तुम्हारी व्यवस्थाओं का केंद्र है अहंकार || आचार्य प्रशांत, सूफ़ीवाद पर (2013)

Acharya Prashant

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तुम्हारी व्यवस्थाओं का केंद्र है अहंकार || आचार्य प्रशांत, सूफ़ीवाद पर (2013)

There was a certain ascetic who was one of the great saints of Bestam. He had his own followers and admirers, and at the same time, he was never absent from the circle of Bayazid al-Bistami (or Abu Yazid al-Bistami). He listened to all his discourses and sat with his companions.

One day he remarked to Abu Yazid, “Master, for thirty years I have been keeping a constant fast. By night too I pray so that I never sleep at all. Yet I discover no trace of this knowledge of which you speak. For all that I believe in this knowledge, and I love this preaching.”

“If for three hundred years,” said Abu Yazid, “you fast by day and pray by night, you will never realize one atom of this discourse.”

“Why?” asked the disciple.

“Because you are veiled by your own self,” Abu Yazid replied.

“What is the remedy for this?” the man asked.

“You will never accept it,” answered Abu Yazid.

“I will so,” said the man. “Tell me, so that I may do as you prescribe.”

“Very well,” said Abu Yazid. “This very hour go and shave your beard and hair. Take off these clothes you are wearing, and tie a loincloth of goat’s wool about your waist. Hang a bag of nuts around your neck, then go to the marketplace. Collect all the children you can, and tell them, `I will give a nut to everyone who slaps me.’ Go round all the city in the same way; especially go everywhere people know you. That is your cure.”

“Glory be to God! There is no god but God,” cried the disciple on hearing these words.

“If a nonbeliever uttered that formula, he would become a believer,” remarked Abu Yazid. “By uttering the same formula you have become a polytheist.”

“How so?” demanded the disciple.

“Because you count yourself too grand to be able to do as I have said,” replied Abu Yazid. “So you have become a polytheist. You used this formula to express your own importance, not to glorify God.”

“This I cannot do,” the man protested. “Give me other directions.”

“The remedy is what I have said,” Abu Yazid declared.

“I cannot do it,” the man repeated.

“Did I not say you would not do it, that you would never obey me?” said Abu Yazid.

The selfish man

आचार्य प्रशांत:

‘मन’ को बचाए रखने, ‘मन’ को सुरक्षित रखने का बड़ा सुगम तरीका है किसी एक तरह के आचरण को पकड़ लेना और उसको दोहराए चले जाना।

अपने आप को साबुत रखना, अपने आप को पूरी तरह से बचाए रखना, जैसे उस दिन कबीर कह रहे थे कि आपने चारो और लोहा डाल के रखे हो। अपने आप को पूरी तरह से बचाए रखना और फिर दुनिया भर के काम करना, जबकि आध्यात्मिक विकास में, *सेल्फ डिवेलप्मन्ट* में बात ही सारी अपने आप को मिटा देने की है। लेकिन यह बड़ा मन के लिए आसान रहता है, उसकी एक बड़ी मस्त चाल रहती है कि अपने आप को बचाए चलो, और बहुत सारे काम बाहर-बाहर करे चलो, और यहाँ पर जो गुरु है उसको यह बात खोल देने में ज़रा भी समय नहीं लगा। उसने बस इतना कह दिया, “तू यह कर के दिखा दे” और इनकी हिम्मत जवाब दे गई। इनसे नहीं किया गया। क्योंकि निश्चित रूप से इनके पास खोने के लिए कुछ था, और खोने के लिए हमारे पास हमेशा क्या होता है?

श्रोता १ : सम्मान

श्रोता २: अहंकार

आचार्य जी: तादात्मय, अहंकार, कोई न कोई धारणा, कुछ न कुछ है जो हम बचा के रखना चाहते हैं। पहली ही चीज़ किसी ने कहा था सम्मान, तो उसे बचा के रखना ज़रूरी है।

कोई फ़ायदा नहीं होगा, आप ३० साल क्या, ५० साल भी लगे रहिये तो कोई फ़ायदा हो नहीं सकता। क्योंकि आपने जो अपना सेल्फ है, जो अपना ‘मन’ है, उसको तो न छोड़ने की कसम खा रखी है। अब आप दुनिया भर की बाकि बातें करते रहिए उससे कोई अंतर पड़ने का नहीं है।

