प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, मैं छः वर्ष का हूँ। आपसे पहला अध्याय पढ़ा था, मेरा सवाल दूसरे अध्याय से है। पहला – सांख्ययोग क्या है? दूसरा – उसमें ‘नपुंसकता’ शब्द का प्रयोग किया है।
आचार्य प्रशांत: किसका बेटा?
प्र: ‘नपुंसकता’ – वो क्या है?
आचार्य: किस श्लोक की बात कर रहे हैं? किनके साथ आए हैं?
प्र: अध्याय दो, श्लोक तीन।
आचार्य: ‘नपुंसकता’ नहीं कहा है बेटा, ‘दुर्बलता’ कहा है। दुर्बलता का मतलब होता है अपनी ताक़त का इस्तेमाल न करना। ताक़त न होने को दुर्बलता नहीं कहते, ठीक है?
अब जैसे तुमने ये माइक उठा रखा है न हाथ में, है न? तो तुम अगर ये फ़ैसला कर लो कि मैं उसको नहीं उठाऊँगा, तो ये दुर्बलता है। ‘दुर्बलता’ माने कमज़ोरी। कमज़ोरी माने ये नहीं कि कोई काम कर नहीं सकते, कमज़ोरी माने कि उस काम को करने का फ़ैसला नहीं कर रहे।
गीता में कृष्ण कहते हैं कि कोई अंतर नहीं पड़ता कि तुम काम उठाते हो तो उसको पूरा कर पाते हो या नहीं। तुमने कोई काम करने की ठानी, उसको तुम आगे तक कर पाए या नहीं, वो काम पूरा हुआ कि नहीं, तुम उसमें सफल हुए कि नहीं, इससे अंतर नहीं पड़ता। अंतर बस इस बात से पड़ता है कि तुमने सही काम करने का फ़ैसला किया या नहीं; उस काम में सफल हुए या नहीं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। लेकिन काम अगर सही है, फिर भी उसे करने का फ़ैसला ही नहीं कर रहे, तो इसका नाम है दुर्बलता।
‘नपुंसकता’ शब्द कहाँ से आया, मैंने बोल दिया था? मैंने बोल दिया होगा जब उस पर आगे विस्तार में कहा होगा। वहाँ श्लोक में ‘दुर्बलता’ है, ठीक है? तो कमज़ोरी किसको कहते हैं, समझना। जैसे आप अभी हो, जो बात पता हो कि सही है, वो करनी है, उसका परिणाम क्या आएगा, कोई बात नहीं; आप उस काम को पूरा कर पाए या नहीं कर पाए, कोई बात नहीं। मान लो सही काम था, आप करने गए, आपसे हुआ नहीं – ये दुर्बलता नहीं है। अभी छोटे हो आप, कोई चीज़ है, हो सकता है अभी आपसे न हो पाए, आप पूरी न कर पाओ या उसमें बहुत आगे तक न जा पाओ या सफल न हो पाओ – इसको दुर्बलता नहीं बोलते।
दुर्बलता किसको बोलते हैं? जो चीज़ पता थी कि सही है, ये पता होते हुए भी कि वो चीज़ सही है, हमने फिर भी वो चीज़ कभी करी नहीं। क्यों नहीं करी? क्योंकि अंजाम का डर लगा।
निष्काम कर्मयोग क्या है, निष्कामता माने क्या? – अंजाम की परवाह नहीं करनी। सफल होते हैं, नहीं होते, नहीं सोचना। सही है तो फ़ैसला करा करना है, और फिर पूरी बुद्धि लगा दी, जान लगा दी, जितनी ताक़त थी, पूरा बल लगा दिया; अब परिणाम जो आएगा आने दो, देखा जाएगा। काम सही है तो करना है, उसमें फिर पीछे नहीं हटना है, ठीक है? जो पीछे हट गया उसको दुर्बल बोलते हैं।
पीछे हटने वालों के पास क्या तर्क रहता है? ‘पता नहीं क्या होगा आगे! ये काम कठिन है। शुरू कर देंगे फँस न जाएँ, कहीं हार न जाएँ!’ – ये दुर्बलता है। दुर्बलता माने यही सब सोचना – ‘फँस गए तो क्या होगा? हार गए तो क्या होगा? इज्ज़त चली जाएगी।‘ जो ऐसे सोचे वो दुर्बल। ठीक है?
