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स्वतंत्रता का सही अर्थ

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

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स्वतंत्रता का सही अर्थ

* स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातंत्र्याल्लभते परं। *

स्वातंत्र्यान्निवृतिं गच्छेत्स्वातंत्र्यात् परमं पदम् ॥५०॥

आचार्य प्रशांत: स्वतंत्रता से ही सुख की प्राप्ति होती हैं। स्वतंत्रता से ही परम तत्व की उपलब्धि होती है। स्वतंत्रता से ही परम शांति की प्राप्ति होती है। स्वतंत्रता से ही परम पद मिलता है।

प्रश्नकर्ता: किस स्वतंत्रता की बात की जा रही है और उसे कैसे समझें?

आचार्य: वही निरालंबित रहना। कुछ तो हो आपके पास ऐसा जो निरपेक्ष हो। जो किसी अन्य पर निर्भर ना हो। जिसका वजूद किसी दूसरी चीज का गुलाम ना हो। वो आपके पास है जहां इसमें आप निश्चित हो गए वहां वह सब मिल जाता है जो वर्णित है।

कुछ है आपके पास ऐसा जो कि किसी भी अन्य वस्तु, व्यक्ति, विचार, घटना, होनी-अनहोनी पर निर्भर ना करता हो। शरीर है आपके पास, शरीर आपका क्या निर्भर नहीं करता तमाम स्थितियों पर? अभी इस कमरे का तापमान 500 डिग्री सेल्सियस हो जाए, शरीर रहेगा? खुशी है आपके पास क्या आपके पास वह खुशी है जो किसी भी स्थिति, वस्तु, व्यक्ति, विचार पर निर्भर ना करती हो। क्या आपके पास वह धन है जो किसी घटना पर निर्भर ना करता हो। धन तो बहुत था, नवंबर के महीने में बहुतो का धन खत्म हो गया।

हमारे पास जो कुछ है वो परतंत्र हैं। परतंत्र का मतलब समझते हो उसका संचालक कोई ओर है। उस तंत्र का बटन दबाने वाला उस यंत्र को ऑपरेट करने वाला कोई ओर है। कुछ ऐसा नहीं है जो स्थिति निरपेक्ष हो। कुछ ऐसा नहीं है जो समय, आकाश, व्यक्ति, घटना इन सब से प्रभावित ना हो जाता हो।

अष्टावक्र कह रहे हैं जहां तुमने उसको पाया जो अपने आप में पूरा है जिसका कोई नाता-रिश्ता किसी दूसरे से नहीं जिसकी कोई डोर किसी दूसरे से बंधी नहीं हुई है। वहॉं तुमने सब कुछ पाया वहाँ तुम गए बस वह बचा वहाँ बस खेल पूरा हुआ। और साथ ही साथ यह भी कहते हैं खोया कब था? एक तरफ तो कहते हैं पाओ-पाओ और साथ ही साथ कहे जाते हैं खोया कब था। तो हमने क्या कहा कि पाना इसलिए आवश्यकता है ताकि जान जाओ कि खोया कभी था ही नहीं। ये बात बड़ी अद्भुत है। आज दोहराई जा रही हैं। यद्यपि कभी खोया नहीं, परंतु फिर भी पुनर्प्राप्ति आवश्यक है। ये दोनों बातें एक साथ हैं। क्योंकि पाके ही तुम यह जानोगे कि कभी खोया नहीं, क्योंकि अपनी दृष्टि में तो तुम खोए ही बैठे हो। होगा तुम्हारे पास जैसे जेब में ही हो कोई माल पर तुम्हारी नजर में तो तुमने खो ही दिया है। तुम कहते हो कहां है-कहां है इधर-उधर पगलाए घूमते हो। तो तुम खोजो और खोज के हंसो अरे मेरे ही पास था व्यर्थ खोजता रहा। खोज कर क्या कहोगे, यही तो कहोगे कि मूर्ख था, इधर-उधर खोजता था। मेरे ही पास था यहां, पर खोजा नहीं तो हंसने का एक मौका भी नहीं आएगा। पर कोई ये ना सोचें कि खोज के कोई नई चीज पा जाएगा।