देखिये अभी हमने क्या कहा, पहली बात आज हमने क्या कही थी? कि दो तरह के लोग होते है। पहला कौन सा? जो सच बाहर खोजता है, जिसकी दृष्टि लगातार बाहर की ओर है। जो सोचता है कि इन पन्नों में सच हो सकता है, या इस व्यक्ति में सच हो सकता है, और दूसरा कौन? जो जानता है कि सच तो सर्वत्र है पर दिखेगा मेरी ही रोशनी में। है हर तरफ, सिर्फ यहीं नहीं, यहाँ भी है पर दिखेगा मेरी ही रोशनी में, मेरे ही ध्यान में है।

यह पहले किस्म का आदमी है जो सोच रहा है कि बाहर-बाहर कुछ कर के कुछ पा लूँगा। जिसकी नज़र लगातार बाहर की ओर है, और जब तक आपकी नज़र बाहर की ओर है आप कुछ नहीं पा सकते। आप लोगों की लर्निंग रिपोर्ट आती हैं। अभी कल शनीवार था तो एस.डी.आर. (*सेल्फ डिवेलप्मन्ट* रिपोर्ट ) आए बहुत सारे। एस.डी.आर. भी ठीक दो तरह के होते है, एक वो जिनमें दुनिया भर की बातों का ज़िक्र होता है, अपना जिक्र नहीं होता। वो आपको कहीं नहीं ले जाएंगे, आप धोखा दिए जाओ खुद को, आप अपने आप को बचाते जाओ।

आप लिख लो ऐसे शब्द जो लग रहा हो कि वाह!, बड़े पंडिताई के शब्द हैं। आपका यह एस.डी.आर. किसी अखबार में छापने के काम आ सकता है । आपको नाम मिल जायेगा, आपको पैसे भी मिल जायेंगें कि वाह! क्या बात लिखि है। लेकिन इससे आपको कुछ नहीं मिलेगा, आप गरीब के गरीब ही रह जाओगे। जो असली चीज़ थी वो आपसे दूर ही दूर रहेगी। आप लिखे रहो |और कुछ लोग दुसरे तरह के भी हैं कि जब कुछ लिखते है तो अपने आप को पूरा खोल देते हैं। उनका एस.डी.आर. किसी बाहरी बात के बारे में नहीं होता कि दुनिया कैसी है, लोग कैसे हैं, लोग इतने झूठे क्यों है? वो सिर्फ और सिर्फ अपनी बात करते हैं कि मैं कौन हूँ, मैं कैसा हूँ, मैं क्या कर रहा हूँ? वो अपने मन को खोलते हैं उसकी गंदगी को देखते हैं। वो कुछ पाएंगे। वो पा रहें है, लगातार और सिर्फ उन्ही को मिलेगा। बात समझ में आ रही है?

यह मन की बहुत बड़ी चाल है कि *सेल्फ डिवेलप्मन्ट* रिपोर्ट के नाम पर भी विश्व*–डिवेलप्मन्ट* रिपोर्ट भेज दो कि दुनिया में क्या चल रहा है। आप संयुक्त राष्ट्र हो? अपना होश नहीं है, दुनिया की बात ही क्यों कर रहे हो? तुम्हारे पास आँख है दुनिया को देखने कि? तुम्हारे पास आँख है? फिर वही कि, सच तो मुझसे बाहर है, और मैं उसे बाहर-बाहर खोज लूँगा। अपना ज़िक्र नहीं करूँगा कि मेरे मन में कौन-कौन से साँप-बिच्छू पल रहे हैं। और जैसे ही फिर उस मन के ताले कोई खोलेगा, उसपे रोशनी डालेगा तो वैसे ही आपका हाल वही होगा जो यहाँ पर हुआ, क्योंकि उसी को तो आपने बचा के रखा था, उसी को तो आपने अपनी सम्पदा माना था। कि यह ही तो मेरा ख़जाना है। लेकिन गुरु उसपे हाथ डाल देगा। उसका काम ही यही है कि वो आपका खजाना लूट ले, और फिर आप बिल-बिलाओगे। बिलकुल तिल-मिला उठोगे कि नहीं, यह तो मैं नहीं कर सकता। आपकी त्रासदी ही यही है कि आप एक खजाना समेट के बैठे हुए हो, जो और कुछ नहीं है, आपके मन के साँप-बिच्छू हैं। जिनको आप रोशनी नहीं दिखाना चाहते। जैसे वो वैम्पाइर होते है जिन पे जब रोशनी पड़ती है तो क्या होता है? तुरंत जल जाते हैं। आप उनको रोशनी दिखाना ही नहीं चाहते। दिखाओगे तो गायब हो जायेंगें। पर वो गायब हो गए तो आपकी सारी पहचान मिट जाएगी, आपका सारा अहंकार मिट जायेगा। तो इसलिय आप उन्हें रोशनी नहीं दिखाओगे। आप उन्हें उद्घाटित नहीं करोगे, सामने नहीं लाओगे। आप विश्व*– डिवेलप्मन्ट* रिपोर्ट लिखोगे।

