प्रश्नकर्ता: नमस्कार आचार्य जी। हम संसार का अनुसरण करते हुए चलते हैं। जो सब कर रहे हैं, भीड़ में जो चल रहा है, हम उसके पीछे चलना चाहते हैं क्योंकि उसमें ही सुरक्षा की गारंटी है। और पूरे जीवन में अपना कोई भी निर्णय हम अपनी स्वतन्त्र चेतना से नहीं लेना चाहते, जबकि हमारे पास वो विकल्प होता है। तो ये जो भीड़ के पीछे चलने की प्रवृत्ति है, क्या वो भी आसक्ति का एक कारण है?
आचार्य प्रशांत: वो तो देखिए, अहंकार भीड़ से ही बना है न।
प्र: जी।
आचार्य: अहंकार तो भीड़ की ही ख़ुराक पर ज़िन्दा रहता है। ‘मैं’ भाव तो चलिए देह से आ गया, पर वो अकेले क्या करेगा? ‘मैं’ तो अधूरा है। तो वो भीड़ में कहीं-न-कहीं तो सहारा सारी ज़िन्दगी भर खोजते ही रहता है, इसको पकड़ेगा उसको पकड़ेगा। उसी भीड़ से उसको जो ख़ुराक मिली है, उससे वो अपनेआप को किसी तरह से ज़िन्दा रखता है। तो अगर ज़िन्दगी में ये लक्षण मौज़ूद हैं कि भीड़ बहुत आवश्यक है, दूसरों की सलाह या सहमति के बिना कुछ कर नहीं सकते, बार-बार देखते हैं कि जनता का रुझान किधर को है, ट्रेंड (चलन) को फॉलो (पीछा) करना है, ये सब अगर कर रहे हैं, तो ये तो भीतर जो एक एकदम चूरा-चूरा सा अहंकार है, उसी का द्योतक होता है।
आत्मा की तो पहचान ये है कि उसकी अपनी आँखें होती हैं, आत्मा की। है न? वो साफ़-साफ़ देख सकती है और अहंकार ऐसा होता है जैसे कि इतने सारे लोगों से पूछ-पूछकर किसी तरह रास्ता लेना है, और वो जिनसे पूछ रहा है— मज़ेदार बात क्या है?— वो भी सब अन्धे हैं! तो “अन्धा-अन्धे ठेलिया दोनों कूप पडंत।”
द कन्ट्री ऑफ़ द ब्लाइंड (अन्धों का देश) है, एचजी वेल्स की, तो उसमें यही होता है कि एक घाटी में, कुछ पहाड़ों के बीच एक घाटी में कुछ लोग बसते हैं जिन पर कोई बीमारी लग गयी होती है और उस बीमारी से उनकी आँखें जाती रही हैं। और ये काम जो है ये धीरे-धीरे हुआ है, कई-कई शताब्दियों में और वो लोग जो हैं, वो शेष दुनिया से सम्पर्क में नहीं थे।
तो एक दिन में ऐसी कोई घटना घटती तो शोर मच जाता कि सब अन्धे हो गये, पर वो लोग धीरे-धीरे करके अन्धे हुए। और पीढ़ी-दर-पीढ़ी वो फिर इस बात को भूलते गये कि दृष्टि जैसी कोई चीज़ होती है। वो अन्धे ही हो गये। और फिर उन्होंने ऐसी व्यवस्थाएँ विकसित कर लीं जिससे अन्धे होते हुए भी उनका काम चलता रहे। उनके घरों में कोई खिड़कियाँ नहीं होती थीं। उनके यहाँ पर जितने मोड़ होते थे, वो सब नब्बे अंश पर होते थे। और बहुत सारी इस तरह की उन्होंने चीज़ें बना लीं कि हमारा काम चलता रहेगा। और वो फिर भूल ही गये कि वो अन्धे हैं। वो एक अनुवांशिक चीज़ थी जिसमें कि अगर माँ-बाप अन्धे हैं तो बेटा भी अन्धा ही पैदा हो रहा था, बच्चा। तो वो भूल ही गये कि वो अन्धे हैं।
