उचित विचार कौन सा? || आचार्य प्रशांत, कबीर पर (2015)

Acharya Prashant

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उचित विचार कौन सा? || आचार्य प्रशांत, कबीर पर (2015)

गुरु कीजै जानि के, पानी पीजै छानि |

बिना विचारे गुरु करे, परै चौरासी खानि ||

संत कबीर

वक्ता ( प्रश्न पढ़ते हुए) : प्रिया पूछ रहीं हैं कि मेरे लिये तो अद्वैत आना भी मात्र एक संयोग था| अपने करे गुरु कहाँ मिलता है? संयोग से ही मिल जाये तो मिलता है| क्यों कबीर कह रहे हैं कि गुरु का चुनाव करो? क्यों कह रहे हैं कि गुरु करे ‘छानि के’? क्यों कह रहे हैं कि बिना विचारे गुरु करे तो ‘परै चौरासी खानि’? विचार शब्द से थोड़ी असुविधा हो रही है कि क्यों कहा गुरु विचार करके करो?

वक्ता: जब कबीर कहते हैं ‘विचारो’, तो वह ‘कबीर ’ कह रहे है ना कि विचारो| वो कबीर जैसा ही विचार है फिर| वो ‘कुविचार’ नही हो सकता, वो ‘सुविचार’ है| यही नहीं देखना होता है कि क्या कहा; उससे कहीं महत्वपूर्ण होता है किसने कहा? कौन कह रहा है? जब कबीर कहे विचार, तो उसका अर्थ संसार का अनर्थक, अनर्गल विचार नहीं है| जब कबीर कहे विचार तो उसका अर्थ है ‘आत्म-विचार’| जब कबीर कहते है ‘पंडित करो विचार’ या ‘साधु करो विचार’ और लगातार कहते है, कई बार कहते है, कि विचार करो| तो वो ये नहीं कह रहे हैं कि इधर-उधर की घटनाओं का विचार करो या मिथ्या पंच का विचार करो, उलझे रहो उसी में|

कबीर का विचार ना कोई उलझन है ना भटकाव है| उसमें आकर्षण-विकर्षण दुनिया भर के तमाम खेल ये सब नहीं हैं| आत्म-विचार ही सुविचार है| जब कबीर कहते है कि बिना विचारे गुरु करे, तो धोखा मत खा जाइयेगा| वो यह नहीं कह रहे हैं कि ‘गुरु के विषय’ मे विचार करो| वो कह रहे हैं ‘अपने बारे मे विचार करो’| तुम अपने आप को देखो, गुरु अपने आप हो जायेगा| तुम स्वयम को देखो गुरु स्वयमेव आ जायेगा, परिलक्षित होने लगेगा|

बिलकुल ठीक कहा आपने कि अपने करे कहाँ कुछ होता है| आप जो कह रही हैं, कबीर सहमत होंगे इससे कि अपने करे कुछ नही होता | अपने करे गुरु कहाँ से हो जायेगा, ठीक बात है| तो कबीर नहीं कह रहे हैं कि अपने करे गुरु करो, कबीर कह रहे हैं ‘बहुत महत्व घटना है गुरु की प्राप्ति| वो इतनी बड़ी घटना है कि उसके लिये कर्ता भी उतना ही बड़ा होना चाहिये| तुम बहुत छोटे हो, वो घटना तुम्हारी कोशिशो से नहीं घटेगी|

गुरु का आना इतनी बड़ी घटना है कि वो गुरु के करे ही हो सकती है| वो परम क्रांति है और उसके लिये परम क्रांतिकारी ही चाहिये| वो परम क्रांतिकारी तुम नहीं हो सकते, तुम तो ढर्रों पे चलने वाले, संस्कारो पे चलने वाले आदतों, मान्यताओ, रूढ़ियों पर चलने वाले लुके-छुपे आदमी हो| तुम्हारी तो सारी गति डर की गति है, तुम कहाँ क्रांति करोगे| ‘तुम्हें गुरु का मिलना’ ये करनी खुद गुरु की होगी| कई बार घटना बिना तुम्हारी जानकारी के घटेगी और कई बार तो तुम्हारे विरोध के बावजूद घटेगी| आप कह रही हैं कि संयोगवश आ गयी हैं अद्वैत में, वो एक संभावना है और एक दूसरी सम्भावना ये भी है कि कई हो जो भागना चाह रहे हैं पर भागते बन नहीं रहा है|