३० साल से यह क्या कर रहा था आदमी? और गुरु ने भी ३० साल तक इससे कुछ कहा क्यों नहीं? इसी मौके पे आके क्यों कहा?

तू कर ले जो तू कर सकता है। तू जो कर सकता है, कर ले। जिस दिन थक जायेगा, हार जायेगा, दिख जायेगा कि बेवकूफी में गुज़ार दी, उस दिन आ जाना। उस दिन बता देंगे कि क्या तेरे तरीकों में कमी थी।

हममें से जिसके पास भी कुछ ऐसा है जो पूरी तरीके से निषिद्ध है, जिसको खोल देने की बात सुन कर ही हमें पसीना छुट जाता हो, चाहे वो कोई कर्म हो, और चाहे वो जीवन का कोई राज़ हो। वो समझ ले कि वही उसकी हथकड़ी है। उसी ने उसको जकड़ रखा है।

कि यह तो मुझसे नहीं हो सकता, और वो आम तौर पे कोई बहुत बड़ी घटना नहीं होगी, कि आप जाइये और किसी का कतल कर के आ जाइये। यहाँ पे भी जो कहा गया है वो खेल की तरह ही था, कि खेल ही तो करना है। यह कर ले, यह कर ले। बाज़ार चला जा, मूंगफली निकल के दे-दे पर करा नहीं जायेगा। वहीँ पे बीज है आपका, वहीं पर वहीँ पर गांठ है। वहीँ फसे हुए हैं।

अभी कुछ ही दिनों पहले कि बात है कि हमने यहाँ पर, ४-५ महीने हो गए होंगें, एक दिन ऐसे ही करा था कि गाने लगा दिए थे और कहा था चलो नाचते हैं, और हममें से कितनों के लिए बड़ा असंभव हो गया था नाचना, बड़ा असंभव हो गया था। उनको यहाँ पर अपनी कहानी दिखाई दे रही है? यहाँ पे तो यह कहा गया था कि मार्किट में जाओ और थप्पड़ खा के आओ। हमने तो थप्पड़ खाने की बात भी नहीं करी। हमने तो यही कहा कि दूसरों के सामने ज़रा थोड़ा नाच लो। ज़रा थोड़ा नाच लो। तुम्हारी प्रतिष्ठा इतनी गहरी है, इज्ज़त इतनी गहरी है कि दूसरों के सामने नचा नहीं जाता और तुम सोच रहे हो कि बड़ी–बड़ी बातें करने से और इधर-उधर से शब्द कोष रट लोगे तो जिंदगी में कोई फूल खिल जायेगा?

ऐसे ही एक बार करा था कि ज़रा थोड़ी देर के लिए सब बच्चे बन जाओ या पागल बन जाओ। नहीं हुआ, नहीं करा गया। एक बंद कमरा है और सब तुम्हारे साथ के लोग है। नहीं, नहीं करा गया। यहाँ कोई पहाड़ कूदने की बात नहीं हो रही है की मौत का खौफ है, कैसे करें, यहाँ जिस चीज़ का खौफ है वो जानते हो न क्या है, वो मौत नहीं है, वो क्या है? वो है *अहंकार, अहंकार*।

उसी बात को उसके गुरु ने उससे बहुत ख़ूबसूरती से बोल दिया कि बेटा तू क्या बार-बार… इस्लाम पूर्णतया एकेश्वरवादी है। एक के इलावा दूसरा नहीं हो सकता। “तू तो उसको भी नहीं मानता। तू तो उससे भी बड़ा अपने को माने हुए है। तो तुझे मुक्ति कहाँ से मिल जाएगी?”

भाई, खुदा कौन? जो सबसे बड़ा, और जो सबसे बड़ा खुद को ही माने बैठा हो, जो सबसे बड़ा अहंकार को ही माने बैठा हो, वो तो खुद को ही खुदा जान रहा है ना? कि गुरु से भी बड़ा अहंकार है। (हँसते हुए) गुरु से भी बड़ा अहंकार है। तो फिर तुम तो एक खुदा को भी नहीं मानते हो। तुम काहे के मुस्लमान हो? जो कहे कि दो खुदा है वो काहे का मुस्लमान?

