Articles

सुनना ही समाधान है || आचार्य प्रशांत, गुरु नानकदेव पर (2014)

Acharya Prashant

28 min
278 reads
सुनना ही समाधान है || आचार्य प्रशांत, गुरु नानकदेव पर (2014)

सुणिऐ सिध पीर सुरि नाथ ।। सुणिऐ धरति धवल आकास ।। सुणिऐ दीप लोअ पाताल ।। सुणिऐ पोहि न सकै कालु ।। नानक भगता सदा विगासु ।। सुणिऐ दूख पाप का नासु ।।८।।

सुणिऐ ईसरु बरमा इंदु ।। सुणिऐ मुखि सालाहण मंदु ।। सुणिऐ जोग जुगति तनि भेद ।। सुणिऐ सासत सिम्रिति वेद ।। नानक भगता सदा विगासु ।। सुणिऐ दूख पाप का नासु ।।९।।

सुणिऐ सतु संतोखु गिआनु ।। सुणिऐ अठसठि का इसनानु ।। सुणिऐ पड़ि पड़ि पावहि मानु ।। सुणिऐ लागै सहजि धिआनु ।। नानक भगता सदा विगासु ।। सुणिऐ दुख पाप का नासु ।।१०।।

सुणिऐ सरा गुणा के गाह ।। सुणिऐ सेख पीर पातिशाह ।। सुणिऐ अंधे पावही राहु ।। सुणिऐ हाथ होवै असगाहु ।। नानक भगता सदा विगासु ।। सुणिऐ दुख पाप का नासु ।।११।।

~ जपजी साहिब (पौड़ी ८)

आचार्य प्रशांत: "सुणिऐ दुख पाप का नासु" — सुनना काफ़ी है। हज़ार प्रक्रियाएँ हो सकती हैं उस एक स्थिति को पाने की जिसे कभी मन की शान्ति कहते हैं, कभी परम की प्राप्ति कहते हैं, कभी बोध कहते हैं, कभी प्रेम कहते हैं, कभी आनन्द और कभी मुक्ति कहते हैं। वहाँ तक जाने की इंसान की सदा से इच्छा रही है।

हमारी सारी बेचैनी ही उसी स्थिति को प्राप्त कर लेने की है। जितनी गहरी बेचैनी, उतना ही ज़्यादा इंसान का प्रयास रहा है और प्रयास कर-करके हमने हज़ारों-सैंकड़ों विधियाँ बनायी हैं उसी को पा लेने की जिसको — दोहरा रहा हूँ — कभी हमने आनन्द कहा है, कभी मुक्ति कहा है, कभी प्रेम और कभी परम कहा है।

बहुत आकर्षक, बहुत चुनौतीपूर्ण लक्ष्य लगा है वो हमेशा मन को। वो आकर्षित करता रहा है, वो आशंकित करता रहा है लेकिन एक बात हमेशा रही है कि वो अपनी मौजूदगी का एहसास कराता रहा है। बेचैनी, चिन्ता, निराशा, कुंठा जितनी ज़्यादा रही है, उस स्थिति तक पहुँचने की हमारी कोशिश भी उतनी ज़्यादा रही है।

साधारण सी बात है, बीमारी जितनी गहरी होगी, इलाज का प्रयास भी उतना ही गहरा होगा। बीमारी गहराती जाती है, इलाज की कोशिशें बढ़ती जाती है। हर कोशिश से एक नयी विधि निकलती है, हर कोशिश से एक नयी प्रक्रिया, एक नया रास्ता निकलता है। कोई रास्ता व्यर्थ नहीं होता, हर रास्ते की अपनी सार्थकता अपनी जगह होती है। लेकिन ये ग़ौर करना ज़रूरी है कि वो रास्ता कहाँ से निकल रहा है।

एक उत्तेजित मन, एक बेचैन मन जब रास्ते खोजेगा तो वो रास्ते उत्तेजना के और बेचैनी के और अपूर्णता के ही होंगे। वो रास्ते हमारे बनाये रास्ते हैं, हम जैसे हैं हमारे रास्ते उनसे कुछ विशेष भिन्न नहीं हो सकते। आख़िरकार हमने ही तो खोजे हैं, विधियाँ हमने ही तो निर्धारित की हैं।

बहुत छोटी सी बात है कि सीमित मन से असीमित लक्ष्य तक जाने के रास्ते नहीं निकल सकते, हिंसात्मक मन से प्रेम को पाने के रास्ते नहीं निकल सकते, बेचैन मन से चैन तक जाने के रास्ते नहीं निकल सकते, अशान्त मन से शून्य तक, शान्ति तक जाने के रास्ते नहीं निकल सकते।

कोशिश हमारी रहेगी, पर वो रास्ते हमें कहीं ले नहीं जा पाएँगे। भ्रम दे सकते हैं कि कहीं ले जा रहे हैं, कि हम कहीं पहुँच रहे हैं लेकिन बहुत दूर तक नहीं ले जा पाते। हर रास्ते में हमारी मौजूदगी होती है। हमसे ही निकला है तो हम पूरी तरह मौजूद हैं उस रास्ते में।

