स्त्री और शक्ति || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2020)

Acharya Prashant

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स्त्री और शक्ति || आचार्य प्रशांत, बातचीत (2020)

प्रश्नकर्ता: इस घाट पर, आचार्य जी, ये तीन मूर्तियाँ हैं, और इनको देख कर एक जिज्ञासा उठ रही है: जो देवी की मूर्ति है ये इतनी बड़ी है, और जब हम ऋषि की मूर्ति देखते हैं तो वो उनके सामने बड़ी छोटी मालूम होती है। देवी ऋषि से बड़ी हैं ये बात तो फिर भी एक बार को चलिए समझ में आ जाती है, अब जब इधर मुड़ेंगे तो देखेंगे कि देवी शिव जी की मूर्ति से भी तीन गुना बड़ी हैं। शिव जी तो देव-आदिदेव महादेव हैं, उनका कद तो सबसे ऊँचा है, देवी कैसे शिव से बड़ी हुईं?

आचार्य प्रशांत: तो इसमें तुम्हें अचरज क्या लग रहा है? एक मूर्ति का आकार बड़ा है, दो मूर्तियों का आकार छोटा है, इसमें अचरज क्यों लग रहा है, पहले इस पर गौर करो।

प्र: क्योंकि हमेशा से जब हम राम जी, लक्ष्मण जी, सीता जी और हनुमान जी वाली फोटो (तस्वीर) देखते हैं तो उसमें अपफ्रंट (अग्रिम) तो रामजी होते हैं, मेन (मुख्य), फिर सीता जी होती हैं, फिर लक्ष्मण जी होते हैं, फिर सेवक या उपासक।

आचार्य: क्यों! मध्य में तो सीता जी होती हैं कई बार।

प्र: जैसे शिव-पार्वती, तो ऐसा लगता है न कि जो देवियाँ हैं वो देवताओं से थोड़ा सेकंड हैं, पीछे हैं।

आचार्य: तुम्हें अचरज इसी धारणा के कारण लग रहा है न?

प्र: हाँ, अबनॉर्मल (असामान्य) है, ऐसा कहीं नहीं दिखता।

आचार्य: नहीं, अबनॉर्मल नहीं है। तुम्हारे मन में ये धारणा बैठ गई है कि भारतीय परंपरा में या मिथोलोजी में देवियों को, बल्कि महिलाओं को और स्त्रियों को नीचे का स्थान दिया गया है। तो उस धारणा की तुलना में, उस धारणा के कारण अब जब तुम यहाँ पर देख रहे हो कि देवी की प्रतिमा ऋषि की प्रतिमा से भी तिगुनी है, और यहाँ तक कि शिव की प्रतिमा से भी दोगुनी-तिगुनी है, तो तुमको ताज्जुब हो रहा है, वरना इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है।

हमारे भीतर हमारी शिक्षा ने और हमारी मीडिया ने और पुरानी रूढ़ियों ने भी, इन सबने मिल कर के भारत के बारे में, भारतीय धर्म के बारे में बड़ी विकृत धारणाएँ बैठा दी हैं। हमें कोई ताज्जुब नहीं होता अगर हमें दिखाई देता कि देवता की मूर्ति बहुत बड़ी है और उनके इर्द-गिर्द पाँच देवियाँ हैं और वो सभी देवियों की मूर्तियाँ छोटी-छोटी हैं, तो हमें कोई ताज्जुब नहीं होता।

प्र: और वो उनकी सेवा में रत हैं।

आचार्य: हाँ, और देवियाँ देवता की सेवा में रत हैं। ये सब देख कर हमें बिल्कुल भी अचरज नहीं होता। लेकिन अब हमें यहाँ देखने को मिल रहा है कि देवी विशाल आकार लिए हुए हैं; और आकार जो है, एक तरह से महत्व का सूचक है, यहाँ पर आकार जो है वो इम्पॉर्टेन्स (महत्व) के लिए प्रॉक्सी (प्रतिनिधि) है। तो हमें ये समझ नहीं आ रहा कि इतना महत्व देवी का कैसे हो सकता है। क्यों नहीं समझ में आ रहा? वही, क्योंकि मन में हमारे उल्टी बातें डाल दी गई हैं।