समझ में आ रही है बात? और यह उसने बड़ी मस्त बात बोल दी है, कि हम कुछ भी बोलते रहें यह परम, और यह और वो, हमारे लिए सबसे बड़े हम हैं। हमारे लिए सबसे बड़े हम है, और जो सबसे बड़ा खुद को ही मानता हो, उसने अभी उस एक को जाना नहीं है।

जिसे कहते थे, एक है तो, “*ला**–*इल्लाह-इल्लल्लाह” उसी को सूफी यह भी कहते है कि “*ला-मौजूद, ला-इल्लाह*” कि वो एक ही नहीं, हर तरफ भी वही-वही है। उस एक को जाना नहीं है। तुम्हारे लिए तो निश्चित रूप से दों हैं या यह कहो कि एक है भी तो वो एक तुम्हारा अपना अहंकार है। तो तुम्हें क्या मिल जायेगा? कुछ नहीं मिलेगा, बैठे रहो। जब तुम अपने आप को अभी गिराने को ही तैयार नहीं हो, समर्पित करने को तैयार नहीं हो तो बैठे रहो, अपनी गठरी ले कर के, और उसमे जो तुम्हे मिलता हो, उसे पाते रहो।

श्रोता ३: आचार्य जी,पहली कहानी मेंएक वाक्य है “Glory be to God, there is no God but God.”

आचार्य जी: वही है यह, वो एक है, एक है। यह इस्लाम के सबसे केन्द्रीय सिधान्तों में से एक है, कि उस एक के इलावा दूसरा नहीं। ये तो तुम्हारे बैग पर भी लिखा हुआ है, जिसे तुम लेकर जाते हो एम.आई.टी., क्या लिखा है?

श्रोता: एकोहम।

आचार्य जी: एकोहम, वही है यह।

दूरसी कहानी :

One dark night two men met on a lonely road.

‘I am looking for a shop near here, which is called The Lamp Shop,’ said the first man.

‘I happen to live near here, and I can direct you to it,’ said the second man.

‘I should be able to find it by myself. I have been given the directions, and I have written them down,’ said the first man.

Then why are you talking to me about it?’

‘Just talking.’

‘So you want company, not directions?’

‘Yes, I suppose that that is what it is.’

‘But it would be easier for you to take further directions from a local resident, having got so far: especially because from here onwards it is difficult.’

‘I trust what I have already been told, which has brought me thus far. I cannot be sure that I can trust anything or anyone else.’

‘So, although you once trusted the original informant, you have not been taught a means of knowing whom you can trust?’

‘That is so.’

‘Have you any other aim?’

‘No, just to find the Lamp Shop.’

‘May I ask why you seek a lamp shop?’

‘Because I have been told on the highest authority that that is where they supply certain devices which enable a person to read in the dark.’

‘You are correct, but there is a prerequisite, and also a piece of information. I wonder whether you have given them any thought.’

‘What are they?’

‘The prerequisite to reading by means of a lamp is that you can already read.’

‘You cannot prove that!’

‘Certainly not on a dark night like this.’

The lamp shop

आचार्य जी: The lamp shop, पढ़ी हुई है सबने? बताइए क्या चल रहा है? शायद इन सारी कहानियों में से सबसे ज़्यादा खज़ाने अगर किसी में गड़े हुए है तो इसमें हैं।

श्रोता ४: और खतरनाक भी है।

आचार्य जी: और सबसे खतरनाक भी है यह। एक-एक वाक्य लेंगे, ध्यान से समझेंगे।

“One dark night two men met on a lonely road”

रात अँधेरी है, सड़क अकेली है। बात समझ रहे हो ना? अँधेरापन भी है और अकेलापन भी है। समझ रहे हो किधर को जा रहा है इशारा? किधर को जा रहा है?

श्रोता २: मन की ओर।

आचार्य जी: ठीक? मैं कुछ ढूंढ रहा हूँ जिसको लैंप शॉप (Lamp Shop) कहते हैं। लैंप का क्या अर्थ है? अभी-अभी हमने एक शब्द इस्तेमाल किया है?