इन सब रास्तों से हटकर एक रास्ता और होता है जिसमें हमारी मौजूदगी नहीं होती। वो रास्ता है श्रवण का रास्ता, सुनने का रास्ता। अगर आप वास्तव में सुन रहे हैं तो आप आप होकर नहीं सुन सकते। यदि आप मौजूद हैं तो सुनना हो ही नहीं सकता।

जो आख़िरी घटना है सुनने में वो पहले ही घट जाती है। हर साधना का जो लक्ष्य होता है, सुनने में वो पहले ही क़दम पर प्राप्त कर लिया जाता है। लक्ष्य होता है 'हम न रहें सुनने में', वो लक्ष्य पहला ही क़दम है क्योंकि अगर आप हैं तो सुनना शुरू ही नहीं हो सकता।

महावीर ने इसी कारण अपने साधकों को बड़ा प्यारा नाम दिया — श्रावक; सुनने वाले, जो सुन सकते हैं। और उन्होंने कहा कि सुनना काफ़ी है, तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत नहीं है, सुनना काफ़ी है, कोई और साधना चाहिए ही नहीं, बस सुनो और पूरे ध्यान से सुनो, हो जाएगा।

बड़ी-से-बड़ी साधना का जो फल होता है, जो इष्ट होता है वो मात्र सुनने से उपलब्ध हो जाएगा। बात इतनी सरल है कि अविश्वसनीय लगती है। क्या ये हो सकता है कि कुछ कर नहीं रहे, सिर्फ़ सुन रहे हैं और जो आख़िरी गन्तव्य हो सकता है वहाँ तक पहुँच गये? बिल्कुल ऐसा ही है, सुनना काफ़ी है।

जिस शान्ति की हमने बात की, जिस मौन की हमने बात करी, जिस लक्ष्य की बात करी, जहाँ आनन्द है, जहाँ प्रेम है वो आख़िरी समाधान है, वो समाधि है। और समाधि के भी जो चार चरण हैं वो शुरू श्रवण से ही होते हैं — श्रवण, मनन, निदिध्यासन, और समाधि। ये चारों अलग-अलग नहीं हैं, मैं कह रहा हूँ। श्रवण अगर पूरा-पूरा है तो ये सम्भव ही नहीं कि वो समाधि न बन जाए।

आप अगर गहराई से सुन रहे हैं तो आप तत्क्षण समाधिस्थ हैं। फिर समाधि भविष्य में घटने वाली घटना नहीं है, फिर समाधि है, अभी है। ये महत्ता है श्रवण की। श्रवण समाधि है। इसीलिए आज आपसे पहली बात मैंने कही कि सुनना काफ़ी है क्योंकि श्रवण ही समाधि है। कहने को चार चरण हैं कि श्रवण हो, फिर मनन हो, फिर निदिध्यासन हो और फिर समाधि लगती है। पर ये जुड़े हुए हैं।

पूर्ण श्रवण से मनन होगा ही होगा। कोई सम्भावना ही नहीं कि श्रवण हुआ और मन अछूता रह गया। जब बात मन में पहुँचेगी तो वो मन की आख़िरी गहराई तक जाए, ये होगा ही। इसके न होने की कोई सम्भावना ही नहीं है, वो हुआ निदिध्यासन। और जहाँ निदिध्यासन वहाँ समाधि। अब कहाँ अपूर्णता की गुंजाइश बचती है!

यदि जीवन में समाधान नहीं है, यदि मन समाधिस्थ नहीं हो पा रहा है, यदि वो चौथी घटना नहीं घट रही है — चौथे चरण वाली — तो चौथे की फ़िक्र मत कीजिएगा, समझ लीजिएगा कि ग़लती पहले ही क़दम पर हो रही है क्योंकि हम सुनना नहीं जानते। सुनना जानते होते तो आख़िरी घटना घट जाती।

आरम्भ यदि उचित हुआ होता तो अन्त तक पहुँच जाते। क्योंकि ये वो स्थान है जहाँ आरम्भ ही अन्त है। नानक दोहरा-दोहराकर हमें बता रहे हैं कि क्या है जो सुनने के फलस्वरूप मिल जाता है — दुख का नाश, पाप का नाश। वो कह रहे हैं तुम्हारे समस्त शास्त्रों का, वेदों का ज्ञान सुनने से ऊपर नहीं है या यूँ कह लो कि सुनने में ही समाया हुआ है। जो सुन सकता है उसे सब मिल गया, अब कुछ पाना शेष नहीं बचा।

हम थोड़ा ग़ौर करेंगे, मन के सन्दर्भ में कि सुनना है क्या। क्या है सुनना? आमतौर पर हम जिसे सुनना कहते हैं वो एक भौतिक, दैहिक घटना होती है कि कुछ तरंगें आयीं, कान के पर्दे पर पड़ीं और मस्तिष्क तक पहुँचीं। ये पूरी प्रक्रिया भौतिक है। इसको हम सुनने का नाम दे देते हैं। ये सुनना नहीं है।

