कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मानिवर्तितुम्। कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥३९॥
"तो कुल क्षय से होने वाले दोष को देख-सुन कर भी हम लोगों को इस पाप से निवृत्त होने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए?"
~ श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय १, अर्जुन विषाद योग, श्लोक ३९
आचार्य प्रशांत: इसी आशय के तर्क आगे भी हैं। क्या कह रहे हैं? "हमें इस पाप से निवृत्त होने का विचार क्यों नहीं करना चाहिए?"
तीन तल हैं चेतना के हमारी — आत्मा शुद्धतम, फिर वृत्ति उससे ऊपर, और उससे ऊपर विचार। और विचार का ही एक टुकड़ा, एक अंश होता है तर्क। इन तीन तलों के बारे में एक बात ये है कि इनमें से कोई तल अपने से पीछे वाले तल को जीत नहीं सकता। विचार से पीछे वृत्ति होती है तो वृत्ति हमेशा विचार पर भारी पड़ेगी; विचार उठता ही वृत्ति से है। हालाँकि विचार का दावा ये होता है कि वो स्वतंत्र है, कि वो सत्यनिष्ठ है। लेकिन विचार कितना भी दावा कर ले कि वो स्वतंत्र है, सत्यनिष्ठ है, वो उठता सदा वृत्ति से ही है। और विचार में साधारणतया ये क्षमता नहीं होती कि वो पीछे मुड़ कर देख पाए कि वो कहाँ से आ रहा है। विचार आगे देख रहा होता है, किसको? विचार के आगे क्या है? संसार।
विचार संसार को देख रहा है और विचार को पता ही नहीं है कि उसके पीछे क्या बैठी हुई है जहाँ से उसका उद्गम है? वृत्ति बैठी हुई है। सिर्फ़ एक विशेष प्रकार का विचार होता है जो पीछे देख सकता है, जो आत्मगमन कर सकता है, उसको आत्मविचार कहते हैं; पर उसके लिए बड़ी सत्यनिष्ठा और ध्यान चाहिए। साधारण विचार मुड़ करके स्वयं को नहीं देख सकता, विचार के पास दर्पण जैसी कोई सुविधा नहीं होती कि वो देख पाए वो कौन है, कहाँ से आ रहा है, नहीं। विचार के पास बस आँखें होती हैं जो आगे देख रही होती हैं, दर्पण नहीं होता जो पीछे को देख पाए।
तो विचार हमेशा वृत्ति का अनुगामी होता है। हमको लगता ऐसा रहता है कि हमने विचार किया; हमने विचार किया नहीं, हमारी वृत्ति ने हममें एक विचार पैदा कर दिया। हमें नहीं पता होता हमारा विचार कहाँ से आ रहा है। कोई नहीं जानता कि हमारा विचार कहाँ से आ रहा है। बस एक विचार उठ आता है। जब विचार उठ आता है तो वो आपको फिर किसी भी दिशा में ले जाता है। विचार आपको उठा कर किसी भी दिशा में ले जाएगा, लेकिन स्वयं विचार किस दिशा से आ रहा है, ये आपको कभी पता नहीं लगेगा।
क्या ये देखा है आपने? आप बैठे होते हैं और विचार आ जाता है। आपको कुछ पता भी है वो विचार कहाँ से आया? नहीं पता न, बस आ गया। वो वृत्ति से आता है, अह्मवृत्ति से आता है। अह्मवृत्ति के पीछे-पीछे उसकी छोटी-छोटी अनुगामी वृत्तियाँ होती हैं, जैसे एक पेड़ हो और उसकी कई शाखाएँ हों, वहाँ से आता है विचार। तो विचार हमेशा वृत्ति के प्रयोजनों को पूरा करने के लिए आता है।
अब यहाँ पर अर्जुन की वृत्ति हो रही है मोह की तो उसको विचार ये आ रहा है, ‘देखो, अगर धृतराष्ट्र के पुत्रों से हमने लड़ाई कर ली तो हम भी उन्हीं जैसे हो गये न, अब ये बात तो अच्छी नहीं है।‘ ले-देकर के विचार ये कह रहा है कि लड़ाई मत करो। विचार क्या कह रहा है? लड़ाई मत करो और लड़ाई ना करने के पक्ष में एक कारण बता दिया विचार ने। क्या कारण? कि अगर तुम उनसे लड़े तो तुम उनके बराबर ही हो जाओगे और ये तो कोई बात नहीं। लेकिन वास्तविक बात ये है कि ना लड़ने की भावना, प्रेरणा उठ रही है मोहवृत्ति से। मोहवृत्ति ने एक बुद्धिमत्ता पूर्ण विचार को जन्म दिया है जो कह रहा है कि बात मोह की नहीं है, बात अपने स्तर और स्थान की है।
