वेदान्त ही सनातन धर्म है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

Acharya Prashant

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वेदान्त ही सनातन धर्म है || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव ऋषिकेश में (2022)

प्रश्नकर्ता: वेदान्त दर्शन वास्तव में किसी देश में लागू हो सकता है, तो वह नेपाल है। वहाँ जनक हैं, बोध दर्शन हैं, बहुत सारे ऐसे हैं। भारत में तो मुश्किल है किसी भी ऐसे प्रांत में एक्स्पेरिमेंट (प्रयोग) के तौर पर करने के लिए, लेकिन नेपाल एक उदाहरण बन सकता है। मैं यह कैसे कर सकता हूँ? मुझे इसके अलावा कोई लक्ष्य दिखाई नहीं देता।

जैसे अर्जुन ने कहा था, मुझे पक्षी के अलावा कुछ और दिखाई नहीं देता। क्योंकि नेपाल में बहुत सारे आइडेन्टिटी क्राइसिस (पहचान के संकट) हैं – मधेसी, पहाड़ी, कोई मगोलियन हैं, इराक़ी हैं।

माँसाहार बहुत है। एक हिंदू राष्ट्र होने पर भी इतना माँसाहार कहीं खाया नहीं जाता, जितना नेपाल में खाया जाता है। शायद ही ऐसा कोई होटल है, जहाँ माँसाहार न होता हो। मेरा तो वहाँ रहना भी मुश्किल है। इतना पलिटिकल क्राइसस (राजनैतिक संकट) है।

इन सबके बीच में मुझे लगता है कि आपका जो वेदान्त का दर्शन है, जो राष्ट्रवाद पर आपने बोला है, वह एकदम ज़रूरी है और सटीक है। मुझे लगता है जैसे भी हो, कैसे मैं इस पर काम कर सकता हूँ? मार्गदर्शन कीजिए। धन्यवाद।

आचार्य प्रशांत: देखिए, किसी भी व्यक्ति से अगर बात करनी है, तो बात की शुरूआत, तो उसके दुख से ही करनी होगी। नहीं तो बात का औचित्य क्या है? अगर आप अपनी जगह आनंदित हैं, वह व्यक्ति अपनी जगह आनंदित है, तो मस्त रहिए दोनों अपनी-अपनी जगह। आप चाहते हैं कि आप समाज में जाएँ, लोगों से बात करें, तो आप बात वेदान्त से नहीं शुरू कर सकते। आपको बात शुरू करनी होगी लोगों के कष्टों से, लोगों की दुखती रग से।

हमारे जीवन में ऐसा क्या है, जो संबोधन माँगता है, जो उपचार माँगता है, जो सहायता माँगता है? हमें यह पूछना पड़ेगा न! आप जाएँगे, कहेंगे, देखो, मैं तुम्हारे पास एक विशेष प्राचीन दर्शन का संदेश लेकर आया हूँ।शायद ही कोई होगा, जो उत्सुकता दिखाएगा, रुचि दिखाएगा।

लोग अपनी-अपनी समस्याओं में घिरे हुए हैं। सबके पास जीने के लिए अपनी ज़िदंगी है और रोज़ के लफड़े हैं, पचड़े हैं। छोटी-छोटी, क्षुद्र लोगों की बेड़ियाँ हैं, अड़चने हैं। हम सब उनमें कैद हैं। आप जानते ही हैं! सबका ही जीवन ऐसा है न? वहाँ आप जाकर बात करें वेदान्त (के बारे में), तो लोग कहेंगे, ‘जी, आपने बड़ी ऊँची बात की। नमस्कार!’ सम्मान दे देंगे आपको कुछ देर का और आगे बढ़ जाएँगे।

आगे बढ़ जाएँगे! क्यों बढ़ जाएँगे? क्योंकि उसको अपने दफ़्तर जाना है। उसके पास पैसे की समस्या है। किसी को पड़ोसी से प्रतिद्वंदिता करनी है। वह कह रहा है, 'मुझे पड़ोसी से बड़ा घर बनवाना है।' वह घर बनवाने का कुछ इंतज़ाम करने आगे जा रहा है।

समझ रहे हैं?

