उसकी आँखों में तुम्हारी ही तस्वीर है || आचार्य प्रशांत, कार्यशाला (2023)

Acharya Prashant

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उसकी आँखों में तुम्हारी ही तस्वीर है || आचार्य प्रशांत, कार्यशाला (2023)

प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी। जो हम पौराणिक विचारधाराएँ सुनते हैं और हम बड़े लूज़ली (शिथिल) ‘सनातन परंपराओं' जैसे शब्द बोलते हैं उसमें एक ख़ास प्रकार की महत्वता हम किंचित पशुओं को देते हैं। चूँकि मैं पशुओं के ही कल्याण के क्षेत्र में काम करती हूँ, तो हिंदू होने के नाते हमें बताया जाता है कि फर्स्ट अमोंग इक्वल्स (बराबरी में पहले) गाय होती है।

गाय में पौराणिक देवी-देवताओं की छवि होती है—वगैरह-वगैरह—और कुछ पशु निम्न होते हैं। इसके बारे में हमें वेदान्त से क्या पता लगता है या इसका हम क्या अर्थ निकाल सकते हैं? क्या यह बिलकुल ही ऐसी सोच है जिसको नकारात्मक कर देना चाहिए या इसमें कोई सच्चाई है?

आचार्य प्रशांत: वेदान्त इस बारे में बहुत स्पष्ट है और बहुत सीधी बात करता है। सनातन धर्म की परिभाषा से ही शुरु करते हैं। चेतना का कल्याण ही धर्म है—यही परिभाषा दी थी न। जब हम कह रहे हैं, ‘मन को आत्मा की ओर ले जाना ही सनातन धर्म है।' तो उसी को दूसरे शब्दों में कहेंगे, ‘चेतना का—दोहराइये—चेतना का कल्याण ही धर्म है।' इसके अतिरिक्त और नहीं कुछ धर्म होता!

क्या इस परिभाषा में कहीं कहा गया है, मनुष्य की चेतना का कल्याण धर्म है? चेतना मात्र का—कोंशियसनेस वेयरएवर इट इज़ (चेतना कहीं भी हो)—उसका कल्याण ही धर्म है। अगली बात, क्या चेतना अपने मूल स्वरूप में अलग-अलग प्रकार की, अलग-अलग रंग की होती है या चेतना एक ही होती है? जिन्होंने जाना है उन्होंने कहा है, ‘पीर सबन की एक है, मुर्गी, हिरनी, गाय।' दर्द तो सबको एक-सा होता है न और चेतना की मूल पहचान ही क्या है, हमने क्या कहा, जन्मगत हमें क्या मिला है?

आचार्य: तो चेतना की मूल पहचान ही क्या है? दुख और बंधन और पीर। पीर माने? पीड़ा। और पीड़ा तो मुर्गी हो, कि हिरनी हो, कि गाय हो, कि उसके आगे आप और जोड़ दीजिए। मनुष्य को जोड़ दीजिए, सौ और जीव-जंतु। सब की पीड़ा तो एक-सी होती है न। बंधन से तो सब छटपटाते हैं न।

वृत्तियाँ भी सब में एक-सी होती हैं—जो मूल वृत्तियाँ है। क्रोध पशुओं को आता है। मनुष्यों में माँ होती है, उसको बच्चे के पैदा होते ही ममता है, गाय को भी है। लेकिन वही ममता तो आप अन्य जीवो में भी पाते हो न। पक्षियों में भी पाते हो। वही ममता तो आप मुर्गी में भी पाते हो कि नहीं पाते हो?

तो चेतना तो सब में ही एक-सी है, बस उसकी अभिव्यक्ति अलग-अलग तरीके से होती है न। मनुष्यों में भी ऐसे तो स्त्री की चेतना और पुरुष की चेतना की अभिव्यक्ति अलग-अलग तरीके से होती है, होती है कि नहीं? साफ़ पता चलता है! आप बातचीत सुने तो पता चल जाएगा—स्त्रियाँ बात कर रही हैं, पुरुष बात कर रहे हैं। लेकिन उनके मूल में जो चैतन्य तत्व है वो एक ही होता है।

स्त्री भी जो बातें कर रही है वो चाहती तो मुक्ति ही है। क्योंकि स्त्री को भी क्या है, जन्म से ही…? और पुरुष भी जो बात कर रहा है, वो चाहता तो…? क्योंकि उसको भी जन्म से क्या है? देह भाव ही…। और दुख तो सब जीवों को है।

तो जिसको वेदान्त समझ में आएगा, वो कहेगा, ‘चेतना जहाँ भी मिले, वो वास्तव में मेरी ही तो चेतना है। और अगर चेतना का कल्याण ही धर्म है तो मैं कैसे कह दूँ कि इस चेतना को मुक्ति देनी है और उस चेतना को मृत्यु देनी है। मैं कैसे किसी को दुख दे सकता हूँ, मार कैसे सकता हूँ किसी को।

नहीं समझें आप?

वेदान्ती होने का मतलब, वेदान्त समझने का मतलब है कि आपके लिए यह जो है, कॉन्शियस एलिमेंट (चैतन्य तत्व) उसके अलावा कुछ और महत्वपूर्ण नहीं रह गया। यहाँ तक कि सत्य और आत्मा भी महत्वपूर्ण नहीं रह गए। क्योंकि उनको किसने देखा, उन्हें कौन जानता है? मुक्ति मैं जानता नहीं मैं तो…? मैं तो…? बंधन जानता हूँ! तो मेरे लिए क्या महत्वपूर्ण है सबसे ज़्यादा? मेरे बंधन ही सबसे महत्वपूर्ण हैं न।

और बंधनों में एक बंधन यह है कि मैं उसकी चेतना को अपनी चेतना से भिन्न जानूँ। उसकी चेतना को अपनी चेतना से भिन्न जानने से ही मेरे भीतर एक चीज़ पैदा होती है, उसको क्या बोलते हैं? अहंकार। मैं कह दूँ, ‘यह मुझसे अलग है'—यही तो मेरा अहंकार है न। अहम्, मैं! ‘और ‘मैं' में आप नहीं शामिल हैं, आप अलग हो भाई! यह पराए, मैं!' (स्वयं को अलग दिखाने का अभिनय करते हुए)

समझ में आ रही है बात?

बंधनों में भी मूल बंधन यह है कि मैं उसकी चेतना को अपनी चेतना से…? तो सामने मेरे मुर्गा है, उसकी चेतना को मैं अपनी चेतना से अलग जान रहा हूँ, यह तो मेरा अहंकार ही हो गया न। और अहंकार माने मैंने अपने लिए दुख बना लिया। उसको मार कर खा रहा हूँ, वो थोड़ी मरा है, मैं खत्म हो गया।

समझ में आ रही है बात?

जब आप अपने प्रति करुणा से भरे होते हैं—और यह पहली चीज़ है जो चाहिए, अगर मुक्ति हो। अपने प्रति तो सद्भावना होगी न। आप कैसे अपना कल्याण कर पाओगे, अगर आप अपने शुभचिंतक ही नहीं हो, कर पाओगे? अपना शुभचिंतक होने का मतलब किसका शुभचिंतक होना? चेतना का।

मैं कैसे चेतना का शुभचिंतक होऊँगा, अगर मेरे सामने एक जीवित चेतना है और मैं उसकी गर्दन पर छुरी चलाने को तैयार हूँ, खा जाऊँगा, या उसको पीड़ा दूँगा, या उसके ऊपर चढ़ जाऊँगा, उसका माँस या अंडे या उसका फ़र, कुछ भी लूटूँगा—जितने तरीकों से हम तड़पाते हैं, तड़पाऊँगा।

नहीं समझ में आ रही बात?

मनुष्य के कल्याण की बात नहीं है, क्योंकि मनुष्य से तो ऐसा लगता है कि मनुष्य माने यह सब भी आ गया। (अपने शरीर की ओर इशारा करते हुए) फिर तो आप यह भी बोल सकते हो कि मैं अपनी खाल रगड़ के चमका रहा हूँ, तो अपना कल्याण कर रहा हूँ। चेतना का कल्याण हुआ न। वेदान्त जब बात करता है तो चेतना के कल्याण की बात करता है।

चेतना तो उधर भी है। उसकी पीड़ा, मेरी मुक्ति के साथ कैसे चल पाएगी भाई? कैसे? अगर मैं उसकी चेतना को दुख दे सकता हूँ, तो माने मैं चेतना को दुख दे सकता हूँ। अगर उसकी चेतना को दुख दे सकता हूँ तो, अपनी चेतना को भी तो दूँगा न। इसलिए बार-बार बोलता हूँ, जो व्यक्ति एक के प्रति हिंसक है, सबके प्रति हिंसक होगा और साथ-ही-साथ अपने प्रति हिंसक होगा।

