प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। यह सवाल मुझे बहुत परेशान करता है कि अगर चेतना ख़ुद को नहीं देख सकती, तो जानने वालों ने किसको जाना? कहते हैं कि सत्य को जाना नहीं जा सकता, शून्यता को ही परमसत्य कहा गया है। वहाँ ना कोई बोलने वाला है, ना कोई सुनने वाला है, तो फिर बोध किसे होता है? कौन है वो? क्योंकि अगर सत्य का अनुभव हो रहा है, तो सत्य 'कुछ नहीं' कैसे हुआ? कुछ तो होगा न जिसे जानने वाले जान जाते होंगे? और अगर सत्य का अनुभव नहीं है, तो जानने वाला कैसे बता पा रहा है कि 'कुछ नहीं' जैसा भी कुछ होता है?
आचार्य प्रशांत: सत्य के बारे में कभी किसी ने कुछ नहीं कहा। लोगों ने जो कुछ कहा है, असत्य के बारे में कहा है, और वो बड़ी कीमती बात है। तुम असत्य को जान लो, इतना बहुत होता है।
सत्य के अनुभव के बारे में भी जिन्होंने कहा है, उन्होंने वास्तव में यही कहा है कि जब सत्य होता है तो हम उन अनुभवों से आज़ाद हो जाते हैं जो हमें सामान्यतया होते रहते हैं। सामान्यतया तुम्हें क्या अनुभव होते हैं?
तुम अपने किसी भी अनुभव के जड़ में जाओगी, तो पाओगी कि वहाँ पर डर, लोभ, ईर्ष्या, तुलना, अविद्या, अंधकार, तृष्णा, एषणा, यही बैठे हुए हैं। वास्तव में ये ना हों तो कोई अनुभव होता ही नहीं है। ये सब ना हों तो जीव ना चलेगा, ना फिरेगा। हम जैसे हैं, हमारा तो इंजन ही डर होता है न। हमारे सारे अनुभव भयजनित होते हैं।
सत्य के सम्पर्क में होने का इतना ही अर्थ होता है कि आमतौर पर जो अनुभव हुआ करते थे, अब वो होने बंद हो गए। सुबह से रात तक लगातार अन्धकार का ही अनुभव होता था, वो होना बंद हो गया। इसी को शून्यता कहते हैं, इसी को सत्य का अनुभव कहते हैं।
सत्य का अनुभव नहीं हो सकता क्योंकि, पहली बात, सत्य कुछ है नहीं जिसका अनुभव किया जाए, दूसरी बात, वो अनुभोक्ता जो साधारण अनुभवों को भोगता है, वो स्वयं अज्ञान और अंधकार द्वारा निर्मित होता है। सत्य तो तब है जब ये अनुभोक्ता ही मिट गया, ख़त्म हो गया, कहाँ से होगा अनुभव?
दो-दो कठिनाइयाँ हो गईं न सत्य का अनुभव करने में। पहली कठिनाई यह कि सत्य कोई वस्तु नहीं जिसका अनुभव हो और दूसरी कठिनाई यह कि सत्य के समीप आते-आते अनुभोक्ता ही विगलित हो जाता है, मिट जाता है, फ़ना हो जाता है।
तो पहली बात तो कोई चीज़ नहीं जिसे देखा जाए, दूसरी बात, सत्य के क़रीब आते जा रहे हो, आते जा रहे हो, तो जो देखने वाला था, वो भी मिटता जा रहा है। तो कौन बचा दृष्टा, और दर्शन किसका होगा? कोई दर्शन नहीं होने वाला। ना कोई दृश्य है, ना कोई दृष्टा है, दर्शन कहाँ से आ गया!
हमारे लिए तो इतना ही काफ़ी है कि हमें हमारे रोज़मर्रा के झंझटों से मुक्ति मिल जाए। ये जो रोज़ के राग-द्वेष, मोह-विद्वेष इत्यादि हैं, कलह-क्लेश हैं, इनसे आज़ादी मिल जाए। इन अनुभवों से पिंड छूटे, यही बहुत है। इसी का नाम है सत्य का अनुभव।
इन्हीं अनुभवों से जब तुम खाली हो जाते हो तो उसे कहा जाता है शून्यता। खाली हो जाना माने इन्हीं अनुभवों से शून्य हो जाना। ना वहाँ कुछ है, ना वहाँ कोई पहुँचता है। और यही ख़ूबसूरती है सत्य की कि ये जो तुम कष्टकाया उठाए घूम रहे हो, ये कष्टकाया वहाँ मिट जाती है। इस बात को अपना दुर्भाग्य मत समझ लेना कि सत्य तक तो कोई पहुँचता ही नहीं; यही तो तुम्हारा सौभाग्य है, क्योंकि अगर तुम वहाँ पहुँच गए होते, तो इसका अर्थ ये होता कि तुम्हारी कष्टकाया वहाँ पहुँच गयी, वहाँ पहुँच गयी अर्थात् अभी भी बची हुई है। तो यह तो अच्छी ही बात है न कि मिट गए—तुम नहीं मिटे, कष्टकाया मिटी। कष्टकाया माने? कष्ट, दुःख। यही तो चाहते हो न?