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वासना न पूरी होने की हताशा
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: मैं अर्थशास्त्र विषय में अनुसंधान कर रहा हूँ। मैं अपने विभाग में मेरी एक सीनियर छात्रा से अनुसंधान के कार्य के दौरान संपर्क में आया। उन्होंने मुझसे सांख्यिकी विषय में मदद ली थी, इसी दौरान मैं उनकी ओर आकर्षित होना शुरू हुआ। इस आकर्षण के कारण मेरी पढ़ाई, मेरा अनुसंधान बाधित हो रहा है और मेरे सहपाठी मुझसे आगे जा रहे हैं, जिससे मेरे अंदर क्रोध तथा ईर्ष्या जैसे विकार उत्पन्न हो रहे हैं। यही नहीं विभाग के सभी लोगों के साथ, मेरा व्यवहार भी बिगड़ता जा रहा है। आचार्य जी मुझे ये बताने की कृपा करें कि कैसे मैं अपने सीनियर से निडरतापूर्वक बिना आकर्षित हुए बात भी कर सकूँ और अपने अनुसंधान पर ध्यान भी दे सकूँ?

आचार्य: इसमें से ज़्यादातर बातें तो तुम खुद ही समझते हो न? तुम यूनिवर्सिटी क्या करने गए थे?

प्र: पढ़ने गए थे।

आचार्य: पढ़ लो बेटा! फिर तुम्हें कोई वाकई लाभ दिखता हो? तो जो भी कोशिश कर रहे हो उसको आगे बढ़ाओ। तुम्हारी कोशिश सफल भी हो गयी तो क्या पाओगे?

ये सब आकस्मिक घटनाएँ हैं। जिस व्यक्ति की बात कर रहे हो, वो तुम्हारी आँखों के सामने पड़ जाता है, तो इसीलिए बार-बार इंद्रियों पर अंकित हो जाता है, मन में उभर आता है। यही दो-चार छह महीना तुम्हारे सामने न पड़े तो भूल जाओगे। कोई और आ कर के उसकी जगह घेर लेगा और यही व्यक्ति तुम्हारी आँखों के सामने नहीं पड़ा होता, तो तुम्हारी जिंदगी में कोई कमी नहीं आ गयी थी, चल ही रही थी न जिंदगी? परेशानी तो अब पैदा हुई है, पहले तो चल ही रही थी, जैसी भी थी।

तो इंद्रियों का खेल है और इंद्रियों पर अगर नियंत्रण नहीं कर पा रहे हो तो यही कर लो कि अपने आपको शारीरिक रूप से थोड़ा-सा दूर कर लो कि रोज-रोज न देखने को मिले या जब भी होता है हफ्ते,दस दिन, जितना भी तुम्हें...। कुछ ऐसा मामला है क्या कि आसपास, साथ-साथ ही काम होता है या लगातार दिखाई ही पड़ते रहते हो?

प्र: हाँ।

आचार्य: हाँ, तो अब वही है इधर-उधर अगर किसी तरह से स्थानांतरित हो सकते हो, डिपार्टमेंट में अगर ट्रांसफर का कोई प्रॉविजन है तो उसका उपयोग कर लो। क्योंकि सामने तो कुछ भी दिखेगा तो हम तो ऐसे हैं कि- जैसे केमिकल। ये बगल में क्या है? हीटर और ये क्या है? खम्बा, इसे गर्म हो ही जाना है। अब मैं इससे ये उम्मीद तो रख नहीं सकता कि ये 'जीवन-मुक्त' हो जाएगा। तो इसका एक ही तरीका है खंभा उठा करके कहीं और रख दो या फिर ये जो जड़ पदार्थ है (शरीर की तरफ इशारा करते हुए) इसको चेतना से संचालित कर दो, वो लंबा काम है देखो। जड़ पदार्थ से मेरा अर्थ है वो मन- जो चलता है रसायनों पर, केमिकल्स पर, या तो मन ऐसा कर लो कि अब वो हार्मोनल नहीं है, केमिकल नहीं है, कॉन्स्कीयस (चैतन्य) है। या तो मन ऐसा कर लो। पर उसमें साधना लगती है, समय लगता है। है न?तो तब तक के लिए यही कर लो कि ये जो विस्फोट है, ये जो एक्सप्लोज़न है, ये जो केमिस्ट्री है, जो होती ही तब है जब दो केमिकल्स अगल-बगल आ जाते हैं बिल्कुल, उसको रोक दो केमिकल्स को थोड़ा दूर करके और शायद अभी, कोई तात्कालिक तरीका नहीं है।

