Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
त्याग - छोड़ना नहीं, जागना || आचार्य प्रशांत, गुरु नानक देव पर (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
10 min
103 reads

जिन मिलिया प्रभु आपणा, नानक तिन कुबानु॥ ~ गुरु नानक

आचार्य प्रशांत: मन का एक कोना मन के दूसरे कोने पर न्यौछावर है। एक मन है और दूसरा मन है, और दोनों की अलग-अलग दिशाएँ हैं। नानक कह रहे हैं, ऐसा मन जो प्रभु की दिशा में है, प्रभु पर समर्पित है, उस मन पर बाकी सारे मनों की कुर्बानी देना ही उचित है। मन दस खण्डों में विभाजित है, एक खंड बात कर रहा है प्रभु की और बाकी नौ खंड किसकी बात कर रहे हैं…?

एक खंड बात कर रहा है दुकान की, एक बात कर रहा है, "भूख़ लगी है", एक बात कर रहा है, "नींद आ रही है", एक बात कर रहा है "और धंधे हैं", एक बात कर रहा है "कपड़ा-लत्ता", और दस बातें। नानक कह रहे हैं बाकी नौ की सार्थकता बस इतने में है कि वो कुर्बान हो जाएँ, उस पहले पर। कौन है प्रथम?

मन की दस बातें हैं, मन के दस हिस्से हैं; एक मन दस बातें नहीं कहता। यही तो मन का खंडित होना है न, कि मन के दस टुकड़े हैं; ‘मन के बहुतक रंग हैं’। दस टुकड़ों में जो बँटा है, वही मन है। जो मन एक दिशागामी हो गया वो तो जल्दी ही लय हो जाएगा। मन, मन रहता ही तब तक है जब तक उसमें परस्पर विरोधी विचार उठते-गिरते रहते हैं, कभी ये पलड़ा भारी, कभी वो पलड़ा भारी, कभी वो दिशा ठीक लगी, कभी ये दिशा ठीक लगी, कभी इस कोने, कभी उस कोने।

नानक ने सूत्र दिया है उन सब लोगों को जो जानना चाहते हैं कि कौन-सी दिशा जाना है, किसको प्राथमिकता देनी है, किसको शक्ति देनी है, और किसकी कुर्बानी देनी है।

उस मन को ताक़त दो जो प्रभु की दिशा जाता हो; उस मन को ताक़त दो जो प्रभु से मिलने को आतुर हो; और उस मन के साथ मत खड़े हो जो पाँच और दिशाओं में भाग रहा हो।

जिन मिलिया प्रभु आपणा, नानक तिन कुबानु।।

जहाँ प्रभु हैं, उस तरफ जो दिशा जाती हो, वही तुम्हारी दिशा है, बाकी दिशाओं को छोड़ो, यही यज्ञ है, यही हवि (यज्ञ में दी जाने वाली आहुति) है, यही समिधा है और इसी का नाम क़ुर्बानी है, यही एकमात्र उचित अर्थ है क़ुर्बानी शब्द का। ‘त्याग’ भी यही है, ‘अपरिग्रह’ भी यही है, सब एक ही परिवार के शब्द हैं। एक को समझ लिया, सब को समझ जाओगे। उपरति भी यही है, तितिक्षा भी यही है।

कृष्ण कहते हैं न उपराम हो जा!

उपरति भी यही, तितिक्षा भी यही है कि मन खंडित है और हर खंड की अपनी माँग है, हर खंड की अपनी दिशा और अपनी इच्छा है। किस खंड को बल देना है? क्या है विवेक? विवेक यही है न - उचित को चुनना और अनुचित को ठुकराना, अनुचित की क़ुर्बानी दे देना। नित्य को चुनना और अनित्य के साथ ना खड़े होना, यही है न विवेक। यही है। और यही संतों का कमाल होता है कि चंद शब्दों में सब कुछ कह दिया। और वो भी इतने मीठे तरीके से।

जिन मिलिया प्रभु आपणा, नानक तिन कुबानु।।

जो प्रभु नहीं है, जो सत्य नहीं है, उधर मुझे जाना ही नहीं। करूँगा क्या जा कर?