श्रोता ४: रोशनी ।

आचार्य जी: अपने प्रकाश में जो खोजता है। ठीक है ना? जहाँ जान सकूँ। जहाँ जाना जा सके। लैंप का अर्थ है ‘ज्ञान’। लैंप का अर्थ है ‘जानना,’ ‘प्रकाश’। शॉप का क्या अर्थ है? कि जहाँ पे वो मिलता हो। कोई ऐसी जगह जहाँ पर ज्ञान उपलब्ध हो सके, ठीक?

“I happen to live near here and I can direct you to it.”

तुम जिस ज्ञान और ज्ञान के स्त्रोत की तलाश में हो, मैं उसके आस-पास ही रहता हूँ। इशारा क्या है, कि में कैसा हूँ?

श्रोता १: मैं उपलब्ध हूँ।

आचार्य जी: मैं उपलब्ध हूँ, मैं ज्ञानी हूँ। ज्ञान के ही क्षेत्र में मेरा निवास है, ठीक है? तो मैं जानता हूँ, मैं तुम्हारी मद्द कर सकता हूँ।

पर दूसरे वाले का क्या कथन है? “हम खुद ही खोज लेंगे।” २ – ४ कृष्णामूर्ति के विडियो देख कर आए हैं यह।

(सभी श्रोता हँसते हैं )

कृष्णामूर्ति अहंकारियों के लिए बहुत अच्छा बहाना बनते हैं।

“There is no authority. You can find it for yourself.”

एक शराबी बैठा हुआ है, और वो कह रहा है कि, “कोई सत्ता नहीं है। हम अपने आप ढूंढ लेंगे।”

बिलकुल ठीक बात है। सत्ता उसके लिए नहीं है जो खुद होश में तो हो! और निश्चित रूप से उसे खुद खोजना भी चाहिए और अंततः हर आदमी खुद खोजता भी है। पर पहले तुम उस स्तिथि में तो आ जाओ जिसमे खुद खोज सको। नशा चढ़ा हुआ है, और दावा कर रहे हो कि खुद खोजोगे!

“I have been given the directions and I have written them down.”

तो यह फिर किसी जगह से, या किसी किताब से कुछ बातें ले कर के आ गए हैं कि यह सब है, ऐसा-ऐसा करो तो मामला हो जाता है।

तो पहला आदमी है, वो तो ज्ञान के ही मोहल्ले का रहने वाला है तो वो तो पलट के सीधे पूछता है, “तुम मुझसे बात ही क्यों कर रहे हो? जब तू सब कुछ जान के ही आ गया है तो मुझसे क्यों पूछ रहा है? तुझे सब पता ही है तो बात-चीत का क्या फ़ायदा?”

तो साहब जवाब क्या देते है “सिर्फ बात कर रहा हूँ।” टाइम-पास। सीधे-सीधे कहें तो गपशप। तो पहला आदमी कहता है कि इसका मतलब यह है कि तुम्हें मद्द नहीं चहिए, तुम्हें सांगत चाहिए। तुम्हें मद्द चाहिए ही नहीं है। तुम अकेले हो, अकेला अनुभव कर रहे हो,तो तुमको क्या चाहिए? संगत चाहिय है। या सीधे–सीधे कहें तो डरे हुए हो तो साथ में कोई चाहिए।

“हाँ, ऐसी ही कोई बात है।”

“But it would be easier to take further directions from a local resident.”

‘स्थानीय निवासी’ का क्या अर्थ हुआ?

श्रोता ५: जो वहाँ है ही।

आचार्य जी: जो वहाँ है ही।

बहुत बढ़िया। जहाँ तुम जा रहे हो उसके बारे में खबर तो वही देगा न, जो वहाँ है ही। स्थानीय निवासी से यह अर्थ है।

“Having got so far, especially because from here is it difficult.”

तुम जैसे हो, तुम्हारे लिए मुश्किल पड़ेगा। अपने आप में वो मुश्किल नहीं है। हम यह न सोचें कि सड़क मुश्किल है। सड़क सीधी है, तुम बेहोश हो। और अगर तुम बेहोश हो तो मुश्किल है ही। जैसे कबीर उस दिन क्या कह रहे थे? “नाच न जाने, बापुरी आंगन टेढ़ा होय।” आंगन में कोई दिक्कत नहीं है, सड़क में कोई दिक्कत नहीं है।

दिक्कत हमेशा आतंरिक ही होती है, हमारे अपने होश में होती है। लेकिन मुश्किल तो है ना, मुश्किल तो है।

“I trust what I have already been told.”