देखो भारत में—मैं भारतीय अध्यात्म की बात कर रहा हूँ—लिंग नहीं प्रधान रहा है। वास्तव में अध्यात्म जब भी सच्चा होगा— चाहे वो भारत से उठे, कहीं से भी उठे, किसी भी देश, किसी भी जगह, किसी भी काल से उठे— उसमें लिंग को बहुत महत्व दिया ही नहीं जा सकता। असली बात तो चेतना की है, तुम्हारी चेतना में ऊँचाई होनी चाहिए, दैवीयता होनी चाहिए; वो दैवीयता स्त्री में भी उतरनी चाहिए और पुरुष में भी उतरनी चाहिए, और दोनों को समान रूप से ज़रूरत है उस दैवीयता की।

भाई! रोती औरत भी है, रोता आदमी भी है न? कष्ट में स्त्री भी रहती है, पुरुष भी रहता है। तड़प किस जीव के मन में नहीं है? मनुष्य में महिला और पुरुष होते हैं, उनमें तड़प होती है, यहाँ तक कि जो बाकी सब जीव-जन्तु हैं, उनमें भी तड़प होती है। तो जब तड़प सबमें है, तो दैवीय चेतना भी सबको चाहिए न? और दैवीय चेतना से मेरा मतलब कोई मम्बो-जम्बो, झाड़-फूँक, जंतर-मंतर नहीं, दैवीय चेतना से मेरा मतलब है एक साफ़-सुथरी ऊँची चेतना, वो सबको चाहिए। चूँकि वो सबको चाहिए, इसलिए सब उसके अधिकारी हैं। हाँ, आप अपने उस अधिकार का इस्तेमाल करते हैं या नहीं करते हैं वो बिल्कुल अलग बात है एक। तो आदमी को, औरत को, सबको उस दैवीयता की ज़रूरत है।

तो कभी स्त्री उस दैवीयता को पाती है, कभी स्त्री में वो दैवीयता उतरती है, कभी पुरुष पाता है। अगर स्त्री में वो दैवीयता उतरती है तो तुम स्त्री को पूजोगे। अगर स्त्री का पूजन कर रहे हो तो उसके शरीर का थोड़े ही पूजन कर रहे हो! शरीर तो तुम्हारे पास भी है, शरीर को ही पूजना है तो अपने ही शरीर को पूज लो। तो जब आप देवी की आराधना कर रहे हो, या नमन कर रहे हो देवी को, तो वास्तव में देवी के भीतर जो दैवीयता है, जो चेतना की ऊँचाई है, आप उसको नमन कर रहे हो। इसी तरीके से जब आप पुरुष को नमन कर रहे हो, तो पुरुष के भीतर जो दैवीयता है, आप उसको नमन कर रहे हो, वरना पुरुष के शरीर में क्या ख़ास है? शरीर में तो किसी के कुछ ख़ास नहीं होता।

तो ये तो फिर तुम्हें बहुत प्रकट-सी, स्वाभाविक-सी बात लगनी चाहिए कि पूजा की अधिकारी, पूजने के काबिल स्त्री भी है, पुरुष भी है। कौन-सी स्त्री है? जिसने प्रण करके, संकल्प करके, कोशिश करके अपने मन को, अपने जीवन को साफ़-सुथरा बनाया है, अपने मन को जो हमारे सब जन्मगत दोष होते हैं उनसे आज़ाद किया है। ऐसी स्त्री बिल्कुल अधिकारी है कि उसके सामने सिर झुका दो, उससे सीखो; और ऐसा ही अगर कोई पुरुष है तो उससे भी सीखो, उसके सामने भी झुको। भाई! तुमको जानना है, सीखना है; जानने को, सीखने को तुमको महिला से मिलता है तो महिला से सीखोगे, पुरुष से मिलता है तो पुरुष से सीखोगे। ये इतनी साफ़-सुथरी, सीधी बात है, इसमें तुमको ताज्जुब कहाँ पर हो रहा था, मुझे तो ये नहीं समझ आ रहा।

यहाँ पर देवी को इस लायक माना गया है कि उनका महत्व बहुत-बहुत रहे, तो देखो देवी को बेशक, बेरोक-टोक इतना ऊँचा आकार दे दिया गया। कहीं पर महादेव को बहुत ऊँचा आकार दे दिया जाता है। शाक्त-समुदाय ही है जो सिर्फ़ शक्ति की उपासना करता है, उनके लिए सबसे ऊपर कौन हैं? शक्ति। और फिर उन्हीं से संबंधित शैव-समुदाय है जो शिव की उपासना करते हैं, उनके लिए सबसे ऊपर कौन हैं? शिव हैं। अब बात वास्तव में शिव और शक्ति के माध्यम से तुम्हारी चेतना की है; जहाँ कहीं से तुम्हारी चेतना को उठने का ज़रिया मिले, रास्ता मिले, तुम वो रास्ता पकड़ लो, बात ख़त्म।

तो जो इन मूर्तियों का आकार है, ये सूचक है इनकी चेतना की ऊँचाई का। और फिर ऋषि ऋषि इसीलिए हैं क्योंकि उनको सही जगह पर प्रणाम करना आता है। देखो ऋषि को (ऋषि की मूर्ति को बताते हुए), वो माता के सामने, देवी के सामने बिल्कुल अभी कैसे नमित हैं।

प्र: ऋषि थोड़ा डाइग्रेशन (विषयांतर) हैं, उनके सामने शिव जी भी हैं, लेकिन वो उनको इग्नोर (नज़र-अंदाज़) कर रहे हैं।

आचार्य: नहीं, इग्नोर नहीं कर रहे हैं, शिव को इग्नोर नहीं कर रहे हैं। शिव का ही शिवत्व अभी उनको देवी में दिखाई दे रहा है, और वो उसी को प्रणाम कर रहे हैं।

तो जब वो शक्ति को या देवी को या गंगा को भी प्रणाम कर रहे हैं, तो वास्तव में वो शिवत्व को ही प्रणाम कर रहे हैं; और शिवत्व का कोई लिंग नहीं होता। तो ऐसा नहीं है कि उनके सामने विकल्प है कि शिव हैं और शक्ति हैं तो उन्होंने शक्ति को चुन लिया है, और अगर तुम्हारी भाषा में कहें तो शिव को इग्नोर कर दिया है; नहीं, शिव की उपेक्षा नहीं कर दी है। शिवत्व उनको इस समय दिख रहा है शक्ति में, तो इसलिए वो शक्ति के सामने नमित हैं।

प्र: जैसा हमें सीरियल (धारावाहिक) जो आते थे देवी-देवताओं के, उनमें दिखाते थे कि शिव जी को कभी क्रोध आ जाता है और वो कहते हैं, “हे ऋषि! मुझे नहीं पूज रहा?”

आचार्य: शिव कोई किसी कहानी के किरदार के पात्र थोड़े ही हैं, शिव कोई व्यक्ति या इकाई थोड़े ही हैं, जो कहीं कैलाश पर बैठ कर के योग कर रहे हैं या ध्यान कर रहे हैं। शिव को लेकर के आज इस तरह की बहुत कहानियाँ फैला दी गई हैं। शिव का अर्थ जानना है तो ऋभु-गीता के पास जाएँ, शिव-गीता के पास जाएँ, जो मौलिक-ग्रंथ हैं उनके पास जाएँ।

परम-ब्रह्म का ही दूसरा नाम शिव है।

प्र: वो सब क्या हैं फिर, नन्दी और प्रतीकें?

आचार्य: ये सब तो इंसान ने अपनी सहूलियत के लिए प्रतीक बना लिए हैं।

प्र: तो कोई व्यक्ति नहीं थे जो पहाड़ पर योग करते थे?