तुम किसी को भी अगर दुख दे सकते हो तो तुम बर्दाश्त कर लोगे कि कोई तुम्हें भी दुख दे दे। तुम किसी के सामने भी अगर झुक सकते हो तो तुम बर्दाश्त, बर्दाश्त ही नहीं करोगे, तुम चाहोगे कि कोई और तुम्हारे सामने झुके। देखते नहीं हो, दफ्तर में बॉस से पिट के आते हो, घर में बच्चों को पीट देते हो। यह क्या किया है? यह बर्दाश्त कर लिया है शोषण। दफ़्तर में शोषक को बर्दाश्त करा था, तो इसीलिए घर आकर स्वयं शोषक बन गए।

उसकी गर्दन पर जब स्वीकार कर लोगे कि कोई छुरी चला रहा है तो तुम्हारी गर्दन पर भी जब छुरी चलेगी तो बर्दाश्त करना पड़ेगा। और कहीं दूसरे लोक में जाकर नहीं, यहीं पर तो! क्योंकि पता है, उसके साथ गलत किया था, अब तुम्हारे साथ गलत हो रहा है, तो भीतर तो एक न्याय की व्यवस्था बैठी हुई है न। वो कहेगी, ‘बेटा, अब इतना क्यों शोर मचा रहे हो? जब दूसरों का दमन कर रहे थे तब होश कहाँ था? अब तुम्हारे साथ हो रहा है तो क्या रो रहे हो?'

देखिए, कोई वज़ह है कि ज्ञानियों में मैं सबसे अग्रणी संत कबीर को मानता हूँ। करुणा की बात सब ने करी है और सब मेरे लिए आदरणीय हैं—सब संत लोग। लेकिन पशु हिंसा के विरोध में जितना मुखर कबीर साहब हुए, उतना कोई और नहीं हुआ। और ऐसे समय में जब पशु हिंसा लगभग सामान्य हो चली थी।

मुसलमानों में तो माँस और गोश्त का रिवाज़ था ही था और हिंदू अपने कर्मकांड के चलते खूब बलियाँ दिया करते थे। तो दोनों ही पक्षों में जानवरों का खून खूब बहाया जा रहा था। ऐसे समय पर उन्होंने खूब बोला, खूब बोला, खूब बोला पशु हिंसा के विरुद्ध। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि वेद भी झूठे हैं, अगर वेदों में पशु हिंसा की बात है। एक है उनका कर लीजिएगा, पर मैं मोटा-मोटा उसको उद्धरत करे देता हूँ कि ‘अश्वमेध अजमेध गोमेध—ऐसे कुछ करके—कहें कबीर अधर्म को, धर्म बतावें वेद।

मूल दोहा–

अजामेध गोमेध जग, अश्वमेध नरमेध। कहै कबीर अधर्म को, धर्म बतावै वेद ॥

कह रहे हैं कि अगर वेदों में भी यह सब बात है न अजमेध, अजमेध माने बकरे को काटना, अश्वमेध माने घोड़े को काटना, गौमेध माने गाय को काटना। बोलें, ‘वेदो में भी अगर यह सब मेध की बात है, तो कहैं कबीर अधर्म को, धर्म बतावै वेद।'

वो जाकर वेदों से भी भिड़ गए। बोले, अगर तुम मुझे वेदों का हवाला देकर कहोगे कि ‘पशु हिंसा जायज़ है, तो मैं वेदों को भी ठुकरा दूँगा, लेकिन मैं उस जानवर के प्रति अन्याय नहीं देख सकता।'

वो जो पूरा माँसाहार की साखियों का संकलन है, कोई मुझे अगर इस वक्त दे दे, मैं चाहता हूँ पूरा सुनाऊँ। पूरा साखी ग्रंथ तो अभी होगा नहीं न? पूरा संकलन दो मुझे, तीस-चालीस साखियाँ हैं। सुनिए।

माँसाहारी मानवा, प्रत्यक्ष राक्षस अंग। ताकी संगत मति करो, पड़त भजन में भंग॥

कोई मिलावट नहीं, कोई एम्बिगुइटी (अनिश्चितता) नहीं! सीधे माँसाहारी हो, तो राक्षस हो, तुम्हें मनुष्य नहीं मानते हटो यहाँ से।

माँसाहारी मानवा, प्रत्यक्ष राक्षस अंग। ताकी संगत मति करो, पड़त भजन में भंग॥

माँस मछरिया खात है, सुरापान सों हेत। ते नर जड़ से जायेंगे, ज्यों मूरी को खेत॥

ऊपर-ऊपर से नहीं कटोगे! जैसे मूली होती है न, ऊपर से पता ही थोड़ी काटते हो, पूरा उखाड़ लेते हो—इतने जड़ से मारे जाओगे।

