स्वयं को जानो, सत्य को जानो || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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स्वयं को जानो, सत्य को जानो || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

सर्वाजीवे सर्वसंस्थे बृहन्ते तस्मिन्ह्नसो भ्राम्यते ब्रह्मचक्रे। पृथगात्मानं प्रेरितारं च मत्वा जुष्टस्ततस्तेनामृतत्वमेति।।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक ६)

आचार्य प्रशांत: “सबके पोषण के आधार रूप, सबके आश्रय रूप इस विस्तृत ब्रह्मचक्र (व्यवस्था) में जीव भ्रमण करता रहता है। इस चक्र से पृथक होकर जब वह आत्मा को और प्रेरक परमात्मा को सेवा द्वारा संतुष्ट करता है, तो वह अमृतत्व को प्राप्त होता है।”

तो जीव इसी चक्र में फँसा रहता है, इसी में वो भ्रमण करता रहता है। उस भ्रमण में सब शामिल है - जन्म, जीवन, जरा, व्याधि, मृत्यु, पाना-खोना, पाप-पुण्य, सुख-दुःख सब। मुक्त कैसे होता है इस चक्र से वो? मुक्त तब होता है जब ‘दो’ को जान लेता है। कौन से दो? स्वयं को और सत्य को। यही दो ज्ञेय विषय हैं, क्या? स्वयं और सत्य।

तो कहा है, “जब वह आत्मा को और प्रेरक परमात्मा को सेवा द्वारा संतुष्ट करता है, तो अमृतत्व को प्राप्त होता है।” आत्मा माने? स्वयं। परमात्मा माने? सत्य। इन दो को जानना है, तब मुक्ति मिल जाती है; उसी को कहा है: अमृतत्व की प्राप्ति; क्योंकि जो कुछ भी इस चक्र के भीतर है, वो मृत्यु के ही भीतर है। इस चक्र में सर्वत्र क्या है? मृत्यु। तो अमृतत्व का मतलब ही हुआ इस चक्र से मुक्ति, चक्र के भीतर तो अमृत हो ही नहीं सकता। और मुक्ति का रास्ता यही: स्वयं को जानो, सत्य को जानो।

उद्गीतमेतत्परम तु ब्रह्म तस्मिस्त्रय सुप्रतिष्ठाक्षरं च। अब्रान्तर ब्रह्मविदो विदित्वा लीना ब्रह्मणि तत्परा योनि मुक्ता:।।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक ७)

अनुवाद: वेदों में वर्णित यह परब्रह्म ही पावन प्रतिष्ठा से युक्त और अविनाशी है, इसमें ही तीनों लोक स्थित हैं। ब्रह्मवेत्ता महापुरुष अपने ही अंतस में अधिष्ठित उस ब्रह्म को जानकर उसी में निष्ठापूर्वक लीन होकर विभिन्न योनियों के जन्म-बंधन से मुक्त हो जाते हैं।

आचार्य: “ब्रह्म ही पावन प्रतिष्ठा से युक्त और अविनाशी है।” यह कहने से पूर्व ऋषियों ने भली-भाँति दर्शा दिया कि प्रकृति में और संसार-चक्र में और संसार-सरिता में जो कुछ है वो विनाशी ही है, कुछ नहीं है संसार में जिसका विनाश नहीं होने वाला।

फिर कहा (ऋषियों ने), “ये सब-कुछ जो विनाशशील है, इसका आधारभूत तत्व वो ब्रह्म है जो स्वयं अविनाशी है।” फिर कहते हैं, “उसमें ही तीनों लोक स्थित हैं।” तीनों लोक प्रकृति के अंतर्गत ही हैं। तीन लोक हों, तीस लोक हों, एक संसार हो, पचास संसार हों, सब मन की परिधि के भीतर ही हैं; सब प्राकृतिक ही हैं।

“ब्रह्मवेत्ता महापुरुष अपने अंतस में अधिष्ठित उस ब्रह्म को जानकर उसी में निष्ठापूर्वक लीन होकर विभिन्न योनियों के जन्म-बंधन से मुक्त हो जाते हैं।” अपने ही अंतस में ब्रह्म कैसे अधिष्ठित है? समझिएगा बात को। अंतस में ही क्यों कहा जाता है ब्रह्म को? अंतस माने आपके अस्तित्व का केंद्र। आपके समूचे अस्तित्व को क्यों नहीं कह देते ब्रह्म? क्यों कहते हैं कि हृदय में आत्मा बसती है? क्यों नहीं कह देते कि हथेली में आत्मा बसती है? केंद्र पर ही क्यों कहा जाता है ब्रह्म या आत्मा को, परिधि पर क्यों नहीं कहा जाता?

समझ रहे हैं बात को?

आपके केंद्र पर है ब्रह्म। और आपका जो बाकी समूचा अस्तित्व है, वो उस केंद्र से संचालित होते हुए भी उस केंद्र से ज़रा पृथक है, अलग है। केंद्र है, और परिधि है; परिधि केंद्र के चारों ओर तो है लेकिन केंद्र से फिर भी उसने क्या बना रखी है? दूरी। कभी देखा है कि परिधि केंद्र को छू ही जाए या परिधि केंद्र में समा ही जाए, ऐसा होता है क्या?