खोज के मिलेगा वही जो है तुम्हारे पास ही। खोज के मानना हो तो खोज-खोज कर मान लो। और यूंही मानना हो तो यूं ही मान लो। बात तुम्हारे मानने की है, हाँ करनी है। कोई त्वरित हाँ कर देता है श्रद्धा में और कोई होता है ज्ञान मार्गी वो खोजता है खोजता है और खोज-खोज के जब थक जाता है, पसीने छूट जाते हैं बिल्कुल लहूलुहान हो जाता है लथपथ। तो कहता है, ठीक है खोजने से नहीं मिलता। अब वो तुम्हारे ऊपर है कि तुम्हें कौनसा मार्ग सुलभ है।

जिस क्षण जरा भी कुछ ऐसा तुम्हें स्पर्श कर जाए जो अपने आप में अकारण हो जो द्वैतात्मक ना हो, उस क्षण पाना कि कहीं नई जगह के द्वार खुले हैं। अकारण होना चाहिए, लेकिन यह नहीं कि कारण है जो तुम्हें पता नहीं है। इस कारण तुम मान रहे हो कि अकारण है। अक्सर तो यही होता है। किसी का मुंह उतरा हुआ हो, तुम पूछोगे क्यों उदास हो भाई वह कहेगा कुछ नहीं बेवजह। बेवजह थोड़ी उदास है, आज कामवाली बाई नहीं आई, वह बता नहीं सकता। यही वजह है उदासी की। तो इसलिए कह रहा है नहीं-नहीं अकारण हो रहा है सब। कोई खिला-खिला घूम रहा है चहक रहा है। क्या हो गया क्यों चहक रहे हो? कहेगा, नहीं कोई बात नहीं है। बात कैसे नहीं है। आज नए जूते डाले हैं। यह बात हो सकता है आपको स्वयं भी पता ना हो। हो सकता है आप छुपा रहे हो। पर इन सब छुद्र चीजों को अकारण तत्व् नहीं कहते। जब कोई वास्तविक अकारण घटना घटे तब् जानना कि आज कुछ हो गया।

प्र: सर, तो मन और उसमें आ गया ना बुद्धि के जानने में।

आचार्य: बुद्धि में आ नहीं गया, बुद्धि पगला जाएगी चक्करा जाएगी।

प्र: चक्करा गई लेकिन पता तो लगता ही है।

आचार्य: क्या पता लग गया? नहीं पता लगा तभी तो चकरा गई। पता लग जाता तो शांत ना हो जाती। नहीं पता लगा तभी तो चक्करा जाएगी गिर जाएगी कहेगी ये हो कैसे गया कोई कारण ही नहीं है। ओर वो ढूंढेगी कारण ढूंढेगी और वो ढूंढ-ढूंढ के मर जाएगी। ये ही तो चाहिए। जब सामान्य बुद्धि मर जाती है तब अतिबुद्धि उसकी लाश पर जन्म लेती है। इसीलिए प्रेम इतनी अद्भुत और इतनी दयनीय घटना है। अगर वास्तविक प्रेम है तो वह कारण होता है। आप जान भी नहीं पाओगे क्यों खिंच गये कहां पहुंच गए? यूं ही होता है पता भी नहीं चलता, क्यों हुआ है और कहां आ गए। यह कहां आ गए हम यूंही साथ चलते-चलते।

दो बातें, ये कहाॅं आ गए हम पता ही नहीं कहां पहुंच गए और क्यों यूंही साथ चलते-चलते, पर साथ चलना था। क्यों चलता था साथ, वो भी पता नहीं। पर हम अकारण को होने नहीं देते। हम कहते हैं अकारण है तो कुछ लोचा है। हम बार-बार पूछते हैं क्यों? ओर इससे ज्यादा नास्तिक शब्द भाषा में हो नहीं सकता- क्यों? क्योंकि क्यों का अर्थ ही है मैं कारण ढूंढ लूंगा और कारण का अर्थ ही हुआ अकारण से इनकार यानी सत्य से इनकार। सत्य से इनकार को ही तो नास्तिकता कहते हैं। पर हम बार-बार पूछते हैं,क्यों।

