उचित-अनुचित में भेद || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

Acharya Prashant

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उचित-अनुचित में भेद || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2014)

प्रश्नकर्ता: सर, हम कैसे चुनें कि क्या सही है और क्या ग़लत? क्या सही और ग़लत की कोई परिभाषा होती है या सिर्फ़ मन की स्थितियाँ होती हैं?

आचार्य प्रशांत: रजत (श्रोता को इंगित करते हुए) ने पूछा है कि “ये फैसला हम कैसे करें कि क्या सही है और क्या ग़लत?” रजत, ये फैसला तो हम दिन रात करते ही रहते हैं न? कोई नहीं है ऐसा जो ये निर्णय लेता नहीं और प्रतिपल लेता नहीं कि क्या उचित है और क्या अनुचित है। तुम्हें दाएँ चलना है कि बाएँ, तुम्हें ऊपर जाना है कि नीचे, तुम्हें बात करनी है कि नहीं करनी है, तुम्हें प्रश्न उठाना है कि नहीं उठाना है, ये सारे उचित-अनुचित के निर्णय हैं, जो तुम लगातार ले ही रहे हो। क्या पहनना है क्या नहीं पहनना है, क्या कह देना है, क्या छुपा जाना है, कर्म प्रतिपल हो रहा है, कभी विचार रूप में, कभी भौतिक रूप में, तो निर्णय भी तुम लगातार लिए ही जा रहे हो।तो सवाल फिर ये उठता है कि जो दुनिया हमारे चारों ओर है, वो किस प्रकार निर्धारित करती है कि क्या उचित है और क्या अनुचित है? पहले उस पर ग़ौर करते हैं क्योंकी जब लोग निर्धारित कर ही रहे हैं उचित-अनुचित का तो पहले ज़रा ये देख लिया जाए कि वो कैसे निर्धारित करते हैं। ये दुनिया कैसे तय करती है कि क्या ठीक है क्या ग़लत?

मन्दिर के सामने से जब हिन्दु निकलता है, तो सामान्यतया उसके लिये क्या ठीक है? तुम जा रहे हो पैदल और सड़क किनारे मन्दिर आ गया तो तुम्हारे लिये क्या ठीक होता है? सामान्यतया कि दो क्षण रुक कर प्रणाम कर लो और उसी मन्दिर के सामने से किसी और धर्म का कोई निकल जाए तो उसके लिए ये ठीक नहीं होता। समझ में आ रही है बात? व्यक्ति को निर्णय करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी कि क्या ठीक है और क्या ग़लत। तुम्हें एक पहचान दे दी गई है कि तुम एक धर्म विशेष से हो और निर्णय हो गया। तुमने कहाँ किया निर्णय?

दो देशों का युद्ध हो रहा होता है और तुम्हें तय करना है कि किसका समर्थन करें, तो तुम्हें तय करना ही नहीं पड़ता। जिस देश के तुम हो, तुम उसी का समर्थन करोगे, तय हो गया। तय करना कहाँ पड़ा? किसी और ने पहले ही तय कर रखा था और दुनिया ऐसे ही चल रही है न? "जो परंपरा आज विद्यमान है, वही कर डालो, वही उचित है!" और अगर वही उचित है तो तुम्हें तय करना कहाँ पड़ा? जो चल रहा है, जो प्रचलित है, तुमने भी कर डाला। क्या तय करना पड़ा तुम्हें? हाँ, पर अगर तुमसे कोई पूछेगा कि "ये कर क्यों रहे हो?" तो तुम कहोगे कि "यही सही है।' पर सही का निर्धारण तुमने किया कहाँ? तुम्हें तो मिल गया था रेडीमेड बना-बनाया। दुनिया ने तुम्हें बताया ऐसे करना है और तुमने कर डाला।