और फिर कहानी आगे बढ़ती है कि एक दिन वहाँ पर एक आँख वाला आदमी आ जाता है। अगर मुझे सही याद है तो उसका नाम था – न्यूनेज़। तो वो वहाँ आ जाता है पर वो लोग उसको पकड़ लेते हैं। वो उसको पकड़ लेते हैं और बोलते हैं कि तू यहाँ नया आया है, हम तुझे रास्ता दिखाएँगे। तो वो उनको बोलता है, ‘आँख मेरे पास है, तुम दोनों अन्धे हो। तुम दोनों मुझे रास्ता दिखाओगे?’ वो बोलते हैं, ‘पागल, आँख जैसा कुछ होता ही नहीं।’ और दोनों उसकी एक-एक बाँह पकड़ लेते हैं और उसको खींचने लगते हैं। उसको बड़ी हैरत होती है! वो कहता है, ‘मैंने सुना था कि अन्धों के शहर में काना भी राजा होता है और मेरे तो दो-दो आँख हैं और राजा तो छोड़ दो, ये मुझे खींचकर ले जा रहे हैं कैदी बनाकर। माने वो पुरानी कहावत गलत है कि अन्धों में काना राजा होता है।’
अन्धों में काना राजा बिलकुल भी नहीं हो सकता, अन्धों में जो सबसे बड़ा अन्धा होगा, वो राजा होगा। तो हम जिसको कहते हैं न ‘लोक सत्य’, कोलोकियल विज़डम (स्थानीय ज्ञान) वगैरह, वो बहुत बेकार की बात है। ये अच्छे से समझ लीजिएगा।
अन्धों में अगर आप काने हैं तो पीटे जाएँगे और अन्धों में अगर आप दोनों आँख वाले हैं तो मारे जाएँगे। अन्धों में राजा बनेगा जो सबसे भयानक अन्धा होगा। विक्षिप्त जो एकदम अन्धा होगा वो उनमें राजा बनेगा।
तो वो उसको घसीटकर ले जाते हैं और वो बार-बार यही बोल रहा है, ‘भाई! मुझे दिख रहा है, दिख रहा है।’ वो बोलते हैं, ‘इसका दिमाग ख़राब है और इसकी दिमागी ख़राबी का जो कारण है, वो ये जो दो इसके यहाँ फोड़े हो गये हैं (आँखों की ओर दिखाते हुए), और ये जो फोड़े हैं ये इसके मस्तिष्क के बिलकुल पास हैं तो इस कारण इसकी जो सोचने-समझने की शक्ति है, वो बाधित हो रही है। तो ये फोड़े निकाल दो तो ये ठीक हो जाएगा।’
हम लोगों को देखो हमारे तो ये तो है ही नहीं ट्यूमर, बीमारी, तो हम लोग बिलकुल ठीक हैं। ये जो आया है न, इसके (फोड़े) हैं और ये ऐसे-ऐसे गुल-गुल-गुल-गुल-गुल-लग-पग-पग चलता रहता है इसका, और ये फोड़े नाचते रहते हैं इसके। उसी से इसका दिमाग जो है, वो नाचता रहता है। तो किसी तरीक़े से कहता है कि नहीं-नहीं, कुछ-कुछ करके वो उनसे समझौता करता है कि मैं कोई बिलकुल विक्षिप्त बात नहीं करूँगा। मैं ही पागल हो गया था, मुझे नशा हो गया था, रंग जैसा कुछ होता ही नहीं, रंग कुछ नहीं होता, रूप कुछ नहीं होता, आँख कुछ नहीं होती। तो बोलते हैं, ‘अब इसका दिमाग जो है ठीक हुआ।’