कोई अपने बच्चे को लेकर परेशान है। किसी का प्रेम प्रसंग ठीक नहीं बैठ रहा, तो वह भागा जा रहा है कि आगे जा करके मैं कुछ करूँ। तो वेदान्त को सम्मान पूर्व सब नमस्कार करेंगे और आगे बढ़ जाएँगे। कोई अपने ऑफ़िस की ओर, कोई बच्चे के स्कूल की ओर, कोई बाज़ार की ओर, कोई प्रेयसी के घर की ओर, जिसको जहाँ जाना है अपना। जिसकी जहाँ समस्या है, उधर को बढ़ जाएगा। तो वेदान्त को थोड़ा पीछे रखिए। पहले लोगों की बात करिए।

हम इंसान हैं। हमारे दुख हैं। हम क्या चाहते हैं? कौनसा चेहरा है जो उदास नहीं है? उनकी उदासी से बात करिए।

आपका उद्देश्य वेदान्त का प्रचार नहीं हो सकता है। मूल उद्देश्य होता है दुख का निवारण। हाँ, दुख के निवारण में यदि वेदान्त एक अच्छा उपाय बनता है, तो बहुत अच्छी बात है।

अंतर समझिएगा!

आपका मिशन यह नहीं हो सकता कि मैं फ़लानी विचारधारा या दर्शन लेकर के आया हूँ, जो मैं चाहता हूँ कि जन-जन में फैले। यह बात नहीं हो सकती। क्योंकि ऐसा करने वाले बहुत हैं। प्रचारक हैं, मिशनरी हैं, प्रापगैन्डिस्ट (प्रचारक) हैं, वह कर रहे हैं। उन्हें कुछ सफलताएँ भी मिलती हैं। पर उनको जो सफलताएँ मिलती हैं, उससे दुनिया बदल नहीं जाती। उससे मानव मात्र का दुख मिट नहीं जाता।

इंसान के दुख को संबोधित करिए! और जब आप इंसान के दुख को संबोधित करेंगे, तो पाएँगे कि दुख के तल पर हम सब बिलकुल एक हैं। आत्मा एक है — यह बात बहुत बाद की है। आत्मा के एकत्व से पहले देखिए कि दुख के तल पर कितनी एकता है, हम में।

कौन है, जो दुखी नहीं है? और कौन है, जिसे सुख की तलाश नहीं है? और कौन है, जिसे थोड़ा भी सुख नहीं मिलता? और कौन है, जो सुख जितना पाता है, उससे दस गुना दुख नहीं पाता है?

यहाँ बात करिए न कि हम क्या चाहते हैं वास्तव में? और जो हम चाहते हैं, उसको पाने का सही रास्ता क्या है? क्या हम समझते भी हैं कि हम कौन हैं? अगर हम नहीं जानते, हम कौन हैं, तो हमें कैसे पता कि कौनसी चीज़ जीवन में चाहने लायक है? कामनाएँ तो अँधी हैं। इधर से सुन लिया फ़लानी चीज़ को चाहो, उधर से सुन लिया, उस चीज़ को चाहो। हम चाहने लग जाते हैं।

मूल चाहत क्या है, कैसे पता करें? मूल चाहत नहीं पता, तो दुख है फिर। नहीं जानते यदि आप कि आपको वास्तव में क्या चाहिए, तो पाएँगे कैसे वह, जो आपको चाहिए? जब इतनी बात हो जाती है, उसके बाद वेदान्त परिदृष्य में आता है। अन्यथा आप उपनिषदों की प्रतियाँ लेकर के घूमते रहिए, कुछ नहीं होने का। बहुत संस्थाएँ है जो ऐसा काम कर रही हैं। गीता, उपनिषद् इत्यादि का वितरण हो रहा है।

आपकी संस्था भी तो उपनिषदों का वितरण करती है। लोगों के घर में उपनिषद् पहुँच जाते हैं। अधिकांश लोगों को तो समझ में ही नहीं आते। अभी आप लोगों में वितरित करने के लिए, सुबह के कार्यक्रम में आप सब वेदान्त साहित्य पढ़ते हैं, आज भी पढ़ा होगा? तो आप लोगों में वितरित करने के लिए उपनिषदों की प्रतियाँ तैयार की जा रही थीं। तो मेरे सामने आठ-दस बल्कि बारह-चौदह विकल्प लाकर रख दिए गए कि आचार्य़ जी बता दीजिए, इनमें से कौन सी हैं, जो महोत्सव के प्रतिभागियों में बाँटी जाएँ?

मेरे लिए समस्या हो गई, वाक़ई। मैं प्रश्न उपनिषद् उठाऊँ, मैं मुण्डक उपनिषद् उठाऊँ, मैं तैत्तिरीय उपनिषद् उठाऊँ। और यह वह उपनिषद् हैं, जिन पर मैंने पहले ही खूब बोला हुआ है। एक-एक श्लोक पर घंटो-घंटो बोला हुआ है। और मैं उनको उठाकर के देखूँ और पढूँ। मैं कहूँ, यह बहुत-बहुत क़ीमती चीज़ है। बहुत सुंदर है।

लेकिन मैं ख़ुद ही तुम्हें यह ज़रा बोलकर सुनाए देता हूँ, मुझे बताओ कि जो यह पढ़ेंगे, उन्हें कैसे समझ में आ जाएगी? वह इसको सम्मान दे लेंगे? क्योंकि सुनने में बहुत ऊँची चीज़ लग रही है यह। पर उन्हें समझ में नहीं आने की। एक श्लोक को दो-दो, तीन-तीन घंटे, एक-एक शब्द को खोल कर समझाना पड़ता है, तब वह भीतर जाता है; तब भी नहीं जाता! कुछ (ही) लोगों के भीतर जाता है।

तो बस आप यूँही लोगों से कहने लगेंगे, ‘वेदान्त! वेदान्त!’ तो कुछ ख़ास होगा नहीं। आप उपनिषद् उनको दे दीजिए, वह ले लेंगे, वह खोल लेंगे, क्या होगा? उनके दुख से जोड़ना पड़ेगा, उपनिषद को।

और उपनिषद् की उत्पति ही मानव के दुख को मिटाने के लिए है। ऋषियों की करुणा से उपजे हैं, उपनिषद। हम दुखी हैं, इसलिए उपनिषदों की रचना हुई; नहीं तो उपनिषदों की कोई आवश्यकता नहीं थी। ऋषियों को मौन प्यारा है। चुप रहते, कुछ नहीं कहते।

आप ने कहा अलग-अलग जातीयता के लोग रहते हैं, अलग-अलग वर्गों के लोग रहते हैं। उनसे बात तो करो। सब तरीक़े के विभाजनों के पीछे लिंग भेद है, आर्थिक भेद है, राजनैतिक भेद है। इन सब विषमताओं के पीछे हम सब एक हैं। क्योंकि हम सब सूने हैं और हम सब उदास हैं। हाँ, कुछ लोगों की उदासी एक तरीक़े से अभिव्यक्त होती है। दूसरों की उदासी दूसरे तरीक़े से।

और कुछ लोग तो ऐसे जो अपनी उदासी को सफलतापूर्वक छुपा भी ले जाते हैं। हम उनको कह देते हैं, 'देखो, यह बड़े प्रसन्न हैं।' नहीं! वह 'प्रसन्न-उदास' हैं। कुछ क्या हैं? कुछ खुल्ले उदास हैं। कुछ उदास,उदास हैं। और कुछ प्रसन्न, उदास हैं। जब तक इंसान है, इंसान की हस्ती ही उसका शोक है। शोक का कुछ पता नहीं और दर्शन की बात करोगे, तो बहुत लोगों को स्पर्श नहीं कर पाओगे।

सामनेवाले की आँख में झाँककर देखना सीखो। ज्ञान तो कोई भी दे सकता है। किसी के दिल पर हाथ रखना सीखो। उसके बाद ज्ञान की बात करना। जिससे तुम्हारा आत्मीयता का रिश्ता नहीं, तुम्हारा सूखा ज्ञान उसके क्या काम आएगा?

बजाओ ढिंढोरा कि वेदान्त प्राचीनतम दर्शन है, उच्चतम दर्शन है। तुम्हारे ढिंढोरे से उस व्यक्ति के आँसू सूख गए क्या? और यह बात मैं एक विशुद्ध वेदान्ती होने के नाते कह रहा हूँ। जो मैं बात अभी कह रहा हूँ, वही बात वेदान्त कहता है। वेदान्त स्वयं कहता है कि सत्य तक जाना है, तो तथ्य से शुरूआत करनी पड़ती है, और हमारा तथ्य दुख है। कुछ और?

प्र: मैंने बात की है स्कूल में जाकर भी, और अलग-अलग जगहों पर भी, पर जब मैं कुछ बताता हूँ, तो ऐसा लगता है जैसे दूसरों को कॉपी (नकल) करके बता रहा हूँ। यह मैं ख़ुद नहीं जान पा रहा हूँ। जैसे कि मैं पहले ओशो जी को सुनता था, फिर आपको सुना है। बताने के बाद मुझे भी अंदर से हिम्मत आनी चाहिए कि मैं जो बता रहा हूँ, यह मैं ख़ुद अनुभव करता हूँ, जानता हूँ।

तो ईमानदारी से कहूँ तो मुझे लग रहा है कि कई बार मैं धूमिल हो जाता हूँ। और रात को थोड़ासा खाली सा महसूस होता है। कि यह जो मैंने बताया, क्या असल में मैं जानता भी हूँ या मैं सुन के बता रहा हूँ। स्त्रोत जो है, गुरू के स्त्रोत से आ रही है; मेरे अनुभव की तो नहीं है।

तर्क से तो मैं जीत जाता हूँ लेकिन ईमानदारी से बोलूँ तो उनके सामने बोल तो दिया, लेकिन मैं उनसे जुड़ नहीं पाता हूँ। जैसे आपने कहा कि उनका जो दर्द है, उनकी पीठ पर हाथ रख कर उनको मैं ठंडा नहीं कर पाया। मतलब उनके दुख से संपर्क नहीं जोड़ पाया हूँ।

आपने सही कहा कि तर्क से आप जीत सकते हैं, उनको आप किताबें बाँट सकते हैं, लेकिन यह बात सच है कि उनके दुख से जुड़ नहीं पा रहे हैं। यह बात तो सच है। आप तर्क से जीत तो सकते हैं, डिस्कशन (विवाद) में घंटों उनसे बात कर सकते हैं लेकिन जो जीत जाता है तर्क से, वह रात को खाली-खाली महसूस करता है। क्योंकि जो उसने सीखा है, वह ख़ुद तो नहीं जानता। कई बार सेल्फ डाउट (आत्म शंका) भी होता है। शायद उम्र की कमी है या जो भी है।

प्रयास किया है मैंने। दुख की बात की जाए, तो ज़्यादातर लोगों का दुख यही होता है कि यह गरीब देश है, तो वह यह सोचते हैं कि भारत बहुत तरक्की कर रहा है। वहाँ के लोगों की आय ज़्यादा है, वहाँ का जो लाइफ़स्टाइल (जीवनशैली) है, एक फ़ोर व्हीलर (चौपहिया वाहन) लेना है, उसी का जो कॉस्ट (लागत) है नेपाल में वह दो सौ गुना ज़्यादा है, तो उस स्टैंडर्ड (मानक) पर सब जाना चाहते हैं।

जैसे कि इंडिया जाना चाहते हैं, विदेश जाना चाहते हैं। तो सब लोगों का दुख यही है कि सुख पूर्वक जीवन बीते, जैसे विदेशों में लोग बिता रहे हैं। तो वेदान्त पढ़ पाना बड़ा मुश्किल है। उनका यह तर्क है कि पढ़कर होगा क्या। तो आम लोगों का प्रश्न है कि यह पढ़कर मिलेगा क्या, इसमें है क्या, कुछ भी तो नहीं है।क्या हमारे बेटों को कार मिलेगी, इससे अच्छी लाइफ़स्टाइल (जीवन शैली) मिलेगी? तो यह समझा पाना बहुत मुश्किल है। पता नहीं कितने जन्म लगेंगे?