कई बार विचार, कौनसा वाला? ‘कुविचार’| कई बार उठ रहा होगा कि आज तो निपट ही ले, बहुत हुई खींचा-तानी, ख़त्म करो| तो आप जब भी करोगे तो ऐसा ही कोई करिश्मा करोगे कि जो मिला भी हुआ हो उससे भी दूर भाग जाओ| आपको तो दवाई दो ही तरीको से पिलाई जा सकती है| एक, आप नींद में हो या बेहोश या आँखे अधमुंदी हैं तो धीरे से पिला दी, जैसे छोटे बच्चों को होता है दूध मे मिला के, उसे पता भी नहीं चला वो दवाई पी गया| तो एक तो तरीका ये है और दूसरा तरीका ये है कि ज्यादा उधमी बच्चा है तो उसको पकड करके उसका जबरदस्ती मुँह खोल कर कई बार उसके मुँह में डालनी पड़ती है|

तो ठीक संदेह करा आपने कि मैं कहाँ खोजने जाऊँगी| हाँ, आप नहीं खोजने जायेंगी! वो स्वयं खोज लेगा| आप आत्म-विचार कर सकती हैं| आत्म-विचार की ओर जाना अपनी ओर जाना है| आत्म-विचार में आप अपने कर्मों को, अपने विचारों को, अपनी पूरी दैनिक क्रियाओं को देखते हैं लगातार कि आप कर क्या रहे हैं, इन सब पे नज़र डालते हैं| क्या कर रहे हैं इस पे नज़र डालते हैं तो कौन कर रहा है उस तक पहुँच जाते हैं| जैसे ही उस तक पहुँचते हैं जो वाकई कर रहा है, तो ‘आत्म-विचार’, ‘आत्म-बोध’ में बदलने लग जाता है| ‘आत्म-बोध’ और ‘बोध’ एक हैं क्योंकि बोध आत्मा का ही होता है| ‘ज्ञान ’ नहीं है बोध, कि तमाम इधर-उधर की विविध वस्तुओं का होगा|

बोध एक है| तो चाहे आप ‘आत्म-बोध’ कहे या बोध कहें, बात एक ही है| आत्म-विचार का फल होता है आत्म-बोध, और आत्म-बोध बोध है, और ‘गुरु’ विशुद्ध ‘बोध’ मात्र है| लेकिन आप आत्म-विचार ही कर रहे थे आप तो अपना विचार कर रहे थे| आप अपना विचार कर रहे थे गुरु कब मिल गया आपको पता नही चलेगा| क्यों पता नहीं चलेगा? क्योंकि जब गुरु मिलेगा तब आप बचे नहीं होंगे| बात को समझियेगा, आत्म-विचार वो विचार है, जो बाकी सारे विचारों को विगलित कर देता है| तभी तो ‘आत्म-बोध’ बनता है वो|

जब सारे विचार चले गये तो आप कहाँ बचे? आप और क्या हैं? आप अपने ही ज़ेहन में अपना विचार हैं| जब विचार चले जायेंगे तो आप कहीं बचते नहीं हैं| आत्म-बोध तो छोड़ो| जो सामान्य नींद होती है उसमें भी तुम्हारी हस्ती कहाँ बचती है? बोध तो बड़ी घटना है, समाधि तो बड़ी घटना है| जो साधारण नींद है उसमें भी तुम्हें कुछ पता होता है अपना? तुमहरा कोई व्यक्तित्व, नाम, पहचान, हैसियत कुछ बचती है? कुछ जानते हो अपने बारे में? रिश्ते-नाते कहाँ चले जाते हैं? सारा ज्ञान कहाँ चला जाता है? तुम बचते नहीं, तो ‘आत्म-बोध’ वैसा ही है उसमे तुम बचते नहीं| तुम बचते नहीं गुरु मिल गया क्योंकि बोध ही गुरु है|

गुरु और थोड़ी कोई है कि शरीर है कि सूचना देने वाला मार्गदर्शक है, ना| विशुद्ध बोध है गुरु, तुम मिटते हो गुरु प्राप्त हो जाता है, तुम मिटते हो गुरु प्राप्त हो जाता है और तुम मिटो इसकी प्रेरणा देने वाला भी वही है जो प्राप्त हो जाता है| उसी की पुकार है जो तुम्हें उस की और खींचती है| वही है जो अपनी ओर की यात्रा शुरू कराता है और वही है जो स्वयम यात्रा के अंत पर खड़ा है| समझना बात को, वही है जिसकी अनुप्रेरणा से तुम उसकी ओर की यात्रा शुरू करते हो और वही है जो उस यात्रा के अंत में स्वयम खड़ा हुआ है| वो यात्रा ही तुम्हारे क्रमश: विगलन की यात्रा है| जैसे-जैसे आगे बढते जाते हो, घटते जाते हो, घटते जाते हो, घटते जाते हो|