माँस माँस सब एक है, मुरगी हिरनी गाय। आँखि देखि नर खात है, ते नर नरकहि जाय॥

सब माँस एक है। यह मत कह देना कि एक जीव तो अवद्य है—विशेषकर गाय को हम कह देते हैं न, गाय तो अवद्य है, पूजनीय है, माता है और गाय को माता कह रहे होते हैं और साथ-ही-साथ मुर्गी और बाकी इनको काट रहे होते हैं।

कह रहे हैं, ‘जीव-जीव सब एक हैं, माँस-माँस सब एक है, पीर सबन की एक-सी और किसी को भी अगर तुम दुख दे रहे हो तो…।

अब यह बात कि एक निचली चेतना को शोभा देता है कि वो दूसरे का माँस खा लें, ऊँची चेतना को नहीं। तो कहा–

यह कूकर को भक्ष है, मनुष देह क्यों खाय। मुख में आमिष मेलि है, नरक पड़े सो जाय॥

एक निचली चेतना का जीव है कुत्ता, वो माँस खा गया, तो चलो उसकी माफ़ी है, पर तुम तो अपने आप को इंसान कहते हो, तुमने माँस कैसे खा लिया? इसका तात्पर्य यह है कि अगर तुम, इंसान खा रहे हो, तो फिर अपनेआप को कुत्ता ही बोलो।

ब्राह्मणों को आड़े हाथों लिया है!

तामस बेधे ब्राह्मना, माँस मछरिया खाय। पाँय लगे सुख मानही, राम कहे जरि जाय॥

कह रहे हैं कि यह जो ब्राह्मण सब हैं, जो माँस-मछली खाते हैं—कभी यज्ञ करके, कभी बलि देकर—बोले, यह उसी तरीके के हैं जो बस यह चाहते हैं कि इनके पाँव लगो तब यह सुख मानते हैं, लेकिन उनके मुँह से राम नहीं निकलता। मुँह जल जाता है राम बोलते हुए—‘राम कहे जरि जाय'।

सकल बरन एकत्र है, शक्तिपूजि मिलि खाय। हरिदासन को भ्रमित करि, केवल जमपुर जाय॥

यह जो तंत्र की दिशा के लोग होते हैं, जो शक्ति के उपासक होते हैं—शाक्त पंथी—उनको कहा है कि यह सारे सब इकट्ठा होकर के कहते हैं कि शक्ति की पूजा कर रहे हैं और उसके बाद मिलकर के बकरा खाते हैं, यह सब कुछ नहीं है, बस यह सही लोगों को भ्रमित करते हैं और यह सब सिर्फ़ जमपुर जाएँगे, माने इनके लिए बस दुख है और मृत्यु है।

जीव हने हिंसा करे, प्रगट पाप सिर होय। पाप सबन को देखिया, पुन्य न देखा कोय॥

जीव की हिंसा करके अगर तुम सोच रहे हो किसी भी तरह का कोई पुण्य मिल सकता है, तो बिलकुल भूल जाओ! सिर्फ़ पाप तुम्हारे सिर लग रहा है।

यह भी उसी तरीके का है।

तिल भर मछरी खाय के, कोटि गऊ दे दान। कासी करवट ले मरे, तो भी नरक निदान॥

कह रहे हैं, ‘तुम हज़ारों गायें भी दान दे दो, माने सौ तरह का तुम कर्मकांड कर लो और कहो कि ‘जिससे पुण्य मिलता है', तो भी अगर तुमने तिल भर भी मछली खा ली है, इतनी-सी मछली भी खा ली है, तो उसका जो पाप है उससे नहीं छूट पाओगे। इतना-सा भी अगर माँसाहार कर लिया तो उसके बाद तुम सौ तरह के उसके उपाय करो या शुद्धि करो, तो भी उससे तुम उबर नहीं सकते।

काटाकूटी जे करै, ते पाखण्डी भेष। निश्चय राम न जानही, कह कबीर संदेश॥

यह सब जो काटा-कूटी करते हैं, ये पाखंडी हैं, यह राम को नहीं जानते यही कबीर का संदेश है।

यह बहुत बढ़िया!

पीर सबन की एक-सी, मूरख जाने नाहिं। अपना गला कटाय के, भिस्त बसै क्यों नाहिं॥

अक्सर जब कुर्बानी वगैरह दी जाती है बकरीद पर या कि मंदिरों में भी जब बलि दी जाती है, तो उसके पीछे तर्क यह दे देते हैं, कहते हैं कि ‘जैसे ही इस बकरे के गले पर छुरी लगी है, तैसे ही यह सीधे जन्नत पहुँच गया।' तो उनके लिए उन्होंने कहा है कि ‘भाई पीड़ा सबकी एक-सी है, तुम यह क्या मूर्खता कर रहे हो उसकी गर्दन काट कर।'

और अगर गला कटाने से जन्नत मिल जाती है, तो अपना ही गला काट के सबसे पहले जन्नत काहे नहीं जा रहे। ‘अपना गला कटाय के, भिस्त बसै क्यों नाहिं', जाओ तुम ही जाओ वहाँ पर!

अजामेध गोमेध जग, अश्वमेध नरमेध। कहै कबीर अधर्म को, धर्म बतावै वेद॥

कहता हूँ कहि जात हूँ, कहा जु मान हमार। जाका गल तुम काटिहो, सो फिर काटि तुम्हार॥

जिसका गला तुम आज काट रहे हो वो वास्तव में उसका गला नहीं काट रहे हो तुम अपना ही गला काट रहे हो। मत करो!

और भी हैं। ‘मुर्गी कहे मुलना से, बकरी कहे मुलना से'। वो सब बहुत सारे हैं उसमें कि मौलाना से, मौलवी से बकरी कह रही है। पता नहीं क्या कह रही है? (श्रोतागण हँसते हुए) (मुस्कुरा कर जवाब देते हैं) अब वो भूल गया मैं!

हाँ, यही कह रही है कि बेटा तुम अभी मेरी खाल उतार रहे हो, एक दिन ऐसा आएगा जब मैं तुम्हारी खाल उतारूँगी—यही है श्लोक।

कुल मिलाकर के यहाँ पर जो बात है वो यह है कि उस जीव को भी ऐसे देखा जा रहा है जैसे मैं हूँ। उधर भी उतनी ही चेतना है जितनी इधर है। उसको भी एक पर्सन (व्यक्ति) की तरह देखा जा रहा है। और जब आप जीव को पर्सन की तरह देखते हो न, तो उसे पर्सनल राइट्स (व्यक्तिगत अधिकार) भी देते हो।

और राइट्स में सबसे पहले कौन-सी राइट आती है—जीने का अधिकार। उसके पास भी तो जीने का अधिकार है न। यह कहाँ की सभ्यता है कि तुम एक ज़िंदा जीव से उसका सबसे मौलिक अधिकार छीन रहे हो, वो जीना चाहता है भाई, तुमने उसे कैसे मार दिया?

सिर्फ़ तुम्हारे पास एक तर्क है, ताकत का तर्क कि ‘मेरी ताकत थी मैंने मार दिया।' और कोई तर्क नहीं है तुम्हारे पास। और आजकल एक नया तर्क चला है, ‘पेड़-पौधों में भी तो जान होती है', तो मैं उनसे कहता हूँ, ‘बिलकुल मैं आपकी करुणा का दीवाना हो गया कि आपने पेड़-पौधों के प्रति भी इतनी ही करुणा है। लेकिन साहब अगर आप पेड़-पौधों को भी बचाना चाहते हैं—आप कह रहे हैं पेड़-पौधों में भी जान होती है—तो बकरा मत खाओ न।

क्योंकि जब आप शाकाहार करते हो तो आपने मान लीजिए एक पौधा मारा, लेकिन जब आप माँसाहार करते हो, तो उस बकरे को अपनी प्लेट (थाली) तक लाने के लिए कम-से-कम आपने सौ पौधे मार दिए।

समझ रहे हैं बात को न?

आप आधा किलो चावल तैयार करते हो, तो उसमें आप ने कितने पौधे मारे, वो गिन लो। और आप आधा किलो मटन तैयार करते हो, तो उस आधा किलो मटन के लिए बकरे ने कितने पौधे खाए होंगे, अब यह देख लो। और वो बकरा कोई प्राकृतिक रूप से तो पैदा होता नहीं, उसको तो आप ज़बरदस्ती पैदा करते हो, फिर उसको आप ज़बरदस्ती खिलाते भी हो।

तो अगर यह तर्क भी दे रहे हो कि ‘पेड़-पौधे…। और पेड़-पौधों में भी उतनी ही चेतना होती है जितनी इंसान में होती है।' अगर यह भी आपका तर्क है—जो कि बिल्कुल गलत तर्क है—अगर यह भी मान लो कि तर्क है, पेड़-पौधे तो मारे जा रहे हैं न। तो पेड़-पौधों को बचाने के लिए भी ज़रूरी है कि माँसाहार न किया जाए। पेड़-पौधे भी तभी बचेंगे जब माँसाहार न किया जाए।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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