प्रश्नकर्ता: जो प्रॉस्टिट्यूशन होता है, वेश्यावृत्ति, तो उसमें स्वीकृति है अगर तो उसमें दिक्कत क्या है? क्योंकि बहुत सारे देशों में इसी तरीके से..।
आचार्य प्रशांत: आप कह रहे हो कि अगर कोई स्वेच्छा से वेश्यावृत्ति में उतर रहा है तो इसमें क्या तकलीफ़ है?
प्र: जी।
आचार्य: कह रहे हैं कि अगर कोई स्वेच्छा से ही वेश्यावृत्ति कर रहा है तो इसमें तकलीफ़ क्या है। तकलीफ़ मुझे नहीं है, तकलीफ़ जो कर रहा है उसे है। मैं आपत्ति दर्ज कराने नहीं जा रहा, मैं सिर्फ़ बता रहा हूँ कि जो ऐसा कर रहा है वो तकलीफ़ में जी रहा है।
पूछने वाले थोड़ा ज़्यादा उदारवादी हैं, लिबरल मन के हैं। वो कह रहे हैं कि भई किसी महिला की देह है, अगर वो अपनी स्वेच्छा से वेश्यावृत्ति कर रही है तो आपको इसमें क्या समस्या है। है न, ऐसे ही पूछा जाता है न? कूल लगता है ऐसे पूछना - 'माइंड योर ओन बिज़नेस , आपको क्या समस्या है? उसका शरीर, उसके अधिकार, उसका फ़ैसला।‘
मुझे कोई समस्या नहीं है, समस्या उसको है; मुझे सहानुभूति है। मुझे समस्या नहीं है, मुझे संवेदना है; और सहानुभूति रखने से तुम मुझे नहीं रोक सकते।
ठीक है न इतनी बात, न्यायसंगत? या कुछ ग़लत बोल दिया?
मनुष्य एक वर्किंग ऐनिमल है। क्या है? वर्किंग ऐनिमल है। कोई भी दुनिया का अन्य पशु-पक्षी या जीव नहीं है जो काम करता हो। हम काम करते हैं इसलिए कर्म का मुद्दा इतना प्रधान होता है।
कोई आपको मिलेगा नहीं दुनिया में जानवर जो काम करता है। वो जो कुछ करते भी हैं — मान लो घास चर रहे हैं, शिकार कर रहे हैं, पेड़ पर कूद रहे हैं, कुछ भी कर रहे हैं — वो भगवद्गीता, श्रीकृष्ण की भाषा में अकर्म कहलाता है; अकर्म इसलिए क्योंकि उसमें उनकी चेतना का कोई योगदान नहीं होता, उनको वो करना-ही-करना है। गाय को घास चरनी-ही-चरनी है, गाय ने कोई चैतन्य निर्णय नहीं लिया है कि वो घास चरेगी, उसे घास चरनी-ही-चरनी होती है।
जहाँ पर आप शारीरिक तौर पर ही इतने कंडीशंड और संस्कारित हों कि कुछ करने के लिए आपको निर्णय न लेना पड़े, वो कर्म स्वतः हो जाए, तो उसे कर्म नहीं अकर्म कहते हैं, कि हो तो रहा है पर आपने करा नहीं। जैसे कि आप साँस लेते हैं, साँस लेने को आप अपना कर्म नहीं कह सकते; वो हो रहा है बस, आपने करा नहीं। आप कहेंगे कि साँस लेना मैं कई बार रोक भी सकता हूँ। चलो ठीक है, तो दिल का धड़कना या खाने का पचना - ये अकर्म है। कुछ हद तक जैसे पलकों का झपकना, शारीरिक क्रियाएँ हैं न?