अब ये स्पष्ट हो पा रहा है कि विचार में और गुरु में क्या सम्बन्ध है? गुरु वो जो कुविचार को छोड़ के तुम्हें सुविचार की ओर प्रेरित करे| सुविचार क्या है? आत्म-विचार| और आत्म-विचार की जो यात्रा है वो ले जाती है आत्म-बोध तक| आत्म-बोध ही आत्मा है, आत्म-बोध ही बोध है, आत्म-बोध ही गुरु है| ये सम्बन्ध है विचार में और गुरु में| गुरु का विचार नहीं करना है| मन क्या आत्मा का विचार करेगा? मूर्खता की बात होगी| इसीलिए निषिद्ध रहता है बार-बार तुम्हें टोका जाता है कि गुरु के व्यक्तित्व का ख्याल न करो| वो क्या ओड़ता है, खाता है, पहनता है, चलता है, यहाँ तक कि वो क्या ‘कहता है’, उस पर भी मन मत टिका दो|

क्योंकि जो साधारण मन होता है वो इन्हीं सब स्थूल बातों को पकड लेना चाहता है| पकड़ेगा, उनका विश्लेषण करेगा, उनके बारे में सोचेगा, कई बार उनकी नकल उतरेगा| ये सब व्यर्थ की बातें हैं| तुम मन से मन द्वारा कल्पित ही किसी वस्तु को पकड सकते हो| मन द्वारा निर्मित ही किसी वस्तु को पकड सकते हो| जो मन का आधार है जो मन के तल पर है नहीं, जो मन से बहुत-बहुत विराट है, उसको तुम मन से नहीं पकड सकते| संस्कृत में बड़ा बढ़िया एक तरीका है, एक परम्परा है| वहाँ गुरु को कभी एक वचन में संबोधित ही नहीं किया जाता है| गुरु कहते ही नही ‘गुरुवः’ कहते हैं|

‘गुरु है’ कभी नही बोलेंगे| ‘गुरु हैं’ | अगर कहना होगा कि मेरा गुरु आ रहा है, तो नहीं कहेंगे कि ‘मेरा गुरु आ रहा है’| वहाँ गुरु को हमेशा ‘बहुवचन’ में संबोधित किया जाता है कि ‘गुरु हैं’ | उसका अर्थ ही यही है कि एक का तो अर्थ हुआ जो बटा हुआ है| एक का तो अर्थ हुआ ‘मेरे जैसा’| मैं अपने आप को संबोधित करता हूँ ना एक वचन में? और वो बहुत बड़ा है विशाल है तो ‘गुरुवः’, ‘गुरु’ नहीं| ‘हम’| ‘आप’| कुरान में जब ‘खुदा’ की आवाज आती है तो वो ‘मैं’ नहीं कहती, वो ‘हम’ कहती है – ‘*वी*’| संस्कृत में जब गुरु को संबोधित करते है तो ‘गुरु’ नहीं कहते| बहुत सारे गुरु नहीं कि आप कहें कि ‘गुरुवः’ माने गुरु बहुत सारे होते हैं, ना|

गुरु की विशालता का सूचक है ये, गुरु की गुरुता का सूचक है ये| गुरु तुम्हारे जैसा और तुम्हारे तल पर नहीं है इस बात का सूचक है ये| तो बिलकुल नहीं कहा जा रहा है कि तुम गुरु को विचारो| तुम स्वयं को तो विचार नहीं पाते हो, गुरु को क्या विचरोगे? तुम में विचारने की शक्ति होती, तो सबसे पहले तुमने अपने जीवन को ना विचार लिया होता| जिस विचारणा के सहारे तुम गुरु को नाप लेना चाहते हो, उसी विचारणा का उपयोग करके सबसे पहले तुमने अपने आप को ना नाप लिया होता?