अगर सुनना बस इतना ही होता कि कुछ यहाँ हिला और उसकी वजह से कुछ इशारे, कुछ सिग्नल एक दूसरी जगह तक, एक दूसरे यंत्र तक पहुँचे — अगर सुनना मात्र इसी का नाम होता, तो ये कैमरा भी सुन रहा होता। क्योंकि वही घटना इस कैमरे के साथ भी घट रही है। कुछ तरंगें हैं जो इसके रिसीवर पर पड़ रही हैं और फिर वहाँ से वो कैमरे तक पहुँच रही हैं। नहीं, इसका नाम सुनना नहीं हो सकता।

सुनने में शब्दों की बड़ी सतही भूमिका होती है और हमने सुनने को मात्र शब्दों तक ही सीमित रखा है। हम यहाँ बैठे हैं, मैं आपसे पूछूँ, आपने क्या सुना? तो हममें ‌से अधिकांश लोग वही सब बताएँगे जो मैंने कहा। नहीं, सुनना इसका नाम नहीं है कि आपने मेरे द्वारा कहे जा रहे शब्दों को पकड़ लिया। शब्दों को पकड़ लिया, ठीक किया, पर वो बात बड़ी सतही है।

सुनने का अर्थ है जुड़ जाना, शब्द जोड़ने की भूमिका तैयार करते हैं। शब्द इसलिए होते हैं कि वो माहौल तैयार हो सके, वो पृष्ठभूमि जिसमें जुड़ना घट सके, जुड़ना सम्भव हो सके। शब्द कुछ भी हो सकते हैं, शब्दों का कोई मोल नहीं है, जुड़ना ज़रूरी है, एक होना ज़रूरी है।

मैं आपसे ऊँची-से-ऊँची बात करूँ और आप बात तक ही अटक कर रह जाएँ और मुझसे जुड़ न पाएँ तो आपने कुछ नहीं सुना। और जब मैं कह रहा हूँ मुझसे जुड़ पाएँ तो मैं यहाँ बैठे व्यक्ति की बात नहीं कर रहा हूँ। इस व्यक्ति से जुड़ने का कोई मूल्य नहीं है। वो जुड़ना शब्दों के माध्यम से हो तो ठीक और बिना शब्द के हो जाए तो भी ठीक। और सन्तों ने और बुद्धों ने सदा से शब्द रहित जुड़ने को ही वरीयता दी है।

कहानी सुनी होगी आपने कि एक व्यक्ति बुद्ध के पास आता है और कहता है कि अपने कुछ सवालों के जवाब चाहिए‌। चेहरे पर बेचैनी साफ़ झलक रही है। सवालों की ऐसा लगता है पूरी फ़ेहरिस्त है उसके पास। बुद्ध उससे कहते हैं, ‘जितने सवाल तुम्हें पूछने हैं पूछ लेना, आज थोड़ी देर मेरे सामने बैठ जा, फिर जितने सवाल पूछने हैं पूछ लेना, शान्त होकर ध्यान से बैठ जा।‘

वो बैठ जाता है बुद्ध के सामने। घड़ी-दो-घड़ी चुपचाप मौन बैठा रहता है और बैठा ही रह जाता है। काफ़ी समय बीत जाता है, बुद्ध आँखें खोलते हैं और कहते हैं, ‘पूछ क्या पूछने आया था।‘ वो कहता है, ‘कोई सवाल बचा ही नहीं, हो गया समाधान।‘

ये जुड़ना है कि कोई शब्द कहा नहीं गया और काम हो गया। वो घटना वास्तविक सत्संग है कि जब कहने-सुनने की कोई ज़रूरत ही नहीं पड़ती। योग हो जाता है, जुड़ना हो जाता है।

ये क्या जुड़ाव है, ये क्या योग है? ये वास्तव में मन का मन के स्रोत से मिलन है। सुनना उसी प्रक्रिया का नाम है जिसमें मन स्रोत से जाकर के युक्त हो जाता है।

यदि उसमें शब्दों की आवश्यकता पड़ती है तो इसका अर्थ है शब्दों और विचारों के माध्यम से युक्त हो रहा है, हो सकता है ऐसा, बिल्कुल हो सकता है ऐसा। जो मन विचारों का ही आदी हो चुका हो उसे शान्ति में ले जाने के लिए भी विचारों का ही प्रयोग करना पड़ेगा। जो मन ऐसा हो चुका हो कि वो अब सिर्फ़ शब्द सुनता है, उसे निशब्द में ले जाने के लिए भी मुझे शब्द ही बोलने पड़ेंगे।

सुनना क्या घटना है, समझ रहे हो? सुनना वो घटना है जो मन को आत्मा की तरफ़ ले जाती है। उसी को मैं जुड़ना कह रहा हूँ, उसी को मैं योग कह रहा हूँ। और यदि सुनने के नाम पर बस इतना ही हो रहा है कि मन और-और शब्दों को इकट्ठा कर रहा है, मैं आपसे कहता जा रहा हूँ और आप मेरे शब्दों को इकट्ठा करते जा रहे हैं, तो मन आत्मा की तरफ़ नहीं बढ़ रहा, मन तो अपने ही स्थान पर घूम रहा है और और इकट्ठा कर रहा है, निर्भार नहीं हो रहा है।

स्रोत से जुड़ने का अर्थ ही है मन का निर्भार होना। मन निर्भार नहीं हो रहा, मन और इकट्ठा कर रहा है। वास्तविक सुनने में आपके कान में शब्द कुछ ऐसे पड़ता है कि मन में पहले से चल रहे शब्द शान्त हो जाएँ। शब्द ऐसे नहीं पड़ते कि मन में पहले ही पचास वाक्य, पचास विचार घूम रहे थे और सुनकर उसमें पाँच और जुड़ गये।

मन पर विचार, शब्द कुछ ऐसे पड़ते हैं कि जो पहले से चल रहा था वो विलीन हो गया। जो नया आया था वो तो ठहरा ही नहीं, उसने अपना काम भर किया और लुप्त हो गया। क्या काम किया उसने? जो पहले से चल रहा था उसको घोल दिया, उसको विलीन कर दिया।

तो अभी आपसे बात कर रहा हूँ, यदि मेरे द्वारा कहे जा रहे शब्दों को आपके मन में जो हमेशा से शब्द घूम रहे हैं — हर विचार शब्द है, विचार के लिए भाषा चाहिए होती है, विचार शब्द ही है — जो शब्द पहले से ही मौजूद हों और काट रहे हैं चक्कर, काट रहे हैं चक्कर, यदि वो हट सकें तब तो मेरे द्वारा कहे जा रहे शब्द सार्थक हुए अन्यथा निष्फल ही रह गये।

सुनने को, फिर कह रहा हूँ, इकट्ठा करने की प्रक्रिया मत मान लीजिएगा। वास्तविक सुनना ये नहीं है कि आपने शब्दों को संग्रह कर लिया, वास्तविक सुनना ये है कि जो चल भी रहा था वो हट गया, मैं समग्र के साथ जुड़ गया, तब सुना अन्यथा कुछ नहीं सुना।

प्रश्नकर्ता: श्रवण से सीधा समाधि तो समझ में आ रहा है पर मनन और निदिध्यासन की क्या ज़रूरत है?

आचार्य: मनन और निदिध्यासन की ज़रूरत इसलिए पड़ती है क्योंकि हमारा मन ऐसा नहीं है कि वो शब्द से सीधे निशब्द में प्रवेश कर जाए।

मैं कह रहा हूँ यदि श्रवण में गहराई हो, पूर्णता हो तो शब्द मात्र के आघात से समाधि घटित हो सकती है। देखिए, जब उपनिषद् ब्रह्म की बात करते हैं तो कहते हैं कि शब्दब्रह्म और पारब्रह्म। शब्दब्रह्म वो जो प्रवेश करता है शब्द के माध्यम से और पारब्रह्म वो जिसमें शब्द घुल जाता है और रह जाता है मात्र ब्रह्म। ये ताक़त है शब्द की कि वो सीधे आपको ब्रह्म में स्थापित कर सकता है।

सन्तों की सुनिए, शास्त्रों की सुनिए तो जिसे हम शब्द कहते हैं उसको वे शब्द मानते ही नहीं। हम जिस फ़िज़ूल चर्चा में दिन-रात लगे रहते हैं, हम जिन बातों को कहते हैं शब्द — कि मैंने कोई शब्द उच्चारित किया — उसको तो वे शब्द कहते ही नहीं।

एक कबीर के लिए — और कबीर भी शब्द का बड़ा प्रयोग करते हैं — तो एक कबीर के लिए, नानक के लिए शब्द सिर्फ़ वो है जो आपको निशब्द में ले जाए अन्यथा वो शब्द है ही नहीं। कबीर बार-बार कहते हैं कि गुरु ने शब्द का बाण चलाया। कौनसे शब्द का बाण चलाया, फ़िज़ूल शब्द का? तो वहाँ पर शब्द में और मौन में अन्तर ही नहीं है, शब्द ही मौन है।

उपनिषद् कहते हैं, "अस्तित्व से पहले मात्र शब्द था।" उसको ये न समझ लीजिएगा कि कोई ध्वनि थी, कोई तरंग थी। उस शब्द का अर्थ ही है मौन। तो श्रवण का, सुनने का मतलब ही ये हुआ कि आप मौन में चले गये। मैं अब क्या कह रहा हूँ कोई अन्तर ही नहीं पड़ता। महत्व तो बस इस बात का है कि आप मौन में पहुँचे कि नहीं पहुँचे। मैं आपसे ऐसी भाषा में भी यदि बात करूँ जो आप समझते नहीं, मैं कोई ऐसा संगीत आपको सुनाऊँ जिसके बोल आप जानते नहीं, लेकिन यदि इससे आप मौन में स्थापित हो जाएँ तो हो गया, और कुछ नहीं चाहिए। यही शब्द की महत्ता है।