पशु पूरी तरह ही शारीरिक होता है, वो पूरा ही अकर्म करता है। मनुष्य अकेला है जो कर्म करता है, और मनुष्य के जीवन का केंद्र है उसका कर्म। आप क्या कर रहे हो - यही आपकी परिभाषा है। किसी के बारे में और कुछ मत पूछो, बस यही पूछो कि वो क्या कर रहा है। आप जो कर रहे हो, वही आप हो।
अब, मनुष्य के लिए कर्म इतना केंद्रीय, इतना प्रधान क्यों है? क्योंकि मनुष्य अकेला है जिसकी चेतना में छटपटाहट है। पशु की चेतना बँधी हुई ज़रूर है, पर छटपटाती नहीं। पशु की चेतना एक ऐसे कैदी की तरह है जो कैद में ही मस्त है, नशे में; कैद में तो है, पर कैद के साथ-साथ नशे में भी है, तो वो कैद में ही मस्त है।
आपको कोई पशु नहीं मिलेगा जिसकी आँखों में एक गहरी अस्तित्वगत, एग्ज़िस्टेन्शिअल पीड़ा हो; नहीं मिलेगा। कोई पशु नहीं मिलेगा जो इस कारण आत्महत्या करने को तैयार हो कि वो जीवन का अर्थ नहीं जान पा रहा; नहीं मिलेगा। कोई पशु दिन-रात भी इधर-उधर भागता हो, तो इसलिए नहीं भागता कि उसको मुक्ति चाहिए; वो इसलिए भागता है कि उसको शिकार करना है, या बंदर है तो उसको फल चाहिए, या कि बस भागना उसकी प्रकृति है। वो एक जगह टिककर नहीं बैठ सकता, उसकी प्राकृतिक संरचना ही ऐसी है कि इधर-उधर उसको भागते रहना है।
तो हम जो कुछ करते हैं, वो बात कोई हल्का निर्णय नहीं होती। आप जीवन में क्या काम कर रहे हो, वो कोई छोटी बात नहीं होती, वो आपके जीवन का सबसे अहम मुद्दा होती है कि आप क्या काम कर रहे हो। और आपका काम वो होना चाहिए जो आपके मूल बंधन से आपको आज़ादी दिला दे।
हम परेशान लोग हैं, बच्चा पैदा होते ही परेशान होता है। मनुष्य का बच्चा पैदा होते ही जैसी गतिविधि करता है, दूसरे जीवों के बच्चे वो नहीं करते। यहाँ तक कि जो मनुष्यों के सबसे निकट की प्रजातियाँ हैं, बंदर-लंगूर इत्यादि, उनके बच्चे भी पैदा होते ही वो व्यवहार नहीं करते जो मनुष्य का बच्चा करता है।
आप एक मनुष्य में जितनी पीड़ा पा सकते हैं, उतनी आप किसी छटपटाकर मरते हुए पशु की आँखों में भी नहीं पाएँगे। जितना दर्द एक इंसान अनुभव कर सकता है, पशु नहीं कर पाता, क्योंकि मुक्ति मनुष्य को ही चाहिए, पशु को नहीं। जितना प्रेम हमारे पास है, उतना पशु के पास नहीं है, और जितनी पीड़ा हमारे पास है, उतनी पशु के पास नहीं है। प्रेम किसके लिए? जब पीड़ा है तो पीड़ा से मुक्ति के प्रति ही प्रेम है हममें।
तो जीवनभर हमें क्या करना होता है? हम काम करते हैं, हमने कहा मनुष्य एक वर्किंग ऐनिमल है। हमें काम करना है और उस कर्म का फिर उद्देश्य क्या होना चाहिए? कर्म का उद्देश्य होना चाहिए अपने बंधनों से मुक्ति।
बंधनों में जो सर्वोपरि बंधन होता है वो होता है देह का बंधन, और वही देह का बंधन पशुओं को सबसे ज़्यादा पकड़े रहता है। कोई भी पशु ऐसा नहीं है जो अपनी देह के आगे ज़रा भी कुछ सोच पाता हो; वो दिनभर क्या करता है? अपनी देह का ही खयाल रखता रहता है; उसे छाया मिल जाए, उसे घास मिल जाए, या नर है तो उसे मादा की देह मिल जाए। पशु दिनभर यही करता है न? तो देह बहुत बड़ा बंधन है। हमें कर्म इस तरह से चुनना पड़ता है जीवन में कि वो हमारे देह के बंधन को काटे, और अन्य भी मानसिक बंधन हैं, उनको काटे।
अब मुझे बताइए क्या होता है जब आप वेश्यावृत्ति को अपना व्यवसाय बना लेते हो? मुझे कोई नैतिक तल पर आपत्ति नहीं है वेश्यावृत्ति से, मैं संस्कारी लोगों में से नहीं हूँ जो बोलें, 'छि-छि, गंदा काम!’ ना! मैं इस तल पर वेश्यावृत्ति के प्रति आपत्ति नहीं रख रहा, आपत्ति के मेरे कारण दूसरे हैं; वो कारण आध्यात्मिक हैं, सामाजिक नहीं हैं, नैतिक नहीं हैं।
आप वेश्यावृत्ति चुन लेते हो, आप दिनभर क्या कर रहे हो, आप अपनी मुक्ति का प्रयत्न कर रहे हो? आप देह से और छूट रहे हो या देह में और बँध रहे हो? बोलो! बँध रहे हो, इसलिए वेश्यावृत्ति गलत है। जो ऐसा धंधा अपनाएगा वो बहुत दुख पाएगा, भले ही उस धंधे को कानूनी मान्यता भी प्राप्त हो। बहुत देशों में प्राप्त हो गई है, विचार चल रहा है कि भारत में भी इसको कानूनी स्वीकृति दे दी जाए। तो कानूनी तौर पर हो सकता है अनुमति भी हो जाए, लेकिन फिर भी जो लोग इस व्यवसाय में रहेंगे वो भीतर-ही-भीतर बहुत दुखी रहेंगे, उनके लिए अच्छा नहीं है।
फिर इसी बात को थोड़ा और आगे बढ़ाइए तो मात्र वेश्यावृत्ति ही नहीं, जितने भी ऐसे काम-धंधे हैं, जिनमें आप अपना कोई संसाधन बेचकर के मात्र पेट चलाते हो, वो भी वेश्यावृत्ति से बहुत हटकर नहीं हैं, वो भी वेश्यावृत्ति के समतुल्य ही हैं। उदाहरण के लिए बौद्धिक क्षमता।
भई, किसी का शरीर उसकी संपदा हो सकता है और किसी का मस्तिष्क उसकी संपदा हो सकता है, उसका आई.क्यू. बहुत अच्छा है, ये बात भी जन्म से कई बार तय हो जाती है। कई लोग पैदा होते हैं, उनका जो मस्तिष्क है वो होता ही ऐसा है कि ज़बरदस्त तरीके से चलता है। अब कोई महिला है जो अपना शरीर बेचती है और कोई पुरुष है जो अपना मस्तिष्क बेचकर के मोटी तनख़्वाह कमाता है, तो इन दोनों में बहुत अंतर नहीं है।
अगर हम थोड़ा चैतन्य होकर के सोचेंगे तो वेश्यावृत्ति का आरोप दोनों पर लगना चाहिए, उस पुरुष पर भी लगना चाहिए जो बस अपनी बुद्धि बेचता रहता है पैसे कमाने के लिए ताकि उन पैसों का शारीरिक भोग कर सके; शरीर बेचा, शरीर को ही आगे बढ़ाने के लिए। वो स्त्री भी क्या कर रही है? वो कहती है कि मैं शरीर बेचती हूँ ताकि शरीर में रोटी डाल सकूँ; शरीर बेचा, शरीर को आगे बढ़ाया। अब ये चक्र चल रहा है, इसमें चेतना कहाँ है, इसमें आज़ादी कहाँ है, इसमें जीवन का कोई लक्ष्य कहाँ है? बस शरीर बेचा, शरीर चलाया, शरीर बेचा, पेट भरा, शरीर बेचा, शरीर भरा।
यही काम किसी एम.एन.सी. में काम करनेवाला कोई बड़ा शार्प (तीक्ष्ण) मैनेजमेंट कंसल्टेंट (प्रबंधन सलाहकार) या आई.टी. प्रोफ़ेशनल भी कर सकता है। वो क्या करता है वहाँ पर? अपनी बुद्धि बेची — बुद्धि भी मस्तिष्क से आ रही है — बुद्धि बेची, पेट भरा, माने शरीर बेचा, शरीर भरा। वो भी वेश्या ही है, बस ये जो दूसरा व्यक्ति है इसकी वेश्यावृत्ति सूक्ष्म है, पता नहीं चलती, तो इसको हम सम्मान देने लग जाते हैं। जो महिला है, उसकी बहुत प्रकट है, तो उसका अपमान हो जाता है। लेकिन दुख में दोनों ही रहेंगे, क्योंकि कर्म हमारे जीवन को परिभाषित करता है।
आप क्या कर रहे हो, उसके अतिरिक्त आप कोई नहीं हो। आपके विचार कुछ हों, आपके सिद्धांत कुछ हों, आप अपनेआप को बहुत धार्मिक इत्यादि बोलते हों, कोई फ़र्क नहीं पड़ता; सवाल बस है कि करते क्या हो दिनभर। दिनभर ये करते हैं कि एक चिप्स बनाने वाली कंपनी है, उसमें मैनेजर (प्रबंधक) हैं। तनख़्वाह मिलती है महीने की पाँच लाख रुपया, और कुल मिला-जुलाकर किया क्या? आलू के चिप्स बेचे; और वेश्या तुम दूसरों को बोल रहे हो?
पाँच लाख तनख़्वाह लेकर आते हो, और कर क्या रहे हैं? आर्किटेक्ट हैं, आई.टी. फ़र्म में आर्किटेक्ट हैं। और जिसके लिए कोड लिखा जा रहा है पूरा, जिसके लिए पूरा आई.टी. सॉल्यूशन तैयार करा जा रहा है, वो क्लाइंट क्या करता है? वो क्लाइंट ऐनिमल फ़्लेश में ट्रेड करता है, या दुनिया के बड़े आर्म्स , वेपन्स सप्लायर में से एक है, या दुनिया की सबसे पॉल्यूटिंग इंडस्ट्रीज़ में से एक है। ‘लेकिन मुझे क्या, मुझे तो तनख़्वाह मिलती है, वो भी डॉलर में, तो मैं अपनी बुद्धि बेचकर के उसके लिए एक आई.टी. सॉल्यूशन तैयार कर देता हूँ।‘ ये जनाब भी वेश्या ही हैं।
जिसके पास जीवन में एक ही लक्ष्य है, कि शरीर का इस्तेमाल करो और शरीर को ही बस ज़िंदा रखते चलो या शरीर को ही सुख देते चलो, वो व्यक्ति वेश्या ही है। और वेश्या होना — फिर कह रहा हूँ — नैतिकता के तल पर अच्छी बात हो कि बुरी बात हो, कानूनी रूप से स्वीकृत हो कि अस्वीकृत हो, इससे मुझे कोई मतलब नहीं; मैं तो आध्यात्मिक तल पर बता रहा हूँ कि ऐसा व्यक्ति भीतर-ही-भीतर बहुत तड़पता है। सहानुभूति रखता हूँ, इसलिए समझा रहा हूँ।