नहीं तो तुम कितना भी ज्ञान ले लो, ये सारा ज्ञान हीटर के सामने विफल हो जाना है। यहाँ से कितना भी तुम लिख-पढ़ के चले जाओ। नहीं, बात मुस्कुराने भर की नहीं है! ये हम सब के जीवन की त्रासदी है। कैसा भी ज्ञान हो, वो मैदान में साथ छोड़ देता है क्योंकि ज्ञान बारीक चीज़ होती है, ज्ञान ऐसा होता है जैसे बीज डाल दिया है मिट्टी में, उसको मजबूत तना बनने में, भाई लगेंगे पाँच-दस साल, तब होगा कि कोई उस पर लात मारे, मुक्का मारे, यहाँ तक कि कोई धारदार चीज भी मार दे, तो वो आसानी से कटने-मिटने वाला नहीं है। तब तुम्हारी चेतना का मजबूत दरख़्त तैयार हो जाता है जो आसानी से हवाओं वगैरह से उखड़ नहीं जाता। उतना होने में वक्त लगता है।

उससे पहले तो यही है कि- अगर नन्हे पौधे को बचाना है, तो बकरी को दूर रखो। हाँ, जब वो विशाल वृक्ष बन जाएगा, तब बकरी को दूर रखने की जरूरत नहीं है। तब तो बल्कि वो बकरी को पनाह में दे सकता है। पर जब तक वो इतना बड़ा न हो जाए कि गाय-बकर-भैंस उसका अब कुछ बिगाड़ ही नहीं सकते, तब तक तो यही बेहतर है कि बीज और गाय-बकरी-भैंस के बीच में जरा दूरी बनाओ, एक बाड़ लगाओ। अगर हालत तुम्हारी ये है कि सुबह-शाम, वहीं काम कर रहे हो, अगल-बगल तो मैं तुम्हें सलाह दे तो सकता हूँ कई तरीके की, विधियाँ बता दूँगा, युक्तियाँ, मैथड्स, ट्रिक्स, ज्यादा संभावना यही है कि सब फ्लॉप हो जाना है और इल्जाम मेरे ऊपर और आ जाएगा। कहेंगे बहुत सीख देकर भेजा था- ये लो! तीन दिन शिविर किया चौथे दिन यहाँ आए, तीस दिसंबर को भी गरम हो गये। आचार्य जी ने बड़ी शीतलता में ट्रेनिंग देकर भेजा तीन दिन और चौथे दिन खंभा फिर गरम। तो ऐसे बात बनने नहीं वाली। तुम बेटा दूर हो जाओ

और अगर दावा ये हो कि प्रेम आत्मिक है। कहानी रूहानी है तो फिर तो मुझसे क्या? किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। फिर तो मामला जूलिएट और रोमियो का है, हीर और रांझा का है। उसमें कोई तीसरा बीच में आ ही नहीं सकता फिर तो लगे रहो। वेसा मामला लग तो नहीं रहा मुझे। तुम्हें लग रहा है?

प्र: नहीं।

आचार्य: छोड़ो फिर!

प्र: जो आपने दूसरा तरीका बताया, जिसमें समय बहुत लगेगा। उसके लिए…?

आचार्य: पहले दूर जाना पड़ेगा! उसके लिए भी पहले थोड़ा दूरी बनानी पड़ेगी। दूरी बनाकर के, अपना भीतर से फौलाद तैयार करना होगा। पौधे को बड़ा होने का और ताकत अर्जित करने का मौका देना होगा। तुम किसी के साथ रहते हो, तुम्हें रोज पीटता है- धड़ाधड़!धड़धड़! अब तुम्हें उससे अगर जीतना है तो सबसे पहले तुम्हें क्या करना होगा? उससे दूर जाना होगा न? क्योंकि आए दिन वो तुम्हारी हाथ-पाँव, टंगड़ी-पसली सब तोड़ता रहता है। उसके पास रहोगे तुम तो मजबूती कैसे पाओगे? तो पहला काम तो ये करो कि दूर जाओ चले जाओ फिर दूर जाओगे तब जाकर अपनी सेहत पर तुम कुछ काम कर सकते हो न? फिर सेहत बना कर फिर वापस आना और सामने खड़े हो जाना और कहना- "अब आओ बेटा!" पर जो तुमसे इतना ज़्यादा मजबूत हो कि रोज ही तुम्हें पछाड़ देता हो, जिसके सामने तुम्हारा शरीर, तुम्हारा मन, सब बिल्कुल विकल-विफल हो जाते हों, उसके सामने-ही खड़े रहोगे तो तुम में ताकत पैदा कैसे होगी?