श्रोत१: भाषाओँ में भी बहुत सी भाषाओँ में ‘मैं’ शब्द का प्रयोग नहीं होता है | खासतौर से भोजपुरी में ‘मैं’ प्रयोग ही नहीं किया जाता है | होता है |वहाँ ‘हम’ शब्द होता है | हमेशा ‘हम’ होता है |

वक्ता: जहाँ कहीं भी बात आध्यात्म की ओर मुड़ेगी, वहाँ इन दो में से एक घटना जरुर घटेगी| या तो ‘मैं’ अति विशाल हो जायेगा या फिर ‘मैं’ घट-घट के, मात्र ‘बिंदु’ रह जायेगा| या तो ‘मैं’ इतना विस्तीर्ण हो जायेगा कि वो परम ‘हम’ बन जायेगा, जिसमे सब कुछ शामिल है, या फिर वो घट-घट के घट-घट के विशुद्ध ‘मैं’ रह जायेगा| अष्टावक्र कहते है ना *“अह्म* सर्वम् अथवा मे नास्ति *किञ्चन ”* या तो सब कुछ हूँ या कुछ नहीं हूँ, या तो सब कुछ है या कुछ भी नहीं| ये बात मात्र आत्मा के लिये कही जा सकती है कि या तो उसे पूर्ण बोलो या शून्य बोलो, बीच का नहि चलेगा| आत्मा ‘त्रिशंकु’ नहीं है| आ रही है बात समझ में?

बिना विचारे गुरु करे, परै चौरासी खानि’ खुद जा के जो गुरु करेगा, आत्म-विचार बिना जो गुरु करेगा, वो ‘मन के चक्र’ में फंस के रहे जायेगा| ये जो चौरासी का फेरा है ये जो चौरासी जन्मों का चक्र है इसको ये मत समझ लेना कि मरोगे पुनर-जन्म होगा और ये और वो| इसका अर्थ है कि ‘मन के बहुतक रंग हैं’ ये जो चौरासी या चौरासी लाख का आकड़ा है, ये सिर्फ एक सूचक है ‘मन’ के बहुत रंगों का| जो अपने हिसाब से चलेगा वो अपने ही हिसाबो में फंसा रह जायेगा और गोल-गोल गोल-गोल गोल-गोल घूमता रहेगा| इसी को कबीर कह रहे हैं कि, “पड़े चौरासी खानि”|

यहाँ से वहाँ भटकेगा, वहाँ से यहाँ भटकेगा, वहाँ से यहाँ भटकेगा | प्रेत कौन होता है? वही तो होता है ना जो भटकता रहे, मन ही प्रेत है उसे कहीं शांति नही मिलती, इधर-उधर भटकता रहता है|” गुरु कीजै जानि के, पानी पीजै छानि”, अब आप स्वयं ही बताइये जब कहा जा रहा है ‘गुरु कीजै जानि के’, तो जानने का क्या अर्थ हुआ?

श्रोता२: अपने आप को जानना

वक्ता: ठीक है ना, स्पष्ट? जब भी कबीर कहे जानो, तो वो नहीं कह रहे है कि पडोसी के घर में क्या पक रहा है ये जानो| देखो कि कौन कह रहा है कबीर कह रहे है ना, तो गुरु कीजै जानि के क्या जान के? क्या जान के? स्वयं को जान के| इस जानने का मतलब है ‘आत्म-ज्ञान’ | कबीर कहे जानो तो माने आत्म-ज्ञान, कबीर कहे विचारो तो माने ‘आत्म-विचार’|

(सभी श्रोता एक स्वर में दोहराते हैं- ‘आत्मा विचार’ )

और अपने आप को जानने का क्या मतलब है? अपना नाम, पैसा, कुटुम्ब, रुपया पैसा ये सब जानना? अपने आपको जानने का क्या अर्थ है?

श्रोता: मन को जानना| (सब एक स्वर में)

वक्ता: शुरुआत कहाँ से करनी पड़ेगी? शुरुआत करनी पड़ेगी जो बहुत स्थूल है उसी से| ‘मैं क्या कर रहा हूँ, ‘मैं क्या सोच रहा हूँ’| जितना ज्यादा तुम देखोगे ‘मैं क्या कर रहा हूँ?’, ‘मैं क्या सोच रहा हूँ?’ जितना ज्यादा तुम करने वाले और सोचने वाले तक पहुंचोगे| रास्ता बिलकुल सीधा है समझो, शुरुआत करोगे अपने स्थूल कर्म से, स्थूल कर्म से थोडा सा सूक्ष्म होता है ‘विचार’| तो तुम देखोगे मैं क्या कर रहा हूँ?; तुम देखोगे मैं क्या सोच रहा हूँ?