मैं फिर से चेतावनी दे रहा हूँ, शब्द का अर्थ ज्ञान नहीं है। आप शब्द सुन रहे हैं, उसका प्रयोजन ये मत समझिएगा कि मैं आपको ज्ञान देना चाहता हूँ। अगर आप यहाँ बैठकर इन शब्दों से मात्र ज्ञान का संचय कर रहे हैं तो आप कुछ नहीं पा रहे। आप भूल कर रहे हैं।

पाँच दिन का हमारा साथ है, इस पाँच दिन के शिविर के बाद आप लौटेंगे और आप इतना सा भी ज्ञान लेकर न लौटें तो कोई हर्ज़ा नहीं हो गया। कोई पूछे आपसे, क्या सीखा और आप उत्तर ही न दे पाएँ कि क्या सीखा तो कोई नुक़सान नहीं हो गया। क्योंकि यहाँ पर सिखाने जैसा कुछ नहीं है।

फिर कह रहा हूँ — कहा इसलिए नहीं जा रहा है कि आपकी स्मृति में चला जाए और आप बता सकें कि मैंने ये सब सुना, ये सीखा, ये जाना। यदि कुछ कहा जा रहा है तो इस नाते कहा जा रहा है कि आप शान्त हो जाएँ। बस शान्त हो जाएँ, वही आख़िरी बात है, इसके अलावा किसी और चीज़ की कोई अहमियत नहीं है।

आपको कुछ याद न रहे, पर शान्ति का स्वाद आपको मिल जाए, मौन से आपका परिचय हो जाए तो काम हो गया। यही 'सुनना' है। 'सुनना' मात्र तब है जब मौन घट सके।

साधारण भाषा में हम जिसको कहते हैं सुनना, वो कुछ नहीं है वो फिर कोई यांत्रिक प्रक्रिया है। मैं आपसे कहता हूँ कि पानी दीजिए और आप पानी दे देते हैं, इसका अर्थ ये नहीं है कि आपने सुना कि मैंने क्या कहा। ये बात बड़ी अजीब लगेगी। मैंने कहा पानी दीजिए और आपने पानी दे दिया, तो आप कहेंगे निश्चित रूप से मैंने सुना कि आपने पानी माँगा तभी तो मैंने आपको पानी दिया। भूलिएगा नहीं कि ये काम एक रोबो भी कर सकता है।

आपके हाथों में स्मार्टफ़ोन हैं और उनमें ये तकनीक है कि आप उनसे बोलें कि ऐसा करो और वो कर दें। क्या वो सुन रहे हैं? आप जो चाहते थे वो हो गया, मैंने आपसे पानी माँगा, आपने पानी दे दिया और यदि आप पानी नहीं दे सकते थे तो आपने बता दिया कि पानी उपलब्ध नहीं है। पर ठीक यही काम एक मशीन भी कर सकती है।

मशीन जो कुछ कर सकती है वो सुनना नहीं है। सुनना एक जीवन्त बात है पूर्व निर्धारित प्रोग्रामिंग (पूर्व निर्देश) नहीं है। वो अभी घटने वाली घटना है, कोई तयशुदा बात नहीं है।

हमारे जो साधारण सम्बन्ध होते हैं, जो रोज़मर्रा की बातचीत होती है उसका सुनने से कोई दूर-दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। आप किसी से पाँच साल से, दस साल से बात कर रहे हों, हो सकता है आपने उसे एक बार भी न सुना हो, कभी भी न सुना हो। हो सकता है नहीं, ऐसा ही होता है।

आप जिनके साथ बीस-बीस, चालीस-चालीस साल से हैं आपने उन्हें कभी सुना ही नहीं। आप मुझसे पूछेंगे कैसे सुनें उन्हें, मैं कहूँगा सुना जा ही नहीं सकता क्योंकि व्यक्तियों को सुना नहीं जाता, सुना तो पूर्ण को जाता है। मैंने कहा सुनना मन का आत्मा से मिलन है।

जब तक आपको व्यक्ति दिखायी दे रहे हैं आपने पहले ही तय कर दिया कि कुछ सुनूँगा नहीं क्योंकि व्यक्ति का अर्थ है परिभाषाएँ तय हो चुकी हैं, सीमाएँ खींची जा चुकी हैं, धारणाएँ स्थापित की जा चुकी हैं, मन ने पक्का कर लिया है कि ऐसा-ऐसा है और इस पक्का करने की प्रक्रिया में मन ने अपनेआप को पक्का कर लिया है।

यदि मैं आपसे बात कर रहा हूँ और आप मेरे रिश्तेदार हैं तो मेरे मन ने दो-तीन बातें पक्की कर लीं। पहला, रिश्तों की क़ीमत है। दूसरा, आप देह हैं। तीसरा, आपसे मुझे अतीत को ध्यान में रखते हुए बात करनी है और भविष्य को भी। इसमें हम ये नहीं समझें कि धारणाएँ मैंने सिर्फ़ आपके बारे में बनायी, कि छवि मैंने बस आपके बारे में बनायी। जितनी धारणा मैं आपके बारे में बनाता हूँ ठीक उतनी ही धारणा मैं अपने बारे में बना रहा हूँ क्योंकि आप रिश्तेदार हैं तो किसके हैं? मेरे हैं। यदि मैं एक देह से बात कर रहा हूँ तो मैं क्या हूँ?

प्र: देह।

आचार्य: क्योंकि देह ही देह से बात कर सकती है। किसने ये सब कर लिया? मन ने कर लिया। मन ने ये दुनिया बैठा ली और इस दुनिया में अपना पक्का विश्वास बैठा लिया, मन स्वयं पक्का हो गया।

मन ने जैसे ही, ध्यान दीजिएगा, निर्धारित किया कि मैं फलाने व्यक्ति से बात कर रहा हूँ, मन ने अपनेआप को पुष्ट कर लिया। अहंकार सघन हो गया। और सुनना क्या है? अहंकार का विलीन होना। तो हमारी रोज़मर्रा की बातचीत में सुनने के ठीक विपरीत घटना घटती है। सुनने का अर्थ है — मन का शान्त होना, मन का हल्का होना, मन की परतों का हटना। लेकिन हम जो रोज़मर्रा की बातचीत करते हैं उसमें मन की परतें हट नहीं रही हैं बल्कि और चढ़ रही हैं। और उन परतों में मन का विश्वास और गहरा होता जा रहा है। अहंकार और बढ़ता जा रहा है।

जब पति पत्नी से बात करता है पति बनकर, तो उसका जो पतीत्व है और पत्नी का जो पत्नीत्व है क्या और बढ़ नहीं जाता? और उनके हर वार्तालाप के बाद वो और बढ़ता जाता है कि नहीं? क्योंकि आप पति बन कर ही तो बात करते हो और वो पत्नी हो करके ही तो सुनती है। अब सुनना कैसे हो सकता है, कहाँ सम्भव है कि पति पत्नी को सुन पाये? कोई पति पत्नी को कभी सुन ही नहीं सकता।

प्र: ऐसे तो कोई नहीं सुन सकता किसी को।

आचार्य: बिलकुल। व्यक्ति व्यक्ति को कभी नहीं सुन सकता। पर याद रखना व्यक्ति के लिए कभी दूसरा कोई व्यक्ति होता ही नहीं है, हमेशा एक सम्बन्ध होता है। जब तुम दूसरे को बिलकुल नहीं जानते तब भी एक सम्बन्ध तो बना ही देते हो; क्या? कि ये अनजाना है, अपरिचित है। कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे तुम्हारा मन सम्बन्धित ही न हो जाए। हम रिश्तों में ही जीते हैं। सुनना कभी होगा ही नहीं, बातचीत होगी और वो ऐसी बातचीत होगी कि वो सुनने को बस रोकेगी, बाधित करेगी, स्वयं ही दीवार बन जाएगी। इससे भला तो ये होता कि दोनों ही न ही बोलते, दोनों ही चुप रह जाते। कम-से-कम बीमारी और तो न गहराती।

तो आप पूछ सकते हैं कि फिर ये जो लोग मुझे चारों ओर दिखायी देते हैं, मैं इनको सुनूँ कैसे, क्योंकि मैं तो इन्हें व्यक्ति रूप में ही देखता हूँ तो ऐसा कैसे हो कि मैं उन्हें सुन सकूँ? उसके लिए आपको उन व्यक्तियों को थोड़ी देर के लिए छोड़ना होगा, अपनेआप को देखना होगा। आप जैसे हैं वैसे ही आपको व्यक्ति दिखायी देते हैं, वैसे ही आप उनसे सम्बन्ध स्थापित करते हैं।

तो ये सवाल मत पूछिए कि मैं उन व्यक्तियों को कैसे सुनूँ, वास्तव में कैसे सुनूँ? मैं एक पति हूँ और मैं सुनना चाहता हूँ पत्नी को, कैसे सुनूँ? हटाइए ये सवाल। मूल प्रश्न ये होना चाहिए कि मैं ये धारणा कैसे हटाऊँ अपने मन से कि मैं पति हूँ? जब तक आप पति हैं, वो पत्नी है, और पत्नी को सुना नहीं जा सकता।

जैसे-जैसे आप अन्तर्गमन करते जाएँगे वैसे-वैसे आपके लिए सम्भव होता जाएगा पूर्ण के साथ जुड़ना। जैसे-जैसे आप अपनी पहचानों से, अपनी धारणाओं से मुक्त होते जाएँगे वैसे-वैसे आप पाएँगे कि ऐसा कुछ पता चल रहा है जो पहले कभी पता ही नहीं चलता था। वही पत्नी बोल रही है और उन्हीं शब्दों को बोल रही है जिनको वो हमेशा से बोला करती थी, पर आज कुछ नया ही सुन लिया मैंने। नहीं, पत्नी नयी नहीं हो गयी, वो वही शब्द बोल रही है जिन्हें वो सदा से बोला करती थी, पर आज सुनना सम्भव हो पाया है और सुनना कहाँ सम्भव हो पाया है? आपके मन में। और कुछ नया दिखायी देगा, कुछ नया सुनायी देगा।