आचार्य: हर व्यक्ति में फिर व्यक्ति वाले गुण होंगे, व्यक्ति वाले विकार होंगे। व्यक्ति का मतलब ही है प्रकृति का उत्पाद। शिव प्रकृति से ऊपर हैं, वो प्रकृति का उत्पाद कैसे हो सकते हैं? हर व्यक्ति तो प्रकृति से आया है न, वो प्रकृति का निर्माण है; शिव प्रकृति के पितामह हैं, तो शिव व्यक्ति थोड़े ही हैं।

शिव को व्यक्ति बनाना तो नासमझों की एक तरह से मजबूरी होती है, कि वो समझ ही नहीं पाते कि कोई निर्गुण-निराकार कैसे हो सकता है, कि कोई प्रकृति के पार कैसे हो सकता है। तो फिर उनके हत्थे जो भी चढ़ता है उसको वो इंसान ही बना देते हैं, और उसको किसी जगह बैठा देते हैं; उसके बच्चे-वच्चे बना देंगे, उसका वाहन बना देंगे, उसकी पत्नी बना देंगे; उसको भी दिखा देंगे कि क्रोध में है, कभी रुष्ट है, कभी दुखी है, कभी प्रसन्न हो गया। ये सब तो हमारी कहानियाँ हैं।

शिवत्व का वास्तविक अर्थ होता है सत्य, शिवत्व का वास्तविक अर्थ है आत्मा; ब्रह्म का ही दूसरा नाम शिव है। “सत्यं-शिवं,” सत्य का ही दूसरा नाम शिव है।

प्र: आचार्य जी, इस पूरे सेनेरिओ (परिदृश्य) में अगर बहुत सुपरफिशियली (सतही) देखा जाए तो एविडेंटली (प्रकट-रूप से) ये दिख रहा है कि एक देवी हैं जो महिला हैं और दो पुरुष-लिंग हैं। पर जिस तरीके से आप विवेचना कर रहे हैं, आप समझा रहे हैं कि यहाँ पर दो पुरुष या एक महिला वाली कोई बात ही नहीं है, यहाँ पर ये जो आकार हैं ये चेतनाओं के आकार हैं।

आचार्य: ये चेतनाओं के आकार हैं, और मैं कह रहा हूँ कि महिला व्यक्ति भी, महिला का शरीर भी चेतना की ऊँचाई को पाने में उतना ही सक्षम है और उतना ही अधिकारी है जितना पुरुष का शरीर। तो इसमें तुम्हें कभी-भी कोई अचरज नहीं होना चाहिए अगर तुम किसी महिला को चेतना की ऊँचाइयों पर पाओ। क्योंकि समझो, अगर महिला दु:ख अनुभव कर सकती है तो वो भी दु:ख से मुक्ति की उतनी ही अधिकारी हुई जितना कि पुरुष।

भाई! मुक्ति किसको चाहिए? जो दु:ख में है, बंधन में है। बंधन में तो महिला भी है, तो माने मुक्ति उसके लिए भी है। वरना तो अजीब बात हो जाएगी, कि बंधन है पर मुक्ति नहीं। ऐसा तो नहीं हो सकता न?

प्र: तो जो लिंग-भेद था, जो यहाँ पर प्रकट था, उसको हमने नगण्य कर दिया।

आचार्य: वो लिंग-भेद देखो तुम्हारे दिमाग में उन लोगों के कारण आ रहा है जो अध्यात्म समझते ही नहीं। ऐसे ही लोगों ने ज़्यादातर हमारी पाठ्य-पुस्तकें लिखी हैं जो स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ाई जा रही हैं। ऐसे ही लोग इतिहास लिख रहे हैं, और ऐसे ही लोग, खेद की बात है कि अध्यात्म की विवेचना का भी अधिकार खुद को दे देते हैं। तो उनके कारण ये सब झूठी मान्यताएँ चलीं जाती हैं।