जो असत्य है, जो मिथ्या है उसको कीमत ना देना ही त्याग है।

एक मौके पर मैंने कहा था कि तुम्हारे हाथ में जलता हुआ कोयला है और तुम उसको छोड़ देते हो, यही त्याग है। तुम किसी सपने से आसक्त हो, बंधे बैठे हो, और तुम जग जाते हो, यही त्याग है। त्याग का अर्थ है उसको छोड़ देना जो कीमती था ही नहीं, तो छोड़ा भी तो क्या छोड़ा। त्याग में वास्तव में छोड़ने जैसी तो कोई बात नहीं है क्योंकि किसको छोड़ रहे हो? वो जो वैसे भी कीमती नहीं था।

त्याग का वास्तविक अर्थ छोड़ना नहीं है, जग जाना है। हालाँकि छोड़ने जैसी घटना लगती है कि हो रही है, पर जब जो छोड़ा जा रहा है वो वैसे भी बिना कीमत का है, तो उसे ‘छोड़ना’ कहना उचित होगा नहीं। उचित है बस इतना कहना कि जग गए, जान गए। ठीक इसी तरह से क़ुर्बानी में ये कहना बिलकुल उचित नहीं होगा कि बड़ी कीमती चीज़ की क़ुर्बानी दे दी। अहंकार को अच्छा लगता है ये कहना कि, "मैंने अपनी बड़ी प्यारी चीज़ की क़ुर्बानी दे दी है।" पर अगर अभी वो चीज़ प्यारी लग ही रही है तो कैसी क़ुर्बानी?

जो कहते हैं कि क़ुर्बानी अपनी बड़ी प्यारी चीज़ की दो, उनसे पूछो कि, "यदि तुम्हारी आसक्ति इससे कायम है तो क़ुर्बानी दी कहाँ?"

क़ुर्बानी तो तब, जब कुर्बानी देने की ज़रूरत ही ना पड़े। तुम कहो, "पहले ये बड़ी महत्वपूर्ण लगती थी तो मन में विचार भी उठता था की इसकी क़ुर्बानी दे दो, अब ये महत्वहीन लगती है तो क़ुर्बानी भी क्यों दें? मन ने ही पकड़ रखा था मन ने ही छोड़ भी दिया।"

क़ुर्बानी का अर्थ कोई शारीरिक नहीं है कि किसी वस्तु को किसी को दान कर दिया, कि किसी जानवर का गला काट दिया। पकड़ता कौन है? क्या हाथ पकड़ता है? क्या उंगलियाँ पकड़ती हैं? मन पकड़ता है। मन की ही पकड़ जब ढीली हो जाए तो वही क़ुर्बानी है। पर मन की पकड़ ढीली तब होगी जब मन को पहले ये दिखाई दे कि कुछ और है जो बेशकीमती है और मुझे उस दिशा जाना है।

नानक यही कह रहे हैं प्रभु मिलन की दिशा जाओ, वो कीमती दिशा है, बाकी सबको छोड़ दो। इसी का नाम ‘त्याग’, इसी का नाम ‘क़ुर्बानी’, इसी का नाम ‘उपरति’।

अब एक राज़ की बात: मन के सौ टुकड़ों में, एक वो टुकड़ा हमेशा विद्यमान होता है जो प्रभु दिशा जाने को तत्पर है, वो ना हो तो आप हो नहीं सकते। आपके होने का अर्थ ही यही है कि वो सदा मौजूद है। इसीलिए वो लोग जो मजबूरी का और लाचारी का दावा करते हैं, मैं हमेशा कहता हूँ कि तुम ढोंग कर रहे हो, क्योंकि वो सत्य मौजूद है तुम्हारे भीतर, बस ये है कि वो एक मन है और तुम्हारे पास निन्यानवे मन और भी हैं।

तुम ये कहने मत आओ कि, "मुझे पता नहीं है।" तुम्हें वो पता है, पर तुम निन्यानवे और उलझनों में उलझे हुए हो। अब निर्णय तुम्हें करना है कि तुम उस एक की भी सुनो, उस एक की ही सुनो। कभी किसी को ये शक़ ना हो कि, "मेरे मन में तो सिर्फ़ वस्तुओं का और दुनियादारी का और चालाकियों का ख़याल बैठा रहता है, कि मेरे मन के जितने हिस्से हैं, वो सब वस्तुओं से ही आसक्त हैं", ना, ऐसा नहीं है। तुम्हारे मन का जो सबसे महत्वपूर्ण, सबसे केंद्रीय हिस्सा है, वो तो लगातार प्रभु को गा ही रहा है।

तुम जो भी हो, तुम जिस भी स्थिति के हो, तुम आदमी हो या औरत हो, तुम बच्चे हो या बूढ़े हो, तुम अमीर हो या ग़रीब हो, तुम जैसे भी हो और जहाँ भी हो, तुम्हारे मन में वो हिस्सा लगातार मौजूद है जो प्रभु की ओर ही जाना चाहता है उसे और कुछ नहीं चाहिए। वो लगातार मौजूद है, तुम उसकी सुनो।