शादी-ब्याह एक प्रकार से होती है। आज से पचास साल पहले वैसे नहीं होते थे और आज से दो-सौ साल पहले वैसे नहीं होते थे। आज से पचास साल पहले लोग उन रस्मों को सही मान लेते थे जो तब प्रचलित थीं और आज कुछ रस्में पीछे छूट गई हैं और कुछ नई रिवायतें आ गई हैं। तो जो अब नए रिवाज़ आ गए हैं, वही उचित हैं! तुम्हें निर्णय कहाँ करना पड़ा? तुम्हारे लिए सारे निर्णय तो पहले से किए जा चुके थे; कहानी पहले ही लिखि जा चुकी है। ये दुनिया ऐसे ही तो चल रही है।

साल में चार दिन होली, दशहरा, ईद, दिवाली, क्रिसमस और तुम कहते हो हम खुश हो गए। तुम्हें खुश होने का भी निर्णय कहाँ करना पड़ा? किसी ने पहले ही कह दिया कि "एक दिन आएगा छब्बीस अक्टूबर और तुम खुश हो जाना" और तुम खुश हो जाते हो। तुम्हें खुश होने का फैसला भी कहाँ करना पड़ता है? उसका भी कोई पहले से ही निर्णय किए बैठा होता है कि साल में पाँच-सात दिन तुम्हें खुश रहना होता है। बटन दबा, अब खुश होओ! साल में दो दिन आते हैं और तुम राष्ट्र भक्त हो जाते हो और तुम कहते हो "यही तो उचित है कि आज हम राष्ट्रीय भक्ति के गीत गाएँ", वो भी तुमने कहाँ निर्णय लिया? किसी और ने पहले ही कर रखा है, पूरी प्रोग्रामिंग पहले ही कर रखी है, और तुम कहते हो "निर्णय हमारा है।" सही-ग़लत के निर्णय लोगों को करने ही नहीं पड़ते। पहले ही बताया जा चुका है "झूठ मत बोलो, बड़ों का आदर करो, चोरी मत करो, पराई स्त्री की तरफ आँख उठाकर मत देखो, यही सब तो ठीक है।" अब ये मत समझना कि मैं ये कह रहा हूँ कि ये सब करने लग जाओ क्योंकि उल्टी बुद्धी का भरोसा नहीं। पर निर्णय तुम्हें करने कहाँ पड़ते हैं? सारे निर्णय तो हो चुके हैं।

"बाइस-पच्चीस साल तक पढ़ो", ये निर्णय तुम्हें करना पड़ रहा है? ये किया जा चुका है। "अठ्ठाइस-तीस साल पर शादी करो", ये निर्णय तुम्हारे कहाँ हैं? ये तो पहले से तय है। तुम कहोगे कि "ये उचित है", पर तुमने जाना कहाँ कि उचित है कि नहीं? उसके बाद जीवन किस प्रकार बिताना है वो भी तुम्हें पहले से पता है कि यही उचित है क्योंकि सब कर रहे हैं। मैं तुमसे एक सवाल पूछता हूँ कि अगर तुम्हें ना बताया गया होता तब भी तुम क्या ऐसा ही जीवन बिताते? नहीं, बिलकुल नहीं बिताते। और ये बहुत खौफ़नाक बात है कि इतनी प्रोगराम्ड ज़िन्दगी है हमारी। तुम कहोगे, "यही तो उचित है, ऐसा ही तो जीवन जीना चाहिए। थोड़ी सी शैक्षिक योग्यता हो और उसके बाद एक ठीक-ठाक नौकरी हो, पैसे हों, समाज में थोड़ी इज्ज़त हो, बीवी हो, बच्चा हो, गाड़ी हो" और तुम्हें पूरा विश्वास है कि यही सब उचित है। मैं पूछता हूँ तुम्हें कैसे पता कि ये उचित है? और किसी को भी कैसे पता?

