तू भी रावण है!

Acharya Prashant

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तू भी रावण है!

आचार्य प्रशांतः जिसके दस सर, वही रावण। रावण वो नहीं जिसके दस सर थे, जिसके ही दस सर हैं, वही रावण। और हम में से कोई ऐसा नहीं है जिसके दस, सौ-पचास, छह-हज़ार-आठ-सौ-इकतालीस सर न हो।

(हँसी)

दस सरों का मतलब समझते हो? एक ना हो पाना, चित्त का खंडित अवस्था में रहना, मन पर तमाम तरीके के प्रभावों का होना। और हर प्रभाव एक हस्ती बन जाता है; वो अपनी एक दुनिया बना लेता है; वो एक सर, एक चेहरा बन जाता है; इसीलिए हम एक नहीं होते हैं।

रावण को देखो न!

महाज्ञानी है, शिव के सामने वो जो है, क्या वही वो सीता के सामने है?

राम वो जिसके एक सर, रावण वो जिसके अनेक सर।

दस की संख्या को सांकेतिक समझना। दस माने दस ही नहीं, नौ माने भी दस, आठ माने भी दस, छह माने भी दस और छह-हज़ार माने भी दस।

एक से ज़्यादा हुआ नहीं कि दस, अनेक।

जो ही अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग हो जाता हो, वही रावण है।

मज़ेदार बात ये है कि रावण के दस सरों में एक भी सर रावण का नहीं है। क्योंकि जिसके दस सर होते हैं उसका अपना तो कोई सर होता ही नहीं। उसके तो दसों सर प्रकृति के होते हैं, समाज के होते हैं, परिस्थितियों के होते हैं। वो किसी का नहीं हो पाता। जो अपना ही नहीं है, जिसके पास अपना ही सर नहीं है वो किसी का क्या हो पाएगा?

एक मौका आता है, वो एक केंद्र से संचालित होता है; दूसरा मौका आता है, उसका केंद्र ही बदल जाता है, वो किसी और केंद्र से संचालित होने लग जाता है। उसके पास अनगिनत केंद्र हैं। हर केंद्र के पीछे एक इतिहास है, हर केंद्र के पीछे एक दुर्घटना है, एक प्रभाव है।

कभी वो आकर्षण के केंद्र से चल रहा है, कभी वो ज्ञान के केंद्र से चल रहा है, कभी वो घृणा के केंद्र से चल रहा है, कभी लोभ के केंद्र से, कभी संदेह के केंद्र से। जितने भी हमारे केंद्र होते हैं, वो सब हमारे रावण होने के द्योतक होते हैं। राम वो जिसका कोई केंद्र ही नहीं है, जो मुक्त आकाश का हो गया।

यहाँ एक वृत्त खींच दिया जाए, आपसे कहा जाए इसका केंद्र निर्धारित कर दीजिए। आप उँगली रख देंगे यहाँ पर (उँगली से इशारा करते हुए)। आप इस मेज़ का भी केंद्र बता सकते हैं, आकाश का केंद्र आप नहीं बता पाएँगे। आकाश में तो तुम जहाँ पर हो, वहीं पर केंद्र है, अनंत है।

राम वो जो जहाँ का है, वहीं का है। अनंतता में प्रत्येक बिन्दु केंद्र होता है।

राम वो जो सदा स्व-केंद्रित है; जो जहाँ पर है, वहीं पर केंद्र आ जाता है।

रावण वो जिसके अनेक केंद्र हैं। और वो किसी भी केंद्र के प्रति पूर्णतया समर्पित नहीं है। इस केंद्र पर है तो वो खींच रहा है, उस केंद्र पर है तो वो खींच रहा है। इसी कारण वो केंद्र -केंद्र भटकता है। घर-घर भटकता है। मन-मन भटकता है।

जो मन-मन भटके, जो घर-घर भटके, जिसके भीतर लगातार विचारों का संघर्ष चलता रहे, वो रावण है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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