मैं नहीं कह रहा हूँ कि भारतीय समुदायों में स्त्रियों का शोषण वगैरह कभी नहीं हुआ, पर वो शोषण धर्म ने नहीं करवाया है, वो शोषण इंसान की जन्मगत-वृत्ति करवाती है उससे। हम ये भूल ही जाते हैं कि हम पैदा ही कितने दोष और कितने विकार के साथ होते हैं; हम पैदा ही एक शोषक के रूप में होते हैं। अध्यात्म का काम होता है हमारे भीतर वो जो पशु बैठा है, जो जन्म से ही बैठा है, उस पशु को सीधा करना, शांत करना, उसे मानव बनाना। लेकिन धर्म हमारे कितने काम आ सकता है वो इस पर निर्भर करता है कि हम धर्म के सामने समर्पण कितना करते हैं। अब आप धर्म की उपेक्षा करो, अनादर करो, और अपने भीतर के जानवर को प्रोत्साहित करते रहो, और फिर आप जब पूरी तरह जानवर हो जाओ तो कहो कि “देखो! धर्म किस काम का है?” इतना ही नहीं कहो कि धर्म किस काम का है, कह दो कि धर्म के कारण ही तो मैं जानवर बना हूँ। नहीं, तुम धर्म के कारण जानवर नहीं बने, तुम पैदा ही जानवर हुए थे; धर्म तो बचा सकता था अगर तुमने धर्म का पालन किया होता। लेकिन बिल्कुल उल्टी गंगा बहाई जा रही है।

यहाँ जो हो रहा है न, वो साधारण जो हमारा वेस्टर्न (पश्चिमी) या लिबरल थॉट (उदारवादी-विचार) है, उसकी समझ में नहीं आएगा। अभी देवी के चेहरे पर जो भाव है उसको देखो, क्या ये प्रसन्नता का भाव है? नहीं, ये प्रसन्नता का भाव नहीं है। क्या ये दु:ख का भाव है? नहीं, ये दु:ख का भाव नहीं है। क्या वो कंटेंप्लेटिव (मननशील) हैं? नहीं, वो कंटेंप्लेटिव भी नहीं हैं। क्या वो जगत के प्रति इस वक्त उपेक्षा-भाव में हैं, उदासीन हैं? नहीं, ऐसा भी नहीं है। तो ये चीज़ अलग है।

पश्चिमी-विचार से प्रभावित लोग भारतीय-दर्शन और भारतीय-अध्यात्म को भी पश्चिम की दृष्टि से पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं; और उनसे पढ़ा जा नहीं रहा है, फिर भी उनमें अहंकार इतना है कि वो दावा कर रहे हैं कि उन्होंने पढ़ भी लिया और दूसरों को पढ़ाए भी दे रहे हैं। जिन्होंने खुद नहीं पढ़ा, जिन्हें खुद नहीं बात समझ में आ रही, वो किताबें भी लिख रहे हैं और दूसरों को भी पढ़ा रहे हैं; और सबको भ्रमित कर रहे हैं फिर।

दो तरह के लोगों ने अध्यात्म का बहुत नुकसान किया है: एक वो जिन्होंने अध्यात्म का विरोध किया है ये कह कर कि अध्यात्म अंधविश्वास है; इसमें बहुत सारे लिबरल्स (उदारवादी) आ जाते हैं। और दूसरे वो जो अध्यात्म का समर्थन करते हैं, अध्यात्म को अंधविश्वास ही बना कर के; इसमें ज़्यादातर धार्मिक लोग, गुरु और महागुरु, और इस तरह के लोग आ जाते हैं। ये कहने को तो अध्यात्म के पक्ष के होते हैं, ये कहने को तो ये दिखाते हैं कि हम धर्म के पक्षधर हैं, पर इनसे ज़्यादा धर्म का नुकसान कोई नहीं करता, क्योंकि ये धर्म को बिल्कुल अंधविश्वास के तल पर उतार देते हैं।

प्र: ये बचाव भी करते हैं धर्म का, जहाँ भी अंधविश्वास की बात हो।

आचार्य: हाँ, जहाँ कहीं भी कोई अंधविश्वास की बात आएगी, ये तुरंत उसका समर्थन करना शुरू कर देंगे, ये कह कर कि ये तो धर्म की बात है।

तो अध्यात्म को दोनों तरफ़ से चोट पड़ी है। उन लोगों से भी जो कहते हैं कि “अध्यात्म माने बेवकूफ़ी की बातें, झूठी मान्यताएँ, *ब्लाइंड फेथ*।“ और उन लोगों से भी जो अपने-आप को तथाकथित रूप से आध्यात्मिक बोलते हैं और धार्मिक बोलते हैं और मिस्टिकल (रहस्यवादी) बोलते हैं, लेकिन हैं वो सिर्फ़ अंधविश्वासी लोग, जिनका काम है अंधविश्वास बेच कर किसी तरीके से अपना सिक्का चलाना।