याद रखना, जो जिस जगह का होता है और जिस युग में होता है, उसे उस युग के अन्धविश्वासों पर, रूढ़िवादीयों पर, परम्पराओं पर पूरा-पूरा विश्वास होता है। आज से, ज़्यादा नहीं दो-सौ-ढाई-सौ साल पहले लोगों को सती पर पूरा विश्वास था और वही उचित था। स्त्री देवी मानी जाती थी अगर पति के साथ जल मरे और तुम कहते "यही तो उचित है, बड़े-बूढों ने बताया है, पूरा समाज यही कर रहा है, हम भी यही करेंगे।" आज क्यों नहीं जल मरती? अगर वो उचित था तो अब बदल कैसे गया? अब क्यो नहीं?

जो अमरीका में आज भी कानूनन जुर्म है, वो भारत में ठीक है और जो भारत में प्रचलित है उसके लिए अमरीका में सज़ा हो जाएगी। ये कैसे हो सकता है कि एक देश में जो उचित है वो दूसरे में अनुचित हो जाए? ये कौन सी सच्चाई है, जो देश के साथ, काल के साथ, परिस्थितियों के साथ बदलती रहती है? निश्चित रूप से इसमें सच्चाई कुछ भी नहीं है, इसमें मात्र एक रूढ़ि है, मात्र आदमी का अन्धापन है। जो एक धर्म में बिलकुल ठीक माना जाता है, वो दूसरे धर्म में ग़लत। एक धर्म कहता है, "क़ुर्बानी करो, माँस खाओ" और दूसरा "मक्खी को भी मत मारना, हिंसा है।" बताओ न क्या उचित है और क्या अनुचित? जो जिस धर्म का है, उसको वही उचित लग रहा है। जाना किसी ने कुछ नहीं है, बस अन्धविश्वासों का पालन चल रहा है और ऐसे हम जीते हैं। देख लो वर्तमान युग को, तुम सबको पता है अच्छे से।

शिक्षा में ही देख लो आज से बीस-तीस साल पहले मुट्ठी भर कॉलेज थे जहाँ इन्जीनरिंग की पढ़ाई होती थी, मैनेजमेन्ट भी कोई बहुत प्रचलित शिक्षा की शाखा नहीं थी। पर सब चले, तो वही उचित हो गया। एक भीड़ है अन्धी और जो भीड़ करे, भीड़ के लिए वही उचित है।

भेड़ के लिए क्या उचित है? जो अगली भेड़ कर रही है, वही उचित है।

निर्णय करना कहाँ पड़ता है? कभी देखा है भेड़ों को चलते हुए? किसी भेड़ से पूछो कि "जो तू ये कदम उठाती है, तुझे कैसे पता कि ये उचित है या नहीं?" तो वो कहेगी, "अगली भेड़ उठा रही है न, तो वही उचित है। मुझे समझने की, विचार करने की, चैतन्य होने की क्या ज़रूरत है?" छोटी सी भेड़ से पूछो "तू चली जा रही है, तुझे कैसे पता?" तो वो कहेगी, "मुझे मेरी मम्मी ने बताया, मम्मी जो कहें वही उचित है" और मम्मी से पूछो कि "तुझे कैसे पता?" तो वो कहेगी, "मुझे मेरी मम्मी ने बताया।" जाना किसी ने नहीं है। माँओं की एक अन्तहीन श्रृंखला है, जानता कोई नहीं है। पिताजी कहते हैं "सदा सच बोलो।" "अच्छा पिताजी क्यों?" वो पिताजी को नहीं पता है क्योंकि सत्य इतनी सस्ती चीज़ नहीं जो किसी के देने से मिल जाए तुमको। पर निर्णय हो गया, बच्चे को बताना यही है। ऐसे तो होते हैं हमारे उचित-अनुचित के फैसले।