आचार्य जी: ध्यान दिजियेगा इस मज़ेदार बात पर। इस पूरी वाक्य को पकड़ लीजिए! यह जो ट्रस्ट है, क्या है यह? धारणा या श्रद्धा?

श्रोता ४: धारणा।

आचार्य जी: यह धारणा है। इसने कुछ जाना नहीं है। यह पकड़ के बैठ गया है। किसी ने कुछ बोल दिया और यह पकड़ के बैठ गया है और वही इसका बंधन बन रहा है। अभी हमने पहली कहानी में क्या कहा? जो भी कुछ पकड़ के बैठे हो, उसी पे ध्यान दो, वही तुम्हारा बंधन है।

जो भी कुछ जीवन में बड़ा कीमती मान रखा है, उसी पे ध्यान दो, वही बंधन है।

तो यह कुछ पकड़ के बैठ गया है।

‘मुझे बताया गया है’ मतलब सत्य उसके पास कहाँ से आया है?

सभी श्रोता: बाहर से

आचार्य जी: बाहर से आया है। और आज हमने पहली बात ही क्या बोली?

कि यह पहले तरीके का आदमी है, जो सोचता है कि सत्य बाहर से आ सकता है। “जो मुझे यहाँ तक ले आया है”। निश्चित रूप से, बाहर से भी जब आता है तो कुछ तो वो सुपरिणाम ले कर ही आता है। ठीक है ना। आप आचरण के स्तर पर ही, लेकिन जब अपने आप को बदलते हैं तो कुछ तो शुद्धि होती ही है। पर वो बहुत सतही होती है। बहुत सतही होती है। आपको धोखा हो सकता है कि कोई वास्तविक परिवर्तन आ रहा है, वो वास्तविक होता नहीं है। कागज़ के फूल जैसा होता है। लेकिन आपको यह धोखा हो सकता है कि “वो मुझे कहीं ले आया है”। तो यह क्या कह रहें है जनाब, कि वो इतना दूर तो ले आया है, ठीक, “पर यहाँ से मुश्किल है” यह बात भी कही गई है, इतनी दूर तक तो आ जाओगे, इसके आगे नहीं जा पाओगे। बस यहीं तक, और दूर नहीं।

“I cannot be sure if I can trust anything or anyone else.”

मैं अपनी धारणाओं में, अपनी मान्यताओं में, इतना हठी हूँ कि अतीत में मैंने जो विश्वास पाल लिए उसके अतिरिक्त अब किसी और चीज़ को देख पाना मेरे लिए संभव नहीं रहा। मेरे अतीत ने मुझे कुछ मत दे दिए हैं, मुझे कुछ धारणायें दे दी हैं। जिनमें से सबसे बड़ी धारणा यह है कि “मैं ऐसा हूँ।” मेरी अपनी पहचानें, और अब कुछ भी और दिख पाना मेरे लिए संभव ही नहीं है, देख रहें हैं? एक-एक लाइन कितनी कीमती है, और हमारे जीवन की कहानी है यह।

“So although you once trusted the original informant, you have not been taught a means of knowing whom you can trust.”

कमाल की बात है। जो पहला था, जिसने बात स्वयं जानी थी, ताज़ी-ताज़ी, मूलतः, उसपर तो तुम्हारा विश्वास है पर अगर तुमने वाकई कुछ जीवन में जाना होता तो तुमने यह भी जाना होता कि सत्य हज़ार जगहों से उद्भूत हो रहा है। तुमने बस एक ही घाट का पानी न पी लिया होता, तुमने यह भी सीख लिया होता कि बहुतेरे हैं घाट। एक ही नदी होती है उसके घाट हज़ार होते हैं। एक ही नदी होती है ना, पर कितने घाट होते हैं? एक ही शहर में कितने घाट होते हैं। पटना में कितने घाट है?

श्रोता ६: बहुत सारे।

आचार्य जी: कम से कम, २ – ४ के तो नाम जानते ही होगे। बनारस का कोई है? कितने घाट है बनारस में? बहुतेरे हैं घाट। अगर कोई जानेगा तो यह जानेगा कि कितनी ही जगहें है जहाँ से पानी पीया जा सकता है। धार हमेशा एक ही है। यह तो तुम्हारी स्तिथि पर है कि तुम किस घाट का पानी पी रहे हो। अगर तुमने यह नहीं जाना तो तुमने कुछ नहीं जाना।

तुमने अगर यह मान लिया है कि एक ही सूचक था और उसके बाद अब कोई और नहीं हो सकता, उसके अतिरिक्त में किसी और से नहीं सीख सकता तो पागल ही हो तुम।

“ऐसा ही है।”

भाई, बंदा इमानदार है, तुरंत मान गया। हमारी तरह होता तो कहता नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं है। उलझता, दांव फेकता, कुछ गोल-मोल करता।

“Have you any other aim?”