नानक कह रहे हैं कि उसकी ही सुनो, छोड़ो बाकियों को, बाकी छूट ही जाएँगे जिस क्षण उसकी सुनने लगोगे। बाकी सारे जो खंड हैं मन के, वो उठते-बैठते रहते हैं क्योंकि वो वस्तुओं से आसक्त हैं, और वस्तुएँ बदलती रहती हैं समय के साथ, स्थान के साथ। पर मन का वो एक बिंदु अचल है। उसको तो एक ही दिशा जाना है, और वो उधर को ही एकटक देख रहा है।

मन का बाकी माहौल कितना बदलता रहे, वो एक है अकेला जो उधर को ही देख रहा है। जैसे कि एक कमरे में बहुत सारे बच्चे मौजूद हों और उस कमरे में खेलने के हज़ार खिलौने रखे हैं, और मिठाइयाँ रखी हैं, और मनोरंजन के उपकरण रखे हैं, और बहुत सारे बच्चे हैं जो उनमें मग्न हो गए हैं, कोई बच्चा कोई खिलौने उठा रहा है, और हज़ारों खिलौने और हज़ारों मिठाइयाँ रखी हैं, पर एक बच्चा है जो लगातार खिड़की से बाहर को देख रहा है कि, "माँ कहाँ है?" उसे कमरे के भीतर का कुछ चाहिए ही नहीं।

बाकी बच्चों के हाथ के खिलौने, मिठाइयाँ और डब्बे बदल रहे हैं, वो एक दिशा से दूसरी दिशा भाग रहे हैं, कभी ये उठाते हैं कभी वो उठाते हैं पर ये एक बच्चा एकटक बस खिड़की से बाहर देख रहा है कि "माँ के पास जाना है।" नानक कह रहे हैं–तुम इस बच्चे के साथ हो लो। बाकी बस इसी योग्य हैं कि उनकी क़ुर्बानी दे दी जाए। संख्या गिनने की बात नहीं है, बिलकुल संख्या गिनने की बात नहीं है। जो महत्वहीन हैं उनकी संख्या क्या गिननी? कुछ नहीं से कुछ नहीं को कितना ही जोड़ो, कुछ नहीं ही हाथ आएगा।

जिन मिलिया प्रभु आपणा, नानक तिन कुबानु।।

हम सबके भीतर वो बच्चा मौजूद है, वही असली है, बाकी सब नकली हैं, बाकी परछाईयाँ हैं, भ्रम हैं। वो असली है और वो मानेगा नहीं, उसको तो बस माँ चाहिए। माँ उसके भीतर बैठी ही हुई है, वो मिला ही हुआ है माँ से, कहीं-न-कहीं, इसीलिए बिना माँ के किसी और को वो चाहता नहीं। कह रहे हैं न नानक, 'जिन मिलिया प्रभु आपणा', वो मिला ही हुआ है, वो एक है माँ से, वो आत्मा है। उसके साथ हो जाओ।

वो बात भी जब कही जाती है न कि ‘जो सबसे प्यारी चीज़ है, वो क़ुर्बान करो’, वो इसीलिए कही जाती है क्योंकि हमारी ‘प्यारी’ की परिभाषा ही विपरीत है। तो इसीलिए कहने वालों ने एक विधि बनाई है। तुम प्यार ही किससे करते हो? जो सबसे घटिया चीज़ होती है, उसी से प्यार करते हो। तो ऐसा करो जो सबसे प्यारा है, उसे क़ुर्बान करो। क्योंकि जो तुम्हें प्यारा होगा वही तुम्हारी बीमारी होगी। तो कहने वालों ने कहा कि अपनी सबसे प्यारी चीज़ क़ुर्बान कर दो। क्योंकि तुम्हारी बीमारी है ही क्या? तुम्हारा प्यार ही तो तुम्हारी बीमारी है।

अपनी-अपनी ज़िंदगी में झाँक कर देखो, जिससे ही दिल लगाया है, वही तुम्हारी गर्दन काट रहा है। वोल्टेयर ने कहा है, "ज़िंदगी ऐसा साँप है जिसको तुम सहलाए जा रहे हो, और वो तुम्हारा दिल, कलेजा खाए जा रहा है।" तो यही कहा गया कि जिससे प्यार करते हो, उसे क़ुर्बान करो। तुम्हारा प्यार ही तो ग़लत है। तुम प्यार जानते कहाँ हो, तुम आसक्ति जानते हो।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles