
प्रश्नकर्ता: सर, आपने सुपरस्टिशंस के ख़िलाफ़ बहुत अच्छा हल्ला बोला है। आई थिंक हमारी सोसाइटी को इसकी काफ़ी ज़्यादा ज़रूरत भी है। ऐण्ड मैं अपने सराउंडिंग्स में देखती हूँ कि कई लोग कई चीज़ें प्रैक्टिस करते हैं, बट उनको उसके पीछे का रीजन पता भी नहीं होता है।
तो मतलब, आप अगर ऐसे सराउंडिंग्स में हो और आपके पास वो तर्क नहीं है देने को। मतलब मैंने आपके कई पॉडकास्ट वग़ैरह भी सुने हैं, आपके प्रवचन भी सुने हैं। उसमें आप बहुत अच्छा तर्क दे पाते हो। तो उसके लिए रीडिंग तो करनी पड़ेगी, बट सुपरस्टिशंस को आसपास, वो जो फ्रीडम ऑफ़ चॉइस को करटेल कर देते हैं, ये सुपरस्टिशंस, स्पेशली फॉर वुमेन इन इंडियन सोसाइटी। तो आप कुछ कहना चाहेंगे उस पर?
आचार्य प्रशांत: देखिए, यूँ ही कुछ भी ना माना जाता है, ना करा जाता है। अगर हम इंसान हैं, कॉन्शियस बीइंग्स हैं, तो कॉन्शियसनेस का काम होता है जानना। इधर-उधर लुढ़क लेने का काम तो कोई पत्थर भी कर लेता है, ऐसे ही उड़ जाने का काम तो कोई टूटी पत्ती भी कर लेती है। इंसान अगर अपने आप को चेतन बोलता है, तो वह जानेगा न पहले।
आपको किसी बड़े तर्क की ज़रूरत ही नहीं है, सामने वाला कुछ कर रहा है और कहता है कि “यह इस वजह से कर रहा हूँ।” कोई सुपरस्टिशस काम कर रहा है और कह रहा है, “ऐसे कर रहा हूँ” और कह रहा है, “तुम भी करो।” तर्क आपको नहीं देना है, तर्क उसको देना है। आपको तो यह कहना है, “भाई, मुझे नहीं समझ में आया, तो मैं नहीं करूँगी।” आपको तर्क की ज़रूरत नहीं है। आपके लिए इतना कहना पर्याप्त है कि आई एम अ कॉन्शियस बीइंग, जो तभी कुछ करती है जब वह पहले समझ लेती है। तो मैं तो नहीं समझी हूँ कुछ तो मैं ऐसा नहीं करूँगी।
तुम कर रहे हो, तो तुम मुझे कन्विन्स करो, द ओनस ऑफ़ प्रूफ इज़ ऑन यू। तुम मुझे कन्विन्स करो कि तुम क्यों कर रहे हो। भाई, मैं तो कुछ भी नहीं कर रही न, जो कुछ भी नहीं कर रहा, वो क्या समझाएगा? मैं क्यों तर्क दूँ? तुम कुछ कर रहे हो। तुम सर पे उल्टी बाल्टी रख के चल रहे हो कि इससे दौलत आ जाएगी ज़िंदगी में। ठीक है? बाल्टी उल्टी करके सर पर रख लो और चलो, इससे ज़िंदगी में दौलत आ जाएगी, परंपरा है।
मैं तो बाल्टी उल्टी करके नहीं चल रही, तो मैं क्या समझाऊँ? तर्क देने का मेरा काम है ही नहीं, मेरी ज़िम्मेदारी है ही नहीं। तुम यह कर रहे हो, तो तुम समझाओगे। अगर तुम नहीं समझा सकते, तो फिर तुम्हें अपने आप को कॉन्शियस बोलने का कोई हक़ नहीं है। तुम उल्टी बाल्टी ही हो, औंधा खोपड़ा, है न?
तो आप क्यों परवाह कर रहे हो कि आपके पास तर्क नहीं होते? तर्क उनके पास होने चाहिए न जो ये सब कर रहे हैं।
फिर वो तर्क दें, फिर उन तर्कों का परीक्षण करा जा सकता है। उन तर्कों को तरह-तरह के लिटमस टेस्ट से गुज़ारा जा सकता है, कि आपका जो आर्गुमेंट है, वह कितना फैक्चुअल है, उसमें हाइपोथेसिस कितना है, उसमें सपोज़िशन कितना है। है न? फिर यह बातें उनके तर्क में हम खोजेंगे।
तो आप तो सेफ़ हो, भाई। मुझे नहीं समझ में आ रहा, कुछ तो मैं नहीं कर रही। तुम कर रहे हो, तो तुम मुझे कन्विन्स करो। और तुम जो कन्विन्स करोगे, फिर हम उसका टेस्ट करेंगे, तुमने जो आर्गुमेंट दिया।
प्रश्नकर्ता: रिबेल मान लिया जाता है न सर, आपने जो बोला, परंपरा का नाम दे दिया जाता है। हमारे बड़े-बूढ़े कर रहे हैं, ये इतने टाइम से तो गलत तो नहीं होगा।
आचार्य प्रशांत: नहीं, ये तर्क नहीं है। बड़े-बूढ़े तो अगर जो कर रहे थे वही सही था, तो हम आज भी वही कर रहे होते जो बड़े-बूढ़ों ने किया था। बड़े-बूढ़े टी‑शर्ट नहीं पहनते थे, बड़े-बूढ़े तो फोन भी नहीं यूज़ करते थे। बड़े-बूढ़ों के पास तो वैक्सीनस् भी नहीं थीं। बड़े-बूढ़ों की तो जो एवरेज लाइफ़ एक्सपेक्टेंसी थी, वो भी बहुत कम थी। बड़े-बूढ़ों के पास इतने सोर्सेस ऑफ़ एनर्जी भी नहीं थे। इतना नॉलेज भी नहीं था। सबसे बड़ी बात, बड़े-बूढ़ों के पास इतनी इकोनॉमिक प्रॉस्पैरिटी भी नहीं थी, और वे ज़्यादातर खेती करते थे।
तो अगर हमें वही सब कुछ करना है जो वो करते थे, तो हम खेती क्यों नहीं कर रहे? हम सॉफ़्टवेयर इंजीनियर क्यों बन रहे हैं? अगर हमें वही करना है जो वो कर रहे थे, तो आज हमारे पास इतना पैसा क्यों है? पहले तो इतना पैसा नहीं होता था, तो अपना सारा पैसा हमें छोड़ देना चाहिए। बड़े-बूढ़े तो इंटरनेशनल ट्रैवल भी नहीं करते थे, तो हम वीज़ा लगाकर इधर-उधर क्यों भागते रहते हैं?
तो यह कहना कि कोई काम बड़े-बूढ़ों ने करा, यह आर्गुमेंट देना, यह आर्गुमेंट तो अपने आप इनवैलिड है। सुप्रीमली इनवैलिड आर्गुमेंट है। सुप्रीमली। और अगर आप वही करना चाहते हो जो बिल्कुल बड़े-बूढ़े करते थे, तो सबसे बड़े-बूढ़े तो बंदर हैं। बड़े-बूढ़ों के भी, बड़े-बूढ़ों के भी, बड़े-बूढ़ों के भी पुरखे कौन हैं? बंदर हैं, तो फिर वही करो जो वो करते थे।
हम कॉन्शियस बीइंग्स हैं ऐण्ड वी आर ऑन अ प्रोग्रेसिव जर्नी ऑफ़ इवोल्यूशन। हमारी चेतना भी एक आरोह, एक उत्थान की यात्रा पर है। आरोहण की यात्रा पर है, चढ़ रही है, असेंड कर रही है। तो इसका मतलब है कि हमें अतीत से बेहतर होना है लगातार। हाँ, ऐसा होता है कई बार कि अतीत से आदमी गिर जाता है, लेकिन कुल मिलाकर के जब आप बिगर पिक्चर देखते हो, तो वह जो आर्क है, उसका स्लोप पॉज़िटिव ही है। माने कि हम ज्ञान के अर्थ में, आर्थिक स्थितियों में, तकनीकी तल पर, हम पहले से बेहतर ही होते जा रहे हैं।
तो यह कहना कि हमें वैसा ही होना है जैसा अतीत था, यह तो अपने साथ बड़ी नाइंसाफ़ी हो गई न। फिर खाओ भी वही सब जो अतीत में खाया जाता था। है न? फिर सब कुछ वैसे ही रखो। अतीत में तो कितनी सारी जो साइंटिफ़िक नॉलेज है, वो अवेलेबल ही नहीं थी। तो आप पता नहीं कैसी-कैसी बातों पर यकीन करते थे, आप फिर उन्हीं बातों पर आज भी यकीन करो। है न?
तो यह कोई आर्गुमेंट नहीं है कि अतीत में ऐसा होता था तो आज भी ऐसा होगा। विद ऑल ड्यू रिस्पेक्ट टू अवर एनसेस्टर्स। इट इज़ द नेचर ऑफ़ कॉन्शियसनेस टू इवॉल्व।
हम पैदा ही इसीलिए होते हैं कि हम और बेहतर बने।
अब मैं उसी में एक और आर्गुमेंट देता हूँ, “चाइल्ड इज़ द फ़ादर ऑफ़ मैन।” यह आपने सुना होगा। तो एक तरह से आपका एनसेस्टर तो वह भी हो गया, जो आप ही बीस साल पहले थी। तो बीस साल पहले तो आप बच्ची रही होंगी पाँच साल की, तो वह पाँच साल की बच्ची जो कुछ करती थी, वही आपको भी करना चाहिए। पर आप नहीं करोगे। क्यों? क्योंकि आप इवॉल्व कर रहे हो, आप बेहतर हो रहे हो, आप तरक़्क़ी कर रहे हो। है ना? आप एक आरोहण, असेंशन की यात्रा पर हो। माने,
अतीत से हमें हमेशा बेहतर होना है। यह थोड़ी कहना है कि जो अतीत में हो रहा था, हमें आज भी वही करना है।