दूर हो जाओ! ताकत पैदा कर लो! फिर आकर कर के कुश्ती कर लेना। फिर नहीं हारोगे फिर एक क्या? कईयों से नहीं हारोगे। उसके बाद मालिक रहोगे अपने। उसके बाद ऐसा नहीं होगा कि- आँखों में कुछ दृश्य आया, हवा पर कुछ गंध तैरती हुई आई, कानों में कुछ झनझनाती स्वर लहरियाँ पड़ी और बच्चू बहक गये। और होता क्या है? जिसको तुम इश्क कहते हो, वो और क्या होता है? किसी की खुशबू, किसी की अदाएँ, किसी की बालियाँ, किसी की चोलियाँ, यही तो है। ये न हो तो कौन-सा इश्क? किसी की खनखनाती हुई हँसी, किसी की चितवन, किसी की लटें, किसी की जुल्फें।

ये सब क्या हैं? ये इंद्रियों पर हो रहे आक्रमण हैं। तुम ऐसे गोलू हो कि आक्रमण को, आमंत्रण समझ बैठते हो। बड़े खास लोग हैं हम- आक्रमण को आमंत्रण समझना माने कि जैसे तुम्हें पीटा जा रहा हो और तुम सोच रहे हो कि तुम्हारा सम्मान बढ़ाया जा रहा है। वो तुम्हें पीटा जा रहा है- वो लट, वो हट, वो सब तुम्हारा मन बहलाव करने के लिए नहीं है। वो सबसे तुम्हारा मनोरंजन नहीं हो रहा है, लगता तुम्हें ऐसे ही है देखो बड़ा सुख मिल रहा है। आ! हा! हा! क्या भीनी-भीनी सुगंध है? क्या मनभावन छवि है? पर वो सब तुम्हारी आंतरिक पिटाई चल रही है। बड़ा पहलवान टुइयाँ सिंह को उठा-उठा कर पटक रहा है बार-बार। तुम टुइयाँ सिंह हो और वो जो सामने है, वो दिखने में भले ही दुबली-पतली-सी हो पर वो गामा पहलवान है। ये सूक्ष्म बात है समझना- तुम समझते हो कि तुम बड़ी पहलवानी करते हो, जिम जाते हो, तुमने डोले-शोले बना लिए हैं। कुछ नहीं, ये सब ऊपर-ऊपर से हैं तुम्हारे डोले-शोले, अंदर ही अंदर तुम टुइयाँ सिंह हो।

ज़रा -सा तुम पर रूप-यौवन-छवि का धक्का लगता है तुम झट से गिर पड़ते हो। ये मजबूती की निशानी है कि कमजोरी की? तो कमजोर को टुइयाँ सिंह नहीं बोलूँ तो क्या बोलूँ? आँखें चार हुई नहीं, कि तुम बेज़ार हुए! एकदम हिल गए। और सामान्यतः कोई आदमी अगर पिटता है तो उसमें इतनी अकल तो होती है कि जान जाता है कि उसकी पिटाई हो रही है। इन मामलों में जब तुम्हारी पिटाई होती है, तो तुम्हें लगता है कि तुम्हारी बड़ी ख़ातिरदारी हो रही है। हो पिटाई ही रही होती है लेकिन ये बात जाहिर कुछ हफ़्तों, कुछ महीनों, कुछ सालों बाद होती है। फिर पीटी-पीटी शक्ल लेकर हम इधर-उधर घूमते हैं। कोई कहता है- आत्महत्या करनी है, कोई कहता है जिंदगी खराब हो गई, कोई कहता है जिसने मुझे धोखा दिया मुझे उसकी हत्या करनी है। तुम कैसे मुस्काए?( सामने बैठे एक प्रतिभागी से प्रश्न करते हुए), कोई डिप्रेशन में चला जा रहा है। ऊपर-ऊपर जो दिखाई पड़ता है, उसके पीछे क्या है चल रहा है? ये समझने की ताकत पैदा करो!

