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स्वयं को नमित होना || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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युजे वां ब्रह्म पूर्व्य नमोभिर्विश्लोक एतु पथ्येव सूयः। शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानी दिव्यानी तस्थुः॥

हे मन और बुद्धि! तुम्हारे स्वामी और सबके आदिकारण परब्रह्म परमात्मा से मैं नमस्कार के द्वारा संयुक्त होता हूँ। मेरा श्लोक (स्तुतिकर्म) विद्वान् के यश के समान सर्वत्र फैल जाए। दिव्य लोकों में वास करने वाले सभी अमृतरूप परमात्मा के अंशधर पुत्रगण मेरी बात सुनें।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (अध्याय २,श्लोक ५)

आचार्य प्रशांत: 'हे मन और बुद्धि! जो तुम्हारा स्वामी है, उसे मैं नमन करता हूँ। और नमन के द्वारा मैं उससे संयुक्त होता हूँ। जो तुम पर राज करता है, जिसकी संतति हो तुम, मैं सीधे जाकर उससे युक्त होना चाहता हूँ, तुमसे नहीं। मैं क्यों कहूँ कि मैं मन हूँ, मैं क्यों कहूँ कि मैं बुद्धिमान हूँ, जब ना मन हो करके, ना बुद्धि हो करके मुझे शांति मिलनी है?'

मन, अतृप्ति का ही दूसरा नाम है और बुद्धि में इतनी सामर्थ्य होती नहीं कभी कि वो उस अतृप्ति को हल कर पाए, समाधान दे पाए। तो, 'मन और बुद्धि! मैं सीधे वहाँ जाता हूँ न जहाँ से तुम आए हो। आशय यह है कि तुम अशक्त हो। प्रमाणित होता है मेरे ही जीवन से कि तुम अशक्त हो। तुमसे ज़्यादा शक्तिशाली निश्चित रूप से वह होगा जो तुम्हारा प्रणेता है, जहाँ से तुम उठते हो या जिसकी कामना में तुम लगे रहते हो, मैं सीधे उसके पास जाऊँगा। उसके सामने मैं नमन करता हूँ, मैं उससे संयुक्त होता हूँ।'

सूत्र है यहाँ पर, कि संयुक्त ना हो पाने का कारण ही है नमस्कार ना करना, माने नमित ना होना। जो मिल नहीं पा रहा वो इसीलिए नहीं मिल पा रहा है क्योंकि वो झुक नहीं पा रहा है। झुकना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि तुम्हारा झुकना ही तुम्हारी सच्चाई है। तुम छोटे हो, तुम सीमित हो, झुक कर के तुम बस इस सच्चाई को मान लेते हो। तुमने यह नहीं करा है कि ग़ैरज़रूरी, अनावश्यक विनम्रता दिखा दी है। तुमने तो बस जो सच्चाई थी, वो मान ली है। और सच्चाई यह है कि कुछ है जिसके सामने तुम्हारा कद बहुत छोटा है। नमस्कार करके तुमने बस सत्य को हामी भर दी है। तुमने सत्य को हामी भरी नहीं कि तुम सत्य के साथ हो लिए। यही तो होता है युक्त होना।

फिर कहा, कि 'मेरा श्लोक'; माने ये जो मैं स्तुतियाँ या प्रार्थनाएँ कर रहा हूँ अभी, या तो पढ़ो इसे कि 'मेरी प्रार्थना विद्वान के यश के समान सर्वत्र फैल जाए।'

वापस जाइएगा पहले ही श्लोक में जहाँ हमने कहा था हमारी प्रार्थना के साथ समस्या ही यही होती है, कि वो अभी होती है और थोड़ी देर में नहीं होती है। उसी को ऐसे सुन सकते हो कि यहाँ होती है और वहाँ नहीं होती है। तो ऋषि यहाँ पर कह रहे हैं कि हमारी प्रार्थना ऐसी हो, जो सदा और सर्वत्र हो। सर्वदा और सर्वत्र; और इसमें सर्वथा भी जोड़ दो। हर जगह हो, हर हालत में हो, और निरंतर हो। सर्वदा, सर्वथा, सर्वत्र। ऐसी हो हमारी प्रार्थना।

उसी को इस रूप में कहा गया है कि 'मेरा श्लोक विद्वान के यश के समान सर्वत्र फैल जाए। कोई जगह ऐसी ना बचे जो मेरी प्रार्थना से अछूती या रिक्त हो। कोई जगह से आशय क्या है? 'कोई भी ऐसी जगह जहाँ मेरी पहुँच हो, जहाँ मैं हूँ। मैं जहाँ भी हूँ, अपनी प्रार्थना के साथ ही रहूँ।'

"दिव्य लोकों में वास करने वाले सभी अमृतरूप परमात्मा के अंशधर पुत्रगण मेरी बात सुनें।"