दो रास्ते हैं, आपके जो साधारण रिश्ते-नाते हैं वहाँ यदि आप सुनना चाहते हैं तो आपको शुरुआत करनी पड़ेगी अपनी शुद्धि से। मेरा मन शुद्ध हो तो मैं दूसरे को सुन सकूँ न, तो ये सम्भव हो न कि सम्बन्धों की दीवारें गिरें। ध्यान दीजिएगा, मैंने कहा सम्बन्धों की दीवारें, क्योंकि हमारे सम्बन्ध डोर की तरह नहीं होते कि जोड़ें।

आमतौर पर जब आप कहते हैं कि मैं किसी से सम्बन्धित हूँ तो मन में छवि कुछ ऐसी आती है कि आप उससे जुड़े हुए हैं। नहीं, सम्बन्ध हमारे डोर की तरह नहीं होते, सम्बन्ध हमारे दीवार की तरह होते हैं। सम्बन्धित होने का अर्थ ये होता है कि बीच में दीवार खड़ी है इसलिए मैं कह रहा हूँ कि सम्बन्धों की दीवारें गिरें।

एक बेटा अपनी माँ को कभी नहीं सुन सकता क्योंकि बीच में दीवार है और उस दीवार का क्या नाम है? इस तरफ़ से देखो तो दीवार का नाम है बेटा, और उस तरफ़ से देखो तो उसका नाम है माँ। जिस क्षण दीवार गिरती है उस क्षण योग हो जाता है। तब याद रखिएगा वो योग बेटे का माँ से नहीं होता, क्योंकि बेटा और माँ तो उसी दीवार के नाम हैं। वो दीवार गिरी नहीं कि बेटा बेटा नहीं रहा और माँ माँ नहीं रही। अब वो तो ना-कुछ का ना-कुछ में विलय है, जैसे आसमान आसमान से मिल गया हो और मात्र तभी मिलना हो सकता है।

बेटे का माँ से मिलना कभी नहीं हो सकता। सिर्फ़ एक खाली स्थान ही खाली स्थान में जाकर विलीन हो सकता है। तो यदि साधारण रिश्ते नातों में सुनना चाहते हों तो शुरुआत अन्तर्गमन से करें। बेटे कोशिश करें कि कम बेटे बनें, पति देखें कि पति के अलावा भी वो कुछ हैं, वास्तविक रूप में कुछ हैं।

जो पति अपनेआप को पति से बहुत आगे कुछ जान लेगा वो वास्तव में सुन पाएगा पर जिसे सुनेगा वो पत्नी नही होगी, बात मज़ेदार है। जब तक पत्नी है तब तक सुनेगा नही। ये तो तब है जब आप पर अनुकंपा हो और आपमें स्वेच्छा जगे कि मैं सुनना चाहता हूँ। पत्नी के शब्द ऐसे नहीं होंगे कि आपको मौन में प्रवेश करा दें, ये आपकी स्वेच्छा है कि मैं सुनना चाहता हूँ।

और दूसरा सुनना है गुरु को सुनना। वहाँ पर आपकी इच्छा का बड़ा महत्व नहीं है। गुरु है ही वही जिसके शब्द हों ऐसे जो आपको मौन में धकेल दें, आहिस्ता से, आपको पता भी न चले कि कब धीरे से आपको धकेल दिया। जैसे किसी ने लोरी सुनायी हो और बच्चा सो गया हो, बच्चे को पता भी नहीं चलता माँ ने कब सुला दिया।

दोनों ही विधियाँ ठीक हैं, और दोनों का ही होना आवश्यक भी है। आपकी स्वेच्छा का बड़ा महत्व है और सोने पर सुहागा हो जाए यदि ऐसा कोई मिल जाए जो आपकी उस स्वेच्छा में चार चाँद लगा दे। अपनी मर्ज़ी कि मैं सुनना भी चाहता था, इच्छा भी थी कि सुनूँ और ऐसे शब्द भी कहीं से मिल गये जो मुझे मौन में ले जा सकें। अब बनेगी बात। दोनों में से कुछ एक भी हो जाए तो बात बन जाती है, दोनों हो जाएँ तो फिर तो पूछिए ही मत।

प्र: पहले वाले में जो रिलेशनशिप की दीवार है वो तो टू साइडेड (दो तरफ़ा) दीवार है। मान लीजिए बेटा नहीं रहा, लेकिन माँ तो अभी भी है?

आचार्य: नहीं ऐसा हो नहीं सकता। पति नहीं, तो किसकी पत्नी?

प्र: लेकिन माँ आपनेआप को माँ ही मानेगी।

आचार्य: किसकी माँ? माँ इसीलिए अपनेआप को माँ मानती रहती है क्योंकि आप बेटा होने का अभिनय करते रहते हो। जिस क्षण आपने बेटा होने का पात्र बनना बन्द किया माँ के लिए बड़ा मुश्किल है अपनेआप को लगातार माँ मानते रहना।

आप घर जाएँ और आपकी पत्नी दरवाज़ा खोले और पूछे कि तुम कौन, तो कब तक उससे बोलोगे कि मैं तेरा पति। अब वो पत्नी ही नहीं रही तो तुम पति किसके हो?