श्रोतागण: नहीं।

आचार्य: तो हम ऐसे हैं। केंद्र पर हम आत्मा हैं और परिधि पर प्रकृति हैं। केंद्र पर क्या हैं? आत्मा। परिधि पर क्या हैं? प्रकृति। केंद्र पर तो शुद्धता है, लेकिन परिधि पर लगातार संसार से अशुद्धता का व्यवहार है।

तो ये जो जीवात्मा है, ये जो व्यक्ति है, इसको अगर ब्रह्म को जानना है तो ऋषि कह रहे हैं, “तुझे अपने अंतस पर जाना पड़ेगा।” अब वो अंतस कहने भर को ही अपना है, क्योंकि हम जीते कहाँ हैं? जीते तो हम परिधि पर हैं न? तो अंतस पर जाना हमारे लिए करीब-करीब ऐसा ही है जैसे एक बिलकुल किसी दूसरी दुनिया में जाना हो; वो यात्रा हमारे लिए बहुत लम्बी है।

शब्दों से धोखा मत खा जाइएगा, कि, “अपने अंतस पर ही तो जाना है। हमें बताया गया कि ब्रह्म हमारे अंतस में बैठा है, खट-से अपने अंतस में पहुँच जाएँगे”, नहीं, हम अपने अंतस से बहुत दूर हो गए हैं। जैसे पृथ्वी सूर्य का निरंतर चक्कर काटती हो फिर भी उससे बहुत दूर हो; प्रकाश सूर्य से ही पाती है, ऊर्जा सूर्य से ही पाती है, लेकिन सूर्य से उसके मिलन की संभावना बड़ी क्षीण है। जैसे कि मिलन पृथ्वी के लिए आत्मघाती हो जाएगा, और होगा ही; सूरज और पृथ्वी मिलेंगे, तो एक ही बचेगा। हाँ, पृथ्वी दूरी बनाकर सूरज से, लगातार सूर्य की परिक्रमा कर सकती है; सूर्य द्वारा ही पोषित, सूर्य द्वारा ही संचालित, लेकिन सूर्य से ही दूर।

आ रही है बात समझ में?

तो ब्रह्मवेत्ता वो है जो अपनी परिधि को छोड़कर के अपने केंद्र पर जाने को तैयार हो गया है। यहीं पर धोखा होता है। हमसे जब कहा जाता है कि, “अपने ह्रदय पर जाओ, अपने केंद्र पर जाओ, वहाँ तुमको सत्य मिलेगा, परमात्मा मिलेगा, ब्रह्म मिलेगा।“ हमको लगता है, “ये तो बढ़िया बात है, दूर कहीं जाना नहीं है। कहाँ जाना है? अपने ही केंद्र पर जाना है।“ उसमें जो बात कही नहीं गयी है वो भी तो सुनो। जो बात कही नहीं गयी है वो ये है कि केंद्र पर जाने के लिए परिधि को छोड़ना पड़ता है; परिधि लिए-लिए केंद्र तक नहीं पहुँच पाओगे।

पर अगर सीधे-सीधे ये बता दिया जाए कि साहब सत्य मिलता है जीवन की परिधि का परित्याग करके, तो हम डर जाएँगे, आगे की बात हम सुनेंगे ही नहीं, क्योंकि बात किस भाषा में कर दी गयी? त्याग की भाषा में, कि, “सत्य मिलेगा जब ये जो तुम सतही जीवन जी रहे हो, ये जो तुम जीवन की परिधि पर, सतह पर जी रहे हो, इसको छोड़ दो, तो सच्चाई मिल जाएगी”, तो ये बात हमें बहुत स्वीकार नहीं होगी।

तो हमसे कहा जाता है कि सत्य मिलता है जीवन के केंद्र पर जाकर के। लगता है, “ये ठीक है, ये वैसा ही तो है जैसे लोग पर्यटन करने निकल जाते हैं, कहीं जा रहे हैं।“ तुम कहीं पर्यटन करने जाते हो तो अपना घर छोड़ थोड़े ही देते हो। लेकिन इसमें जो छुपी हुई बात है वो ये है कि केंद्र पर जाना है तो परिधि को छोड़कर ही जा सकते हो, पर्यटन जैसी बात नहीं है, कि केंद्र पर जाओगे और घूम-फिर कर वापस आ जाओगे, यहाँ तो जो गया, सो गया; जो एक बार केंद्र तक पहुँच गया वो फिर वापस नहीं आता। क्यों भाई? जहाँ फिर आना और जाना नहीं। हम सोचते हैं, “नहीं, अगर जाना है तो फिर वापस भी तो आना है।“ वहाँ अगर गए तो वापस नहीं आते, और जो वापस आने के लिए जाते हैं, वो पहुँच नहीं पाते।

तो जो ना पहुँच पा रहे हों वो समझ लें कि क्यों नहीं पहुँच पा रहे। क्यों नहीं पहुँच पा रहे? वो वापस आने का कुछ प्रबंध करके जा रहे हैं। कहीं-न-कहीं ये उन्होंने तैयारी करी हुई है, कुछ सुरक्षा लगाई हुई है, कि थोड़ा जाएँगे, घूमेंगे, फिर जब मन भर जाएगा तो, "लौटने का रास्ता भी खुला रखना भाई, लौट भी सकते हैं।" जिसने वापस लौटने का रास्ता खुला रखा वो मंज़िल तक नहीं पहुँचेगा; अध्यात्म वो खेल है।

आगे अगर बढ़ रहे हो, नदियाँ पार कर रहे हो तो पीछे के पुलों को जलाते चलो, पुल अगर अभी खुला हुआ है तो वापस लौटने की पूरी संभावना है। वापस नहीं लौटना तो पुल का बस एक बार इस्तेमाल करना है, क्या करने को? उस पार जाने को। उस पार जाओ और प्रसन्न मत हो जाओ कि इस पार आ गए, अभी आ नहीं गए हो, अभी तो खतरा बना हुआ है पीछे; खतरे का नाम है 'पुल', उसको जलाओ।

जब तक पुल रहेगा, तब तक तुम सुरक्षित नहीं हो; पुल वापस खींचता है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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