ये दिव्य लोग जितने हैं, ये सब मानसिक लोग हैं। परमात्मा के अंशधर पुत्रगण कौन हुए? परमात्मा का पुत्र कौन हुआ? कौन है जो सत्य से प्रकट होता है? आत्मा से जो सबसे पहले आता है, उसी का क्या नाम है? 'अहम्'। तो दूसरे अर्थों में यहाँ भी उसी प्रथम देवता की आराधना करी जा रही है, सविता देव की, कि मेरी बात सुनो। ख़ुद को ही कहा जा रहा है, अहम् वृत्ति है न सविता, ख़ुद को ही कहा जा रहा है 'मेरी बात सुनो'; याद रखना।

स्वयं से बात करना जैसे बहुत ज़्यादा आवश्यक हो बजाय किसी और से बात करने के। ख़ुद को समझाना जैसे बहुत-बहुत ज़्यादा ज़रूरी हो बजाय किसी और को समझाने के। बार-बार, बार-बार ऋषि स्वयं को ही संबोधित कर रहे हैं। बार-बार प्रार्थना का रुख अपनी ही तरफ़ है।

इसमें बहुत विनम्रता भी है और साथ-ही-साथ अपने प्रबल सामर्थ्य का अनुभव भी। ये भी पता है कि मुझे झुकना है और ये भी पता है कि अपने ही सामने झुक रहा हूँ। जो झुक रहा है, दिख रहा है कि वो कितना दीन-हीन है। उसे विनम्र होना पड़ेगा और जिसके सामने झुक रहे हो यह भी जानते हो कि वो बड़ी ताक़त वाला है। यहीं पर ही तो हम मार खा जाते हैं न, कि हमारे भीतर जो छोटा 'मैं' है दीन-हीन, उसे हम बड़े 'मैं' के सामने झुका नहीं पाते। हमारा छोटा 'मैं', 'मैं' की ही ताक़त से सबसे ज़्यादा घबराता है।

इसी बात को मैंने ऐसे कहा था कि हमें अपनी कमज़ोरियों से कम डर लगता है, हमारा असली डर ये है कि हम बहुत-बहुत ज़्यादा ताक़तवर हैं। हमें अपनी ही ताक़त से सबसे ज़्यादा डर लगता है, हमें अपनी ही सामर्थ्य का बड़ा भय है।

हमें ही तो झुकना है और अपने ही आगे तो झुकना है। (व्यंग करते हुए) तो मैं कैसे अपनी सामर्थ्य को स्वीकार करूँ, मैं कैसे अपनी सामर्थ्य का प्रशंसक हो जाऊँ, जब मुझे पता है कि अगर मैंने उसको स्वीकार कर लिया तो मुझे झुकना पड़ेगा। अरे! मैं कैसे मान लूँ कि मैं अतीव बलशाली हूँ? अगर मैंने मान लिया कि मैं अतीव बलशाली हूँ तो मुझे झुकना पड़ेगा।

अपने-आपको बली मानने का मतलब यह नहीं होता कि तुम अब और अकड़ जाओगे। अपने-आपको बली मानोगे जैसे ही, वैसे ही तुम्हें झुकना पड़ेगा; झुकना तुम चाहते नहीं। यह पूरी बात समझ में आ रही है या बस काव्यात्मक लग रही है?

देखो, कमज़ोर होकर हमारा काम चल जाता है। कैसे हमारा काम चल जाता है कमज़ोर बने रहकर? हम कहते हैं कि 'कमज़ोर तो मैं हूँ इसीलिए मुझे यह कमज़ोरी भरा जीवन बिताना पड़ेगा।' अब उस कमज़ोरी भरे जीवन में तुम पचास तरह के समझौते करते हो, दस जगह नाक और माथा रगड़ते हो, करते हो न?

तो अपनी कमज़ोरी का बहाना बनाकर के हमने न जाने कितनी छोटी-छोटी-छोटी-छोटी चीज़ें पकड़ रखी हैं, कर रखी हैं, है न? अब अगर तुमने मान लिया कि तुम हो बली, तो वो सब छोटी-छोटी चीज़ें तुम्हें छोड़नी पड़ेंगी न जो तुमने कमज़ोर बनकर पकड़ रखी हैं।

इसलिए हम बहुत डरते हैं यह मानने से कि हम बली हैं, क्योंकि अगर तुम बली हो तो तुमने ये झुनझुने क्यों पकड़ रखे हैं बच्चों के? तुम अगर ताक़तवर हो इतने तो तुमने ये बैसाखियाँ क्यों पकड़ रखी हैं, जैसे पाँव में जान ना हो? इसलिए हम बहुत डरते हैं। हम मानते ही नहीं कि हम ताक़तवर हैं। हम बच्चे ही बने रह जाते हैं; सहूलियत है उसमें।

तो तुम्हें झुकना है, किसके आगे झुकना है? अपनी ही सामर्थ्य के आगे झुकना है। तुम्हें मानना है, क्या मानना है? ये नहीं कि तुमसे बाहर कोई ज़बरदस्त ताक़त है जिसके आगे सर झुकाना चाहिए। तुम्हें मानना होगा कि तुम्हारे ही भीतर एक ज़बरदस्त ताक़त है। और तुम्हें अपनी सारी कमज़ोरियों को अपनी ही ताक़त के आगे झुकाना पड़ेगा।

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