जानना चाहता है, मुमुक्षा कितनी है। कुछ और भी पाना है?

“ना… ना… ना… इच्छा एक ही है।” धार है इच्छा में। धार है। याद रखें कि अगर वो कहता कि और भी हैं। लैंप शॉप न मिले तो मिठाई शॉप भी चलेगी, पान शॉप भी चलेगी, गारमेंट शॉप भी चलेगी तो शायद वो आगे बात ही न करे। आगे बात बड़ भी पा रही है तो इसीलिए क्योंकि वो कहता है कि नहीं, इसके इलावा और कुछ नहीं चाहिए। इसी का नाम है, ‘मुमुक्षा।’

“No, just to find the lamp shop.”

“May I ask why you seek a lamp shop?”

“Because I have been told by the highest authority that this is where they supply certain devices which enable a person to read in the dark.”

सवाल यह उठता है कि अभी तुम खुद ही लैंप शॉप खोज रहे हो तो क्या तुम्हें इस बात की ज़रा भी खबर हो सकती है कि ‘उच्चतर सत्ता’ क्या है? तुम लैंप शॉप खोज रहे हो इसका अर्थ है कि अभी तुम्हें प्रकाश मिला नहीं है। जब तुम्हें प्रकाश नहीं मिला है तो ‘उच्चतर सत्ता’ भी तुमने खुद नहीं जानी है। खुद देखि नहीं है। क्योंकि रोशनी तुम्हारे पास है ही नहीं, तुमने बस सुन लिया है। तुमने बस सुन लिया है कि फलाने को ‘उच्चतर सत्ता’ कहते हैं। वो ‘उच्चतर सत्ता’ क्या है इसका तुम्हारा अपना कोई अनुभव नहीं है। इसको तुमने जाना नहीं है, बस माना है। बात समझ में आ रही है? देखिये कितना विरोधाभासी वक्तव्य है कि

“I have been told by the highest authority that there exists a shop that has devices that enable you to read in the dark.”

लेकिन प्रश्न यह है कि अगर अभी तक विवेक नहीं है, तो उच्चतर सत्ता का कुछ भी कैसे पता होगा? उस उच्चतर से कुछ भी सहभागिता है? कुछ भी मेल है?

(But the question is that till now if you don’t have that faculty how do know that there is a highest authority. Have you any communion with that highest? Do you resonate with that highest? No, not at all, but I have been told.”)

नहीं! “लेकिन मुझे बताया गया है” का बस यही अर्थ है कि यह जो सारा “पता लगाना” चल रहा है यह शब्दों का खेल है जो आप बाहर से लगातार ले रहें हैं।

“You’re correct, right, but there is a prerequisite.”

बड़ी मज़ेदार शर्त है। यह जो शर्त है, उसके बारे में कुछ सोचा है? और क्या शर्त है?

शर्त जो है, वो ऐसी है की आप उसको कहीं पर बड़ा-बड़ा करके चिपका लें । आपने कमरे में या कंप्यूटर का स्क्रीन्सवर बना लें या कुछ कर लें ।

“The prerequisite to reading by means of a lamp is that you can already read.”

बाहर की रोशनी में भी तुम पढ़ पाओ तो उसके लिए जरूरी है कि पहले तुम्हे पढ़ना आता हो। जिसे पढ़ना नहीं आता उसके सामने चाहे गीता रखी हो चाहे कुरान, और यहाँ पढ़ने का मतलब यह नहीं है कि उसे क, ख, ग पढ़ना आता है, अलिफ़, बे, ते, पढ़ना समझ रहे हो, पढ़ने का क्या अर्थ है?