प्र: आचार्य जी, अभी आपने कहा था कि ऋषि देवी को जब पूज रहे हैं तो वो देवी के अंदर के शिवत्व को पूज रहे हैं और शिवत्व का कोई लिंग नहीं होता। अगर आज के समय में मैं ये पा रहा हूँ कि जो शिव भगवान हैं इनको परसोनिफ़ाई (मानवीकरण) किया जा रहा है, इनको एक लिंग, इनको एक कैरेक्टर (चरित्र) दिया जा रहा है, इनके बाल-बच्चे, इनका परिवार, इनकी कहानी, “इन्होंने ये किया, यहाँ रहते थे,” ये सब हो रहा है। तो क्या ये असली लिंग-भेद नहीं है, कि जहाँ पर लिंग है नहीं, वहाँ ये सब लाया जा रहा है?

आचार्य: नहीं, वो लिंग-भेद कौन कर रहा है? वो लिंग-भेद आप कर रहे हो न, वो लिंग-भेद आपसे उपनिषद् तो नहीं करवा रहे। उपनिषद् तो आपको ये बता रहे हैं कि “लिंग अप्रासंगिक है, इर्रेलेवेंट है, आपकी असली पहचान आपकी आत्मा है, आपकी असली पहचान सत्य है।“ अध्यात्म में तो जेंडर (लिंग) इर्रेलेवेंट हो जाती है। लेकिन वही, जो हमारे भीतर की जन्मजात-वृत्तियाँ होती हैं, उन्हें तो शोषण करना है न? तो वो फिर शोषण करती हैं लिंग के नाम पर।

तो तुम ये मानो तो कि वो शोषण तुम्हारी वृत्ति से आ रहा है, अध्यात्म नहीं तुमसे शोषण करवा रहा है, अध्यात्म तो तुम्हें मुक्ति देने के लिए है। हाँ, तुम इतने ज़बरदस्त आदमी हो कि तुमने अध्यात्म का भी दुरुपयोग कर लिया है शोषण करने के लिए।

तो ये अध्यात्म का दुरुपयोग है, ये अध्यात्म ने नहीं किया; तुमने अध्यात्म का दुरुपयोग किया है। शोषण अध्यात्म नहीं सिखा रहा है, तुम शोषण करने के लिए अध्यात्म का दुरुपयोग कर रहे हो, जैसे कि तुम शोषण करने के लिए किसी भी चीज़ का दुरुपयोग कर लेते हो। और वो जो तुम्हारी शोषण करने की वृत्ति है उससे तुम्हें छुटकारा भी सिर्फ़ कौन दिला सकता है? अध्यात्म; अगर तुम उसका दुरुपयोग न करो बल्कि सदुपयोग करो।

प्र: तो जैसे हम खुद को एक लिंग जानते हैं, शरीर-भाव में स्थित होते हैं, वैसे ही हम देवी-देवताओं को भी आदमी-औरत की तरह देखने लग जाते हैं।

आचार्य: हमारे लिए ये सोच पाना ही बड़ा मुश्किल है कि कोई हो सकता है जिसका रूप, रंग, आकार, लिंग, कुछ नहीं है; ये बात विचार में आती ही नहीं, विचार से बाहर की है ये बात।

प्र: अगर आज के आध्यात्मिक गुरु इत्यादि शिव जी को एक आदमी बना कर पुरुष की तरह या एक स्टोरी (कहानी) के साथ प्रेजेंट (प्रदर्शित) कर रहे हैं तो ये कितना घातक है?

