उसके बिना तड़पते ही रहोगे || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

Acharya Prashant

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उसके बिना तड़पते ही रहोगे || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)

राम बिनु तन को ताप न जाई

जल में अगन रही अधिकाई

राम बिनु तन को ताप न जाई

तुम जलनिधि में जलकर मीना

जल में रहि जलहि बिनु जीना

राम बिनु तन को ताप न जाई

तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा

दरसन देहु भाग बड़ मोरा

राम बिनु तन को ताप न जाई

तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला

कहै कबीर राम रमूं अकेला

राम बिनु तन को ताप न जाई

संत कबीर

वक्ता: कबीर अपने एक पसंदीदा प्रतीक को लेकर आगे बढ़ रहे हैं कि, ‘‘मैं जल की बूँद हूँ।’’ एक और प्रतीक है कबीर का कि, ‘’मैं कुछ हूँ, जो समुन्दर में है, क्या ?’’

श्रोता : मछली ।

वक्ता : बढ़िया। तो उसी प्रतीक को ले कर आगे बढ़ रहे हैं कि, ‘’हूँ तो मैं, अथाह जल में।’’ जल माने क्या? पूर्ण। वो जो चहुँ दिस है, कण-कण में समाया हुआ है, जिसकी थाह नहीं मिलती है, वही अनंत समुंद्र। ‘’मैं हूँ वहीँ, पर जल में हो कर के भी, मैं उत्तप्त हूँ, ज्वर सा आया हुआ है, माथा तपता रहता है, मन में गर्मी रहती है।

राम बिनु तन को ताप जाई

आप उसको ‘मन’ का ताप समझ लीजिए। राम बिना मन का ताप जा नहीं रहा है, आग लगी सी रहती है।

जल में अगन रही अधिकाई

‘’जल में हूँ, और जल रहा हूँ, ऐसी मेरी विडम्बना है क्योंकि राम जो समुद्र है, इसमें हो कर भी मैं नहीं हूँ।’’ इसमें हो कर भी अपने आप को इससे जुदा ही रखे हुए हूँ । “पानी में मीन प्यासी” – कुछ ऐसा ही सुंदर चित्र यहाँ खींचा है। ‘’धधक रही है अगन और जो शीतल कर दे, वो चारों तरफ़ है, यदि मैं उससे मिलने को तैयार हो जाऊँ । शीतल तो तुरंत हो जाऊंगा, पर ऐसी मेरी त्रासदी है कि जल में ही हूँ और भभक रहा हूँ। कल्पना करिए, पानी के भीतर शोला – ऐसी हमारी हालत है।’’

तुम जलनिधि में जलकर मीना

तुम जलनिधि, तुम जल समान हो, और मैं मछली । ऐसी मूर्ख मछली हूँ, जो जल में रहती है पर फिर भी जल बिना जी रही है । ऐसी तो मेरी मूर्खतापूर्ण हालत है।

तुम पिंजरा मैं सुवना तोरा

‘’जिस पिंजरे में, मैं बन्द हूँ, वो पिंजरा भी तुम हो । पक्षी हूँ, और जिस पिंजरे में बंद हूँ, वो पिंजरा भी तुम ही हो, मेरे चारों और तुम ही तुम हो। जिधर जाता हूँ, तुम्हीं से टकराता हूँ , लेकिन फिर भी तुम दिखाई ही नहीं देते । ये क्या हालत है मेरी?’’

दरसन देहु भाग बड़ मोरा

बड़े भाग्य हो जायेंगे, जिस दिन दिखाई दे जाओगे। हो चारों ओर, दिखाई देते नहीं हो । ‘हो भी नहीं और हर जगह हो, तुम एक गोरख धंधा हो’ ।

तुम सद्गुरु मैं प्रीतम चेला

तुम्हारे अलावा और कौन हो सकता है सद्गुरु? बाकी सारे गुरु तो पाखंडी हैं, वो अभी पूरी तरह इंसान ही नहीं हुए हैं, तो गुरु क्या होंगे ? कबीर का राम ही है, जो गुरु होने का पात्र है, बाकी और कोई नहीं । एक बार हमने कहा था कि गुरु शुरुआत तो करेगा एक अधिकारी की तरह, पर जा के रुकेगा प्रेम में । तुम्हारा और गुरु का आखिरी, असली, और स्थायी सम्बन्ध प्रेम का ही हो सकता है । गुरु को प्रेमी होना ही होगा। ‘प्रीतम चेला’ – और कोई चेला हो भी नहीं सकता । यहाँ गुरु-शिष्य का वो सम्बन्ध नहीं है, जिसको ले कर के कृष्णमूर्ति आशंकित रहते हैं, कि गुरु अधिकारी है, और वो चेले को दबाए हुए है, उसके मन में धारणायें ठूस दी हैं। प्रीतम चेला है, प्रेम है, और प्रेम में क्या आपत्ति है किसी को ?

कहै कबीर राम रमूं अकेला

एकांत का इससे सुन्दर वक्तव्य नहीं मिल सकता । सब राम ही राम है, जिधर देखूं राम रम रहा है, ‘जित देखूं तित तू’, यही है एकांत, जहाँ देखता हूँ, वहीं तू है ।

साहिब तेरी साहिबी , हर घट रही समाय।

ज्यों मेहँदी के पात में, लाली लखि नहीं जाए

जिधर देखता हूँ, तेरी साहिबी दिखाई देती है।

राम रमूं अकेला – यह ‘अकेला’, इसी को ‘कैवल्य’ भी कहा गया है । केवल राम हैं, और कुछ है ही नहीं । और जब कुछ ऐसा होता है, जो चहुँ दिस होता है, तो मछली जो भूल करती है, वो भूल हो सकती है । जब कुछ ऐसा हो, जो मौजूद ही मौजूद हो, जिससे भागने का, बाहर जाने का कोई उपाय ही न हो, तो चूक हो सकती है। कह रहे हैं ना कबीर, ‘ज्यों मेहँदी के पात में, लाली लखि नहीं जाए’, कहाँ बताओगे कि लाल है? पूरा पात ही लाल है, तो लाली पता ही नहीं चलेगी। जब कुछ ऐसा है, जो सर्वत्र मौजूद है, तो उसकी मौजूदगी पता लगनी बंद हो जाती है। मौजूद कुछ है, यह तय कर पाने के लिए उसका गैऱ मौजूद होना ज़रूरी है क्योंकि हम द्वैत की दुनिया में जीते हैं ना । कुछ अगर मौजूद ही मौजूद हो, वो कहीं से भी अनुपस्थित हो ही न, तो कैसे कहोगे कि उपस्थित है?

कबीर ने कोई बड़ा काम नहीं कर दिया कि किसी ऐसे को देख लिया है, जो आपको दिखाई नहीं पड़ता। कबीर ने तो बड़ा सहज काम किया है, कबीर ने उसको देख लिया है जो- चहुँ दिस है। मछली अगर कहे, ‘’मालूम है, आज बड़ी खोज की, आज पानी देखा।’’ तो आप क्या बोलोगे ? ‘’चल बावरी, पानी देखा! उसी में जीती है, पीती है, खाती है, कह रही है पानी देखा।’’ पर मछली के लिए इससे क्रांतिकारी खोज हो नहीं सकती कि वो पानी देख ले । मछली के लिए इससे बड़ी कोई कठिनाई हो नहीं सकती कि वो समुद्र को जान ले।

शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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