कौन किस पर हावी है ये सिर्फ इस बात पर नहीं पता चल सकता कि किस की रस्सी किसके हाथ में है? कौन किस पर चढ़ा हुआ है? एक आदमी सरपट अपने घोड़े पर भागा चला जा रहा था और क्या मस्त अरबी घोड़ा धक-धक-धक-धक-धक-धक, तबड़क-तबड़क-तबड़क और खूब हवा बना हुआ था। तो भागते-भागते हैं ऐसे ही गुजरा एक कस्बे से तो लोगों ने कहा, "मियाँ कहाँ इतनी तेजी से उड़े जा रहे हो?" तो बोला- "यही बात तो बार-बार इस घोड़े से पूछ रहा हूँ।" चढ़े यो मियाँ अपनी मर्ज़ी से ही होंगे? घोड़े ने आकर ज़बरदस्ती तो करि नहीं होगी कि- "ऐले! मैं थोड़ा साइड झुका आता हूँ, ऐले! मैं थोड़ा दीवाल से लग कर खड़ा हो जाता हूँ, तू दीवाल पर चढ़कर बैठ जा मन पे!" ऐसा तो हुआ नहीं होगा। मियाँ बड़े सूरमा बनकर चढ़े होंगे कि आज चढ़ी गया मैं घोड़े पर या घोड़ी पर। हिंदुस्तान में तो घोड़ी पर ज़्यादा रिवाज़ है। उसके बाद घोड़ी ने जो हवा से बातें करी हैं, देखने वालों को लग रहा है मियाँ बड़े घुड़सवार हैं। अंदर की बात मियाँ हीं जानते हैं कि कौन किस पर सवार है। जो अंदर की बात है, उसको जानना सीखो!

ऊपर-ऊपर जो है, वो शत-प्रतिशत झूठ है। जो कुछ भी तुमको पहली मर्तबा दिख जाता हो, उसको तो यूँ ही खारिज कर दिया करो कि तत्काल प्रकट हो गया, इतना प्रत्यक्ष दृश्य है, झूठ ही होगा। ज़रा भीतर जाकर के देखा करो! थोड़ा वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखो! ज़रा खोजी का चित्त रखो! नहीं है चीज़ें वैसी जैसी दिखाई पड़ती हैं, नहीं है दुनिया वैसी जैसी तुम्हें प्रकट होती है और चीजें तो वैसे ही दिखाई भी नहीं पड़ती जैसे कि वो चीज भी है। खासतौर पर इंसान तो दिखाई भी तुम्हें वैसे पड़ते हैं, जैसे वो चाहते हैं तुम उन्हें देखो!

कहते हो कि कोई देवी जी हैं जो तुमको बहुत भा गयी हैं। ये तुम्हें तभी दिखाई पड़ती होंगी न जब पूरा साज-श्रृंगार इत्यादि करके तुम्हारे सामने पड़ती होंगी? तो व्यक्तियों का भी कभी हमने प्राकृतिक रूप भी कहाँ देखा? उनका भी हम वही रूप देखते हैं, जो वो हमें दिखाना चाहते हैं। ठीक? खासतौर पर अगर व्यक्ति युवा हो, तो तो उसमें बड़ी-ही वृत्ति रहती है अपना एक बहुत विज्ञापित, बड़ा आकर्षक, बड़ा मनभावन रूप ही दूसरों को दिखाना। दुनिया की कुल कॉस्मेटिक इंडस्ट्री का आकार जानते हो? हैरान रह जाओगे! कॉस्मेटिक्स इंडस्ट्री कितनी बड़ी है, पागल हो जाओगे ये जान के। उस इंडस्ट्री का कुल इस्तेमाल क्या है? यही तो- कि गामा पहलवान को और गामा बना दिया जाए ताकि टुइयाँ को और फूंक में उड़ा दे।