आप ज़रा-ज़रा सी बात में क्यों पूछते हैं। मान ही नहीं लेते हो कोई बात। कोई आए आपसे कह दे कि क्या बात है, आप कहते हैं क्यों यह मुझे प्रशंसा देकर गया। देखे जरा जेब से तो कुछ ना निकाल ले गया। अरे भाई कोई कभी-कबार यूं ही कह सकता है। मेरी तो आधी दाढ़ी सफेद हो गई इसी सवाल का जवाब देने में कि आप बोलते क्यों हो? जो सवाल है उसमें आधे सवाल घूम फिर के यही होते हैं कि आप बोलते क्यों हैं? आप इतनी बातें जो बोले ही जा रहे हैं, बोले ही जा रहे हैं दिन भर और कुछ करते ही नहीं। यही करते हैं, ये आप करते क्यों हैं? ओर जो बाकी आधे सवाल होते हैं, वो भी होते यही है पर उनकी वर्तनी उनका शिल्प कुछ ओर होता है। इधर उधर से पूछ वो भी यही रहे होते हैं कि यह मतलब पते की बात बताओ क्यों? इससे ज्यादा अश्लील प्रश्न नहीं हो सकता। जाकर आसमान से पूछना कभी, तू क्यों फैला हुआ है। जाकर नारियल के पेड़ से पूछना तू क्यों ऐसा खड़ा हुआ है?

भगवान करे नारियल गिरे, तुम्हारे सर पर। ऐसे सवाल का यही जवाब होना चाहिए। एक बढ़िया नारियल टाट पर टनाटन।

स्वतंत्रता का मतलब हुआ क्यों से मुक्ति। कारण नहीं है उसके पीछे वजह नहीं है उसके पीछे। क्यों मत पूछा करो बार-बार।

श्रद्धा का मतलब हुआ बेवजह मानना। वजह से माना तो फिर तो व्यापार किया। शिष्य वही जो क्यों से मुक्ति पा ले, जो पूछे ही नहीं कि अच्छा आप हमें जो कह रहे हो करने को क्यों कह रहे हो। जो अभी यह पूछे कि कारण क्या होगा, खेल क्या है? तो अभी वह शिष्य नहीं है। वह अष्टावक्र को सुन नहीं पाएगा।

प्र: भाव, अभाव और स्वभाव का क्या अर्थ है?

आचार्य: भाव और अभाव चलते रहते हैं। स्वभाव कहीं नहीं जाता। असल में ये अनुवाद बड़ी गड़बड़ कर देता है। संस्कृत आनी चाहिए। बहुत लोग भ्रमित हुए हैं अनुवाद के चक्करों में। बात कहने वाले ने कुछ ओर कही थी, समझाने वाले ने कुछ ओर ही लिख दिया उसका अर्थ।

प्र: उसकी भी तो मजबूरी रहती होगी कि जो मुश्किल शब्द है उसका क्या अर्थ निकालें।

आचार्य: सही कारण निकाला तुमने। कुछ भी हो रहा हो उसका कारण तो निकल ही जाता है। कारण निकलते ही जो हो रहा है वह वैध हो गया। वैध माने सत्य। इसलिए ध्यान थोड़ा सा कम है। स्पष्ट?

भाव-अभाव चलते रहते हैं। भाव-अभाव वास्तव में दोनों भाव ही हैं। जब भाव कहे कि है, तो है का भाव हुआ भाव ओर जब भाव कहे कि नहीं है तो नहीं है का भाव हुआ अभाव। भाव और अभाव दोनों मात्र भावनाएं ही हैं।

अष्टावक्र कह रहे हैं, भावनाएं आती-जाती रहती हैं भाव उड़ते गिरते रहते हैं, स्वभाव कहीं नहीं जाता। लहरें उठती-गिरती रहती है समुंद्र कहीं नहीं जाता। भाव-अभाव आते रहते हैं। कभी होता है, कभी नहीं होता है। कभी लगता है है, कभी लगता है नहीं है। दोनों ही स्थितियों में मात्र लग रहा है। आपको कुछ लगे, जो है सो है। आप कह दो कि है आपके लिए अच्छी बात है, आप कह दो नहीं है तो बस आपकी परेशानी है जो है सो है।

YouTube Link: https://youtu.be/Lnd0FXPJbbI

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