पढ़ने का अर्थ है, ‘ध्यान’, जिसमें तुम्हें समझ में आए। तुम शाब्दिक अर्थ के आगे जा सको। शाब्दिक अर्थ के आगे जा सको। जिसको पढ़ना नहीं आता, जिसको ध्यान उपलब्ध नहीं हुआ है उसके आगे तुम कुछ भी रख दो, उसे उससे क्या मिल जायेगा। बात समझ में आ रही है? दुनिया का कोई लैंप उसके काम नहीं आ सकता। कोई किताब उसके किसी काम नहीं आ सकती।

तुम्हें पहले से पढ़ना आना चाहिए। पढ़ना सीखो, सुनना सीखो, देखना सीखो। जिसको कृष्णामूर्ति कहते है कि पेड़ को गौर से देखो तो कहोगे “यह दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक घटना है” हमें पेड़ देखना नहीं आता, हम गीता से कुछ पा लेंगे क्या? पा सकते हैं? हमें अपने आप को देखना नहीं आता, हम किसी की बात सुन कर कुछ पा सकते हैं?

“You cannot prove that.”

अब यह थोड़े बौखला रहें है जनाब। यह बौखला रहें है क्योंकि अब थोड़ा तीर लगा है। क्योंकि अभी तक यह इस चक्कर में थे कि बाहर से बता दिया गया है कि लैंप शॉप है और बाहर से ही रस्ता पूछते-पूछते पहुच जायेंगे, और बाहर से लैंप भी मिल जायेगा पर यह अजनबी मिला इसने कुछ और बोल दिया। इसने कहा बाहर से कुछ भी मिले कोई फायदा नहीं होगा। एक शर्त है कि तुम्हें पहले से पढ़ना आना चाहिए। तो अब यह थोड़ा तिलमिलाएं रहें हैं जैसे हर आदमी तिलमिलाता है।

यहाँ पर एक बात है कि कभी तिलमिलइए तो जान जाईये कि कुछ लग गया है। कुछ है अब इसमें मेरे लिए।

फालतू ही नहीं कहा था कि “निंदक नियरे राखिए”। यह जो ‘निंदक नियरे राखिए’ की बात है वो यही है कि वो ज़रा आपको तिलमिला दे गा। जो कुछ आपने पकड़ के रखा है उसे जस के तस बता देगा आपको।

“Certainly not on a dark night like this.”

तुम वो हो जिसेको सदा रोशनी बाहर से चाहिए, और रात है बड़ी अँधेरी। तुम्हें तो मैं कुछ भी सिद्ध नहीं कर सकता।

कोई किसी को आज तक सिद्ध कर ही क्या पाया है? तो कोई अहंता नहीं है इस बोलने वाले में। कहता है “ना, तू ठीक कह रहा है में कुछ सिद्ध नहीं कर पाउँगा। कोई प्रमाण नहीं दे पाउँगा। प्रमाण देखने के लिए भी तेरी आपनी आँखें होनी चाहिए। वो नहीं है तो मैं क्या प्रमाण दूं तुझे। मैं जो कुछ भी बोलूँगा, सुनेगा तो तू ही ना? तेरे ही कान सुनेंगे और तेरे ही मन में उसका अर्थ निकलेगा। इसी पर बड़ा मज़ेदार है, मेरे खयाल ज़ुन्नू ने कहा था और शायद उसने कुरान को पढ़ने की प्रक्रिया के दौरान ही कहा होगा, पक्का नहीं पता, देखना पड़ेगा, ढूँढना पड़ेगा, कि “अल्लाह अगर मुझे कुरान दे रहा है, अपने नबी के माध्यम से तो कान भी तू बन जा, मेरी आँखें भी तू बन और मेरा मन भी तू बन। जब तू मेरी आँखें बनेगा तभी में समझ पाउँगा कि क्या लिखा है, और जब तू मेरा मन बनेगा तभी मैं जान पाउँगा कि क्या लिखा है। बात समझ में आ रही है? बड़ी गहरी बात है यह कि जब तू मुझे यह दे रहा है तो साथ ही साथ कान तू मेरी आँख, कान और मन भी बन जा। मेरा यह न रहे, मेरी आँखें न रहें, मेरे कान न रहें, मेरा मन न रहें। तेरा ही रहे। तब मैं कुछ समझ पाउँगा।

तुम इतना तो कर ही सकते हो कि कम से कम अपने कान और अपने मन को थोड़ा दूर हटाओ। ऐसे पढ़ो जैसे बच्चा पढ़ता है। बिलकुल ऐसे कि पहली बार पढ़ रहे हो। यह मान के नहीं कि गीता है तो मान ही लेना है, या कि किसी ने इसका अर्थ पहले बता रखा है तो मुझे पता ही है। यह मान के नहीं। किसी भी दृष्टी के साथ उस पे मत जाओ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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