आचार्य: नहीं, उनका प्रश्न बिलकुल वाजिब है न? तुम उनको कह रहे हो, आप अपना समय वेदान्त को दीजिए, वह बिलकुल ठीक पूछ रहे हैं कि क्या मिलेगा इससे? और हर व्यक्ति को यह प्रश्न पूछना चाहिए। झूठी आस्था रखकर के तुम कह दो, 'हाँ, हाँ, मैं ज़रूर पढूँगा, मैं ज़रूर पढ़ूँगा! उपनिषद् हैं, ऊँची पुस्तकें हैं, ज़रूर पढूँगा!' तो फिर निश्चित ही है कि या तो पढ़ोगे नहीं या पढ़ोगे भी, तो कुछ पाओगे नहीं।

कोई भी काम करने से पहले उसका औचित्य तो स्पष्ट होना चाहिए न? 'तो मैं क्यों पढूँ उपनिषद्?' पूछने वाले बिलकुल ठीक पूछ रहे हैं। बताओ भैया यह तुम लेकर के आए हो, मैं यह क्यों पढूँ? और आपके पास इसका एक ठोस जवाब होना चाहिए। और वह जो ठोस जवाब है, वह आपके ज्ञान से नहीं आएगा, वह ठोस जवाब सामने वाले की स्थिति से आएगा।

मरीज़ अगर पूछे, ‘मैं फ़लानी दवाई क्यों खाऊँ?’ तो इसके उत्तर की शुरूआत चिकित्साशास्त्र से होगी या मरीज़ की तकलीफ़ से? सोच के बोलिएगा! एक मरीज़ है, उसे खाँसी आ रही है खूब और आप उसे दवाई देना चाहते हैं और वह पूछ रहा है, 'मैं यह दवाई क्यों खाऊँ?'

आप अपने जवाब की शुरूआत उसे फेफड़ों की जैविक संरचना समझा कर करेंगे? लंग्स की एनाटॉमी (शरीर रचना विज्ञान) समझाने लगेंगे क्या? या आप अपने जवाब की शुरूआत इससे करेंगे कि देखो, ग़ौर करो, तुम पिछले आधे घंटे में आठ बार खाँस चुके हो और तुम बहुत ज़ोर से खाँस रहे हो। तुम अपनी तकलीफ़ के प्रति थोड़े संवेदनशील हो जाओ। तुम बीमार हो।

अचानक वह जगेगा! 'हाँ, यह सही है। मैं बहुत खाँस रहा हूँ और खाँसते हुए मुझे अच्छा नहीं लग रहा, मेरा गला बैठा जा रहा है।' अब वह आपकी सुन सकता है। अब आप चाहें, यदि आवश्यक हो, तो उसको मेडीकल साइंस (चिकित्सा विज्ञान) का ज्ञान भी बता सकते हैं। कि देखो, तुम खाँस इसलिए रहे हो, क्योंकि फेफड़ों में कुछ संक्रमण हो गया है। अब आप बता सकते हैं।

पर यदि उसको अभी पता ही नहीं है कि वह बीमार है और आप उसके सामने लंग्स की एनाटॉमी खोल कर रख दें, तो कहेगा, 'हटाओ! मैं ज़रा बाज़ार जा रहा हूँ, आइसक्रीम खाने।' शुरूआत हमेशा इंसान से होनी है।