अब जैसे, बल किसमें है? तुम छः साल के हो, तुमने सवाल पूछ लिया। बहुत सारे लोग हैं जो आए होंगे ये सोचकर के कि ‘जाएँगे, आचार्य जी से बात करेंगे।‘ अब आज आख़िरी दिन है, आख़िरी पल हैं, पर वो नहीं पूछ पा रहे। वो तुमसे छः गुनी उम्र के भी हो सकते हैं, दस गुनी उम्र के भी, पर तुम बलवान हो वो दुर्बल हैं। तुम बलवान हो क्योंकि तुमने माइक उठा लिया; पार्थ ने गांडीव उठाया था।
तो बात ये नहीं है कि अंजाम क्या होगा, बात ये नहीं है कि आगे क्या होगा। ‘सवाल पूछना अगर सही है तो मैं पूछूँगा, भले ही मैं छ: साल का हूँ। अब मंच पर जो बैठे हैं वो बड़ी उम्र के हैं, भारी-भरकम हैं; ऊपर से ऊपर बैठे हैं, वहाँ से पता नहीं क्या बोल दें, कुछ भी हो सकता है। मैं छोटू हूँ, मेरा मज़ाक न उड़ा दें, कुछ भी हो सकता है।‘ पर तुमने ऐसा नहीं सोचा, तो तुम बलवान हो, और जो आगे की सोच रहे हैं... (वो दुर्बल हैं।)
निष्काम सिर्फ़ कर्म ही नहीं होता, निष्कामता तो प्रश्न में भी चाहिए, आप तो निष्काम प्रश्न भी नहीं कर पाए। प्रश्न पूछने वाले बहुत लोगों को ये रहता है कि ‘इसका पता नहीं क्या बोल दें, पता नहीं क्या उत्तर आ जाए, रिकॉर्ड और हो रहा है। तो भैया हम तो नहीं पूछते, ऐसे ही बैठे-बैठे सुन लो बस।‘
(प्रश्नकर्ता को इंगित करते हुए) और ये देखो, यहाँ गांडीव उठा रखा है। क्या फ़र्क पड़ता है सामने कौन है, काम अगर सही है तो करना है।
(प्रश्नकर्ता को पुनः इंगित करते हुए) बात थोड़ी-बहुत आयी समझ में? नाम क्या है तुम्हारा?
प्र: प्रयान।
आचार्य: बहुत अच्छा। जितना मुझे दिख रहा है अभी, उसका अगर एक चौथाई भी सच है तो बहुत अच्छा है, बहुत अच्छा है।
किसके साथ आए हैं? अब ये मत कह देना कि अकेले हैं।
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्र: मम्मी के साथ अपनी, उनका नाम लोपामुद्रा है। आचार्य जी, दूसरा प्रश्न भी था।
आचार्य: अरे बाप रे! हाँ, बोलो!
प्र: सांख्य योग क्या है?
आचार्य: सांख्य योग क्या है? ये सब जितनी चीज़ें हैं न, बताओ यहाँ क्या-क्या दिख रहा है? तीन-चार चीज़ें बताओ जो यहाँ दिख रहीं हैं।
प्र: कुर्सी, मेज, ग्लास , *बॉटल*।
आचार्य: ठीक, ठीक है न? और, लोग भी दिख रहे हैं। तो सांख्य योग कहता है, ‘ये सबकुछ जो दिख रहा है, इसको एक नाम दे देते हैं।‘ क्या नाम देना है? – प्रकृति। क्या नाम देना है?
प्र: प्रकृति।
आचार्य: प्रकृति; (आसपास की चीज़ों की ओर इशारा करते हुए) ये सब प्रकृति है। और फिर, इन्हें कोई देखने वाला भी है। कौन-कौन हैं यहाँ जो देख रहे हैं? यहाँ कितने लोग हैं जो देख पा रहे हैं? तुम (प्रश्नकर्ता) देख पा रहे हो न? ठीक है। तुम जब देख रहे हो तो इन सब चीज़ों को भी देख रहे हो और अपनी बॉडी (देह) को भी देख रहे हो, ये हाथ दिख रहा है। तो हम सबकुछ देखते हैं और अपने शरीर को भी देखते हैं।
अच्छा, और कौन है जो चीज़ों को देख पा रहे हैं? (एक श्रोता की ओर इशारा करते हुए) ये बैठे हैं यहाँ पर, ये भैया देख पा रहे हैं? हाँ, ठीक है। (एक अन्य श्रोता की ओर इशारा करते हुए) वो वहाँ बैठी हुई हैं आंटी , वो देख पा रहीं हैं? सब देख पा रहे हैं। तो ये सब जो देख पा रहे हैं, इनको एक साझा नाम दे देते हैं, उनका क्या नाम होता है?