प्र: सर, मौन में कैसे ले जाएँगे? गुरु का समझ में आ रहा है लेकिन माँ के शब्द कैसे मौन में ले जाएँगे?

आचार्य: वहाँ पर माँ के शब्दों की नहीं, मैंने कहा, वहाँ पर अन्तर्गमन की आवश्यकता है। सुनना हो पाएगा वहाँ, पर वहाँ पर शब्द से कुछ भी नहीं। वहाँ सुनना तभी हो पाएगा जब पहले आप उसको पाओगे जो बेटा नहीं है, कि बेटे और पति से बहुत आगे भी आप बहुत कुछ हो।

जब आप अपना वो रूप, अपनी वो पहचान, अपना वो सत्य खोज लोगे तो आप पाओगे कि माँ को ही नहीं, फिर आप सुन पा रहे हो, सबको सुन पा रहे हो। क्योंकि जो नहीं सुनता वो किसी को नहीं सुनता। सुनने का अर्थ है जानना, तो तुम वास्तव में जान पाओगे कि ये सब चल क्या रहा है।

प्र: ऐसे क्षण भी आते हैं जब माँ-बेटे बात करते हैं तो वो माँ-बेटे बनकर बात नहीं करते, तब ऐसी बात हो जाती है जो दोनों को समझ आ जाए, लेकिन जब वो क्षण चला जाता है और जब वे फिर से माँ-बेटे बन जाते हो तो क्या वो समझ रह जाती है?

आचार्य: नहीं, देखो जो वास्तविक है वो पूरी तरह कभी जा नहीं सकता। आप अभिनय कर सकते हो कि वो घटना कभी घटी ही नहीं थी, कि वो स्वाद कभी मिला ही नहीं था लेकिन वो रहेगा। और इसमें मैं चेतावनी दे रहा हूँ, उसके रहते हुए उसको नज़रअंदाज़ करोगे तो और दुख पाओगे।

जो आदमी जानते-बूझते बेवकूफ़ बनता है उसका कष्ट दोहरा होता है। जो कुछ नहीं जानता और इधर-उधर फिर रहा है, उसको भी चोट लगती है लेकिन जिसे जानते-बूझते गिरना पड़ रहा है उसका कष्ट तो दोहरा होता है।

प्र: किस तरह से?

आचार्य: करके देख लो, समझ जाओगे।

प्र२: क्या मौन में प्रश्न उठते हैं?

आचार्य: न, बिल्कुल नहीं। प्रश्न साधन हो सकते हैं मौन में जाने के। प्रश्न शब्द हैं, प्रश्न साधन हो सकते हैं।

प्र२: फिर तो संशय का भी कोई स्थान नहीं है।

आचार्य: संशय साधन है, हर प्रश्न एक संशय है, इसलिए साधन है। उसको यदि तुम होशियारी के साथ, समझ के साथ प्रयोग करो तो वो ले जाएगा तुमको मौन में। मौन का अर्थ ही है — समस्त प्रश्नों का न हो जाना। ये नहीं कि प्रश्नों के उत्तर मिल गये, प्रश्न रहे ही नहीं। जिस बेचैनी से प्रश्न उठते थे वो बेचैनी ही नहीं रही, तो अब प्रश्न क्या पूछें?

प्र: सर, आपने सुनने के विषय में कहा था कि एक बेचैन मन नहीं सुन सकता, शान्त मन ही सुन सकता है। तो यदि मन शान्त होगा तो उसके पास तो कोई प्रश्न ही नहीं बचेंगे। तो फिर गुरु शिष्य में संवाद ही कहाँ होगा?

आचार्य: अशान्ति का क्या अर्थ है? अशान्ति का अर्थ है कि मन में गति है, मन घूम रहा है इधर-उधर। मन के घूमने की दिशाएँ होती हैं। मन के घूमने की सार्थक दिशा वो होती है जिसमें वो स्रोत की तरफ़ जा रहा है और मन के घूमने की व्यर्थ दिशा वो होती है जिसमें वो बस पागलों की तरह घूम रहा है। दोनों ही स्थितियों में मन गति तो कर ही रहा है न, कि नहीं कर रहा है?

आप यहाँ से उठकर के जा सकते हैं और सीधे हॉल में प्रवेश कर सकते हैं (हॉल की ओर इशारा करते हुए)। आप चल रहे हो, गति कर रहे हो और नशे में धुत एक आदमी यहाँ पर उठता-गिरता, ठोकरें खाता चारों तरफ़ निरर्थक ही घूम सकता है। वो भी गति कर रहा है। गति तो हो ही रही है न, बेचैनी है। आपको भी बेचैनी है इसलिए इस दिशा में जा रहे हो, उसको भी बेचैनी है। पर आपकी ये बेचैनी अब शान्ति बनेगी, ये बेचैनी अब चैन बनेगी और उसकी बेचैनी मात्र बढ़ती जाएगी। शब्द वही सही जो इस बेचैनी को उधर (मौन की तरफ़) ले जाएँ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
Comments
Categories