता हैं तो वो आपके लिए ऑक्सिजन क्यों नहीं पैदा कर सकते ऐसा चार्ली हेबडो ने व्यंग्य करा है।

हिंदुओं को कमज़ोर समझकर कोई भी हमारे धर्म की खिल्ली उड़ा देता है, ये बात मुझे बहुत क्रोधित करती है।

आचार्य प्रशांत: एक क्रोधित प्रतिक्रिया प्राकृतिक रूप से आपमें उठ रही है और भी जो हिंदू लोग हैं उनमें ये प्रतिक्रिया उठेगी। और बात भी जो इस पत्रिका ने कही है वो मूर्खता की ही है, फूहड़ बात है। इसमें कोई दो राय नहीं लेकिन अपने क्रोध से थोड़ा हटकर के अगर हम समझना चाहें कि ये पत्रिका इस तरह की अनर्गल बात कर कैसे पाई तो वो हमारे लिए बेहतर होगा।

कैसे कर पाई?

क्या कह रहा है वो कार्टून? कार्टून कह रहा है कि इतने तुम्हारे पास देवी-देवता हैं उनमें से कोई तुम्हारे लिए ऑक्सिजन क्यों नहीं पैदा कर पा रहा।

कार्टून के पीछे सिद्धांत क्या है?

सिद्धांत ये है कि ये तुम्हारे देवी-देवता हैं इन्हें तुम्हारी मदद के लिए आना चाहिए, तुम्हें जिस भी तरह की संसारिक सहायताओं की ज़रूरत हो वो भी इन देवी-देवताओं को देनी चाहिए। वो क्यों नहीं दे रहे वैसी सहायता।

अब ये जो फ्रेंच व्यंग्यकार हैं उन्हें ये किसने बताया कि देवी-देवताओं का ये काम होता है कि हमारे संसारिक मसलों में हमारी सहायता करें? ये उन्हें किसने बताया? ये बात तो उनकी कल्पना नहीं है, ये बात उनके सपने में नहीं आई है न।

और यही बात इस कार्टून के पीछे का मूल सिद्धांत है। क्या बात? कि हिंदू अपने तमाम संसारिक मसलों में अपने देवी-देवताओं को सम्मिलित करे रहते हैं, उनसे मदद माँगते रहते हैं, तो अब जब एक संसारिक आफत आई है, कोरोना महामारी के रूप में, तो उनके देवी-देवता उन तक ऑक्सिजन क्यों नहीं पहुँचा रहे?

ये है इस व्यंग्य के पीछे का सिद्धांत। बात उस व्यंग्य में बहुत बेवकूफी की करी गई है क्योंकि दैवीय शक्ति का काम होता है आपके भीतर दैवीयता को जागृत करना। संसारिक उठा-पटक में आपका साथ देना ये दैवीयता का काम होता ही नहीं है। लेकिन हम कुछ तो ऐसा कर रहे होंगे न, जिससे पूरी दुनिया को ये संदेश जा रहा है कि हमारे देवी-देवता को हमने तमाम दुनियादारी के मसलों में भी शामिल कर रखा है।

और हम ऐसा क्या कर रहे हैं? हम ऐसा बहुत कुछ कर रहे हैं। उदाहरण के लिए — मेरा घर नहीं बन रहा फलाने देवता मेरा घर बनवा देंगे, मैंने नई गाड़ी खरीदी है उसकी रक्षा के लिए मैं गाड़ी पर फलाने तरह का प्रतीक बनवा दूँगा उससे देवी जी मेरी गाड़ी की रक्षा करेंगी, मुझे बच्चा नहीं हो रहा उसके लिए मैं जाकर के इन देवता को लड्डू चढ़ाऊँगा तो घर में बच्चा हो जाएगा।

ये सारे काम जो हम देवी-देवताओं से करवा रहे हैं ये संसारिक काम हैं या नहीं हैं? बोलो।

और हमने अपने देवी-देवताओं को बना भी पूरी तरह संसारिक दिया है। कोई बोलता है कि फलाने देवता हैं वो उस पर्वत पर रहते हैं, फलानी देवी है वो सरोवर में रहती हैं। अब ये पर्वत और सरोवर इसी संसार के भीतर की जगहें हैं या नहीं हैं?

तो जब आपने अपनी देवी-देवताओं को बिलकुल अपने संसारिक कामों में शामिल कर लिया है तो फिर दुनिया आपसे सवाल पूछ रही है कि अब जब आप पर एक संसारिक विपदा आई पड़ी है तो यही देवी-देवता आपको संसारिक ऑक्सिजन क्यों नहीं मुहैया करा रहे।

वो इसलिए ये सवाल पूछ पा रहे हैं क्योंकि सर्वप्रथम हमने देवी-देवताओं के नामों का बड़ा दुरुपयोग करा है। क्यों? क्योंकि हम दैवीयता को समझते नहीं। क्यों? क्योंकि हम धर्म को समझते नहीं। क्यों? क्योंकि हम अध्यात्म को समझते नहीं। क्यों? क्योंकि जो मूल धर्मशास्त्र हैं उन्हें पढ़ने का कष्ट हम कभी उठाते नहीं।