तो उसको सुधार-गृह में डाल देते हैं, जेल जैसी चीज़ में। कहते हैं, ‘तू यहाँ रह, तू यहाँ रह जिससे तू पूरी तरह ठीक हो जाएगा और फिर हम तुझे अपनों में शामिल कर लेंगे।’ बोलता, ‘हाँ महाराज! मैं तो..!’ तो उसको रख लेते हैं। तो वहाँ पर एक लड़की आती है उसके पास, तो उस लड़की से प्रेम हो जाता है — प्रेम माने जो भी — तो वो दोनों में हो जाता है। तो लड़की तो वही है अन्धों की शहर की है, कन्ट्री ऑफ़ द ब्लाइंड (अन्धों के देश) की। तो जब दोनों में प्रेम हो जाता है तो फिर बात शादी तक तो पहुँचेगी-ही-पहुँचेगी। तो एक शर्त रख देती है। बोलती है, ‘देखो, कर लेते हैं और इतना ही नहीं, मैं यहाँ के बड़े राजा या मन्त्री की बेटी हूँ। ब्याह कर लोगे तो मैं तुमको भी ऊँची जगह दिलवा दूँगी। बस मेरी एक शर्त है। आदमी तुम बहुत बढ़िया हो लेकिन ये जो लपक-झपक (आँखों की ओर दिखाते हुए) करते रहते हो न, ये तुमने पता नहीं कहाँ से सीख लिया है, इससे मुझे बेचैनी होती है। तो ये अपनी जो लपक-झपक है, ये हटवा दो।’
तो वो भी आशिक़ हो गया है बिलकुल, गिरफ़्तार! जो नहीं करना चाहिए वो भी कर डालता है। तो वो मान जाता है। बोलता है, ‘ठीक है!’ बोलता है, ‘क्या है, एक तो अपनी महबूबा है ये भी मिलेगी, दूसरे यहाँ पर बढ़िया सा सम्मान मिलेगा, कोई पदवी मिलेगी। निकलवा ही देते हैं। इतने लोग अन्धे होकर मस्त जी रहे हैं तो हम भी तो अन्धे होकर जी सकते हैं।’
ये अहंकार का तर्क होता है — जब भीड़ में सब अन्धे हैं तो हम ही इतने ख़ास हैं कि आँख रखेंगे। जब सब अन्धे होकर मौज़ में जी रहे हैं।
और ये तर्क तो आपको चारों ओर सुनने को मिलेगा जैसे हीं आपमें थोड़ी दृष्टि आने लगेगी। ‘ये अपनेआप को बहुत स्पेशल (ख़ास) समझतीं हैं। आय-हाय! चार क्या कर लिए इन्होंने श्लोक गीता के, जब देखो तब ज्ञान देती रहती हैं। हम सब तो बेवकूफ़ हैं, यही एक बुद्धिमान आयी हैं।’ ये सुनने को मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है? अभी शुरू हुआ कि नहीं?
प्र: हाँ
आचार्य: बधाई हो!
तो कहते हैं, ‘इन्हीं को सारी बुद्धि दे दी है भगवान ने। हम तो पागल ही हैं, साठ साल की हमारी उम्र, हमारा सारा अनुभव व्यर्थ!’
तो कहता है, ‘भाई, सबका चल रहा है तो मेरा भी चल जाएगा।’ यही तर्क! तो फिर एक दिन उनका जो सबसे ख़ास राजवैद्य होता है, वो बुलाया जाता है कि इसकी बीमारी का इलाज करना है। और इलाज के बाद अब इसकी शादी कर दी जाएगी और उसको भी मन्त्री-वन्त्री बना देंगे, जो भी है।
तो ये सुबह उठता है। आज इसकी आँखें निकालने का काम है। तो ये सुबह उठता है तो देखता है बाहर, तो इसको इन्द्रधनुष दिखाई देता है, इसको उगता सूरज दिखाई देता है, इसको पेड़-पौधे, फूल, तितलियाँ दिखाई देते हैं। इतने में लोग आ जाते हैं। बोलते हैं, ‘चल भाई।’ बोलता है, ‘हाँ, चल ही रहा हूँ। अब तो मैं दामाद हूँ तुम्हारा।’ तो वो भी इसको थोड़ा सम्मान से ले जाते हैं बिना हाथ-वाथ पकड़े। ये भागता है भागता है, भागता है, इतनी ज़ोर से भागता है कि पहाड़ फाँदकर भाग ही जाता है।
कहते हैं इस कहानी के दो अन्त हैं, एक ऑल्टरनेट एंडिंग (वैकल्पिक अन्त) भी है। ऑल्टरनेट एंडिंग यही है जिसमें ये जाता है और अपनी आँखें निकलवा देता है।
तो ये तो आपको तय करना है कि भीड़ के साथ चलकर आपको अपनी आँखें क़ुर्बान करनी हैं या आपको अस्तित्व का इन्द्रधनुष देखना है और उगता हुआ सूरज भी।
ये तो आपको देखना है। जिन्हें सूर्योदय के दर्शन करने हों, वो भीड़ का अनुगमन नहीं कर सकते। किस सूर्य की बात कर रहे हैं हम? आत्मा को सूर्य की उपाधि भी दी गयी है। ऋग्वेद में आदित्य, सूर्य बहुत बड़े देवता हैं। और प्रकाश को तो हमेशा ज्ञान की उपमा के रूप में प्रयुक्त किया गया है। तो जिनको ज़िन्दगी में सूर्योदय चाहिए, वो तो भीड़ के पीछे चल नहीं सकते।
और आज तक ऐसा हुआ भी नहीं है कि कोई भीड़ के साथ चलता हो, वही सब करा हो जो सब कर रहे हैं, और ज़िन्दगी में उसको सुख-चैन-आनन्द कुछ भी मिल गया हो।
ऐसा तो कोई आज तक प्रमाण नहीं है। भीड़ के साथ चलकर तो वही मिलेगा जैसी भीड़ है। और भीड़ कैसी होगी? भीड़ की तो परिभाषा ही यही है कि वो एक औसत इकाई होगी न। भीड़ माने बहुत बड़ा सैम्पल (नमूना) तो वो तो हमेशा एवरेज (औसत) ही होगा, परिभाषा ही यही है। तो एक औसत ज़िन्दगी चाहिए, जैसे सब चला रहे हैं तो आप भी अपना भीड़ वाला कार्यक्रम करिए।
और भीड़ में आपको खींच लेने के तरीक़े बहुत होते हैं। एक तो तरीक़ा ये था कि पकड़ लिया गया, तो ये भय का तरीक़ा था। उसको सिपाहियों ने पकड़ लिया, ये भय का तरीक़ा है। उसको जेल में डाल दिया, ये दण्ड का तरीक़ा है। फिर बोला गया कि तू अगर मान ले कि तेरी आँखें गड़बड़ हैं तो हम तुझे यहाँ पर कोई पद दे देंगे, ये लोभ का तरीक़ा है। और वो लड़की आकर बोल रही है कि मैं तुम्हारी हो जाऊँगी बस तुम आँखें निकलवा दो, ये वासना का तरीक़ा है। तो ये इतने तरीक़ें होते हैं जो हम पर लगाये जाते हैं और इन तरीक़ों के सामने हम कभी-न-कभी घुटने टेक ही देते हैं। घुटने टेक देते हैं, आँखें गवाँ देते हैं फिर अन्धा-अन्धे ठेलिया, दोनों कूप पडंत। समझ में आ रही है बात?
