तुम जो कमाओ, सो दुःख || अष्टावक्र गीता पर

Acharya Prashant

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तुम जो कमाओ, सो दुःख || अष्टावक्र गीता पर

अर्जयित्वाखिलानर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान्। न हि सर्वपरित्यागमन्तरेण सुखी भवेत्॥

कोई जगत के समस्त पदार्थों का उपार्जन करके अधिक-से-अधिक भोग प्राप्त कर सकता है, परन्तु सबका परित्याग किए बिना कोई सुखी नहीं हो सकता।

~ अष्टावक्र गीता, अध्याय १८, श्लोक २

आचार्य प्रशांत: बता रहे हैं अष्टावक्र कि आए ही क्यों हो उनके पास। वो कह रहे हैं कि कुछ हासिल करोगे तो अपने-आपको बढ़ाओगे। भोगोगे, भोक्ता बनोगे तो भोक्ताभाव, कर्ताभाव गहराता जाएगा। तुम यहाँ हासिल करने नहीं आए, तुम यहाँ पाने नहीं आए; तुम यहाँ खोने आए हो।

कहानी कहती है कि जनक ने निवेदन किया था कि “हो गया, जान गया सब कुछ। अब इस राज-काज से मुक्ति चाहिए। यहीं बसूँगा, आपके आश्रम में रहूँगा।”

अष्टावक्र ने कहा था कि “जब मुक्त हो गए तो अब किससे मुक्ति चाहिए?”

पहले तो तुममें फिर भी पात्रता न थी शासन करने की, अब जब जान गए हो तो जो भी करे जा रहे हो, उससे मुक्त ही हो, लगे रहो। अब तो अगर भागोगे तो यही दर्शाओगे कि ज्यों मुक्त नहीं हो। मुक्त हो तो जीवन फिर जो रंग सामने ला रहा है, उसी में रंगे रहो।

पाया जनक ने खूब था। जितनी सम्पदा हो सकती थी, उनके पास थी। विदेह के राजा थे। अकूत प्रतिष्ठा, ज्ञान, बल, फिर भी चैन नहीं था।

अष्टावक्र कह रहे हैं, “अधिक-से-अधिक पदार्थों का उपार्जन करके अधिक-से-अधिक तुम और बड़े भोगी हो जाओगे, पर वो नहीं पाओगे जो पाने के लिए तड़प रहे हो।”

भोग अगर तुम्हें शांति देता तो जनक उपदेशित कर रहे होते अष्टावक्र को, क्योंकि भोगी तो होने की सम्भावना किसी राजा की ही ज़्यादा है। पर देख रहे हो स्थिति का सौंदर्य और स्थिति की विद्रूपता? जिसके पास कुछ नहीं है, वो पाठ पढ़ा रहा है उसको जिसके पास सांसारिक रूप से सब कुछ है।

हमारा कष्ट वो नहीं होता जो हमें नहीं मिला—हालाँकि मन हमारी स्थिति को हमारे सामने इसी भाव में रखता है, इसी भाषा में रखता है। मन कहता है कि, "तुम दुखी इसलिए हो क्योंकि तुम्हें कुछ हासिल कम हुआ, तुम्हें कुछ हासिल न हुआ। जो हासिल न हुआ, उसके कारण दुखी हो।" और अष्टावक्र समझाते हैं कि तुम्हारा दुःख उस सबके कारण है जो तुम्हें हासिल हुआ। तुम्हारी कमियाँ नहीं तुम्हें दुःख दे रहीं, तुम्हारी उपलब्धियाँ तुम्हें दुःख दे रही हैं। उससे नहीं हैरान-परेशान हो जो अभी नहीं मिला, उससे आक्रान्त हो जो पकड़ लिया है, जिसे घर ले आए हो, जिसे माथे पर बैठा लिया है।

एक शब्द है, 'सुख'। अष्टावक्र कहते हैं, “सुखी भवेत्।” शब्दों का भी परिष्कार हो जाता है ज्ञानियों और संतों के हाथों पड़कर। जब अष्टावक्र ‘सुख’ कहते हैं तो वो उस सुख की बात नहीं कर रहे जो हमारा सुख-दुःख है।

अष्टावक्र यदि बोलें, 'मैं', तो वो अष्टावक्र वाला 'मैं' है। अष्टावक्र यदि बोलें, ‘मुक्ति’, तो वो अष्टावक्र वाली मुक्ति है—असली, खरी, पूर्ण, वास्तविक।

और अष्टावक्र अगर बोलें, ‘सुख’, तो वो अष्टावक्र वाला सुख है; द्वैतात्मक नहीं, पूर्ण, अद्वैत सुख, बेशर्त सुख, नित्य सुख। अष्टावक्र वाले सुख के लिए जो उचित शब्द है, वो है, ‘आनंद’।

अष्टावक्र के लिए ज़रूरी नहीं है कि वो भेद करें सुख में और आनंद में। उन्होंने छू दिया यदि सुख को तो सुख भी आनंद है। पर आप जो सुन रहे हैं, आपके लिए आवश्यक है कि आप समझें कि जब अष्टावक्र ‘सुख’ कहते हैं तो अष्टावक्र का सुख से आशय क्या है। अष्टावक्र का सुख से आशय है – दुःख नहीं। अष्टावक्र यदि कहते हैं, “सुखी भवेत्”, तो उनका आशय है वो स्थिति जिसमें दुःख नहीं है—दुःख से मुक्ति, दुःख निरोध।