दुर्योधन एक निम्न चेतना का व्यक्ति है, जो काम वो कर रहा है अगर वही हमने भी कर दिया तो हम भी उसी के स्तर के हो जाएँगे, तो इसीलिए हमें लड़ाई नहीं करनी चाहिए। आप देख रहे हैं आदमी के अंतर्जगत की जटिलता को? आपके उद्देश्य पहले बनते हैं और फिर उन उद्देश्यों को सत्यापित करने के लिए, वैध ठहराने के लिए, आप किसी तर्क का निर्माण कर लेते हैं, और ये बात स्वयं आपको भी नहीं पता होती है। और विरल है वो चेतना, जो अपने तर्कों को काट कर अपने उद्देश्यों पर सीधे-सीधे दृष्टिपात कर पाए।
इसीलिए मैं बोला करता हूँ कि आपने कुछ करा, और आपने जो कुछ करा वो किस ख़ातिर करा, ये जानने के लिए कई बार अपने कर्म का परिणाम देख लिया करिए। परिणाम बहुधा अनायास नहीं होता, वास्तव में वही परिणाम आपको चाहिए था इसीलिए आपने जो करा सो करा। बस वो जो परिणाम है वो आपके नैतिकता के मापदंडों पर खरा नहीं उतरता तो आप स्वयं को ये बता नहीं पा रहे थे कि आप इस प्रकार के परिणाम के इच्छुक हैं और इसलिए आप ऐसा कर्म कर रहे हैं।
तो आपने कर्म करा लेकिन परिणाम को अपने-आपको ही यूँ प्रस्तुत करा कि जैसे सांयोगिक हो, अकस्मात परिणाम सामने आ गया। कोई परिणाम अकस्मात सामने नहीं आता। वो परिणाम वही है जिसकी आपकी चेष्टा थी, क्योंकि अहंवृत्ति तो भोगधर्मा होती है, वो जो कुछ करती है परिणाम के लालच में ही करती है। आपके कर्मों का परिणाम क्या आ रहा है, ज़रा उसपर ग़ौर किया करिए। आप वही चाहते थे और उसी ख़ातिर आपने जो करा, सो करा। समझ में आ रही है बात?
कुछ भी यूँ ही नहीं होता। या कह लीजिए कि अधिकांश जो आपके साथ होता है, उसमें आपकी सहमति और आपकी ही पूरी तैयारी सम्मिलित होती है। अर्जुन हैं आप; लड़ना मोहवश नहीं है लेकिन तर्क दे रहे हैं धार्मिकता से परिपूर्ण। लड़ाई ना करने के पीछे असली कारण क्या है? मोह। लेकिन दर्शा यूँ रहे हैं जैसे लड़ाई ना करने के पीछे असली कारण है धर्म। सीधे कहना कि ‘मोहग्रस्त हूँ’, बड़ी लज्जा की बात हो जाती। और अगर मान ही लिए कि मोहग्रस्त हूँ, तो मोह से आगे जाना पड़ता, मोह का उल्लंघन करना पड़ता। तो इसीलिए मोह की बात ही नहीं करेंगे। हम सब बहुत चतुर लोग हैं, हम बात किसी और चीज़ की करेंगे। जैसे कि, ‘देखो बात मोह की नहीं है, बात सिद्धांतों की है’। हमारे सारे सिद्धांत, हमारी सारी विचारधाराएँ, हमारे सारे तर्क, बस हमारी वृत्तियों के ऊपर का एक नक़ाब होते हैं।
वृत्ति बड़ी गड़बड़ चीज़ है। वो विचार का संचालन करती है, अभी हमने कहा। विचार कर-कर के आप वृत्ति तक पहुँच भी नहीं सकते। वृत्ति भारी पड़ती है विचार पर तो वृत्ति पर कौन भारी पड़ेगा? आत्मा। क्योंकि हमने कहा, चेतना के तीन तल हैं जिनमें सबसे मूल है आत्मा। तो अपनी वृत्ति को जिन्हें जीतना हो उन्हें आत्मस्थ होना पड़ेगा। आत्मस्थ कैसे होते हैं? अहंकार का शोधन कर-कर के। बुद्धिजीवियों का ऐसा विचार रहता है कि उनका विचार उनको सत्य तक ले आएगा। नहीं। विचार तो वृत्ति का ही अवरोध पार नहीं कर पाएगा, बहुत आगे जाएगा कैसे? विचार तो चलेगा ही वृत्ति की दिखाई दिशा पर। वो ऊपर कैसे उठेगा आसमान की ओर?