कोई भी चीज़ हमसे बड़ी नहीं और यह बात भी वेदान्त ही बताता है। आप ही हैं सब कुछ, ज्ञान भी आपके लिए है, भक्ति भी आपके लिए है, समस्त संसार भी आपको ही प्रतीत होता है। सब दुखों के भोक्ता आप हैं, सब सुखों के आग्रही भी आप हैं और मुक्ति के आकांक्षी भी आप ही हैं। आप के अतिरिक्त और कोई नहीं।

तो वेदान्त भी फिर किसके लिए? आप ही के लिए। आपको अपना ही नहीं पता, तो वेदान्त किसी काम का नहीं। जो मरीज़ अभी यह मानने को ही तैयार नहीं की वह मरीज़ है, दवाई उसके क्या काम आएगी? उसको दे दो दवाई, वह या तो खाएगा नहीं या आधे-अधूरे तरीक़े से थोड़ी-बहुत खाकर छोड़ देगा। दवाई खाने की प्रेरणा भी आपको कहाँ से मिलती है?

(श्रोताओं से प्रश्न पूछते हुए) कहाँ से मिलती है?

अपनी बीमारी से। जो अपनेआप को अभी बीमार जानता नहीं या जो अपनी बीमारी के प्रति संवेदनशील नहीं; दवाई उसके काम नहीं आ सकती। वेदान्त दवाई है। दवाई से पहले बीमारी का संज्ञान आवश्यक है। और यहीं पर सबसे बड़ी चुनौती है क्योंकि दवाई तो बहुत पुरानी है और दवाई तो शर्तिया सफल होकर रहेगी।

दवाई में कोई समस्या नहीं है। समस्या इसमें है कि लोग अपनेआप को बीमार मानते नहीं। अहंकार को चोट लगती है। अहंकार बुरा मानता है अपनेआप को बीमार स्वीकार करने में। कहता है, 'मैं बीमार हूँ! मैं बीमार हूँ, मैं कैसे बीमार हूँ?'

अब खाँसी का तो फिर भी प्रकट प्रामण होता है। देखो, तुम खाँस रहे हो, तुम बीमार हो। लेकिन ज़िदंगी ख़राब है, इसका कोई प्रकट प्रमाण नहीं होता। फेफड़ा ख़राब है, यह बात तो सिटी स्कैन में भी दिख जाएगी। फेफड़ा ख़राब है। यह बात ज़ाहिर हो जाती है। जिदंगी ख़राब है, यह बात उतनी ज़ाहिर नहीं होती। यह बात उसको ही ज़ाहिर होती है, जिसमें स्वयं के प्रति थोड़ी ईमानदारी होती है।

नहीं तो ज़्यादातर लोग यही कहते हैं, 'सब कुछ ठीक चल रहा है। हम सब जानते हैं। हम से पूछो, हम बताएँगे।’ ज़िदंगी कैसी? ‘मस्त! सब चंगा! हैप्पी-हैप्पी! खुशियाँ-ही-खुशियाँ। वधाइयाँ।' और यह आदमी वह है, जो सोने के लिए नींद की गोली लेता है। यह आदमी वह है, जो तीन घंटे अकेले नहीं रह सकता है, तुरंत तड़प के फ़ोन की तलाश करता है। यह आदमी वह है, जो अपनी नौकरी या धंधे में बिना बेईमानी के जी नहीं सकता। यह आदमी वह है, जिसकी ज़िंदगी में सौ तरह के डर हैं। और इसके पास जाकर के पूछो, ‘हाँ, भाई की हाल?’ ‘खुशियाँ!’ यह है सबसे बड़ी समस्या। यह है चुनौती।अहंकार को यह स्वीकार करवाना कि तेरी हालत बहुत ख़राब है, मान जा!

काश! कि कोई सिटी स्कैन उपलब्ध होता अहंकार का। काश! ज़िदंगी की पैथोलॉजी से कोई रिपोर्ट आ सकती। आती नहीं न। वह रिपोर्ट चाहिए। वह रिपोर्ट आ जाएगी, फिर वेदान्त की दवाई काम करेगी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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