देखोगे क्या कर रहा हूँ और अगर ईमानदार हो तो तुम उस तक पहुंचोगे जो कर रहा है| देखोगे क्या सोच रहा हूँ और अगर ईमानदारी से देखा, तो उस तक पहुंचोगे जो सोच रहा है| और ज्यों ही वहाँ तक पहुंचते हो जो कर रहा है, जो सोच रहा है, त्यों ही एक अद्भुत घटना घटने लगती है| ‘करने वाले’ और ‘सोचने वाले’ की निस्सारता तुम्हे दिखने लगती है| मन के पास पहुँचते ही ये जादूई घटना घटती है मन के जितना पास पहुंचोगे, मन उतना विलुप्त होता जायेगा| और ज्यों ही बिलकुल मन तक पहुँच जाओगे, वहाँ मन को पाओगे ही नहीं|

‘मन’ ऐसी चीज है जो दूर-दूर रहो तो ही दिखाई देती है| उसके करीब जाओ तो तुम कहोगे मन है कहाँ? वो वैसा ही है जैसे कि तुम इतनी बातें करते हो ‘मैं ये’, ‘मैं वो’ और मैं तुमसे पूंछू, “मैं माने कौन”? तो फंस जाते हो, ना नहीं बता पाते| तुम कहते हो मैं, और अपनी ओर ऊँगली से इशारा करते हो| मैं कहूँ जिसकी ओर उँगली कर रहे हो उसमें “मैं कहाँ है”?” जरा खोज के निकलना तो फंस जाते हो| ‘मैं’ वहाँ कहीं मिलता ही नहीं, मन वैसा ही है दूर-दूर से रहो तो मन की ये छलांग, वो छलांग, ये चाहिए, वो चाहिए, ऐसा चाहिए, वैसा चाहिए और ठहर कर के ईमानदारी से उसका विचार करो, उसके पास जाओ उससे पूछो ‘तू कौन भाई? तुझे क्या चाहिए? क्या मिल जाये तो शांत हो जायेगा? कहाँ से पाई तूने ये आदत’?

जैसे ही ये करो, वैसे ही वो विलुप्त होता जाता है| मन के विलुप्त होने पर जो बचता है, उसे यदि विलुप्त होने वाले की दृष्टि से देखो तो ‘महाशून्य’ है| और यदि विलुप्त होने के बाद जो है उसकी दृष्टि से देखो तो ‘महापूर्ण’ है| यही गुरु की प्राप्ति है, यही गुरु की प्राप्ति है| बात समझ में आ रही है? मन की ओर की यात्रा का संकेत कौन दे? वो गुरु | और वो यात्रा जहाँ जा के ख़त्म हो वो जगह कौन सी? गुरु| और याद रखना गुरु की प्राप्ति में ऐसा कुछ नहीं है कि तुम्हें गुरु की प्राप्ति हो गयी है|

श्रोता३: हम गुरु को प्राप्त हो गये|

वक्ता: हाँ, तुम गुरु को प्राप्त हो गये हो| अब तुम कहीं नहीं, अब गुरु भर बचा और उस गुरु का कोई नाम पता ठिकाना नहीं होता कि कौनसा वाला गुरु बचा, एक ही गुरु है | पाँच, सात गुरु नहीं होते| बात आ रही है समझ में?

श्रोता४: जैसे आपने कहा कि गुरु के व्यक्तित्व को देखने की जरूरत नहीं है, नहीं देखना चाहिये| तो मैंने भी ये नोटिस किया है कि जैसे आप कह रहे थे उसे कॉपी करने लगते हैं बहुत सारी चीजे| मैंने नोटिस किया है बेसोचे-समझे भी जैसे बॉडी एक्शन, बोलने का तरीका कॉपी हो गया| तो अब ये जो कॉपी करने की जो जिज्ञासा है, ये भी तो कहीं ना कही असर कर रही है कि हम वो होना चाहते हैं| अपने आप ही जैसे कुछ दो तीन चीजे हैं – बोलने का टोन वगैरह ,जो मैंने नोटिस किया है, और इसी को मनोविज्ञानं में भी बोलते है ‘द ग्रैंड अदर’ कि हम वो बनना चाह रहे हैं|

श्रोता४: क्योंकि बहुत डिस्टर्बिंग होता है यह अनुभूति, आपने कहा ना वो आपके तल पर नहीं है तो मुझे अपना तल पता है और इसका भी एहसास है कि वो मेरे तल पर नहीं है, मैं मनोवैज्ञानिक रूप से बात कर रहा हूँ बहुत डिस्टर्बिंग करनेवाला होता है |

वक्ता: किसके लिये डिस्टर्बिंग है?

श्रोता४: मेरे लिए |

वक्ता: उसके लिये डिस्टर्बिंग है ना जो ये उम्मीद पाल के बैठा है कि पकड़ लूँगा| ये कुछ नही है, ये बस कुंठा है कि ‘मुझसे बड़ा भी कोई है’| एक बार को ये स्वीकार कर लो की ‘है’| ‘हाँ है’| तो वो फिर घटना घटेगी जो तुम अभी सोच भी नहीं पा रहे हो| क्या होता है ना, ‘तना हुआ सर’ सोचता है कि ‘झुकूँगा तो बड़ी पीड़ा होगी’| समझना इस बात को, यह कौन सोच रहा है तना हुआ सर या झुका हुआ सर?

श्रोता: तना हुआ|

वक्ता: जो सर झुक गया, क्या वो वही है जो तना हुआ था? झुके हुए सर को पीड़ा होती है या नहीं होती है ये तने हुए सर को कैसे पता? तुम तने खड़े हो और झुकने के बारे में कयास लगा रहे हो, तुक्का मार रहे हो, प्रक्षेपण कर रहे हो, स्पेकुलेशन है, पोसिटिंग| तुम्हे कैसे पता कि झुकने में पीड़ा है? जो झुका है उसके तो सारे संकेत, उसकी तो सारी वाणी, उसके तो सारे गीत, सारी गवाहियां, आनंद के हैं| हमने किसी को गाते नहीं सुना कि हम झुके और बड़ा नुकसान पाया| हमने तो झुकने वालो को मस्त और आनंदमग्न ही देखा है| पर तुम तने खड़े हो और तने-तने में तुम बड़ा विचार किये ले रहे हो कि झुकूँगा तो ऐसा लगेगा, वैसा लगेगा|

तुम भूल जाते हो वो मूल-भूत बात, जिसको पिछले एक दो बार से अमित दोहरा रहे हैं कि झुकने के बाद तुम वो रह ही नही जाते जो तुम तने हुए थे| तने हुए को कुंठा है |समझो अंशु इस बात को|

(श्रोता को संबोदित कर रहे हैं)

तने हुए को कुंठा है| उसको ये दुनिया भर के विचार हैं और ये उलझने हैं, जो झुका हुआ है उसको उलझन है ही नहीं| यह एक बात | दूसरी तुमने वो जो कही कि कुछ बातें है जो उभरने लगती है, तुम्हें ईमानदारी से देखना होगा एक तो ये है कि बाहरी बदलाव आंतरिक बदलाव का सहज फल है| मन बदलता है तो कर्म बदलते हैं, सूक्ष्म बदलता है तो स्थूल बदलता है| जड़ पृष्ट होती है पत्तियों का रंग अपने आप बदल जाता है| जड़ पृष्ट होती है जहाँ फूल नहीं थे वहाँ फूल आने लगते है| पूरे पौधे का रूप रंग ही बदल जाता है, कोई पहचान ना पाए| जो पहले सूखा तेजहीन झाड़ था उस पर बाहार आ जाती है| पहले जिसे हजार तरीके के कृत्रिम रंग-रोगन की जरूरत पड़ती थी अब उसका अपना रंग चमक के सामने आता है|

तो तुम कैसे चल रहे हो, खा रहे हो, पी रहे हो, तुम्हारी आवाज कैसी है, तुम्हारे बात करने का ढंग कैसा है, तुम्हारे चेहरे पे भाव कैसे हैं, तुम्हारी भाषा कैसी है, यहाँ तक कि तुम्हारा खाना-पीना और पहनावा कैसा है, यह बदलेगा! क्यों नही बदलेगा? निश्चित रूप से बदलेगा| पर ये बदलाव असली होना चाहिए| ये बदलाव ऐसा ही होना चाहिए जैसे जड़ से उठता हुआ पानी पत्तियों तक पहुंचे| विशाल धरा है उससे जड़ो ने पानी सोखा और वो पानी फिर उठता हुआ पत्तियों तक फूल तक पहुंचा है और उस पानी की आभा अब चमक रही है पत्तियों में, फूल हँस रहे हैं, तो ये एक बात होती है|

एक दूसरा मार्ग होता है वो कुविचार का और आलस का, मूढ़ बुद्धि का होता है कि इतना कौन करे, इतना करने में शर्म भी है और अपना विगलन भी है| हम को तो ये हिसाब समझ में ही नहीं आता कि अपने आप को गलाने के लिए श्रम करो| हमारी होशियारी में ये बात समाती ही नही कि खूब मेहनत करो, खूब मेहनत करो, किस लिए?

श्रोता५: अपने आप को गलाने के लिए|

वक्ता: तुम बचे ही नहीं| तो साहब दुनिया मेहनत करती है अपने आप को चमकाने के लिए बढ़ाने के लिए और हम ऐसे मूर्ख है कि हम श्रम करे, तपस्या करे, साधना करें, किस लिए कि ‘हम बचे ही नहीं’| तो व्यावसायिक बुद्धि को वणिक बुद्धि को ये हिसाब सुहाता ही नही| वो कहती है हटाओ तुम! हमारे पास शोर्ट कट है उसमे ना मेहनत करनी है और ना अपने आप को गलाना है| ये सब तुम क्यों कर रहे थे, फूलो में नया रंग आये और पत्तियों में नई ताजगी| इसीलिए कर रहे थे ना, वो हम ऐसे ही कर देंगे “लाना रे बाजार से खरीद के उसी तरीके के फूल, लाना रे पत्तियां वैसी ही लगा दो” ये नकल कहलाती है| ये कुबुद्धि का काम है, ये ‘कुबुद्धि’ है|

इसमें जड़े मरी सी पड़ी है, तने में कीड़ा लगा हुआ है, एक भी पत्ती असली नहीं, झाड है| लेकिन नकल कर ली और उस नकल से हुआ कुछ नहीं है| हुआ इतना ही है कि मन और बट गया है, बेईमानी और बढ़ गयी है| वो जच भी नहीं रही| जैसे भेड़िये ने शेर की खाल पहन ली हो| या और स्पष्ट करना हो तो गधे ने शेर की खाल पहन ली हो| खूब कहानिया है ‘पचतंत्र’ में ‘हितोपदेश’ में कि वो घूम रहा है और लोग आये, लोगो ने कहा साहब क्या चमक रहे हैं आप और क्या आप लग रहे है, क्या आपकी खाल है, क्या आपके शरीर में ताकत है | जरा कुछ समझाये हमे इस बारे में कुछ बोले, उन्होंने मुँह खोल दिया और “ड़ेंचू- ड़ेंचू” | मारे और गये|

जब तक खाल पहने हो तब तक डर है | जब तक भेद खुला नही तब तक भेद खुलने का डर है| और जब भेद खुल गया तो मार है| नकल का तो ऐसा ही है| अब तुम्हें ये चाहिए हो तो नकल करना| मैं तुम्हें दो बातें कह रहा हूँ ध्यान से समझो पहला ‘नकल मत करना’ | दूसरी बात जो बदलाव आ रहा हो उसको इस संदेह में रोक मत देना कि अरे कहीं ‘मैं नकलची ना हो जाऊँ’ | हम दोनों काम करते है, हम में से जो आलसी होते है वो नकल कर जाते हैं और श्रद्धाहीन होते हैं, उनके भीतर बदलाव यदि आने भी लगता है| पहली कोपले फूटने भी लगती हैं, तो वो उनको मसल देते है कि अरे अगर मैं ऐसा होने लग गया तो फिर तो मैं नकलची और चापलूस और अंधभक्त और चेला कहला जाऊँगा |

तो कही ऐसा ना हो कि मुझ पे दुनिया ये लालछन लगा दे कि ये देखो ये तो चेला हो गया| ये देखो इसके तो बोलने-चलने का ढंग भी वैसा ही हो गया| अरे दाढ़ी रख ली? ये देखो! कुर्ता पहनने लग गया ये देखो| और कोई ताना मार रहा है कि भाई अब तुम भी काली चाय पीते होगे और बड़ा बुरा लग गया कि उफ़ आज तो ये सिद्ध हो गया कि मैं चापलूस हो गया, ये भी मूर्खता है| ये दुसरे तरह की मूर्खता है| दोनों मूर्खतायें है, इन दोनों से ही बचना| पहली कौनसी?

