‌तुम्हारी‌ ‌ही‌ ‌रौशनी‌ ‌गुरु‌ ‌बनकर‌ ‌सामने‌ ‌आ‌ ‌जाती‌ ‌है

Acharya Prashant

5 min
214 reads
‌तुम्हारी‌ ‌ही‌ ‌रौशनी‌ ‌गुरु‌ ‌बनकर‌ ‌सामने‌ ‌आ‌ ‌जाती‌ ‌है

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, क्या हममें क्षमता नहीं है जीवन को समझने की? क्या गुरु का होना ज़रुरी है?

आचार्य प्रशांत: ये नहीं कहना चाहिए कि हममें क्षमता नहीं है तो हमें गुरु का सहारा लेना चाहिए। इसको ऐसे कहते हैं कि हमारी ही जो क्षमता है वो हमारे सामने गुरु बनकर खड़ी हो गई है। अगर कहोगे, "हमारी क्षमता नहीं है इसलिए हमें गुरु का साथ लेना है" तो तुमने गुरु को क्या बना दिया? पराया बना दिया न। तुमने कहा, "मैं और मेरी क्षमता, ये अधूरे हैं तो फ़िर इसीलिए मैं किसी और की मदद ले रहा हूँ" तो फ़िर वो 'और' कौन हो गया? अपना तो तुमने कह दिया कि 'मैं हूँ' और 'मेरी क्षमता' तो फ़िर गुरु क्या हो गया? पराया हो गया न। पराया हो गया तो फ़िर मदद कैसे होगी?

तो इसको कहते हैं कि मेरी ही क्षमता मेरी आँखों के सामने खड़ी हो गई है गुरु बन कर। वो सामने खड़ी हो गई है ताकि अंदर वाली क्षमता को जगा सके। वो बाहर दिखाई दे रही है ताकि अंदर वाले का ध्यान आ जाए। बाहर दिख रही है, बाहर है नहीं। गुरु बाहर दिख रहा है, बाहर है नहीं। ये उसकी करुणा है कि वो बाहर दिख रहा है। ये उसकी करुणा है कि उसने खाल ओढ़ ली है, कपड़े पहन लिए हैं, साकार हो गया है। वो बाहर का नहीं है, वो भीतर का ही है।

पर जब तक वो भीतर-भीतर है तुम उसकी बात सुनते नहीं। तो फ़िर उसे बाहर आकर खड़ा होना पड़ता है। क्यों? क्योंकि तुमने किसकी सुननी शुरू कर दी है? बाहर वालों की। चूँकि अब तुमने बाहर वालों की सुननी शुरू कर दी है तो वो कहता है, "चलो ठीक है! तुम बाहर वालों की ही सुनते हो तो मैं बाहर आ कर खड़ा हो जाता हूँ तुम्हारे सामने।" वो बाहर का नहीं है, है भीतर का पर तुम्हारी ज़िद के कारण उसे तुम्हारे बाहर खड़ा होना पड़ता है। वो दिखता बाहर का है, है भीतर का। तो ऐसे नहीं कहते कि हमारी क्षमता नहीं है तो गुरु का सहारा ले लिया। तुम्हारी ही क्षमता है तभी तो गुरु है।

तुम्हारी ही प्रबल क्षमता गुरु बनकर सामने आती है और इसीलिए जब तक तुम चाहते नहीं, तैयार होते नहीं, गुरु सामने आता नहीं क्योंकि निर्भर सबकुछ तुम पर कर रहा है, क्षमता तुम्हारी है।

सबसे नीचे की हालत वो है जब गुरु हो ही नहीं कहीं- न अंदर न बाहर। ये निन्यानवे प्रतिशत लोगों की हालत है। वो भीतर तो किसी गुरु को पाते नहीं, उनके भीतर बस अंधकार, अहंकार, मल-मूत्र भरा हुआ है और बाहर भी उनके लिए कोई गुरु नहीं है। ये निन्यानवे प्रतिशत लोगों की हालत है। ये निम्नतम हालत है, ये सब से नीच हालत है कि अंदर भी गुरु नहीं और बाहर भी कोई गुरु नहीं।

और ऐसे में जब बाहर गुरु नहीं होता, तब बाहर जो दुनिया है वो गुरु बन जाती है। वो झूठा गुरु होती है पर भीतर चूँकि अंधकार है इसीलिए वो अंधकार ही बाहर भी सामने आ जाता है। भीतर रौशनी होती तो बाहर क्या सामने आती? रौशनी। भीतर अंधकार है तो बाहर भी क्या आ जाता है? अंधकार ही सामने आ जाता है, है न? तो ये सबसे निचली हालत है। न भीतर कुछ न बाहर कुछ, न भीतर आत्मा न बाहर आत्मा।

उससे ऊपर वो स्थिति है जब 'भीतर' की तो अभी सुनने लायक तुम हुए नहीं पर इच्छा बहुत है तुम में कि मेरे भीतर भी ज़रा अलख़ जगे। तो फ़िर तुम्हारे सामने, तुम्हारी ही मुमुक्षा, गुरु बनकर सामने आ जाती है। तुम्हारी ही मुमुक्षा, तुम्हारे सामने गुरु बनकर आ जाती है।

गुरु और कोई नहीं है- तुम्हारी ही जो तीव्र इच्छा है कि, "मैं मुक्त हो जाऊँ" उसने देह ले ली है। तुम्हारे भीतर से इच्छा निकली, बाहर आ कर उसने देह ले ली, तुमने उसे कहा- गुरु। वो तुम्हारी ही है। ये स्थिति एक प्रतिशत लोगों की होती है।

और फ़िर कोई बहुत-बहुत बिरले होते हैं, जो गुरु से इतने एक हो जाते हैं कि गुरु पुनः बाहर से अदृश्य हो जाता है। अब वो फिर भीतर का हो गया, ये गुरु हो गये, गुरु इनमें हो गया, ये विरलतम घटना है। तुम्हारे साथ ये घटना यदि नहीं घट सकती कि गुरु के साथ ऐसे अभिन्न 'एक' हो जाओ तो इतना तो करो ही कि जो सामने हो उसकी सुन लो। अन्यथा तो निन्यानवे प्रतिशत जैसे हो जाओगे जिनके लिए भीतर भी अँधेरा और बाहर भी अँधेरा। भीतर भी कचरा और बाहर भी कचरा।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories