वक्ता : (प्रश्न पढ़ते हुए) जब हम दूसरों से अपनी तुलना करते हैं और दूसरों से प्रभावित भी हो जाते हैं, तो क्या यह हमेशा ग़लत है?
नो! जस्ट फ़िफ्टी-फ़िफ्टी। (नहीं! बस ५०-५०)
पहले तुम लोगों का रहता था कि नहीं बेकार की बातें हैं। कहते थे, कुछ बातें तो ठीक हैं, पर हम बाकी बातों से सहमत नहीं हैं। तो जो हमें ठीक लगता है, वो हम ले लेते हैं, बाकी हम नहीं लेते। अभी यह चल रहा है। पहले तो कम्प्लीट रिजेक्शन (पूर्णतया अस्वीकार्य) था। मेरे ख्याल से ५-६ सेशन तक। कहते थे, ‘हो ही नहीं सकता!’
(श्रोतागण हँसते हैं)
‘उलटी गंगा बह रही है। ऐसा थोड़ी ही होता है। यह कोई बात है! अब यह नहीं! देखो, कुछ बातें तो ठीक हैं, पर कुछ बातें तो बहुत एक्सट्रीम (चरम पर) हैं। हम नहीं, ऐसे थोड़े ही होता है। एक्सेजरेशन (अतिशयोक्ति) है। मिडिल पाथ (बीच का रस्ता) होना चाहिए। इतना एक्सट्रीम (चरम पर) नहीं।’ तो अब पूछ रहे हैं कि ‘जब हम दूसरों से अपनी तुलना करते हैं और दूसरों से प्रभावित भी हो जाते हैं तो क्या ये हमेशा ग़लत है?’ नहीं, कभी-कभी आपकी सुविधा के अनुसार। जब आप दूसरों से बेहतर हों तुलना करने पर तब कर लीजिये।
(श्रोतागण हँसते हैं)
ऐसा ही कुछ जवाब चाहिए?
(श्रोतागण हँसते हैं)
श्रोता १: गुरु जी, अगर कम है तो ज़्यादा वाले से कम्पेयर (तुलना) कर लें तो?
वक्ता: तो फ़ायदा होगा।हाँ!और क्या, यह तो कन्वेंशनल विज़डम (परंपरागत बुद्धिमत्ता) है ही कि जिन्हें ऊपर उठना हो वह अपने से ऊपर वाले को देखें। अरे! पोस्टर (विज्ञापन) आते हैं बाज़ार में ऐसे!
(सभी श्रोतागण ज़ोर से हँसते हैं)
सही में आते हैं कि जिन्हें तरक्की करनी है वो अपने से ऊपर वालों को देखें। तो वही बेचारे ने लिख दिया यहाँ पर। कि सर, कम्पेयर (तुलना) करके ही तो आदमी ऊपर उठता है। कम्पेयर (तुलना) करते-करते ऊपर नहीं उठोगे, उठ जाओगे।
(श्रोतागण हँसते हैं)
कम्पेरिज़न (तुलना) का कोई अंत नहीं है। कम्पेरिज़न (तुलना) तब भी चलता रहेगा। कम्पेरिज़न (तुलना) क्या है, पहले यह तो देख लो। कौन सा मन है जो कम्पेयर (तुलना) करता है। कम्पेरिज़न (तुलना) करने की फुर्सत किसको रहती है, देखो तो। और कम्पेयर (तुलना) न करने का यह मतलब नहीं है कि तुम इस फैक्ट (तथ्य) से ही आँख चुराओ कि बात क्या है।
अब अगर पता है कि एक नार्मल आदमी का ब्लड प्रेशर (रक्त चाप) इतना होना चाहिए, १३० होना चाहिए या ८० होना चाहिए। तुम पाते हो तुम्हारा १५०-२०० चल रहा है। तो है तो यह कम्पेरिज़न (तुलना) ही, कि नहीं है? यहाँ भी तो कम्पेरिज़न (तुलना) ही हुआ। इसमें कोई बुराई नहीं है। तथ्यों से हटने को नहीं कहा जा रहा है। तुमको पता है कि तुम मान लो ज़्यादा लम्बे हो, तो यह तथ्य है। और ज़्यादा लम्बे का मतलब क्या है? दूसरों की तुलना में ही। जिराफ़ से थोड़ी ही ज़्यादा लम्बे हो। तो यह एक तथ्य है, ठीक है।
‘कम्पेरिज़न एज़ अ फैक्ट और कम्पेरिज़न एज़ अ डिज़ीज़ ऑफ माइंड’ , इन दोनों में फर्क होता है।
(तथ्यों के आधार पर तुलना और मन की बिमारी के आधार पर तुलना, इन दोनों में फर्क होता है।)
बहुत अंतर होता है। यह कर रहा है बॉडी-बिल्डिंग (शरीर का निर्माण), तो ठीक है न, जा कर के देखता होगा कि महीने भर पहले पेट जितना था उससे कम हो गया कि नहीं हो गया। मेरे ख्याल से बत्तीस कमर से छब्बीस कमर कर ली होगी इसने। तो यह भी तो कम्पेरिज़न (तुलना) ही है न! कम्पेरिज़न एज़ अ डिज़ीज़ ऑफ़ माइंड (तुलना मन की बीमारी) तब बन जाता है जब तुम अपनी औकात (शब्द पर ज़ोर देते हुए) नापते हो किसी बाहरी किसी स्केल (पैमाने) से। जब तुम कहते हो कि मैं क्या हूँ यह इस बात पर निर्भर करता है कि दुनिया मुझे क्या बोलती है। ठीक है, तथ्य के रूप में अगर तुम्हें पता है कि तुम किसी पैरामीटर (मानदण्ड) पर ७४ परसेंटाइल (प्रतिशतक) पर खड़े हो, तो ठीक है, पता है तो इसमें क्या बुराई हो गई? यह जानने से इनकार तो नहीं करना है। लेकिन तुम यदि यह कहने लगो कि ‘मैं कौन? ७४ परसेंटाइल (प्रतिशतक) वाला।’ तो बड़ी दिक्कत हो जाएगी।
बात समझ रहे हो न?
फिर तुम्हारी पूरी मनो स्थिति, तुम्हारी पूरी ज़िन्दगी बाहर देखते-देखते बीतेगी। शांत नहीं रह पाओगे।
भाई देखो, तुम्हें ट्रेन (रेल गाड़ी) भी पकड़नी है अगर चार बजे, और पौने-चार बज रहा है, और तुम भाग रहे हो, तो तुम तुलना ही कर रहे हो। तुम तुलना कर रहे हो अपनी घड़ी के वक़्त की चार बजे से और तुम कह रहे हो पंद्रह मिनट बचे हैं। यह ठीक है। यह कम्पेरिज़न (तुलना) ही हुआ। इसमें कोई बुराई नहीं हो गई। यह सिर्फ़ एक तथ्य है। इसका तुम्हारी सेल्फ़-वर्थ (आत्म-मूल्य) से कोई लेना देना नहीं है। सेल्फ़-एस्टीम (आत्म-सम्मान) से कोई लेना देना नहीं है। दिक्कत तब बनती है जब – तुम क्या हो? मैं क्या हूँ? हू ऍम आई (मैं कौन हूँ?)? यह बात कम्पेरिज़न से निकलती है। वो एब्सोल्यूट (पूर्ण) होना चाहिए। उसका कम्पेरिज़न (तुलना) से कोई लेना-देना नही होना चाहिए। वो यदि एब्सोल्यूट (पूर्ण) है, तो फिर जितना कम्पेयर (तुलना) करना है करो। नहीं समझ में आ रही बात? अच्छा, ऐसे समझो। तुम्हें जितना कम्पेयर (तुलना) करना हो करना साथ में एक बात बस याद रखना कम्पेरिज़न (तुलना) से क्या पता चल सकता है कि ‘तुम ऊपर हो’, और कम्पेरिज़न (तुलना) से क्या पता चल सकता है कि तुम?
श्रोतागण: (सभी एक स्वर में) नीचे हो।
वक्ता: ठीक है। तुम खूब कम्पेरिज़न (तुलना) करना, लेकिन कम्पेरिज़न (तुलना) का परिणाम जो भी निकले, तुम बस यह कहना ‘अगर हम ऊपर हैं, तब तो हम ऊपर हैं ही। पर अगर हम नीचे हैं, तब भी हम ऊपर ही हैं।
नहीं समझे?
श्रोता २: नीचे हैं तो ऊपर आने की कोशिश करेंगे।
वक्ता: नहीं। कोशिश नहीं करेंगे।
श्रोता २: जिसने सर होशियारी से अगर कॉपी लिखी है किसी ने, जैसा आपने बताया कि होशियारी से अगर काम किया, उसकी अगर हमने आंसर शीट (उत्तर पत्रिका) देख ली, तो उससे अपने में इम्प्रूवमेंट (सुधार) करेंगे न?
वक्ता: नहीं।
हम वो हैं जिसमें यह ताकत है कि वो कितना भी इम्प्रूव (सुधार) कर सकता है। हम वो नहीं हैं जिसे इम्प्रूवमेंट (सुधार) करना है।
क्यूंकि जिसने गलती करी है, वो तो वैसे भी एक नालायक आदमी है। तुम्हारे नंबर (अंक) कम आए न, तभी तो कह रहे हो इम्प्रूवमेंट (सुधार) करना है। हम वो नहीं हैं जो बार-बार गलतियाँ कर रहा है। हमें तो वो याद है जिसमें ताकत है सारी गलतियों से आगे कुछ बेहतर करने की। देखो, तुम गलती सुधारने की जो कोशिश कर रहे हो, उसमें भी तुम्हें भरोसा किसका है?
दो हो तुम। एक वो, जो खूब गलतियाँ करता है। और दूसरा वो जिसके मत्थे तुम कहते हो कि इम्प्रूवमेंट (सुधार) हो जाएगा। एक तो वो हो न जिसने गलतियाँ करीं, और दूसरा वो है जो कहता है कि इम्प्रूवमेंट (सुधार) हो सकता है। अगर तुम सिर्फ़ वो हो जो गलतियाँ करता है तो इम्प्रूवमेंट (सुधार) हो सकता है क्या? ‘मैं वो हूँ जो खूब गलतियाँ करता है। मुझमें कोई इम्प्रूवमेंट (सुधार) हो सकता है? इम्प्रूवमेंट (सुधार) होने के लिए मुझे कुछ और भी होना पड़ेगा न जो करेक्शन (सुधार) कर सके!
अरे भाई! मैं गलती करता हूँ और फिर जो अगली बार कोशिश करता हूँ तो मेरा पहले से रिज़ल्ट (परिणाम) बेहतर आता है। तो इसका मतलब मेरे भीतर कोई और भी है जो उस गलती को ?
श्रोतागण: (एक स्वर में) सुधार सकता है।
वक्ता: सुधार सकता है। अब तुम बताओ, तुम इन दोनों में से कौन होना चाहते हो? वो जो गलतियाँ करता है या वो जिसमें सुधारने की काबिलियत है?
श्रोता ४: सुधारने की।
वक्ता: बस यही कह रहा हूँ। तुम उसके साथ रहो। हम वो हैं जिसकी ताकत से कोई भी सुधार हो सकता है, कोई भी चेंज (परिवर्तन) आ सकता है।
श्रोता २: तो यह सर कौन कहता है कि हम अगर हम कम्पेरिज़न (तुलना) जो कर रहे हैं, तो उसमें यह कौन कहेगा कि उसमें सुधार हमें करना चाहिए। कौन सा वाला कह रहा है यह? जिसने किया है या जो सुधारना चाहता है?
वक्ता: जो सुधारना चाहता है, जो पीछे बैठा है, उसे तो किसी सुधार की ज़रुरत नहीं है। वो तो पहले ही मस्त है।
क्या कोच (प्रशिक्षक) को इम्प्रूवमेंट (सुधार) की ज़रुरत है? या खिलाड़ी को?
श्रोता २: खिलाड़ी को।
वक्ता: तो कोच (प्रशिक्षक) तो नहीं इम्प्रूव (सुधार) करेगा न। वो तो पीछे बैठा हुआ है। वो सुधारेगा। उसको तो नहीं न? तुम यही याद रखो कि तुम वही नहीं हो जो गिर पड़ रहा है। तुम वो हो जिसमें उठने की खूब ताकत है। जो अभी भले ही कितना गन्दा हो पर जो पोटेंशियली (संभावित) बड़ा साफ़ है। उस बात को याद रखो।
~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।