आचार्य: बहुत घातक है।

लेकिन इसमें मैं एक बात जोड़ूँगा, ये ऐसा नहीं है कि ये आज के आध्यात्मिक गुरुओं ने नया-नया शुरू किया है, ये सब पौराणिक कथाओं में भी बहुत है। लेकिन बात ये है कि केन्द्रीय-चीज़ जो है, जो केन्द्रीय-तत्व है, वो तो तुम्हें उपनिषदों में मिलेगा। उस केन्द्रीय-तत्व को अगर तुम समझ लो तो उसके बाद तुम पुराणों वगैरह को भी बेहतर समझ पाओगे। पर आपने उपनिषद् नहीं पढ़े हैं, आप केन्द्रीय जो दर्शन की बात है आप वही नहीं जान रहे हैं, और आप सोच रहे हैं कि धर्म का मतलब होता है इधर-उधर की कहानियाँ, तो फिर आप बहके-बहके ही रहेंगे।

मैं तुमसे एक बात पूछ रहा हूँ, ये जो अभी तुम्हारे सामने जो प्रतिमा है, ये तुमको ज़्यादा एम्पावर्ड (सशक्त) लग रही है या जो पश्चिम में प्रतिमा है एक एम्पावर्ड स्त्री की, जिसमें उसको ये अधिकार है कि वो कितने कम कपड़े पहनेगी, वो तुमको ज़्यादा बेहतर लग रही है? अगर एम्पॉवरमेंट (सशक्तिकरण) की ही बात है, तो यहाँ तुमको ज़्यादा एम्पावरमेंट दिख रहा है या जो लिबरल इमेज (उदारवादी छवि) है स्त्री की, वो तुम्हें ज़्यादा एम्पावर्ड लग रही है?

पावर (ताकत) माने जानते हो क्या होता है? शक्ति। भारत ने तो स्त्री को नाम ही शक्ति दिया है, *दी एम्पावर्ड वन*। और मज़ेदार बात ये है कि ये लिबरल्स आकर हमको बता रहे हैं कि ए्म्पावरमेंट कैसे करना है स्त्रियों का! आज की जो सबसे ज़्यादा एम्पावर्ड महिलाएँ भी हैं न, जो अपने-आप को बहुत ज़्यादा शौक से कहती हैं कि हम तो लिबरेटेड (मुक्त) हैं, वो क्या हैं? वो इस प्रतिमा के पैरों की धूल जितनी भी नहीं हैं *एम्पावर्ड*।

मन जब बंधन में ही हो, गुलाम ही हो, तो ये बाहर-बाहर का एम्पावरमेंट किस काम का है?

प्र: एक कृपा है। जैसे ये ड्रेस्ड-अप (सुसज्जित) भी हैं, मतलब कोई टेढ़े बात नहीं कर सकता, कि कोई इधर-उधर कि बात करे या जोक (मज़ाक) मार दिया देख कर।

आचार्य: ग्रेस, पावर, एज़ वेल एज़ कंपैशन ( कृपा, शक्ति और उसके साथ ही करुणा)।

प्र: जो और दो प्रतिमाएँ हैं (देवी को छोड़ कर), उनके भाव कुछ-न-कुछ हैं, पर उस (देवी के) चेहरे पर?

आचार्य: एक ब्लैंक प्योरिटी , एक पूर्ण-शुद्धता। जिसमें कुछ और नहीं है शुद्धता के अलावा, इसलिए वहाँ कुछ नहीं है, ऐसा है चेहरे पर भाव; भाव का जैसे अभाव हो। आँखें देखो, स्थिर, शांत। न सुख, न दुःख, न भूत, न भविष्य, न पाना, न खोना, न आकर्षण, न विकर्षण; सहज, शांत सौंदर्य।

प्र: इंट्रेस्टिंग (रुचिकर) चीज़ है, व्हेन समवन लुक्स एट हर, यू डोंट फ़ील लाइक शी इज़ अ वुमन (यदि कोई इनकी ओर देखे तो ये नहीं कह सकता कि ये किसी स्त्री की मूर्ति है)।

आचार्य: जिसको तुम आमतौर पर स्त्रीत्व बोलते हो, वो यहाँ नहीं दिखाई दे रही है; यहाँ पर जो सुंदरता है वो लिंग के पार की है। यहाँ पर वो सुंदरता है जिसको तुम कहते हो “सत्यं शिवं सुंदरं।“ उत्तेजित करने वाली सुंदरता नहीं है; शांत कर देने वाली सुंदरता है।

प्र: जो सामाजिक जेंडर स्टीरियोटाइप्स (लिंग-विषयक रूढ़िवादिता) होते हैं, उसके एकदम आगे की।

आचार्य: उसके आगे की; उसके विपरीत नहीं, उसके आगे की।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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