लेकिन एक बात अच्छे से समझ लीजिएगा, वो सब जो वहाँ लोग थे न, कन्ट्री ऑफ़ द ब्लाइंड में, उनको अपनी ज़िन्दगी जीने में शायद कोई दुख न होता हो, लेकिन ये व्यक्ति जिसको प्रकाश का दर्शन हो चुका था, जो ज़िन्दगी में एक बार जान चुका था कि सच्चाई कहते किसको हैं, जिसको रोशनी की झलक मिल चुकी थी, ये व्यक्ति अब अगर उस भीड़ का हिस्सा बनेगा तो ये उम्र भर तड़पेगा।
आप कृष्ण के पास आ गये हैं, आप अष्टावक्र के समक्ष खड़े हो गये हैं, अब अगर आप भीड़ के पास गये तो आपको बड़ी सज़ा मिलेगी। अब लौट के मत जाइएगा। जिन चमगादड़ों ने अपनी काली गुफा के आगे प्रकाश कभी देखा ही नहीं उनको उनके अन्धेरे मुबारक! पर इन्द्रधनुष के नीचे नाचती हुई तितलियाँ, इनको अब किसी अन्धी गुफा में डालोगे तो बेचारी कैसे जी पाएँगी?
तो जिसने एक बार प्रकाश देख लिया, प्रकाश से हमारा क्या आशय है? सत्य, ज्ञान। जिसने एक बार ज्ञान चख लिया, वो अब कभी ये समझौता न करें कि मुझे भी अब भीड़ के साथ जाना है, चाहे आपको जितना लालच दिया जाये या जितना धमकाया जाये, कोई बात नहीं। सब सह लेंगें लेकिन अब ये आँखें नहीं छोड़ सकते।
मैं आप लोगों के लिए मुसीबतें बढ़ा रहा हूँ, मैं आप लोगों के लिए लौटना बिलकुल मुश्किल कर रहा हूँ। आप मेरी तरफ बढ़ रहे हैं मैं पीछे से जाकर आपके लौटने के रास्ते बन्द कर रहा हूँ, लेकिन लौट आप अभी भी सकते हैं। लौटेंगे तो बहुत दुख पाएँगे।
क्यों लौटना है? न्यूनेज़ जैसी नादानी करनी है क्या? कैसा पागलपन है न, जिसको कुछ नहीं पता वो फँसा हुआ है दुनियादारी में, भीड़ के चाल-चलन में, उसकी माफ़ी हो सकती है, पर आपको तो अब दिन-प्रतिदिन बहुत कुछ पता चलता जा रहा है न, है न? तो आप मत आइएगा ये सब जो भी है — दुनियादारी, सामाजिकता, भीड़-भाड़ — इनके चक्करों में मत आइएगा। अपनी मौलिक दृष्टि रखिए, अपनी चेतना के अनुसार जियें, आपके पास सारी सामर्थ्य है।
अपनी आँख है, अपनी चेतना है, अपनी बुद्धि है, अपने पाँव हैं, ये रास्ता अपने पाँव पर तय करें। और अपने हिसाब से जब चलेंगें न, अपने हिसाब से मेरा आशय है आत्मा, यहाँ पर मैं, ‘मैं’ से अर्थ ले रहा हूँ ‘आत्मा’, जब उसके हिसाब से चलेंगें सिर्फ़ तभी मंज़िल मिलती है जिसके लिए जन्में हैं।
भीड़ में क्या है? कुछ नहीं है, ऐसे ही है उपद्रव जैसे नेताओं की रैलियाँ होती हैं। उसमें भीड़ें आ जाती हैं ट्रैक्टर, ट्रॉली, बस में बैठ-बैठकर। क्या उनकी योग्यता होती है? क्या उनकी गुणवत्ता होती है? वैसी होती है भीड़। उनको बोल दिया गया है, पाँच-पाँच रुपये देकर, कि नारे लगाओ तो नारे लगा दिये। ऐसी होती है भीड़। अगली बार नारे बदल दो तो वो बदला हुआ नारा भी लगा देंगे। कोई ‘मालिक’ है वो तय कर रहा है कि क्या बोलना है, अभी ये बोलना है, ये बोलना है। कोई कंसिस्टेंसी (स्थिरता) नहीं। कोई समरसता नहीं, कोई लयबद्धता नहीं, कोई ईमानदारी नहीं, सब टुकड़े-टुकड़े, बिखरे-बिखरे, कोई गरिमा नहीं।
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