वृत्ति को तो जीत सकता है सिर्फ़ आत्मा की ओर प्रेम। ये बात ध्यान रखने की है। जो लोग सोचते-विचारते बहुत हों, वो पहली बात ये ख़्याल रखें कि सोच-सोच कर सच तक नहीं पहुँचा जा सकता। और दूसरी बात वो ये ख़्याल रखें कि अगर सोचना ही है तो ये भी सोचो कि सोचने वाला कौन है। जो पहली बात मैंने बोली वो उनको विनम्रता में रखेगी और जो दूसरी बात मैंने बोली उसी को आत्मविचार कहते हैं।
इतना ही सोचते हो तो ये भी देख लो कि सोचने वाला कौन है। कहाँ से आया ये सोचने वाला, किस बिंदु से उठ रहा है ये विचार? विचार जैसे ही पलट करके अपने स्रोत को देखता है, अनहोनी घट जाती है। विचार का रूपांतरण, बल्कि परिमार्जन हो जाता है, विचार का केंद्र ही बदलने लग जाता है। खट से कुछ, जैसे बिजली जल गयी।
उतना ही अंतर, जैसे कि आप एक सिनेमा हॉल में बैठे हों, और सामने स्क्रीन को देख रहे हों। वहाँ पर क्या चल रहा है? एकदम धूम-धड़ाका, प्रकाश; और थोड़ा मुड़ कर पीछे की ओर देख लें, वहाँ क्या है? अँधेरा-ही-अँधेरा, और प्रोजेक्टर (प्रक्षेपक)। पूरा माहौल बदल जाएगा कि नहीं? आप देख रहे थे सामने और खोये हुए थे, बिलकुल सामने रंगारंग नज़ारे हैं। और अचानक कुछ हुआ और ऐसे पीछे मुड़ कर देखने लगे, भीतरी माहौल बदल जाएगा कि नहीं बदल जाएगा?
ये करने का अभ्यास करना होता है। ‘ये सब कहाँ से आ रहा है? ये सब जो है, ये कहाँ से आ रहा है, थोड़ा देखूँ।‘ और जैसे ही वो प्रोजेक्टर दिखाई देता है, वैसे ही जादू टूट जाता है। ये प्रयोग कर के देख लीजिएगा। ख़ासतौर पर जिन क्षणों में परदे का जादू सर चढ़ कर बोल रहा हो, पीछे मुड़ कर देखिएगा, जादू उतर जाएगा। थोड़ा झुँझलाएँगे ज़रूर आप। कहेंगे, ‘देखो पैसा बर्बाद कर दिया, एकदम मज़ा आ रहा था और सब उतर गया फ़ितूर’। लेकिन कुछ बात पता चल जाएगी। दो-सौ रूपए का जो टिकट है, उससे कहीं ज़्यादा कुछ वसूल हो जाएगा। समझ में आ रही है बात?
विचार के ग़ुलाम मत बन जाओ।