स्वेच्छा से समर्पण || आचार्य प्रशांत (2014)

Acharya Prashant

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स्वेच्छा से समर्पण || आचार्य प्रशांत (2014)

प्रश्न : (किसी ग्रन्थ से सवाल पूछते हुए) इन्होंनें जो ७० जगहों की बात की है, वो क्या है?

आचार्य प्रशांत : कुछ नहीं, हज़ारों तीर्थ हैं, उन सब तीर्थों में जाने से जो मिलता है, वो सुनने से ही मिल जाता है। ७० तीर्थ करो, इससे अच्छा, सुनो। वो काफ़ी है।

श्रोता १ : सर, एक वाक्य है: “आई केन-नॉट ईवन वन्स बी अ सैक्रिफाइस टू यू”।

वक्ता : मेरी इतनी भी हैसियत नहीं है कि मैं तेरे सामने न्य़ौछावर हो सकूँ। अगर ये भी कहूँ कि मैं तेरे चरणों का दास हूँ, तो ये भी अतिश्योक्ति होगी। मैं तो ऐसा भी नहीं कि तुझ पर कुर्बानी की तरह चढ़ाया जा सकूँ। मैं ये तो कह ही नहीं रहा कि मैं तुझसे गले मिल सकता हूँ, मैं तो ये कह रहा हूँ कि मेरी इतनी भी औकात नहीं हैं कि मैं तेरे पाँव छू सकूँ।

श्रोता २ : सर, जब सुनने की बात हो रही थी, तब ये तो समझ आ गया था कि हम जो कर रहे हैं सुनने में, वो मशीन जैसा ही कुछ है। सुन रहे हैं, मैमोरी से ले रहे हैं और प्रतिक्रिया कर रहे हैं, पर ये कब समझें कि हम सच में सुन रहे हैं?

वक्ता: तुम यही जान लो कि तुम नहीं सुन रहे हो। क्योंकि ये शक, और सुरक्षा की ये कोशिश, कि मुझे पक्का हो जाए कि अब मैं सुन रहा हूँ, ये सिर्फ़ तभी तक होगी जब तक नहीं सुन रहे हो। जिस क्षण सुन रहे होगे, ये चाहत ही नहीं बचेगी कि पक्का हो जाए न कि मैं सुन ही रहा हूँ। जिसको प्रेम नहीं होता, वो ही ये पक्का करने की कोशिश करता रहता है कि “प्रेम है ना?” “प्रेम है ना?” “प्रेम है ना?”; जिसको होता ही है, उसके मन में ये सवाल उठता ही नहीं है कि पूछूँ।

तो तुम्हें यदि प्रेम के विषय में शक हो गया, तो तुम्हारा शक ठीक है — नहीं है प्रेम। शक का होना ही इस बात का प्रमाण है कि शक ठीक है। यदि प्रेम होता तो शक कहाँ से आता?

जिन लोगों को बार-बार शक उठता हो, प्रेम के विषय में, उन्हें शक करने की कोई ज़रूरत नहीं है। क्योंकि शक का मतलब होता है कि अभी पक्का नहीं हैं। पक्का जानें, कोई प्रेम नहीं हैं, कोई शक नहीं है कि प्रेम नहीं हैं। प्रेम नहीं हैं, इसका कोई शक नहीं। कोई आए आपके पास और कहे कि मुझे शक है, और इससे पहले कि वो सवाल पूरा करे, आप कह दीजिये: “ठीक सोच रहे हो!”।

श्रोता ४: सर, वो बोले यदि कि मुझे शक है कि आप एलियन हो और आप बोलो कि ठीक सोच रहे हो।

वक्ता : एलियन ही तो हूँ। मुझे जानते होते, तो शक कहाँ से आता। एलियन माने अनजाना। जिनको जानते हो, उनके विषय में शक होता है?

श्रोता ४: नहीं।

श्रोता ५: सर, एक संवाद में कहा था आपने कि लोग कहते हैं कि, “प्यार में दर्द नहीं होता”, लेकिन सबसे ज़्यादा मार भी प्यार में ही पड़ती है, सबसे ज़्यादा डंडे प्यार में ही पड़ते हैं।

वक्ता : वो किस संदर्भ में कहा था, देखना।

श्रोता ५: अहंकार के संदर्भ में कहा था कि सबसे ज़्यादा डंडे प्यार में पड़ते हैं, आपने कहा था एक बार।

वक्ता: बात दोनों तरफ़ की है, इधर की भी और उधर की भी। सबसे ज़्यादा डंडे प्यार में पड़ते हैं, बिल्कुल पड़ते हैं, किसको पड़ते हैं? अहंकार को पड़ते हैं। पर सबसे ज़्यादा तृप्ति भी किस को मिलती है?