पहली बात तो प्रकृति में भी सत्य होता नहीं और दूसरी बात जहाँ तक ये नर-नारी के खेल का सवाल है, तुम्हें लोग अपने प्राकृतिक रूप में भी कभी दिखाई देते नहीं। वो जब तुम्हें दिखाई देते हैं, तब तक बहुत देर हो जाती है। जो लोग तुमको बहुत आकर्षक लगते हैं, एक बार को कल्पना करना वो तुम्हारे सामने बिना ग्रूमिंग के आ जाएँ तो तुम्हारे आकर्षण का क्या होगा? ग्रूमिंग समझते हो? तुम्हारे सामने बिल्कुल सावधानी के साथ, झाड़-पोंछ कर के, एक नैनाभिराम छवि रख दी जाती है, जिसमें किसी भी ऐसी चीज़ के लिए जगह नहीं होती जो मन को और इंद्रियों को सुख न देती हो। वो सब बातें दबा दी जाती हैं, छुपा दी जाती हैं, प्रकट नहीं होने दी जाती। वो प्रकट हो भी जाएँ तो मैं कह रहा हूँ- प्रकृति भी सत्य नहीं है। लेकिन यहाँ तो हमारे सामने जो छवि आती है वो प्राकृतिक तो नहीं ही है, पूरी तरह से कृत्रिम है।

जब इन सब चीजों से थोड़ी दूरी बना पाओगे, जब अभी दिमाग पर जो मायाजाल छाया हुआ है, उससे थोड़ा हटकर देख पाओगे तो तुम्हें साफ दिखाई देगा कि कोई भी इंसान इन सब बातों में कैसे फँसता है? पूरी प्रक्रिया साफ-साफ दिखाई देगी- साफ दिखाई देगा कि इस कदम पर ऐसे होता है, फिर ऐसे होता है, फिर ऐसे होता है, फिर ऐसे... जैसे पूरा एक एल्गोरिदम हो। इससे आशय मेरा ये नहीं है कि तुम फंस रहे हो, तो आवश्यक है कि किसी ने फंसाया है। मैं नहीं कह रहा हूँ कि किसी और ने साजिश करके फंसाया है तुमको। हम फँसने के लिए इतने बेताब रहते हैं कि जहाँ जाल न हो, वहाँ हम खुद ही जाल बुन लेते हैं कि जैसे कोई चूहा फँसने के लिए इतना बावला हो कि वो अपने लिए खुद ही चूहेदानी का निर्माण भी कर ले।

कामवासना से ज़्यादा सुख की आशा कोई नहीं देता। नहीं देता न? लेकिन इस बात पर कम लोग गौर करते हैं कि जहाँ तुमको कामवासना के पूरे होने की उम्मीद हो और वहाँ वो पूरी न हो रही हो, तो फिर जो फ्रस्ट्रेशन और हताशा उठती है, वो बहुत-बहुत तीव्र होती है। वो इतनी तीव्र होती है कि उसकी लहर में लोग हत्या तक कर जाते हैं। जिसको एक बार ये इच्छा और आशा पैदा हो गई की उसकी वासना को पूर्ति मिलने जा रही है और फिर न पूरी हो तो वो व्यक्ति खुद भी अवसाद में जा सकता है, खुद को भी नुकसान पहुँचा सकता है और दूसरे पर भी हमला करके उसे नुकसान पहुँचा सकता है। अब वो पागल हो चुका है, बिल्कुल अंधा। जैसे कुत्ते को हड्डी दिखा दी गयी हो या तो उसे हड्डी दिखाई न जाती पर अब उसको हड्डी दिखा दी, उसके नथुनों में मांस की और खून की गंध पहुँच गयी है, अब वो बौरा जाएगा, अब वो पागल हो जाएगा। कुत्ते को हड्डी सुंघा कर फिर तुमने अगर उससे हड्डी छीनी तो बहुत काटेगा।

ये जो सारा डिसएप्वाइंटमेंट है, डिप्रेशन है, हताशा है, मायूसी है, ये उठती ही एक झूठी आशा की बुनियाद पर है। झूठी आशा बहुत तीव्र होती है-उसके आगे ज्ञान, ध्यान, सब विफल हो जाते हैं। उसके आगे सिर्फ उनकी चलती है जिन्होंने बहुत अनुशासन के साथ, बहुत संकल्प के साथ, अपने आपको तैयार किया होता है जिंदगी की लड़ाई जीतने के लिए। सिर्फ वो जीतते हैं, बाकी सब को तो धोबी पाठ!

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