प्र: प्रकृति।
आचार्य: जो दिख रहा है, उसको नाम देना है प्रकृति, और वो सब जो देख रहे हैं, उन्हें क्या नाम देना है? – पुरुष। ठीक? सबकुछ जो दिख रहा है, ये (मेज) भी दिख रहा है और ये (हाथ) भी दिख रहा है; जो कुछ भी दिख सकता है, उसको एक नाम देना है, क्या नाम देना है? – प्रकृति। और जो-जो देख सकते हैं, जो देख रहा है, जो देखने वाला है, उसको एक नाम देना है, क्या नाम देना है? – पुरुष।
अब बताओ, तुम प्रकृति हो या पुरुष हो?
प्र: पुरुष।
आचार्य: क्यों, ये (शरीर) दिख भी तो रहा है, तो तुम प्रकृति हो या पुरुष हो?
अच्छा, ये (हाथ) दिख रहा है? अपना हाथ दिख रहा है?
प्र: जी।
आचार्य: अच्छा, अपने हाथ को ख़ुद ही देख भी पा रहे हो?
प्र: जी।
आचार्य: तो तुम प्रकृति हो या पुरुष हो? अगर दिख रहा है कुछ, तो तुम प्रकृति हो, और अगर देख पा रहे हो तो?
प्र: पुरुष।
आचार्य: पुरुष हो। बहुत अच्छे, बहुत अच्छे! तो सांख्य योग कहता है, ‘जो दिख रहा हो, उससे अपनेआप को अलग मानना।‘ जो भी दिख रहा हो, उससे देखने वाला अपनेआप को अलग जाने। अगर अपने ही शरीर को भी देख पा रहे हो, तो अपने शरीर से अपनेआप को थोड़ा अलग जानना।
जो दिख रहा है, वो चीज़ चूँकि दिख रही है तो इसीलिए कई बार कैसी लगती है? आकर्षक। आकर्षक माने क्या होता है? – अच्छी, है न? कुछ चीज़ें देखने में अच्छी लगती हैं न? तुम्हें देखने में क्या अच्छा लगता है? कौनसी चीज़ होती है जो दिख जाए तो एकदम मज़ा आ जाता है?
प्र: जंगल।
आचार्य: जंगल, और?
प्र: पहाड़।
आचार्य: और खाने-पीने में कुछ? कुछ और चीज़ नहीं है जो दिखे तो बड़ा एकदम, ‘कितना बढ़िया दिख गया कुछ', ऐसा कुछ और होता है?
खाने में क्या पसंद है?
प्र: सब्ज़ी-रोटी।
आचार्य: सब्ज़ी-रोटी पसंद है। मान लो कोई सब्ज़ी है जो तुम्हें पसंद है। तो सांख्य योग कहता है कि जो चीज़ भी दिख रही होती है, उसकी तरफ़ जो देखने वाला है, जो पुरुष है, वो बड़ा क्या हो जाता है?
प्र: आकर्षित।
आचार्य: आकर्षित। अरे बाबा! ठीक है, बहुत अच्छे! तो कहता है, ‘ये जो आकर्षण है, यही बंधन है।‘ जो दिख रहा है, देखने वाला जाकर के उससे लिप्त हो जाता है। लिप्त होना माने? माने लिपट जाना, जाकर उससे बिलकुल ऐसे (दोनों हथेलियों को मिलाते हुए) चिपक गया। कहते हैं, ‘ये (लिप्त होना) जब हो जाता है तो फिर दुख आता है।‘
बंधन माने बाँध दिया। जैसे तुम्हें बाँध दिया तो अच्छा तो नहीं लगेगा न?
हाँ, तो सांख्य योग कहता है, ‘हम बंधन में हैं क्योंकि जो पुरुष है वो प्रकृति से जाकर ऐसे (दोनों हथेलियों को मिलाकर लिप्तता दर्शाते हुए) हो जाता है।‘ तो कहता है, ‘ऐसे (लिप्त) मत रहो, इसी में जीवन का दुख है। दुख से अगर बचना है तो प्रकृति से ऐसे (दोनों हथेलियों को अलग करते हुए) रहो।‘ प्रकृति से लड़ाई नहीं करनी है, उसको बस देखना है; देखने में आनंद है, लिप्त होने में दुख है – ये सांख्य योग है। और भी बातें हैं सांख्य योग में, पर जो उसकी मूल बात है वो ये है, ठीक है?
अब बताओ तुम क्या हो, प्रकृति हो या पुरुष हो? पुरुष हो न? बस यही याद रखना – ‘मैं पुरुष हूँ; मैं पुरुष हूँ, पुरुष ही रहना है।‘ ठीक है न? बहुत अच्छा, बहुत अच्छा।