श्रोता १: सर, मैं वास्तव में इसी बात पर सोच रहा था| इस विषय पर, दोस्तों से ही, रात करीब ढाई बजे तक वार्तालाप हुई| सर मैं चाह रहा हूं, उसे स्पष्ट कर लूं|
मैं ये जानना चाहता हूं कि जो कुछ भी सच होता है, उस सच को क्या प्रमाण की जरुरत होती है? पहला यहीं से शुरू हुआ था| हमारी बहस इसी बात पर हो रही थी कि हम किसी बात पर जो बहस करते हैं, बहाने देते हैं, वो तर्क और वितर्क कहां तक सही हैं? उसकी कोई सीमा है या नहीं? सर उदाहरण के तौर पर मान लीजिये, मैंने किसी से कहा की भगवान हैं, तो तुम उसे मान लो| अगर कोई कहे कि तुम सिद्ध करो कि भगवान है| भगवान कोई पदार्थगत वस्तु थोडे ही हैं कि मैं उसे सिद्ध कर दूं| कोई वस्तु थोडे ही है कि मैं यहां पर ला कर रख दूं कि वो है, देख लो| मैं कैसे सिद्ध करूं?
वक्ता: मैं तर्क दूंगा, तो हो जाएगा?
श्रोता १: अब मुझे क्या पता सर| ये बात तो उन्हें मदद करेगी जो देर रात तक इन्हीं तर्कों में उलझे थे|
वक्ता: बैठो|
तर्क, मन की कीमती क्षमता है| तर्क का निश्चित रूप से उपयोग है| पर हमने कहा, तर्क मन की एक क्षमता है, तो उसका जो भी उपयोग है, वो मन के भीतर ही भीतर है| जो कुछ भी मानसिक है, और मानसिक क्या है? वो जो आंखों से दिखाई पड़ता हो, वो जिसका ज्ञान बहार से आया हो, या वो जो स्मृतियों में भीतर बैठा हो, यही सब मानसिक है| इसके अलावा तो, कुछ मानसिक होता नहीं, मन में जो कुछ भी है वो या तो इन्द्रियगत है, या ज्ञान है, ज्ञान भी इन्द्रियों से ही आया है, या वो स्मृतियों के रूप में पहले से ही संचित है| इस पूरे मानसिक खेल में तर्क का उपयोग, निश्चित रूप से है, और करना चाहिये|
तर्क तुम्हें तथ्यों के करीब ले जा सकते हैं, इसमें कोई शक नहीं है| तथ्यों को देखने में, जो बाधा होती है, आँखों के सामने जो जाले पड़े होते हैं, तर्क उनको काट सकते हैं| और इस नाते, तर्क का उपयोग है| पर दोहरा रहा हूं, सिर्फ मन की दुनिया में| अगर तुम सत्य की बात कर रहे हो, तो सत्य तो है ही वही कि जिससे मन निकलता है| जो मन से बहुत बड़ा है| वो इतना बड़ा है कि उसमें से मन निकलता है| मन उसी में समाहित हो जाता है, मन उसको पकड़ नहीं पाएगा| मन का कोई तर्क, ना उसको प्रमाणित कर पाएगा, और ना उसको काट पाएगा|
तर्क का उपयोग, आप बेशक़ करिये| पर आपको ये पता होना चाहिये कि आप कहां पर तर्क इस्तेमाल कर रहें हैं| आप तर्क के द्वारा ये समझना चाहते हैं कि ये माइक और ये कैमरा, कैसे काम करते हैं, आप बेशक़ समझिये| तर्क ने, बहुत सारी विलक्षण वस्तुएं दी हैं हमको| पूरी मेडिकल साइंस तर्क पर आधारित है, दर्शनशास्त्र तर्क पर आधारित है, विज्ञान तर्क पर आधारित है ही| लेकिन तुम प्रेम में, तर्क को मत ले आना| तुम समग्र जीवन को तार्किक मत बना लेना| मुक्ति के पीछे कोई तर्क नहीं होता कि कोई तुमसे पूछे कि मुक्त जीवन क्यों जिया जाए| तो इसका तुम कोई तर्क दे नहीं पाओगे| क्या तर्क दोगे कि क्यों है प्रेम? क्या तर्क दोगे कि प्रेम की आवश्यकता क्यों है जीवन में? खाने की आवश्यकता क्यों है? इसका तर्क दिया जा सकता है| खाना तो वस्तु है| उसका तर्क दे सकते हो, बिल्कुल दे सकते हो| पर प्रेम का क्या तर्क है? कोई तर्क नहीं हो सकता| और जहां तुमने प्रेम का तर्क दे दिया, तहां समझ लेना कि प्रेम है ही नहीं| क्या तर्क दोगे? क्यों उड़ना है खुले आकाश में? क्यों बंधन पसंद नहीं है? जल्दी से बताओ, इसका तर्क क्या है? कोई तर्क नहीं है|
(मौन)
‘तर्क’ बढिया है| पर तर्क के दायरों को याद रखना| भूलना नहीं! और तर्क भी बढिया इसलिये है क्योंकि अंत में तर्क समाप्त हो जाता है| तर्क यदि चलता ही रहे, तो फिजूल बात| तर्क भी बढिया इसलिये है, क्योंकि तर्क, तर्क को काटता है| और अंत में, फिर तर्क करने की, कोई ज़रुरत रह ही नहीं जाती| तर्क की परिणीति भी मौन है| तर्क वही अच्छा, जो अंततः तुम्हें मौन में ले जा सके| जो तर्क चलता ही रह जाए, वो तर्क व्यर्थ है| फिर वो मनोरंजन बन गया है| तुम रस लूट रहे हो बस, तर्क करने का| तुम्हारे अहंकार को पोषण मिल रहा है कि मैंने अपने तर्क से बहुतों को झुका दिया| देखे हैं ना ऐसे लोग? उन्हें सत्य से कोई मतलब नहीं है| वो बस ये चाहते हैं कि तर्क कर कर के, अपने आप को ऊँचा सिद्ध कर दें| ‘श्रेष्ठ हूं मैं’| अब ये तर्क, किसी काम का नहीं है| तर्क वही अच्छा, जो सत्य की दिशा में जाए| सत्य के सामने झुक जाए और फिर, विलीन हो जाए|
ठीक है?
-’संवाद’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।