श्रोता: नकल कर डाली (सब एक स्वर में)

वक्ता: कि नकल कर डाली, कि ब्लैक टी नहीं भी पीनी थी तो पिए जा रहे है और लग रही है काढ़े जैसी हलक से नीचे नही उतर रही, पर अब सिद्ध करना है कि हम भी वही हैं अरे हम इस तल पे थोड़ी है हम भी सातवे आसमान के निवासी हैं| तो जबरदस्ती पी रहे है | मैं कभी इस बात की सलाह नहीं देता हूँ|

जब तक तुम इस ऑफिस हो मैंने भले ही ये नियम रखा हुआ है कि यहाँ पर दूध नहीं आयेगा और कुछ और चीज़ें है जो वर्जित है| बाहर तुम क्या करते हो क्या नहीं मैं इसमें कुछ कहता ही नहीं| मेरे साथ भी जो लोग चलते है मैं अपना खाना-पीना अपने हिसाब से करता हूँ, वो लोग अपना खाना-पीना अपने हिसाब से करें| हाँ! मुझे ये पता है कि मेरे साथ बैठ के माँस खाओगे तो मैं नही खाऊँगा, मैं फिर खाऊँगा ही नहीं| बाकी तुम क्या पहन रहे हो, किस भाषा का इस्तेमाल कर रहे हो? क्या खा रहे हो? क्या पी रहे हो? आचरण तक की जितनी भी बातें है इन बातों का कोई मोल ही नहीं है और मैं इन बातों पर कभी कोई बंदिश रखता ही नहीं|

तुम्हें नकलची थोड़ी बनाना है? और लेकिन जो दूसरी बात है उसके लिए भी सावधान कर रहा हूँ| अगर वाकई कुछ सीख रहे होगे, अगर वाकई जन्म सार्थक हो रहा होगा, ध्यान देना! तो भीतर से ही कहीं प्रेरणा उठेगी कि ‘सब बदले’| तुम अगर एक तरह का पहनावा पहनते हो तो वो आकस्मिक नहीं है ना? वो एक मानसिक ढ़ांचे का परिणाम है| भीतर कुछ चलता है जिसके कारण बाहर तुम पहनते हो कुछ| तुमने किसी रंग का चुनाव किया है, कुछ पहनते हो कुछ खाते हो पूरा जो बाहर तुम्हारा है तुम्हारा दोस्त, यारो का अपना एक सर्किल है| ये सब कुछ जो है संयोगवश तो होता नहीं| तुम जैसे हो उसी हिसाब से दोस्त चुनते हो, तुम जैसे हो उस हिसाब से खाना-पीना, उसी हिसाब से कपड़ा चुनते हो, उसी हिसाब से अपना घर-द्वार, परिवार, कहाँ रहते हो, कौनसी फिल्म देखने जाते हो, सब चुनते हो| जब भीतरी बदलाव आता है तो बाहर में ये सब बदलाव आते है और जब आये तो इन्हें आने देना इनका रास्ता मत रोकना कि हम इन्हें नही आने देंगे| हमे पहले के ही जैसे रहना है नही तो हमारे ऊपर बहुत तोहमत लग जायेगी|

बात समझ रहे हो? जिसको दिख गया कि शरीर क्या है, उसका हो सकता है कि अब ना मन करे कि वो रोज गाल छिले| तो अपने आप को जबरदस्ती धक्का मत देना कि ‘अरे बड़ा अभियोग लग जायेगा किसी ने कह दिया कि ये तो सर के प्रभाव में आ गया है’, आ गये हो तो आ गये हो| पचासों के प्रभाव में रहे हो वो कुप्रभाव थे आ गये हो प्रभाव में तो बोल दो! छाती थोक के बोलो कि हाँ ‘आ गये है प्रभाव में’| कल तक तुम्हरे प्रभाव में थे उससे लाख गुना अच्छा है कि उनके प्रभाव में आ गये है| उनका प्रभाव ऐसा है जो बाकी सारे प्रभावों से मुक्त कर देगा| वहाँ भी घबरा मत जाना | समझ रहे हो बात को? न नकल करनी है, न अकल लगानी है | नकल और अकल दोनों से बचो|

हम नकलचियों से तो बचते हैं अकल्चियों से नही बचते और अकसर नक्क्ल्ची से ज्यादा खतरनाक कौन होता है? अकल्ची | दोनों से बचना|

~अद्वैत शब्दयोग सत्र पर आधारित| स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त है|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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