हम जिसको दुःख बोलते हैं, वो भी दुःख है और हम जिसको सुख बोलते हैं, वो भी दुःख है। तो अष्टावक्र जब कहें, ‘सुख’, तो जानिएगा सुख और दुःख दोनों का अभाव, सुख और दुःख दोनों का अतिक्रमण। वही आनंद है। वही स्थिर रह सकता है, वही नित्य है। वही ख़तरे में नहीं रहता, उसे ही किसी सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ती। वही पूरी तरह दिलासा दे पाता है, वही कारण नहीं मानता।

एक आम इंसान संत के पास जाता है दुःख से त्रस्त होकर। अभी उसे आनंद का कुछ पता नहीं। अभी उसकी तात्कालिक माँग यही है कि, "मुझे तो दुःख से निजात दिलाइए।" तो संत को उसको कहना पड़ता है कि "आओ, मुक्ति में बड़ा सुख है।" ‘मुक्ति में सुख है’, कह करके संत उसको इतना ही कह रहा है कि मुक्ति में दुःख नहीं है, क्योंकि तुम तो सिर्फ़ दुःख जानते हो। तो तुम्हारे लिए सिर्फ़ इतना ही सुनना काफ़ी है कि दुःख नहीं है। मैं तुमसे आनंद क्या बोलूँ?

तुम जहाँ जाकर बैठ गए हो, तुम्हारे लिए तो आनंद अनजानी बात है। मैं तुमसे कहूँगा, “आनंदित भवेत्”, तो तुम्हें बात समझ में ही नहीं आएगी। तुम पूछोगे, “क्या कहा आपने? ये क्या शब्द था? हम परिचित नहीं इससे। कभी मुलाक़ात नहीं हुई इससे।” तो इसीलिए तुम्हें समझाने के लिए तुम्हारी ही भाषा में कह देते हैं, ‘सुख’।

सुख को वो वाला सुख मत जानिएगा, दोहराकर कह रहा हूँ, जिस सुख से आप वाक़िफ़ हैं, जिस सुख की आपकी चाह है। जब अष्टावक्र कहें, ‘सुख’, तो जान जाइए कि ‘दुःख नहीं’। और दुःख माने सुख और दुःख दोनों नहीं, क्योंकि यदि दुःख से मुक्ति चाहिए तो सुख और दुःख दोनों को छोड़ना पड़ेगा। ये तो एक सिक्के के दो पहलू हैं, साथ-साथ चलते हैं। स्पष्ट हो रही है बात अभी तक? साथ चल रहे हैं? समझ रहे हैं अष्टावक्र ने अभी तक क्या कहा है?

ये जो दूसरा श्लोक था, इसके दोनों हिस्सों को एक साथ देखिए। पहली बात कहते हैं कि, "खूब कमा लोगे, अर्जित करोगे, उपार्जन करोगे, भोग लोगे तो बस भोग ही पाओगे", और दूसरी बात वो ये कहते हैं कि, "परित्याग के बिना दुःख से मुक्ति नहीं।" दोनों को जोड़ दीजिए तो वो ये कह रहे हैं कि, "बेटा, तुमने ज़िन्दगी भर दुःख ही कमाया है। तुम जो अर्जित करो, सो दुःख। तुम जो अपनी बुद्धि लगा करके कमाओ, सो दुःख।"

अपनी कमाई को अगर एक शब्द में वर्णित करना हो तो कह देना, ‘दुःख’। और यदि कभी दुःख से ऊबो, दुःख से छटपटाओ तो अपने दुःख की वजह किसी और को मत ठहरा देना। जानना कि तुमने कमाया है। तुम जो कमाओ, सो दुःख।

इसका अर्थ और समझ लो कि मुक्ति कमाई नहीं जा सकती। इसका अर्थ ये है कि तुम इस धारणा में मत आ जाना कि “मैं जा रहा हूँ निर्वाण अर्जित करने, जा रहा हूँ मुक्ति की दिशा में। मैं तपस्या करूँगा और दुःख से मुक्त हो जाऊँगा।” तुम तपस्या भी करोगे तो और दुःख कमाओगे। तुम निर्वाण के लिए जाओगे तो बुझोगे नहीं, और जलोगे। तुम जो कमाओ, सो दुःख।

तभी आरम्भ में ही आपसे कहा था कि यहाँ बैठकर कुछ कमाने मत लग जाना। माया के आयोजन बड़े विचित्र हैं। जहाँ बैठते तो हल्के होने के लिए, लेकिन वहाँ से भी कुछ लेकर ही वापस आ जाते हो। कमाने मत लग जाना, अपने कर्ताभाव में भरोसा मत करने लग जाना। जो भरोसे के लायक हैं, फिर उसकी अनुकम्पा बरसेगी। जो नहीं भरोसे के क़ाबिल, उसके भरोसे अगर चलोगे तो जैसे कबीर साहब कहते हैं कि मसख़रा है नाविक और जर्जर है नाव, और उफनाई हुई है नदी। डूबोगे नहीं तो क्या करोगे? किसका भरोसा कर रहे हो?

नाविक भी तुम ही हो, धुत्त नशे में, और नाव भी तुम ही हो। तुम्हारा पूरा तंत्र, तुम्हारी पूरी व्यवस्था जर्जर, ख़स्ताहाल; ये तुम्हें भवसागर से पार कराएगी? इसका भरोसा मत कर लेना। तुम्हारे मत्थे ना हो पाएगा।

इसीलिए सिर्फ़ सुनो, बुद्धि मत चलाओ, अर्थ मत करो। सुनने मात्र से जो घटना घटनी है, वो घट ही रही है, बिना तुम्हारी अनुमति के। तुम उसमें भागीदार नहीं हो सकते। ये वो खेल है जिसको तुम सिर्फ़ दूर से देख सकते हो, तुम उसमें सम्मलित होने की कोशिश करोगे तो खेल बिगाड़ दोगे। दूर रहो, घटना को घटने दो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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