एक चुनौती दे रहा हूँ; एक दूसरा मनुष्य सम्भव है, जिसके निर्णय कहीं बाहर से नहीं आते। जो अपनी चेतना में जीता है, जिसे निर्भर नहीं रहना पड़ता कि शास्त्रों ने क्या कह दिया, समाज ने क्या कह दिया है, परिवार ने कह दिया है, वर्तमान समय में क्या फैशन चल रहा है, प्रचलित अन्धविश्वास कौन से हैं, वो उनके हिसाब से नहीं चलता है। वो कहता है, "मेरी अपनी आँखें हैं, अपना तेज है। एक जीवन है और मैं इसे अपनी रौशनी में जीयूँगा। मैं इसलिए नहीं पैदा हुआ हूँ कि बंधा-बंधा रहूँ, कि परंपरा बद्ध रहूँ। मैंने ये भी ठेका नहीं ले रखा है कि मैं परमपराएँ तोड़ ही दूँ और ये भी नहीं ले रखा है कि परम्पराओं का निर्वाह करता रहूँ। हम तो अपनी मौज में चलेंगे, अपनी दृष्टि से देखेंगे, अपने प्रेम में जीयेंगे।" ऐसा व्यक्ति जो भी करता है, वो उचित होता है। हो सकता है ऐसा व्यक्ति जो करे उसे कानून का समर्थन ना प्राप्त हो। हो सकता है ऐसा व्यक्ति जो करे, उसे समाज अवैध घोषित कर दे, पर इसको फ़र्क नहीं पड़ता और अगर तुम ध्यान से देखोगे तो पाओगे कि ऐसे व्यक्ति ने आज तक जो भी किया है वो समाज को पसन्द नहीं आया है क्योंकि समाज को सिर्फ ग़ुलाम पसन्द आते हैं।

एक जगा हुआ, एक वास्तविक रूप से बुद्धिमान व्यक्ति जो अपनी निजता में जीता है, वो कभी भेड़ नहीं हो सकता। उसे कोई शौक नहीं है कि किसी का आवागमन करने का और ना वो चाहता है कि कोई और उसका अनुगमन करे। वो कहता है, "हम सब पूर्ण ही पैदा हुए हैं।" गहरी श्रद्धा है उसके जीवन में, कहता है "बोध सबको उपलब्ध हो सकता है। उस परम की रौशनी हम सबको ही मिली हुई है।" और यही व्यक्ति फिर मानवता का फूल होता है “दा सॉल्ट ऑफ अर्थ।” उसके रस्ते में अड़चनें आ सकती हैं, उसे पागल घोषित किया जा सकता है क्योंकि जो समाज के अनुसार ना चले, समाज को वो पागल ही लगता है। उसको ख़तरनाक कहा जा सकता है क्योंकि अन्धेरे के लिए वो खतरनाक ही है, रौशनी होकर।लेकिन वो लोग भी जो उसे खतरनाक घोषित कर रहे होते हैं, जो उसको पागल कह रहे होते हैं, पत्थर मार रहे होते हैं, ज़हर पिला रहे होते हैं, वो भी कहीं-न-कहीं उसकी पूजा कर रहे होते हैं। मन-ही-मन कहते हैं, "काश, हम भी ऐसे हो सकते। हाँ, मारना तो पड़ रहा है इसे, पर काश हमें भी इसकी थोड़ी सी सुगन्ध मिल जाती।"

तो चुनौति दे रहा हूँ; क्या ऐसे हो सकते हो? ऐसा व्यक्ति निर्णय लेता ही नहीं है, वो बस जीता है, उसको सोच-विचार करना ही नहीं पड़ता, दुविधाएँ नहीं रहती उसको कि इधर जाऊँ कि उधर जाऊँ, एक स्पष्ट मौज रहती है। एक धुला-धुला, खिला-खिला जीवन होता है जिसमें डर नहीं है, प्रेम है, जिसमें बन्धन नहीं है, उड़ान है। तो यही काम है मेरा, जहाँ भी जाता हूँ पूछता हूँ कि, "है तुममें से कोई उत्सुक ऐसा हो पाने को या वैसे ही रहना है ‘भेड़’?"

(एक श्रोता हाथ खड़ा करता है)

नहीं, हाथ उठा कर मुझे दिखाने की ज़रूरत नहीं है। ये बहुत गहरे तौर पर तुम्हारा निजी मामला है। तुम्हें स्वयं से पूछना पड़ेगा कि "युवा हूँ, कैसे जीना है?" मैं बस प्रार्थना कर सकता हूँ कि तुम समझो। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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