हमारे पास बस क्या हैं? किस्से-कहानियाँ हैं और उन सब किस्से-कहानियों में हमने जो परा सत्य है उसे एक संसारिक आकार दे दिया है, उसे भी मानवीय गुण प्रदान कर दिए हैं और उससे ही हमने अपने सारे मानवीय काम करवा डाले हैं।

तुम मुझे कोई काम बता दो जो तुम्हें चाहिए होता है, कोई तुम अपनी इच्छा बता दो जिसकी तुम्हें पूर्ति करनी होती है और उसके लिए तुमने किसी देवी-देवता का सहारा ना लिया हो, बताओ? तुमने नहीं लिया होगा तुम्हारे पड़ोसी ने लिया होगा, तुम्हारे पड़ोसी ने नहीं लिया होगा तो उसके पड़ोसी ने लिया होगा, पर हिंदुओं में ये आदत खूब फैली हुई है कि नहीं फैली हुई है?

“मेरी बेटी की शादी नहीं हो रही है, मैं फलाने मंदिर में जाकर के फलाने देवता के पेड़ के इर्द-गिर्द एक धागा बाँध कर आऊँगा।” “फलाने पहाड़ पर एक मंदिर है वहाँ पर जाकर अगर मैं एक घंटी बाँध दूँगा तो उससे मुझे संतान हो जाएगी।” और संतान में भी लड़का ही चाहिए होता है तो आमतौर पर लड़के के लिए ही घण्टियाँ बाँधी जाती है। बहुत हैं इस तरह के मंदिर। वहाँ जाओ तो किसी मंदिर में बरगद का पेड़ होगा, वहाँ धागे-ही-धागे तुम्हें बंधे दिखाई देंगे। किसी जगह जाओ तो वहाँ घण्टियाँ-ही-घण्टियाँ तुम्हें लटकी दिखाई देंगी। ये हम अपने देवी-देवताओं से क्या करवा रहे हैं बताओ तो मुझे?

ये हम अपने देवी-देवताओं से अपनी सारी संसारिक इच्छाएँ पूरी करवा रहे हैं। करवा रहे हैं कि नहीं करवा रहे हैं?

तो जो आदमी ऑक्सीजन के अभाव में मर रहा है, उसकी अभी बड़ी-से-बड़ी इच्छा क्या है? ऑक्सिजन मिल जाए। तो ये चार्ली हेबडो वाले पूछ रहे हैं कि तुम्हारी तो सारी इच्छाएँ तुम्हारे देवी-देवताएँ पूरी कर देते थे, अब ऑक्सिजन की तुम्हारी इच्छा है तो काहे नहीं आकाश से, कहीं से सिलेंडर की वर्षा हो रही।

वो ये व्यंग्य कस रहे हैं। मैं बिलकुल देख रहा हूँ कि ये व्यंग्य मूर्खता भरा है और इस व्यंग्य से बहुत लोग आहत हुए होंगे, क्रोध भी आया होगा। मैं बिलकुल समझ पा रहा हूँ लेकिन मैं ये भी चाहता हूँ कि हम वो सारे काम करना बंद करें जो दुनिया को अधिकार दे देते हैं हम पर इस तरीके के विकृत व्यंग्य करने का।

तुम्हें समझ में आ रही है मैं क्या बोल रहा हूँ?

ज़िंदगी की कोई चीज़ नहीं है जिसमें हमने देवी-देवता शामिल ना कर रखे हों। देवी-देवता बहुत ऊँची शक्तियाँ हैं, हैं न? तो ऊँची शक्तियों का अनादर, अपमान क्यों करते हो भाई, उनसे अपने ये रोज़मर्रा के छोटे और टुच्चे काम करा करा करके, बताओ तो मुझे?

अगर आपके मन में वाकई देवताओं के प्रति सम्मान है तो आप देवताओं का उपयोग अपने घर के चौकीदार की तरह करेंगे, कहिए?

जितने आपने देवी-देवता बनाए हैं उतने आपने उनको काम सौंप रखे हैं — “ये देवता इस काम आता है, ये देवी इस काम आती हैं। फलानी बीमारी अगर हुई आपको तो वो वाले देवता ठीक करेंगे।” उनके भी अपने-अपने विभाग हैं, विशेषज्ञताएँ हैं, वो भी स्पेशलाइज़ करते हैं। “अच्छा, तुम्हें साँस की बीमारी है? वहाँ दक्षिण में एक खास मंदिर है, वहाँ चले जाओ तो साँस की बीमारी ठीक हो जाती है।”