श्रोता ५: अहंकार को।

वक्ता: तो इधर की बात करी थी या उधर की करी थी, सुनना पड़ेगा कि क्या कहा था। और डंडे पड़ना दो तरह का होता है, जब मैं कहता हूँ कि कोई चीज़ काटी जाती है, तो वो दो तरीके की होती है। वो इस तरीके से भी कह सकते हो कि कष्ट होता है, और इस तरीके से भी कह सकते हो कि वो हटता है। अहंकार काटा जा रहा है — इसके दो अर्थ हो सकते हैं। पहला, कि अहंकार को दर्द हो रहा है, और दूसरा, कि अहंकार हट रहा है।

श्रोता ५: सर, पहले तो दर्द ही होता है न?

वक्ता : इसका कोई इधर-उधर का जवाब नहीं हैं। क्या पूछ क्यों रही हो? तुम्हें क्या दर्द है? तुम्हें क्या समस्या क्या है?

श्रोता ५: सर, अहंकार जब भी आप समर्पित करने की सोचते हैं तो सबसे पहले डर आता है कि रुक जाओ, रुक जाओ।

वक्ता: छोड़ो। एक बिंदु के बाद शैक्षणिक चर्चा काम की नहीं रहती। जब हम रमण का ग्रन्थ पढ़ रहे थे, दूसरे दिन सुबह, तो उसमें पहला ही श्लोक क्या था? बेकार की बातें छोड़ो इधर-उधर की, एक-निष्ठ हो जाओ। ये सब शैक्षणिक चर्चा है कि अहंकार को चोट लगती है, कि उसे अच्छा लगता है कि उसे क्या होता है।

करो, तो जान जाओगे।

उतरो, जानो।

एक समय के बाद, जो मैं कह रहा था न सुष्मिता (श्रोता को संबोधित करते हुए) से, ज्ञान मदद नहीं करता। शब्द काम तभी दे रहा है न जब वो मौन में ले जाए। और तुम शब्द, शब्द, शब्द, शब्द ले रही हो, और मौन की तरफ़ जाने को तैयार नहीं हो, तो फ़िर वो शब्द भी किस काम का है? वो तो नुकसान और कर देगा। मोटी-मोटी बात समझो, और उसपर काम करो। और जो बात है, वो बहुत सीधी है। बात इतनी सीधी होती है कि कबीर एक दोहे में कह देते हैं; वो ऐसी नहीं है कि उसपर बड़ी विद्वता-पूर्ण चर्चा करनी पड़े।

बात एकदम सीधी होती है। आठ शब्दों में बयान कर देते हैं कबीर — चार ऊपर, चार नीचे, बात खत्म! हो गया। नहीं तो बारह, नहीं तो सोलह… क्या हो गया? इतनी सीधी होती है। कितनी, कितनी लम्बी बातें हैं यहाँ पर: (ग्रन्थ की ओर इंगित करते हुए)

“मरिये मत पाता के संग, ऊ धोवे नौवे के रंगी”

हो गया, खत्म!

हमने कहीं थीं दो बातें: स्वेच्छा, और गुरु का वचन।

कहा था न दो ही रस्ते हैं, और कहा था कि दोनों अगर हो जाएं तो सोने पर सुहागा; और दोनों न हों, कोई एक हो, तो भी काम चल सकता है। दोनों रखो न। वचन तो आ रहे हैं, ये रहे गुरु के वचन (ग्रन्थ की ओर इंगित करते हुए), ये रहे। पर तैयारी भी तो हो कि अब उनमें उतर जाएंगे, कि कुछ होने भी देंगे।

स्वेच्छा, वो कहाँ हैं?

श्रोता ६: जब ‘होने देने’ की बात आती है तो हम अपनी तरफ़ से ‘कोशिश’ करते रहते हैं।

वक्ता : ‘होने देने’ का अर्थ है ‘कोशिश ना करना’।

श्रोता ६: हाँ वो ही तो और हम उसको उल्टा ले लेते हैं: “कोशिश ना करने” की भी “कोशिश” करते हैं।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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