अध्यात्म से जब हमें कोई प्रयोजन नहीं होता न, वास्तविक धर्म से जब हमें कोई प्यार नहीं होता तो हम धर्म का इस्तेमाल बस इसी तरह की चीज़ों के लिए करते हैं — “दुकान नहीं चल रही, व्यापार आगे नहीं बढ़ रहा।” “अच्छा कोई बात नहीं, उधर फलाना एक बहुत पुराना मंदिर है गंगा किनारे और उसके बारे में कथा प्रचलित है कि त्रेतायुग में एक व्यापारी हुआ था। उस व्यापारी को जब उसके व्यापार में घाटा होने लगा तो वो गंगा नदी में उसी स्थान पर डूब कर आत्महत्या करने आया। डूब ही गया। पीछे-पीछे उसकी पत्नी सती-सावित्री दौड़ती हुई आई, ‘हे नाथ! हे नाथ!’ और जब तक वो पहुँची तब तक वो डूब ही चुका था। तो वो उसी स्थान पर बोली कि, हे देवी! अगर तत्क्षण तूने मेरे पति को जीवित नहीं किया तो मैं यहीं प्राण त्याग दूँगी। देवी प्रकट नहीं हुईं। तो वो सावित्री पत्नी उसी समय पर गंगा में कूद पड़ी। जब वो गंगा में कूद पड़ी तो उसका सतीत्व देख करके देवी प्रकट हो गईं और देवी ने अपनी योगशक्ति से दोनों पति-पत्नी को गंगा से बाहर भी निकाल दिया, चंगा भी कर दिया। और इतना ही नहीं उन दोनों को एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राएँ वरदान में दीं। तो इससे क्या सिद्ध होता है? इससे ये सिद्ध होता है कि अगर व्यापार में घाटा हो रहा हो तो उसी जगह पर वो जो मंदिर बना हुआ है वहाँ पर आओ और तुमको भी कम-से-कम एक सहस्त्र स्वर्ण मुद्राओं का लाभ तो ज़रूर होगा।”

और वो बैठ करके गिनते हैं कि एक स्वर्ण मुद्रा कम-से-कम इतने ग्राम की तो होगी। “और आजकल बता रे छंगू सोने का रेट क्या चल रहा है मार्केट (बाज़ार) में?” और फिर वो गिनते हैं, "अच्छा एक मुद्रा इतने रुपए की तो एक सहस्त्र इतने रुपए की।" फिर कहते हैं, “चलो रे, फलाने मंदिर चलते हैं। वहाँ चलेंगे तो इतने लाख रुपए का मुनाफा हो जाएगा।”

देवी-देवता इसलिए हैं? और जब देवी-देवता इसलिए हो जाते हैं न तो तुम पुरी दुनिया को अधिकार दे देते हो कि वो तुम्हारा मज़ाक उड़ाएँ।

माँगना ही है तो बस वो माँगो जो किसी ऊँची शक्ति से माँगने लायक है। ऊँची शक्तियों से ऊँची चीज़ें माँगी जाती हैं, ये नहीं माँगा जाता कि “अरे, कचौड़ी की दुकान नहीं चल रही है। हे ईश्वर! कचौड़ी के रेट बढ़वा दे न!”

(एक श्रोता को सम्बोधित करते हुए) अभी मुस्कुरा क्या रहे हो आप? ऐसी ही हमारी इच्छाएँ होती हैं, और क्या माँगने जाते हो? तुम मोक्ष और मुक्ति माँगने जाते हो, मंदिरों में, बताना तो? क्या माँगने जाते हो मंदिरों में? जो कहते हो न कि, "मुराद माँगने आया हूँ, प्रार्थना कर रहा हूँ", वास्तव में उस प्रार्थना में इच्छा क्या होती है, बताओ तो?

यही सब तो करने जाते हो। जैसे किसी टैंक का इस्तेमाल मच्छर मारने के लिए किया जा रहा हो। टैंक का इस्तेमाल करना ही है तो किसी बड़े दुश्मन को मारने के लिए करो न। दैवीय शक्तियों का अगर आह्वान करना ही है तो अपने भीतर की माया को मारने के लिए करो।

टैंक का इस्तेमाल किसलिए होगा? किसी बड़े दुश्मन को मारने के लिए। तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन कौन है? तुम्हारे भीतर की माया। तो देवी के आगे बिलकुल आवश्यक है नतमस्तक हो जाना, देवता के आगे बिलकुल आवश्यक है समर्पित हो जाना, लेकिन प्रार्थना बस एक होनी चाहिए, कि "मुझे मुझसे बचा। मेरी भीतर की माया से मेरी रक्षा कर" — बस ये प्रार्थना होनी चाहिए।

"मेरे घर बच्चे पैदा कर दे, मुझे काजू-बर्फी-जलेबी दिलवा दे, मुकदमे में जीत नहीं हो रही है बता किस तरीके से जज को घुस खिला दूँ" — ये सब चीज़ें देवियों तक, देवताओं तक और मंदिरों तक ले जाने की नहीं होती हैं। इन मुद्दों में उलझने का और इस प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति का धर्म से और अध्यात्म से कोई लेना-देना नहीं है।

तो चार्ली हेबडो वाले तो मूर्ख हैं ही लेकिन वो जो कर रहे हैं उससे चौंक कर, उससे चेत कर, उससे चोट खाकर अगर हम कुछ आत्म सुधार कर सकें तो हमारे लिए अच्छा होगा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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